पालिटिक्स के बारे में मेरा अपना एक फलसफा है। लेकिन इसे अभिव्यक्त करने के लिए आंचलिक शब्दों का उपयोग नहीं करूंगा। खड़ी हिंदी में कहूं तो यह कि राजनीति सरल रेखा का अनुगमन नहीं करती है। उसकी चाल बेढ़ंगी ही होती है और मेरे हिसाब से राजनीति के लिए बेढंग होना जरूरी है। वजह यह कि सीधे-सीधे राजनीति की ही नहीं जा सकती और यह बात केवल आज के संदर्भ में नहीं है, बल्कि बहुत पहले से है। हो सकता है कि मोहनजोदड़ो में भी राजनीति ही रही होगी जिसके कारण उसका विनाश हुआ। वर्ना इतनी उन्नत सभ्यता का अंत करीब 850 वर्ष की अल्पायु में होने का कोई और कारण फिलहाल मुझे नहीं मिला है। यह अलग बात है कि कई इतिहासकार इसके लिए प्रकृति को दोष देते हैं।
सियासत आजादी के पहले भी खूब हुई। गांधी सबसे शातिर राजनीतिज्ञ थे। इस वाक्य का सबसे बड़ा प्रमाण पूना पैक्ट है। इस संबंध में एक खबर है जो 24 सितंबर, 1932 को ‘दी बॉम्बे क्रानिकल’ में प्रकाशित हुई। इसी खबर का एक अंश हू-ब-हू रख रहा हूं –
‘मिस्टर सी राजगोपालाचारी ने धन्यवाद प्रस्ताव रखा। उन्होंने कहा, उन्हें स्मरण रखना चाहिए कि महात्मा जी ने अभी तक अपना उपवास तोड़ा नहीं है। उन्हें हवा, पानी और धूप पर रहना पड़ा है। इस समझौते की खुशखबरी उनके लिए पर्याप्त विटामिन है, परंतु समझौते के पालन से ही उनको वह जीवन मिलेगा, जो वे चाहते हैं। उन्होंने डॉ. आंबेडकर में एक कठोर और जिद्दी आदमी देखने की अपेक्षा की थी। किन्तु जिस पल वे उनसे पूना में मिले, और फिर अनेक बार जब गांधी जी से मिलना हुआ, तो उन्होंने उन्हें अपने जैसा ही एक साधारण और अच्छा आदमी पाया। उन्होंने आगे बताया कि महात्मा जी सत्याग्रह के महान प्रयोग में हमेशा सफल हुए, इसी ने डॉ. आंबेडकर को बदला। डॉ. आंबेडकर को अनशन के प्रतिरोधी दबाव ने नहीं बदला था, बल्कि अनशन में ‘सत्य के आग्रह’ ने बदला था। (डॉ.बाबासाहेब आंबेडकर और अछूतों का आंदोलन : स्रोत सामग्री (1915-1956)), अनुवाद : कंवल भारती, आनंद साहित्य सदन, अलीगढ़)
जाहिर तौर पर सी राजगोपालाचारी के उपरोक्त बयान से सियासत को समझा जा सकता है। यह सर्वविदित है कि पूना पैक्ट के समय कैसे आंबेडकर को मजबूर किया गया। लेकिन राजगोपालचारी के शब्दों में यह “सत्य के आग्रह” का परिणाम था।
खैर, कहां मैं इतना पीछे चला गया। मैं तो एक सियासी घर की सियासत को देख रहा हूं। बिहार की तस्वीर बदल देनेवाले लालू प्रसाद के घर की।
हां, 1990 में मुख्यमंत्री बनने के बाद लालू प्रसाद बिहार की तस्वीर बदल दी। मैं जिस तस्वीर की बात कर रहा हूं, वह सामाजिक तस्वीर है। हालांकि सारा श्रेय उन्हें नहीं जाता है, लेकिन सियासत में श्रेय के निर्धारण के कई पैमाने होते हैं। लालू प्रसाद इन पैमानों पर सबसे आगे हैं। वजह यह कि जिन दिनों वह सीएम बने थे तब बिहार के सवर्णों की साजिश यह रही कि वे पिछड़ों को उभरने से पहले ही उनकी साख को खत्म कर दें। ऐसा वे 1977 में कर चुके थे। आपातकाल के बाद जब चुनाव हुए तब कांग्रेस भले ही हार गयी लेकिन मंडल कमीशन को लेकर जयप्रकाश नारायण भड़क गए और उनके इशारे में जनसंघ ने सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया। उस समय कांग्रेस के द्विजों द्वारा यह स्थापित करने की कोशिश कामयाब रही कि गैर कांग्रेसी सरकारें बनायी तो जा सकती हैं, लेकिन चल नहीं सकतीं, क्योंकि सरकार चलाने के लिए विशेष गुणों की आवश्यकता होती है। यही हुआ भी मोरारजी देसाई की सरकार को जनसंघ के ब्राह्मणों और बनियों ने दिया। उसी के तर्ज पर बिहार में भी तब कर्पूरी ठाकुर की सरकार को ध्वस्त कर दिया गया था।
[bs-quote quote=”लालू प्रसाद अलहदा रहे। सीएम बनने के साथ ही उनके समक्ष अपनी सरकार को बनाए रखने की चुनौती थी। एक बार जब मैंने उनका साक्षात्कार किया तब उन्होंने यह बात कही थी कि “मेरी पहली कोशिश सरकार चलाने की थी। यदि मैं सरकार पांच साल तक नहीं चला पाया तो मेरा सारा किया बेकार हो जाएगा। वे यह स्थापित करने में सफल हो जाएंगे कि हम पिछड़ों को राज करना ही नहीं आता।”” style=”style-1″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
निस्संदेह लालू प्रसाद सफल रहे। उन्होंने न केवल पांच वर्षों तक सरकार को बनाए रखा बल्कि दलितों, पिछड़ों को यह यकीन दिलाया कि वे भी सत्ता में हिस्सेदार हो सकते हैं और बागडोर संभाल सकते हैं। नतीजा 1995 में बिहार विधानसभा चुनाव परिणाम के रूप में सामने आया। ऐतिहासिक जीत मिली थी लालू यादव को। वह भी तब जब उनके खासमखास रहे नीतीश कुमार ने उनकी पीठ में खंजर भोंका था।
खैर, यह तो बीते कल की बात है। आज परिस्थिति दूसरी है। नीतीश कुमार 2005 से मुख्यमंत्री हैं। बीच में उन्होंने जीतनराम मांझी को पपेट सीएम बनने का मौका दिया लेकिन जीतनराम मांझी ने जब यह साबित करना शुरू किया कि वे केवल पपेट नहीं हैं, तब नीतीश कुमार ने उन्हें कुर्सी से नीचे धकेल दिया और खुद विराजमान हो गए। लालू प्रसाद सजायाफ्ता हो चुके हैं और फिलहाल जमानत पर हैं। उनके घर में रगड़ा चल रहा है। बड़ा बेटा तेजप्रताप और छोटा बेटा तेजस्वी यादव, दोनों आमने-सामने हैं। मामला पार्टी पर नियंत्रण का है। हालत यह हो गयी है कि तेजप्रताप ने अपने ही छोटे भाई (तेजस्वी के राजनीतिक सलाहकार संजय यादव पर आरोप लगाना तो महज सांकेतिक है) पर हत्या करवाने की साजिश रचने का आरोप लगाया है।
लालू प्रसाद और उनकी पार्टी के नेतागण तेजप्रताप के अजीबोगरीब आचरण के कारण पहले भी असहज होते रहे हैं। लेकिन इस बार संभवत: निर्णायक दौर है। लालू प्रसाद ने अपने सबसे अधिक विश्वासपात्र (अपने बेटे तेजस्वी यादव के बाद) जगदानंद सिंह के हाथों अपने बड़े बेटे को या तो सुधारने का या फिर पार्टी से अलग करने का टास्क सौंपा है। देखना दिलचस्प होगा कि ‘बिना माथा के आदमी’ तेजप्रताप अब क्या चाल चलते हैं।
नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं