राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ओबीसी आरक्षण का जन्मजात दुश्मन रहा है। जब वी.पी. सरकार की ओर से मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने का एलान किया गया था, तब संघ अपने मुख पत्रों ‘पाञ्चजन्य’ और ‘ऑर्गेनाइजर’ में लिखता है कि वीपी सिंह समाज के मंडलकरण के माध्यम से हिन्दुओं को अगड़ी, पिछड़ी और हरिजन जातियों के आधार पर बांटना चाहते हैं।
मंडल आयोग पर संघ का क्या रवैया रहा है, विनय सीतापति अपनी किताब ‘जुगलबंदी’ में लिखते हैं कि अधिकांश उच्च जातियों वाला भाजपा नेतृत्व निजी तौर पर आरएसएस के ओबीसी आरक्षण विरोध से सहमत था। इसी किताब में वे आगे लिखते हैं कि ‘मंडल की घोषणा के 19 दिन बाद 26 अगस्त 1990 को आरएसएस ने दो महीने बाद अयोध्या में मंदिर निर्माण का काम शुरू करने के मकसद से विहिप के अनुष्ठान के लिए समर्थन जुटाने को एक बैठक बुलाई। वहाँ ओबीसी आरक्षण का कोई उल्लेख नहीं किया गया था, लेकिन मंडल की घोषणा न होती तो वो बैठक भी शायद नहीं होती।‘
आरएसएस द्वारा आरक्षण की काट की तैयारी
विनय सीतापति अपनी किताब में लालकृष्ण आडवाणी और प्रमोद महाजन की उस रणनीति का जिक्र करते हैं जो ओबीसी आरक्षण की काट के लिए आरएसएस और विश्व हिंदू परिषद् के समर्थन से बनाई गई थी। इस रणनीति के मुताबिक, एक मिनी बस या मिनी ट्रक को रथ की तरह तैयार किया जाना था। उससे आडवाणी को सोमनाथ से अयोध्या तक 10 हजार किलोमीटर की यात्रा करनी थी।
उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट होता है कि अयोध्या में राम मंदिर की नींव ओबीसी आरक्षण की चेतना को कुंद करने के लिए रखी गई थी। इसमें भाजपा शैक्षणिक और आर्थिक रूप से पिछड़े ‘ओबीसी समाज’ को बरगलाने में कामयाब होती है। उसकी कामयाबी का एक बड़ा कारण ओबीसी आरक्षण में तुरंत क्रीमीलेयर का प्रावधान किया जाना भी था।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत ने संघ समर्थित भाजपा सरकार के एक साल पूरा करने के बाद सितंबर 2015 में आरएसएस के मुखपत्रों ‘पाञ्चजन्य’ और ‘ऑर्गेनाइजर’ को दिए एक इंटरव्यू में कहा था कि आरक्षण की समीक्षा की जरूरत है। यहाँ यह जानना जरूरी है कि मोहन भागवत किस आरक्षण की समीक्षा की जरूरत महसूस करते हैं? संघ और मोहन भागवत को किसकी तरक्की से ज्यादा दिक्कत है? आरएसएस और भाजपा किस समुदाय को प्रतिनिधित्व से वंचित रखना चाहती है?
जब 2015 में मोहन भागवत आरक्षण की समीक्षा की जरूरत महसूस करते हैं, तब तक देश के संविधान में तीन समुदाय के लिए आरक्षण लागू था, जिसमें दलित और आदिवासी समुदाय के लिए 1950 में संविधान लागू होते ही आरक्षण लागू कर दिया गया था जबकि शैक्षणिक और आर्थिक रूप से पिछड़े ओबीसी समुदाय के लिए 1992 में आरक्षण लागू किया गया था।
मोहन भागवत बड़े ही शातिर तरीके से केवल आरक्षण की समीक्षा की जरूरत का जिक्र करते हैं। वे यह नहीं बताते हैं कि दलित और आदिवासी समाज के लिए लागू आरक्षण की समीक्षा की जरूरत है या फिर 22 साल पहले आंशिक रूप से ओबीसी समाज के लिए लागू आरक्षण की समीक्षा की जरूरत है? ओबीसी समाज के लिए आरक्षण आंशिक रूप से इसलिए लागू है क्योंकि देश के तमाम केन्द्रीय संस्थानों एवं विश्वविद्यालयों और उनके छात्रावासों में ओबीसी आरक्षण आज भी लागू नहीं है। देश की राजधानी दिल्ली में स्थित दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रावास इसके जीवंत उदाहरण हैं।
जब भाजपा की मोदी सरकार अपना नौ साल का कार्यकाल पूरा कर लेती है तब मोहन भागवत को आगामी लोकसभा चुनाव 2024 की फिक्र होने लगती है। कारण यह है कि मोहन भागवत की आरक्षण की समीक्षा वाले बयान की वजह से भाजपा बिहार में बुरी तरह से चुनाव हार गई थी। इसीलिए मोहन भागवत को सितंबर 2023 में कहना पड़ता है कि ‘जब तक समाज में भेदभाव है आरक्षण भी बरक़रार रहना चाहिए। संविधान सम्मत जितना आरक्षण है उसका संघ के लोग समर्थन करते हैं।‘ यह मोहन भागवत ही बता पाएंगे कि वे संविधान सम्मत आरक्षण किसे मानते हैं और किसे नहीं?
आरएसएस और भाजपा की कथनी और करनी में कितना भेद होता है, यह राजनीति की थोड़ी-सी भी समझ रखने वाला व्यक्ति आसानी से समझ सकता है। मोहन भागवत ने आरक्षण को लेकर सितंबर 2023 में जो वक्तव्य दिया था, उसे आगामी लोकसभा चुनाव 2024 के लिए एक प्रलोभनकारी या लुभावनकारी वक्तव्य ही माना जा रहा है।
कारण यह है कि संघ शासित भाजपा सरकार मोहन भागवत के सितंबर 2015 वाले बयान पर ही ओबीसी आरक्षण की समीक्षा एवं ओबीसी जातियों के उप-वर्गीकरण के लिए 2017 में रोहिणी समिति गठित करती है। यहाँ तक आते-आते यह स्वतः स्पष्ट हो जाता है कि जब संघ आरक्षण की समीक्षा की जरूरत का जिक्र करता है तो वह केवल ओबीसी आरक्षण को ही ध्यान में रखता है और जो अभी देश के तमाम संस्थानों में कायदे से लागू भी नहीं है। आरएसएस कभी भी जनसंख्या के हिसाब से हिस्सेदारी की बात नहीं करता है। इसीलिए मैं डंके की चोट पर कहता हूँ कि संघ और भाजपा ओबीसी आरक्षण के जन्मजात शत्रु हैं।