इस्तेमाल में न आने वाली घरेलू वस्तुओं को लेकर बेटे से अक्सर तकरार की नौबत आ जाती है। अभी अभी घर की पुताई हो कर चुकी थी। वह चाहता था कि सभी पुराने सामान निकाल दिए जाएं और उनके स्थान पर नए लाए जाएं।
वह थोड़ी देर कमरे में इधर-उधर घूमता रहा जैसे सही वाक्य तलाश रहा हो कि बात किस तरह शुरू की जाए। आखिर वह बोल ही पड़ा।
‘मम्मी! लोग रंगाई-पुताई इसलिए भी कराते हैं कि इसी बहाने घर का कूड़ा-कबाड़ा बाहर निकाल सकें। आप तो कोई सामान हटाती ही नहीं हैं, चाहे वह वर्षों से इस्तेमाल न हुआ हो।’
‘अच्छा कौन सा सामान इस्तेमाल नहीं होता?’
‘यह पिछली बार कब हुआ था?’
बेटे के हाथ में बूंदी बनाने की पौनी थी। ‘मैंने तो कभी देखा नहीं।’
“हमारे एक पारिवारिक मित्र के बेटे ने कम्प्यूटर का बिजिनेस आरंभ किया। वह पार्ट्स खरीद कर लाता था और उसे असेम्बल कर कम्प्यूटर तैयार करता था। यहाँ हमें उम्मीद की किरण नजर आई। पैसे एकमुश्त देने की बाध्यता नहीं थी, अतः थोड़ा-थोड़ा करके पैसे चुकाने की बात करके बेटी के लिए कम्प्यूटर ले लिया गया। अब कॉलेज से आने के बाद उसका अधिकतर समय उसी के सामने बीतने लगा। बाद में मालूम हुआ पढ़ाई के साथ-साथ वह घंटों गेम खेलती थी।”
बेटा सही था। वर्षों से वह पौनी यों ही पड़ी हुई थी, बनी-बनाई बूंदी आ जाती है, घर में झंझट कौन करे! किन्तु उसे फेंक भी तो नहीं सकती। बदलते जमाने के साथ घर की बहुत सी वस्तुएं अपनी प्रासंगिकता खो चुकी हैं और उन्हें रखना-संभालना भी दिनो-दिन मुश्किल होता जा रहा है, लेकिन पाई-पाई जोड़ कर खरीदे हुए सामान से कितना मोह होता है, इसे बेटा कहां समझ पाएगा। वर्षों लगे थे गृहस्थी जोड़ने में। सब कुछ नकद पैसे से खरीदा। आज की तरह किस्तों पर सामान बेचने-खरीदने का प्रचलन नहीं था। एक बार जो सामान खरीदा, उसे कलेजे से लगा कर रखा। याद आता है जब पच्चीस रुपए महीने की किट्टी डाल कर कुकर खरीदा था तो महीनों उसे ऊपर से जूने से नहीं रगड़ा था, ताकि उसकी चमक बरकरार रहे। स्टील की प्लेटों को यथासंभव एक के ऊपर एक नहीं रखती थी जिससे उनमें स्क्रैच न पड़े। इसे ये लोग कहां समझ पाएंगे? इनके बरतन तो महरिनों के हाथ में रहते हैं, जैसे चाहें वैसे मांजें, कोई देखता भी नहीं। मैं विम बार के लिए अपनी कामवाली को टोकती रहती हूं ‘कितना विम लगाती हो? ढंग से धोती नहीं हो, सब पेट में जाता है।’ असल में ‘पेट में जाता है’ तो इस लिए बोलती हूं कि थोड़ा डर जाए, सच्चाई तो यह है मुझे पैसे की बर्बादी की फ़िक्र रहती है। एक दिन मैंने देखा बहू अपनी नई-नई लगी कामवाली को बता रही थी ‘देखो, यहां विम बार रहता है, ले लिया करो।’ मेरी कामवाली तो अभी तक नहीं जानती मैं विम बार कहां रखती हूँ।
‘अच्छा मम्मी सही-सही बताओ इस बार क्या-क्या निकालोगी? पुराने निकालो तो कुछ नए सामान लाने की गुंजाइश बने।’
मैं अवाक् हो कर बेटे का मुंह देखने लगी ‘यह तो बिल्कुल अपने पापा की भाषा बोल रहा है।’ मेरे पति मेरी साड़ियों के लिए यही कहते थे, ‘दे दिला दो किसी को, नई ले आओ। पुरानी साड़ियों का अम्बार लगा कर क्या फ़ायदा!’ किन्तु मुझे संख्या में इतनी साड़ियां चाहिए होतीं, जितनी खरीदने की हमारी औकात नहीं थी। अतः पुरानी साड़ियों को खूब संभाल कर रखती, यह बात अलग है कि उनमें से कितनी तो पहनने योग्य नहीं होती थीं।
‘चलो तुम्हारी बात मान लेती हूँ, बताओ क्या-क्या निकालोगे?’ मैंने हुलसकर कहा। सचमुच मैं भी कभी-कभी सोचती हूँ कि कुछ पुराने सामान हटा देने चाहिए। जगह घेरे पड़े हैं। ‘चलो लिस्ट बनाओ।’
बेटा मेरी ओर हैरान होकर देखने लगा ‘सही कह रही हो न?’
‘‘एकदम! इसमें सही-गलत की क्या बात है?’
वह झट अपना मोबाइल लेकर आ गया। ‘ओएलएक्स पर डाल दूंगा, कोई-न-कोई खरीदार मिल जाएगा, शुरू करो मम्मी।’
‘मैं क्या शुरू करूँ? तुम्हें जो सामान बेकार लगता हो, लिस्ट बना लो।’
‘सबसे पहले मैं लिखता हूँ दीदी का डेस्कटाप, यों तो अब इसे खरीदने वाला कोई शायद ही मिले।’
बेटा बोल रहा था किन्तु मेरे कान कुछ सुन नहीं रहे थे। मेरी आँखों के सामने बीस वर्ष पुराना दृश्य प्रत्यक्ष हो गया जब बड़ी बेटी का एडमिशन एमसीए के लिए कराया था। उसके पास बीएस-सी में कम्प्यूटर साइंस नहीं था, अतः कक्षा में शिक्षकों का पढ़ाया हुआ पूरी तरह समझ में नहीं आता था। अब वह हमसे डेस्कटॉप की मांग करने लगी। उन्हीं दिनों हमारा घर बन रहा था, उसमें काफ़ी पैसा खर्च हो रहा था, अतः हमने बेटी को ही समझाने की युक्ति निकाली। ‘तुम्हारी कक्षा में सबके पास कम्प्यूटर है क्या?’ हमारे प्रश्न के जवाब में वह रोने लगती और रोते-रोते ही बताती कि बहुत से बच्चे ऐसे हैं जिनके पास बीएस-सी में कम्प्यूटर साइंस था, उन्हें मुश्किल नही आती और बहुतों ने खरीद लिए हैं। वह शुरू से अच्छी विद्यार्थी थी, अतः अन्य विद्यार्थियों से वह पीछे रहे, उसे स्वीकार नहीं था। उसका कहना था कि घर में अभ्यास द्वारा वह अपने विषय में सुधार ला सकती थी। इस बात को हम भी समझ रहे थे किन्तु हमारी आर्थिक विवशता आड़े आ रही थी। संयोगवश उन्हीं दिनों हमारे एक पारिवारिक मित्र के बेटे ने कम्प्यूटर का बिजिनेस आरंभ किया। वह पार्ट्स खरीद कर लाता था और उसे असेम्बल कर कम्प्यूटर तैयार करता था। यहाँ हमें उम्मीद की किरण नजर आई। पैसे एकमुश्त देने की बाध्यता नहीं थी, अतः थोड़ा-थोड़ा करके पैसे चुकाने की बात करके बेटी के लिए कम्प्यूटर ले लिया गया। अब कॉलेज से आने के बाद उसका अधिकतर समय उसी के सामने बीतने लगा। बाद में मालूम हुआ पढ़ाई के साथ-साथ वह घंटों गेम खेलती थी।
“संभवतः बेटा मेरी बात से सहमत नहीं हो सका था। वह हो भी नहीं सकता है। उसकी दुनिया तो सिर्फ़ उसके मोबाइल और लैपटॉप तक सीमित है। लिखित शब्दों का क्या सम्मोहन होता है, वह कभी समझ नहीं पाएगा। इसे तो मेरे जैसे ही समझ पाएंगे जिनके जीवन में सबसे महत्वपूर्ण वस्तु पुस्तकें हैं।”
‘कितनी कीमत लिख दूं मम्मी? आप तो न जाने कहाँ खो गईं।’
बेटे की बात से मेरा ध्यान भंग हुआ। ‘एक हजार लिख देता हूँ। कबाड़ी तो दो सौ रुपये से ज्यादा नहीं देगा। हां अब अगला आइटम डेक।‘ ‘डेक’ के साथ ही मुझे वे ढेर सारे मनपसंद गानों के कैसेट्स याद आए जो हमने खरीदे थे। डेक बहुत ही कम इस्तेमाल हुआ था क्योंकि बेटी के कम्प्यूटर ने उसे अपदस्थ कर दिया था और अब वह सीडी बजाया करती थी। डेक से पहले हमने एक सीडी प्लेयर भी खरीदा था जिसे डेक ने अपदस्थ किया था। हमारा मकान बन चुका था और अब बच्चे उसे आधुनिक बनाने के लिए नए-नए इलेक्ट्रानिक वस्तुओं की फरमाइश करते और बहुत बार नाराजगी दिखाकर वे अपनी बात मनवा लेते।
‘मम्मी घर के बाहर बेंत का सोफा कब से पड़ा हुआ है?’
‘जब से मकान बना है।’
‘और इसे भी तुमने सेकण्ड हैंड खरीदा था।’
‘हाँ’
‘तो इसे भी निकालो। कुर्सियां ले आएंगे, कुछ तो बदला हुआ दिखना चाहिए।’
‘तुम्हें जो सामान निकालना हो, निकाल दो। मैं कुछ नहीं बोलूँगी।’
बेटा इस कमरे से उस कमरे में घूमता रहा और उसकी लिस्ट में मेरी पढ़ने की मेज, कुर्सी, टी.वी. ट्राली, पंखा, फोल्डिंग कॉट, फोल्डिंग कुर्सियां बहुत कुछ आ गया।
अब वह स्टोर में गया, उसकी नज़र हारमोनियम पर थी। ‘बजाती हो कभी इसे?’ उसने शिकायत भरी नज़रों से मुझे देखा।
‘‘इससे क्या हुआ? मैं इसे तो नहीं निकालने दूंगी। मेरे पिता जी ने दिया था।’
बेटा नाराज़ हो कर बैठ गया। ‘छोड़ो नहीं निकालता कुछ भी, सब ऐसे ही रहने दो।’
‘अरे नहीं नहीं बाकी चीजें तो निकालो न!’
मेरी पुस्तकों की ओर इशारा करते हुए उसने कहा, ‘मम्मी इन्हें भी निकालना शुरू करो। पूरा कमरा भरा है, कभी पढ़ती भी नहीं होंगी।’
यहाँ भी मैंने बेटे का प्रतिवाद किया। ‘मुझे कभी भी किसी पुस्तक की जरूरत पड़ जाती है, ऐसे कैसे निकाल दूँ?’
संभवतः बेटा मेरी बात से सहमत नहीं हो सका था। वह हो भी नहीं सकता है। उसकी दुनिया तो सिर्फ़ उसके मोबाइल और लैपटॉप तक सीमित है। लिखित शब्दों का क्या सम्मोहन होता है, वह कभी समझ नहीं पाएगा। इसे तो मेरे जैसे ही समझ पाएंगे जिनके जीवन में सबसे महत्वपूर्ण वस्तु पुस्तकें हैं।
‘जब कुछ निकालना नहीं है तो सिर खपाने से क्या फायदा?’ बेटा नाराज होकर बैठ गया था।
अगली पुताई तक के लिए सभी सामान यथावत रख दिए गए!
विद्या सिंह जानी – मानी कथाकार हैं और देहरादून में रहती हैं।
बेहतरीन कहानी।
सबके घरों में पुरानी कुछ न कुछ पुरानी चीजें मिल जाती है। पुराने लोगों की दृष्टि में महत्वपूर्ण होती है किंतु बच्चें उनका महत्व नहीं समझते।
लेखिका को इस कहानी के लिए बहुत बधाई