तानाशाह… तानाशाह ही होता है। हालांकि उसके भी दो हाथ, दो पैर, दो आंखें और बाकी सब अंग भी अन्य इंसानों के जैसे ही होते हैं। लेकिन तानाशाह इंसानों के जैसा नहीं होता। यह इसके बावजूद कि वह इंसानों का खून नहीं पीता। लेकिन इसका यह मतलब भी नहीं कि वह इंसानों का खून नहीं बहाता। वह अपनी सत्ता को कायम रखने के लिए हर तिकड़म करता है। वह चाहे तो कुछ इंसानों को कुत्ते का पिल्ला कह सकता है या फिर कुछ को कपड़ों से पहचानने की बात कर सकता है। तानाशाह का कोई खास धर्म भी नहीं होता। सत्ता उसके लिए सबसे महत्वपूर्ण होती है और सत्ता की सियासत ही उसका धर्म। तानाशाह हंसता भी और कई बार रोता हुआ भी नज़र आता है।
तो यह तानाशाहों के कुछ गुण हैं। विश्व भर के तानाशाहों में ऐसे ही गुण पाए जाते हैं। लेकिन दिक्कत तब होती है जब अदालतें तानाशाह की तानाशाही से डरने लगें। या फिर अदालतों का पैमाना ‘लोकप्रियता’ हो। कल यही कहा है पूर्व केंद्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने। वर्ष 2002 में गुजरात दंगा मामले में सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के बाद उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लोकप्रियतम की संज्ञा दी है।
सुप्रीम कोर्ट के महान न्यायाधीशों ने न्याय की परिभाषा को ही उलटकर रख दिया है। चूंकि यदि वे यह स्वीकार कर लेते कि एसआईटी की जांच संदिग्ध है तो वे न्याय के पक्ष में खड़े होते। इसका मतलब यह होता कि वे फिर से मामले की जांच कराने का आदेश देते और मुमकिन है कि उपरोक्त सवालों का जवाब तलाशा जाता कि गुजरात में दंगे किसने भड़काये और किसने दंगाइयों को संरक्षित किया।
हालांकि यह बेहद दिलचस्प है कि गूगल ‘हू इज दी मोस्ट स्टूपिड प्राइम मिनिस्टर?’ के जवाब में कुछ और ही बात कहता है।
खैर, जकिया जाफरी की बात करते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तुलना में बहुत कम लोग ही जकिया जाफरी को जानते हैं। इसकी वजह भी है। वजह यह कि इस एक महिला ने जबरदस्त साहस का प्रदर्शन किया है। इनके पति एहसान जाफरी लोकसभा सदस्य रहे थे, जिन्हें गुजरात दंगों के दौरान 2002 में अहमदाबाद में दंगाइयों ने मार डाला था। जकिया तबसे लड़ रही हैं। कुल मिलाकर 64 आरोपितों के खिलाफ। इन आरोपियों में एक नाम नरेंद्र मोदी का भी है, जो उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री थे।
हालांकि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने पूर्व में एक एसआईटी यानी विशेष जांच दल का गठन किया था और उसने सारे आरोपियों को क्लीट चिट दिया था। एसआईटी का निष्कर्ष भी बहुत महत्वपूर्ण था, जिसे कल सुप्रीम कोर्ट के तीन न्यायाधीश न्यायमूर्ति (भूल से भी अन्यायमूर्ति ना पढ़ें) एएम खानविलकर, न्यायमूर्ति दिनेश महेश्वरी और न्यायमूर्ति सीटी रविकुमार की खंडपीठ ने दुबारा उद्धृत किया। यह निष्कर्ष है- ‘राज्य (गुजरात) में अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ सामूहिक हिंसा फैलाने या भड़काने की एक बड़ी साजिश का मामला नहीं बनता है।’
मैं यह नहीं कह रहा कि सुप्रीम कोर्ट के पास इस सवाल का जवाब है या नहीं कि जकिया जाफरी के पति एहसान जाफरी को किसने मारा? एहसान जाफरी को छोड़ते हैं। गुजरात दंगे में जो दो हजार से अधिक मुसलमान मारे गए, क्या उन्होंने व्यापक स्तर पर खुदकुशी की थी?
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इसी बात से एक और बात याद आयी। हालांकि यह मामला भी सुप्रीम कोर्ट के पास पिछले एक दशक से विचाराधीन है और उसके पास जजों की इतनी कमी है कि उसने इस मामले में सुनवाई तक नहीं की है। यह मामला है बिहार में रणवीर सेना के गुंडों द्वारा बाथे, बथानी टोला आदि नरसंहारों का। पटना हाईकोर्ट के महान विद्वान जजों ने भी इन सभी मामलों में आरोपियों को संदेह के आधार पर दोषमुक्त कर दिया था।
बहरहाल, जकिया जाफरी के मामले की बात करते हैं। दरअसल, सुप्रीम कोर्ट के महान न्यायाधीशों ने न्याय की परिभाषा को ही उलटकर रख दिया है। चूंकि यदि वे यह स्वीकार कर लेते कि एसआईटी की जांच संदिग्ध है तो वे न्याय के पक्ष में खड़े होते। इसका मतलब यह होता कि वे फिर से मामले की जांच कराने का आदेश देते और मुमकिन है कि उपरोक्त सवालों का जवाब तलाशा जाता कि गुजरात में दंगे किसने भड़काये और किसने दंगाइयों को संरक्षित किया।
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खैर, मैं जजमेंट की पूरी प्रति को कल देखूंगा। कल इसलिए कि कल रविवार है और मेरे पास पर्याप्त समय होगा इस मामले से जुड़े हर स्तर पर दिये गये न्यायिक फैसले को समझने की। फिलहाल तो केवल इतना ही कि जकिया जाफरी को यह लड़ाई बंद नहीं करनी चाहिए। वे सुप्रीम कोर्ट में ही पुनर्विचार याचिका दायर करें और मुमकिन है कि जब पांच जजों की खंडपीठ या फिर पूर्ण बेंच इस मामले की सुनवाई करे तब न्याय हो।
मैं यह बात इसलिए भी कह रहा हूं क्योंकि मैं आशावादी आदमी हूं। तमाम विसंगतियां होने के बावजूद अदालतों पर यकीन करता हूं। वजह यह कि अदालतों ने अनेक मामलों में इंसाफ किया है फिर चाहे वे मामले तानाशाहों के खिलाफ ही क्यों ना रहे हों।
नवल किशोर कुमार फ़ॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।
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