बिहार के किशनगंज लोकसभा क्षेत्र के किशनगंज शहर से जब आप ठाकुरगंज की तरफ जाने वाली सड़क पर बढ़ते हैं तो चाय के बगान दिखने शुरू हो जाते हैं। चाय के इन बागानों के दिलकश नजारों को जैसे ही आंखें पार करती हैं, खेतों में तैयार हो रहा मक्का दिखने लगता है।
जो लोग इस इलाके से परिचित नहीं, उनके लिए यह सामान्य बात है और कई दफे यह मक्का हब बन जाने की कहानी कहती है। लेकिन जो इलाके को जानते समझते हैं, उन्हें मालूम है कि किशनगंज का सिल्की सपना टूट गया और इस पूरे इलाके को गरीब कर गया।
जैसा कि इलाके की हसीना खातून कहती है, ‘हमने अपने शहतूत के पेड़ उखाड़ दिए हैं। शहतूत की खेती करके 22 दिन में 20 से 30 हजार रूपये कमा लेते थे। लेकिन अब मक्का लगाते हैं, उसी से हमारा घर चलता है। ‘जीविका’ (एक सरकारी योजना) ने आकर सब बंटाधार कर दिया।’
रह गई रेशमी यादें, किसान उपजाने लगे मक्का धान
मोतियारा पंचायत की हसीना खातून जैसे सैकड़ों किसानों के पास रेशम कीट के पालन और कोकून उत्पादन की ऐसी ढेरों यादें है।
किशनगंज के मोतियारा और सिंघिया पंचायत के सैकड़ों गांव में बीते तकरीबन 30 सालों से रेशम की खेती होती रही है। तारिक आलम ने जब से होश संभाला रेशम कीट पालन और कोकून उत्पादन किया।
‘गांव के लोग’ से अपना दर्द बयां करते हुए वे कहते हैं, ‘सरकार से ऑर्डर आया कि खेती करो तो हम लोगों ने खेती चालू कर दी। कोकून तैयार किया, सरकार ने नहीं खरीदा तो मालदा बेच आए। फिर हमने शहतूत की सैपलिंग बनाकर बेची लेकिन अभी तक उसका पेमेंट ही नहीं हुआ। उसमें मेरा साढ़े तीन से चार लाख रुपया फंसा है। सरकार से जब तक पैसा नहीं मिलेगा, आगे खेती कैसे होगी। हम लोगों ने खेती बंद कर दी।’
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बुजुर्ग शफीर के बालों में चांदी, यही रेशमी खेती करते हुए आई है। लेकिन उम्र के इस पड़ाव पर उन्होंने रेशम कीट पालन और शहतूत की खेती छोड़ कर मक्का, धान और सब्जी की खेती अपना ली। उनके घर में रेशम कीट पालन के लिए इस्तेमाल होने वाली ट्रे अब बेकार पड़ी है और अब वो छज्जे पर पड़ा बेमतलब कबाड़ हो गया है।
वे कहते हैं, ‘जीविका वाला आया तो बोला कि खेत में शहतूत लगाओगे तो उसकी देख-रेख के लिए 1500 रुपए मिलेगा। लेकिन एक बीघा में खेती करनी होगी। हम एक बीघा खेत कहां से लाए? हमारे तो पूर्वज यही खेती करते आए, जितना खेत था उतने में खेती करते थे। लेकिन जब यह सब बकवास जीविका वाला करने लगा तो हमने खेत से सारा शहतूत उखाड़ कर फेंक दिया और मक्का धान सब्जी उगाने लगे।’
हब ऑफ रॉ सिल्क के नजदीक है किशनगंज
किशनगंज को अगर भौगोलिक तौर पर देखें तो इसके पश्चिम में अररिया, दक्षिण पश्चिम में पूर्णिया, पूर्व में पश्चिम बंगाल का उत्तर दिनाजपुर जिला और उत्तर में पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिला और नेपाल से घिरा हुआ है।
सीमांचल या पूर्णिया प्रमंडल के इस इलाके की जमीन उर्वर है और यहां खेती में विविधता है। चाय, जूट, मक्का, केला, अनानास, ड्रैगन फ्रूट, मखाना की खेती के साथ-साथ रेशम कीट पालन और कोकून उत्पादन यहां होता रहा है।
पश्चिम बंगाल के मालदा से इस इलाके की दूरी महज 130 किलोमीटर है। मालदा, हब ऑफ रॉ सिल्क के तौर पर मशहूँर रहा है। इस इलाके में मालदा की कई लड़कियां ब्याही गई है।
हरिमन निशा ऐसी ही एक महिला है। वह मालदा की है और शादी होकर मोतियारा में आई है। उन्होंने अपने मायके में ही मालदा में रेशम का धागा तैयार करना 40 साल पहले सीखा था। वे बताती हैं, ‘यहां आए तो कोकून से धागा तैयार करते थे। फिर उसको मालदा बेच आते थे, जहां से यह धागा परदेस चला जाता था। मैंने सिर्फ धागा तैयार करना सीखा और उसको सौ, दो सौ, चार सौ रुपए किलो बेचा था। अब तो सब काम बंद हो गया।
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मुख्यमंत्री कोशी मलबरी परियोजना
मालदा से सटा होने के चलते यहां केन्द्रीय सिल्क बोर्ड ने पहल की। बोर्ड ने किसानों को रेशम की खेती के लिए ट्रेनिंग दी और प्रेरित किया। सिल्क बोर्ड यहां के किसानों को रेशम के कीट, उपकरण और रेशम कीट पालन के लिए घर बनाने के लिए 40,000 रुपए की सहायता देता था। रेशम कीट शहतूत के पत्ते खाते हैं, इसलिए उनकी खुराक की खेती रेशम के कीड़े को पालने वाले किसान करते हैं।
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लेकिन 2015-16 में राज्य सरकार ने मुख्यमंत्री कोशी मलबरी परियोजना शुरू की। इस परियोजना के तहत किशनगंज सहित कोसी इलाके के सात जिले सहरसा, कटिहार, पूर्णिया, अररिया, सुपौल और मधेपुरा में रेशम उत्पादन को बढ़ावा दिया जाना था।
इस परियोजना को लागू करने की जिम्मेदारी राज्य सरकार के पहले से ही संचालित ‘जीविका’ कार्यक्रम पर थी। ‘जीविका’ बिहार सरकार की महत्वाकांक्षी योजना है, जिसमें एक करोड़ 30 लाख ग्रामीण महिलाएं जुड़ी हैं। सरकार जीविका के जरिए महिलाओं के स्वयं सहायता समूह बनाकर, उन्हें आर्थिक आत्मनिर्भर बनाने का दावा करती है।
‘जीविका’ ने यह कार्यक्रम 2020-21 तक जैसे तैसे चलाया। यह वह वक्त था, जब इस योजना का पहला फेज खत्म हो गया। अब आलम यह है कि इस परियोजना का फंड ही नहीं आ रहा है। जबकि परियोजना का मकसद रेशम के कपड़े तैयार करना भी था।
कोकून से धागा उत्पादन केंद्र यानी रीलिंग मशीन भी किशनगंज में लगाई गई थी, लेकिन रेशम कीट पालन ठप्प होने की स्थिति में मशीनें जंग खाने को मजबूर है।
धागा उत्पादन के अलावा रेशम वस्त्र निर्माण के लिए बने भवन पर भी ताला लगा है।
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कोकून उत्पादन घटता रहा साल दर साल
हसीना खातून पैनीसल गांव की जीविका दीदी है। वे रेशम कीट पालन करती आई हैं। उन्होंने भी रेशम कीट पालन छोड़ दिया है और मसाला कुटीर उद्योग चलाती है।
वे बताती हैं, ‘जब मैं पांच साल की थी तो मेरे पापा 150 रूपये किलो कोकून बेचते थे। एक साल में दो बार लाभ लेते थे। लेकिन अब हुआ ऐसा कि ‘जीविका’ जब से आई, तो हम लोग सोचे कि हमें ज्यादा लाभ मिलेगा, घर बार मिलेगा। लेकिन साल 2017 से ही उलझन शुरू हो गई थी, और अब तो काम तमाम हो गया। कोकून में ज्यादा मेहनत नहीं थी। लेकिन अब सारे गांव ने खेती छोड़ दी।’
बिहार राज्य आर्थिक सर्वेक्षण 2022-23 में स्पष्ट लिखा है कि बिहार के 38 में से 14 जिलों में वस्त्र-परिधानों के उत्पादन का काम होता है। वहीं मलबरी रेशम उत्पादन, सहरसा, सुपौल, मधेपुरा, पूर्णिया, अररिया, किशनगंज और कटिहार जिले में होता है जो आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक ‘लगभग गतिरुद्ध’ है।
साल 2017-18 में मलबरी रेशम उत्पादन के लिए 362 हेक्टेयर में पौधारोपण हुआ जो 2018-19 में घटकर 131 एकड़ हो गया। इसी तरह रोगमुक्त अंडा पालन जो 2017-18 में 4.5 लाख था, वह 2018-19 में घटकर 2.2, 2019-20 में 1.2, 2020-21 में 0.9 और 2021-11 में महज 0.7 लाख रह गया। कुल कोकून उत्पादन भी इसी तरह घटा, ये 2017-18 में 138.7 टन था जो 2021-22 में घटकर 20.3 टन हो गया। कच्चा रेशम का उत्पादन भी 2017-18 में 17.2 टन था वह घटकर साल 2021-22 में घटकर महज 1.9 टन रह गया।
चुनावी शोर में नहीं है मखमली सिल्क
बिहार के दूसरे चरण में किशनगंज में चुनाव होने हैं। किशनगंज के अलावा भागलपुर, बांका, पूर्णिया, कटिहार में ही चुनाव होने है जो सिल्क उत्पादन प्रक्रिया से जुड़े हुए जिले हैं।
किशनगंज की बात करें तो यहां कांग्रेस के मोहम्मद जावेद, एआईएमआईएम के अख्तरुल ईमान और जेडीयू के मोजाहिद आलम के बीच त्रिकोणीय संघर्ष है। मोहम्मद जावेद यहां के निवर्तमान सांसद है और यही एकमात्र सीट है जिस पर महागठबंधन ने 2019 के संसदीय चुनावों में कब्जा जमाया था।
किशनगंज शहर में नेताओं का प्रचार दिख जाता है, लेकिन मतदाता चुपचाप हैं। ऐसा लगता है वे नेताओं के साथ-साथ सरकार से भी नाउम्मीद हो चुके हैं। लोकतंत्र के इस सबसे बड़े उत्सव में हाशिए पर पड़े इन किसानों की आवाज भी गुम है और बदकिस्मती से उम्मीदवारो के चुनावी वायदों में भी मखमली सिल्क नहीं है।