शायद आपको भी मालूम हो और शायद हँसी भी आती हो कि बनारस के एक शंकराचार्य गौमाता को राष्ट्रमाता बनाने के लिए आंदोलन करने जा रहे हैं। कितनी अजीब बात है कि गाय को मिथक बनाने, उसकी पवित्रता का गुणगान करने और अब उसे राष्ट्रमाता बनाने की जितनी भी कोशिश की जा रही है वास्तव में गाय का जीवन उतना ही अधःपतन और दुर्दशा का शिकार होता गया है। इसलिए कि गाय किसानों का एक पशु है। कानूनी बाध्यता बनाकर अथवा उसके बारे में झूठा महिमामंडन करके आप गाय का भला नहीं बल्कि बहुत बुरा कर रहे हैं।
लेकिन मामला राष्ट्रमाता का है और यह गौर करने की बात है कि क्या किसी पशु को राष्ट्रमाता बनाया जा सकता है? अथवा इस मांग के पीछे कोई बहुत बड़ी साजिश है? क्या हम भारत की किसी एक स्त्री को ऐसा नहीं पाते हैं जिसे राष्ट्रमाता के सम्मान से नवाजा जा सके? यह बहुत बड़ा सवाल है कि क्या यहाँ एक भी स्त्री है जिसने बहुसंख्यक अनपढ़ बनाकर रखे गए शूद्र-अतिशूद्रों को पढ़ाया हो? क्या एक भी स्त्री है जिसने लड़कियों को स्कूल में आकर पढ़ने की प्रेरणा दी हो? एक भी स्त्री हो जिसने ब्राह्मण विधवाओं के बाल काटकर विधवा की सरेआम पहचान देने की खिलाफत की हो और उनके साथ किए जानेवाले कुकर्मों से उन्हें लड़ना सिखाया हो? उनके लिए प्रसूतिगृह खोला हो? यहाँ तक कि मुखाग्नि देने की पुरुष सत्ता को चुनौती दी हो और अंततः जनता की सेवा करते हुये अपना बलिदान किया हो? आप दिल पर हाथ रखकर सोचिए। एक ही नाम सामने आएगा और वह हैं सावित्रीबाई फुले।
उनसे बड़ा कोई व्यक्तित्व ही नहीं दिखता। बहुत सी स्त्रियाँ हैं जिन्होंने किसी एक क्षेत्र में बड़ा काम करके अपना बड़ा नाम किया होगा लेकिन सावित्रीबाई जैसी अनेक क्षेत्रों में निर्ब्याज काम करनेवाली स्त्री बेशक कोई और नहीं है जिसने जीवन भर सक्रियता से समाज को बदला और जब पुणे में प्लेग के डर से लोग शहर छोडकर भाग रहे थे तब अपनी जान की परवाह न कर रोगियों की सेवा की। यह एक माँ के अलावा कौन कर सकता है। इसलिए वही राष्ट्रमाता हैं। किसी स्त्री विरोधी, दलित विरोधी और संविधानविरोधी शंकराचार्य के सिरफिरे शगूफों और फासिस्ट सरकार की सनक के चलते नारकीय जीवन तक पहुंचादी जानेवाली गाय नहीं।
आज 10 मार्च को हम देश की उसी पहली शिक्षिका और लड़कियों के लिए शिक्षा की अलख जगाने वाली सावित्रीमाई को याद करते हैं। आज से पौने दो सौ साल पहले एक साधारण से घर में एक असाधारण लड़की का जन्म हुआ था, नाम रखा गया था सावित्री। कुल मिलकर उन्होंने 67 वर्ष की ज़िंदगी पाई। प्लेग रोगियों की सेवा करते हुए 10 मार्च 1897 में उनकी मृत्यु हो गई। उन दिनों जब स्त्रियां पर्दे में रहती थीं, जब उन्हें बाहर निकलने की अनुमति नहीं थी, ऐसे समय में 13 वर्ष की उम्र में उन्होंने पहला स्कूल खोला। यह चुनौती आज भी स्त्रियों के सामने है कि तेरह साल की उम्र में वे क्या कर पा रही हैं या तीस-चालीस-पचास की उम्र में उनकी क्या सामाजिक भूमिका है।
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जोतिबा फुले उनसे सात वर्ष पहले 62 वर्ष की उम्र में चल बसे थे। तब सावित्रीबाई ने समाज के खिलाफ जाते हुए उनका अंतिम संस्कार किया था। क्योंकि सावित्रीबाई के रिशतेदारों ने संपत्ति के लालच में उनके दत्तक पुत्र यशवंत राव अंतिम संस्कार करवाने से मनाही कर दी थी।
सावित्रीबाई साहस की मिसाल थीं। जोतिबा फुले के नहीं रहने के बाद उन्होंने ज्योतिबा के शुरू किए हुए विभिन्न कामों को पूरा करने के लिए अपने आपको खपा दिया। जैसे हम कार्ल मार्क्स के जीवन में उनके दोस्त फ़्रेडरिक एंगेल्स की भूमिका देखते हैं वैसे ही भूमिका जोतिबा के जीवन में सावित्रीबाई की है। हमारे देश की किसी भी महिला के लिए इससे बड़ा उदाहरण और दूसरा नहीं हो सकता।
तत्कालीन भारत की स्थिति को देखते हुए, सावित्रीबाई फुले ने महिलाओं की पहली पाठशाला शुरू करने का ऐतिहासिक फैसला लिया। पेशवाई खत्म होने के बाद मनुस्मृति के नियम लागू करने पर ज़ोर था, जिसमें कहा गया कि स्त्रियों को गुरु के पास अध्ययन के लिए जाने की जरूरत नहीं है। पति सेवा ही उसका गुरुकुल और निवास है और रसोई में गृहकार्य करना उसके लिए होमहवन है। यह आदेश हजारों सालों से मनुस्मृति के द्वारा जारी होने के कारण महिलाओं के लिए शिक्षा के दरवाजे हमेशा-हमेशा के लिए बंद हो गए थे। लेकिन महात्मा जोतिबा फुले और उनकी जीवनसंगिनी सावित्रीबाई फुले ने मिलकर 180 साल पहले समाज सुधार के लिए किए गए कामों से मनुस्मृति के खिलाफ सक्रिय रूप से बगावत की। वह भी पुणे जैसे पेशवाई सनातनियों के गढ़ में। यह जबरदस्त सामाजिक क्रांति थी।
और इसी वजह से सनतानियों के तरफ से रोजाना सावित्रीबाई फुले के ऊपर कीचड-गोबर, कंकड़ों की बौछार के बीच चलते हुए अपने स्कूल पहुँचतीं। जहां वे कीचड़-गोबर से सने कपड़े बदलकर, पढ़ाने के लिए जुट जातीं। इससे यह पता लगता है कि समाज के लिए कुछ अच्छा कर गुजरने के लिए उनकी कितनी इच्छा थी।
आज किसी को छोटा-सा ताना मारने की घटना से स्कूल छोड़ देने वाले असंख्य उदाहरण मौजूद हैं। और आज से पौने दो सौ साल पहले रास्ते से जाती हुई महिला पर कतिपय खुरापाती लोग कंकड, कीचड़-गोबर फेंकने का काम रोज करें फिर भी उसे शांत भाव से सहकर अपने स्कूल में जाकर पढ़ाने की साधना कोई असाधारण ही कर सकता है।
तब उन्हें तत्कालीन हिंदुत्ववादियों की जुमलेबाजी से लेकर शारीरिक प्रताड़ना तक सहना पड़ा। आज हमारे देश में राष्ट्रपति के पद से लेकर जीवन के हर क्षेत्र में महिलाओं को पुरुषों के बराबर कंधे से कंधा मिलाकर, काम करने का मौका मिल रहा है। इसके लिए स्त्री-शूद्रों की मुक्तिदात्री सावित्रीबाई फुले के 193 वीं पुण्यतिथि पर विनम्र अभिवादन करता हूँ।
एक सावित्री पुराणों में हैं, जहां उनके द्वारा अपने पति के प्राण तक वापस लाने की कहानी बचपन से ही सुनते आ रहे हैं। यह आधुनिक युग की सावित्री, जिसने स्त्री-शूद्र तथा पददलित लोगों के लिए शिक्षा की शुरुआत की, जिसने निष्ठा के साथ जो काम किया। पुराणों की सावित्री ने खुद के विधवा होने पर पुत्रवती होने का सवाल उठाकर यमराज को निरुत्तर करके अपने पति को वापस पा लिया लेकिन आधुनिक युग की सावित्रीबाई फुले ने नरक की जिंदगी जी रही हजारों विधवाओं की जिंदगी बदल दी। बेशक यह वही कर सकती थीं।
डॉ. बाबा साहब अंबेडकर ने संविधान सभा में पहली बार संविधान की घोषणा की थी तब उसके तुरंत बाद तत्कालीन संघ प्रमुख माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर ने कहा कि ‘वर्तमान संविधान में भारतीयता की कुछ भी बातों का समावेश नहीं है, यह देश-विदेश के संविधानों की नकल करने के बाद एक गुदड़ी जैसा संविधान बनाया गया है। हजारों वर्ष पुराने ऋषि मनु द्वारा लिखित संविधान के रहते हुए इसकी क्या जरूरत है?’ उनके लोग मनुस्मृति का महिमामंडन करने का प्रयास करते रहे, जिसमें महिलाओं को सिर्फ घर की चारदीवारी के अंदर घर के काम करने के लिए कहा गया है।
वर्ष 2031 को माता सावित्रीबाई फुले की द्विशताब्दी मनाई जायेगी। 3 जनवरी 1831 दिन सातारा जिले के, खंडाला तहसील के, नायगाव नाम के देहात में, सावित्रीबाई का जन्म हुआ। मतलब राजा राम मोहन राय के निधन के दो साल और नौ महीने पंद्रह दिनों के पहले। उम्र के नौवें साल में ज्योतिबा फुले के साथ शादी हुई और तुरंत अगले वर्ष उन्होंने नॉर्मल स्कूल शिक्षक प्रशिक्षण 1845-47 के दौरान पूरा करने के बाद 1 जनवरी 1848 के दिन भारत के स्वतंत्रता के 99 साल पहले ही पूना के बुधवार पेठ में, भिड़ेवाड़ा नाम की जगह पर लड़कियों के स्कूल की शुरुआत की और खुद ही शिक्षिका के भूमिका में काम शुरू किया। उनकी पहली छात्राओं में 4 ब्राम्हण, 1 धनगर (भेड़-बकरी चराने वाले समाज से) 1 मराठा लड़की थी। कुल मिलाकर छह छात्राओं जिनके नाम 1.अन्नपूर्णा जोशी 2. सुमति मोकाशी 3. दुर्गा देशमुख 4. माधवी थत्ते 5. सोनू पवार 6. जनी थे।
पांच महीने के बाद, ज्योतिबा फुले ने 15 मई 1848 में महारवाड़ा में (दलितों की बस्ती को मराठी में महारवाड़ा के नाम से संबोधित किया जाता है। दूसरे स्कूल की स्थापना की और उसी साल फुले पति-पत्नी और उनके सहयोगियों ने मिलकर पुणे में ‘नेटिव फीमेल स्कूल’ नाम से शिक्षा संस्था की स्थापना की और इन सब गतिविधियों को देखते हुए, गोविंदराव फुले, जो ज्योतिबा फुले के पिता थे, ने सनातनी लोगों के दबाव के कारण जोतिबा और सावित्रीबाई फुले को 1849 में घर से बाहर निकाल दिया। यही व्यवहार सावित्रीबाई के मायके वालों का भी था।
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जोतिबा के मुस्लिम मित्र उस्मान शेख ने अपने घर में पनाह दी और अपने घर में ही प्रौढ़ स्कूल खोलने की इजाजत दी। इस काम में उनकी बहन फातिमा शेख ने पुणे मे चल रहे शिक्षा के काम में सावित्रीबाई का हाथ बँटाना शुरू किया। 1849-50 के दौरान तीन जिलों पुणे, सातारा और अहमदनगर में भी स्कूल खोलने के बाद यहां पर भी सावित्रीबाई फुले ने शिक्षिका की भूमिका निभाई। 1851 महारवाड़ा के बच्चियों के लिए स्वतंत्र स्कूल की स्थापना की और 3 जुलाई 1851 के दिन पुणे के रास्ता पेठ में लड़कियों के स्कूल की शुरुआत हुई।
1852 मेजर केंडी की अध्यक्षता में अंग्रेज सरकार के तरफ से शिक्षा कार्य के लिये, अभिनंदन समारोह किया गया। स्कूलों के निरीक्षण के बाद सावित्रीबाई फुले को आदर्श शिक्षिका के सम्मान से सम्मानित किया गया। 29 मई 1852 के पूना ऑब्जर्वर नाम के अखबार में प्रकाशित हुआ कि ‘सावित्रीबाई फुले के स्कूलों में सरकारी स्कूलों की तुलना में लड़कियों की संख्या दस गुना ज्यादा है और इसकी मुख्य वजह वहां लड़कियों के लिए शिक्षा की व्यवस्था, सरकारी स्कूलों की तुलना में श्रेष्ठ दर्जें की है।’
सही मायने में डी क्लास, डी कास्ट तथा डी-वुमेन युग की स्त्री थीं सावित्रीबाई फुले। ज्योतिबा के पहले स्मृति दिवस पर होने वाले कार्यक्रम में, जो ओतूर अहमदनगर में आयोजित किया गया था, महात्मा फुले का पहला चरित्र ‘अमरजीवन’ किताब का विमोचन किया गया। साथ ही नवंबर 1892 को उनका दूसरा कविता संग्रह ‘बावनकशी सुबोध रत्नाकर’ का प्रकाशन हुआ।
और 1893 को सासवड पुणे में महात्मा फुले के जाने के बाद सत्यशोधक समाज के अधिवेशन की शुरुआत हुई, जहां सत्यशोधक परिषद सार्वजनिक कार्यक्रम में उन्हें अध्यक्ष बनाया। सार्वजनिक कार्यक्रम की अध्यक्षता का शायद यह उनका पहला मौका था। यह वह समय था जब महिलाओं को घर से बाहर निकलने की मनाही होती थी। यह बात आज से 132 साल पहले की है। सावित्रीबाई फुले के स्वतंत्र व्यक्तित्व और स्त्री-मुक्ति का सर्वोत्तम उदाहरण है।
उधर बंगाल में भी पंडित ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने महिला शिक्षा की शुरुआत 1856-57 में फुले दंपति के दस वर्ष बाद की। इसलिए पहली महिला शिक्षिका तथा महिलाओं के लिए शिक्षा की शुरुआत करने वालों में सावित्रीबाई फुले का नाम पहले आता है।
यही कारण है कि भारत में शिक्षक दिवस पांच सितंबर की जगह तीन जनवरी को मनाया जाना चाहिए। बेशक यह बहुजनों की सत्ता आने के बाद संभव होगा ही। तभी उन्हें भारत की राष्ट्रमाता का गौरव प्राप्त होगा।
हम देश के द्वितीय राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन के प्रति आदर व्यक्त करते हुए कहेंगे कि सही शिक्षक दिवस तो तीन जनवरी ही होना चाहिए क्योंकि सावित्रीबाई फुले ने भारत के इतिहास पहला स्कूल स्थापित किया वह भी लड़कियों के लिए।
1882 के पहले शिक्षा के लिए गठित हंटर कमीशन को शिक्षा के लिए विस्तृत निवेदन महात्मा फुले ने दिया है।
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