Saturday, July 27, 2024
होमसामाजिक न्यायजिन्होंने पिछड़ों के लिए कुर्सी गँवाई पिछड़े ही उन्हें कभी याद नहीं...

ताज़ा ख़बरें

संबंधित खबरें

जिन्होंने पिछड़ों के लिए कुर्सी गँवाई पिछड़े ही उन्हें कभी याद नहीं करते!

व्यक्तिगत तौर पर विश्वनाथ प्रताप सिंह बेहद निर्मल स्वभाव के थे और प्रधानमंत्री के रूप में उनकी छवि एक मजबूत और सामाजिक, राजनैतिक दूरदर्शी व्यक्ति की थी। उन्होंने मंडल कमीशन की सिफारिशों को मानकर और लागू करके देश में वंचित समुदायों की शासन-सत्ता में हिस्सेदारी पर मोहर लगा दी। 1987-88 में जब वे बोफोर्स घोटाले […]

व्यक्तिगत तौर पर विश्वनाथ प्रताप सिंह बेहद निर्मल स्वभाव के थे और प्रधानमंत्री के रूप में उनकी छवि एक मजबूत और सामाजिक, राजनैतिक दूरदर्शी व्यक्ति की थी। उन्होंने मंडल कमीशन की सिफारिशों को मानकर और लागू करके देश में वंचित समुदायों की शासन-सत्ता में हिस्सेदारी पर मोहर लगा दी। 1987-88 में जब वे बोफोर्स घोटाले का पर्दाफाश कर राजीव गाँधी मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा देकर बाहर आये तो देश के असंख्य लोगों ने नारा लगाया राजा नहीं फकीर है, देश की तकदीर है। लोगों को वीपी सिंह अपनी आकांक्षाओं के प्रतिनिधि लग रहे थे। अगले आम चुनाव में उनके नेतृत्व में जनता दल को मिली विजय ने इसे साबित भी कर दिया।

लेकिन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रसाद सिंह के मिट्टी के माधो नहीं थे। उन्होंने मंडल कमीशन की सिफारिश के अनुसार ओबीसी को सरकारी सेवाओं में 27 प्रतिशत कोटा की अधिसूचना जारी करवा दिया और रातों-रात सवर्णों व ब्राह्मणवादियों के लिए खलनायक हो गए। उनकी तरफ से ऊँची आवाज में नारे लगाये जाने लगे-  राजा नहीं रंक है, देश का कलंक है, मान सिंह की औलाद है। मुझे बहुत अच्छी तरह याद है। बात 1992 की है, जब वे ग़ाज़ीपुर के लंका मैदान में रामबिलास पासवान, लालू प्रसाद यादव आदि के साथ एक सभा को सम्बोधित करने आये थे। रैली का भाषण शुरू होने से पहले जब बारिश शुरू हुई तो भीड़ भींगने से बचने के लिए इधर-उधर भागने लगी कि तभी वे और लालूजी मंच के पंडाल के बम्बू पर चढ़कर तम्बू खोलकर उतार दिया और मंच के लोग भी भींगने लगे। ऐसा करते ही भीड़ अपने स्थान पर वापस लौट आई और सभा के अंत तक टस से मस नहीं हुई। सभा समाप्ति के बाद उन्होंने संक्षिप्त मुलाकात में कहा कि, लौटनराम हमें जो करना था वह हमने अपनी अंतरात्मा की आवाज़ पर कर दिया, पर इसे बचाना तुम जैसे नौजवानों का सामाजिक धर्म है। मैंने वंचित वर्ग को न्याय देने के लिए कुर्सी की परवाह नहीं की। मैंने जो किया है उससे पूरी तरह आत्मसंतुष्ट हूँ, कोई अपराध बोध नहीं। हाँ, एक बात ज़रूर कुरेदती है कि जिनके लिए मंडल कमीशन को लागू किया, वे भी मंडल विरोधियों के साथ मुर्दाबाद के नारे लगाते रहे। मंडल कमीशन का विरोध सामन्ती हकमार अभिजात्य वर्ग तो कर ही रह था। जो सदियों से पिछडों, वंचितों का हक-अधिकार हड़प रहे थे, उनके पेट मे दर्द तो होगा ही। हमें खुशी है कि वंचित वर्ग को न्याय देने के लिए एक लकीर खींच दिया है।

वीपी सिंह की सादगी और ईमानदारी एक शक्तिशाली हथियार थी, लेकिन यह उनकी कमजोरी भी थी और यही कारण है कि 30 साल बाद कार्यान्वयन का श्रेय उनके चतुर मित्रों ने स्वयं ले लिया लेकिन उन्हें आज तक नहीं दिया। उनमें बहुत तो ऐसे थे जो वास्तव में उस महत्वपूर्ण क्षण में उनसे अलग हो गए थे। इसमें कोई संदेह नहीं है कि मंडल आयोग की रिपोर्ट के कार्यान्वयन के समय शरद यादव और रामविलास पासवान वीपी सिंह के दो सबसे मजबूत सहयोगी थे, लेकिन यह सुझाव देने के लिए कि उन्होंने इन्हें केवल चेकमेट देवी लाल के लिए लागू किया, जो उनके उप-प्रधानमंत्री थे।

मंडल कमीशन की सिफारिश लागू कर सामाजिक न्याय के संघर्ष में मील का पत्थर गाड़ दिया

वीपी सिंह ने प्रधानमंत्री रहते हुए सामाजिक न्याय की दिशा में ऐतिहासिक कदम उठाते हुए मंडल कमीशन की सिफारिशों को देश में लागू कर दिया। वीपी सिंह के इस फैसले से आधी आबादी यानी ओबीसी को सरकारी नौकरियों में आरक्षण मिला, जिससे पिछड़े समुदाय की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक दशा बदल गई। वहीं, दूसरी ओर इसी फैसले की वजह से सवर्ण समाज की नज़र में वे विभाजनकारी व्यक्तित्व बन गए।

मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू करने को लेकर सवर्ण समाज आक्रोशित हो गया। मंडल कमीशन के खिलाफ देश भर में आंदोलन शुरू हो गए। एक समय जो समाज वीपी सिंह को हीरो की तरह देख रहा था, वही समाज उन्हें खलनायक की तरह देखने लगा। उनका विरोध करने वाले मानते हैं कि उन्होंने अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू किया था।

यह भी पढ़ें…

संतराम बी ए आर्यसमाज के भीतर के जातिवाद से दिन-रात लड़ते रहे

सवर्ण समुदाय की नज़र में खलनायक बन गए

वीपी सिंह ने पीएम रहते कुछ ऐतिहासिक कार्यों को अंजाम दिया, जिसके लिए कोई उन्हें नायक तो कोई खलनायक के तौर पर देखता है। ओबीसी का बड़ा तबका उन्हें नायक के तौर पर देखता है, लेकिन उनकी छवि को एक नायक के रूप में स्थापित नहीं कर सका। वहीं, मंडल सिफारिशों को लागू करने के चलते जो लोग वीपी सिंह से नाराज थे, उन्होंने खलनायक के तौर पर उन्हें समाज में पेश किया।

बीजेपी व अन्य विपक्षी दलों का अभिजात्य वर्ग वीपी सिंह से इस कदर नाराज हुआ कि उन्हें सत्ता से बेदखल करने को लेकर सब एक हो गए। यहां तक कि वीपी सिंह के खिलाफ उनके ही स्वजातीय चंद्रशेखर उनके लिए चुनौती बन गए। उन्होंने सवर्णों के भीतर सुलग रहे गुस्से और प्रतिक्रियावाद को भुनाने के लिए इस मौके को लपक लिया। उस समय वीपी सिंह की संयुक्त मोर्चा सरकार बीजेपी की बैसाखी पर चल रही थी। मंडल आंदोलन को खरमंडल करने के लिए बीजेपी ने कमंडल की राजनीति को धार दे दिया। बीजेपी ने संयुक्त मोर्चा की सरकार से समर्थन वापस ले लिया और संसद में विश्वास मत के दौरान उनकी सरकार गिर गई।

देश की आजादी से भूदान आंदोलन तक वीपी सिंह का सफर

1957 में जब भूदान आंदोलन शुरू हुआ तो वीपी सिंह के नेतृत्व में भारी संख्या में जुटे युवाओं को देखकर राजनीतिक पंडितों ने ऐलान कर दिया कि भविष्य का बड़ा नेता उभर रहा है। इस आंदोलन के दौरान उन्होंने अपनी जमीन दान कर दी। इस दौरान तक वह कांग्रेस में शामिल हो चुके थे। इस वक्त तक उत्तर प्रदेश की राजनीति में सबसे ताकतवर नेता बन चुके थे। 1980 में वह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने।

वह दो साल से ज्यादा मुख्यमंत्री रहे और फिर केंद्र सरकार में मंत्रालयों की जिम्मेदारी संभाली। 31 दिसम्बर 1984 को वीपी सिंह केंद्रीय मंत्री बने। इस दौरान वीपी सिंह का टकराव प्रधानमंत्री राजीव गांधी से हो गया और उन्होंने कांग्रेस से अलग अपना सियासी रास्ता चुना और देश के प्रधानमंत्री बने। उन्होंने मंडल कमीशन लागू कर ओबीसी वर्ग को 27 फीसदी आरक्षण दे दिया। इसके बावजूद वीपी सिंह कभी भी पिछड़ी जातियों के नेता नहीं बन पाए और अपने सवर्ण समाज की नज़र में खलनायक तो पूरी उम्र बने रहे।

मण्डल कमीशन की सिफारिश को लागू कर वीपी सिंह ने महामानव के चरित्र का परिचय दिया। यह किसी साधारण और  राजनीतिक लिप्सा में लिप्त नेता के बस का काम नहीं था, इस तरह का निर्णय कोई महानायक और महामानव ही ले सकता था। वीपी सिंह भले ही आज इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन आज भी देश में राजनीति उन्हीं के इर्द.गिर्द घूमती है। जिन जातियों, दलों व नेताओं को पिछड़े, दलित, आदिवासी फूटी आंखों नहीं सुहाते थे, आज वे उनको गले लगाने को मजबूर हैं। वीपी सिंह के ऐतिहासिक निर्णय के कारण ही कल्याण सिंह, उमा भारती, बाबूलाल गौर, शिवराज सिंह चौहान, नीतीश कुमार, जीतनराम मांझी, छन्नी, धामी, अशोक गहलोत, भूपेश बघेल आदि को मुख्यमंत्री की कुर्सी मिली। केजी बालकृष्णन, रामनाथ कोविंद राष्ट्रपति बने और द्रौपदी मुर्मू अगली राष्ट्रपति बनेंगी।

यह भी पढ़ें…

पौराणिक ग्रन्थों पर रोक लगनी चाहिए, जिनसे समाज में डर और विद्वेष पैदा होता है..

विश्वनाथ प्रताप सिंह कहा करते थे कि ‘सामाजिक परिवर्तन की जो मशाल उन्होंने जलाई है और उसके उजाले में जो आंधी उठी है, उसका तार्किक परिणति तक पहुंचना अभी शेष है। अभी तो सेमीफाइनल भर हुआ है और हो सकता है कि फाइनल मेरे जीवन के बाद हो। लेकिन अब कोई भी शक्ति उसका रास्ता नहीं रोक पाएगी।’ वीपी सिंह शुरुआत से ही नेतृत्व क्षमता के धनी रहे। जिसके दम पर वे सत्ता के सिंहासन तक पहुंचे और सामाजिक न्याय की दिशा में ऐतिहासिक कदम उठाकर पिछड़े और वंचित समाज को आरक्षण के दायरे में लाने का काम किया।

विश्वनाथ प्रताप सिंह का जन्म 25 जून, 1931 को उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद जिले में एक राजपूत ज़मींदार परिवार में हुआ था। वह राजा बहादुर राय गोपाल सिंह के पुत्र थे। ऐसे में वीपी सिंह प्रधानमंत्री के तौर पर देश की सत्ता पर काबिज हुए तो भारत ही नहीं बल्कि नेपाल तक के राजपूत समाज ने खुशी में दीप जलाया था। जश्न भी क्यों न मनाए, आजादी के बाद पहली बार कोई राजपूत समाज का नेता भारत का प्रधानमंत्री बना था।

देश की तक़दीर बदलने वाले ‘फ़कीर’ के फैसले ने बदल दी भारत की राजनीति

जो सोचा वह हासिल कर लिया, जो चाहा उसके लिए सबकुछ दांव पर लगा दिया और जब लगा कि जो हासिल हुआ है, वह मंज़िल नहीं सिर्फ़ पड़ाव है, तो वहां से भी रुख़सत हो लिए। इन्हीं बातों को अगर एक शब्द में कहना हो तो आप कह सकते हैं – विश्वनाथ प्रताप सिंह कहते हैं- मानव चेतना को विवादित लोगों के व्यक्तित्व से रोशनी मिलती है। विवादित लोग समाज और राष्ट्र की चेतना पर ऐसा असर छोड़ते हैं, जिसे सदियां याद रखती हैं। यूपी के मुख्यमंत्री और देश के प्रधानमंत्री रह चुके राजा मांडा उर्फ़ विश्वनाथ प्रताप सिंह ऐसे ही राजनेता थे। एक ऐसा नेता, जो राजीव गांधी के सियासी बुलंदियों के दौर में उनसे भिड़ गया और कांग्रेस से इस्तीफ़ा देते वक़्त एक कविता के ज़रिये प्रहार करते हुए कटाक्ष किया- तुम मुझे क्या ख़रीदोगे, मैं बिल्कुल मुफ़्त हूं।

अगोरा प्रकाशन की किताबें किन्डल पर भी…

80 का दशक था। जून की तपती गर्मी में मोटर साइकिल पर सवार वीपी सिंह ने प्रयागराज में चुनाव प्रचार किया। अमिताभ बच्चन उस सीट से इस्तीफा दे चुके थे। 1988 का उपचुनाव था। पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के बेटे सुनील शास्त्री कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ रहे थे। वीपी सिंह ने सिर्फ़ अपनी मेहनत और जुनून के दम पर प्रयागराज सीट पर सांसद का वह उपचुनाव जीत लिया।

1987 के दौर में बोफोर्स तोप घोटाले का जिन्न राजनीतिक और सामाजिक फ़िज़ा में तैर रहा था। भारतीय समाज में कांग्रेस की छवि लगातार ख़राब हो रही थी। वीपी सिंह ने सियासी मौसम और जनता के मूड को भांपते हुए इसका भरपूर फायदा उठाया। उन्होंने कांग्रेस में उस शख़्स को निशाने पर लिया, जो उस दौर में कांग्रेस का चेहरा भी थे और प्रधानमंत्री भी। वीपी सिंह ने सीधे राजीव गांधी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। नौकरशाही और कांग्रेस की सरकार में फैले भ्रष्टाचार के मुद्दों का जनता के बीच प्रचार करने लगे। कुछ समय बाद वीपी सिंह ने कांग्रेस विरोधी नेताओं को जोड़कर राष्ट्रीय मोर्चे का गठन किया। 1989 के चुनाव में वो हो गया, जो वीपी सिंह चाहते थे। कांग्रेस को भारी नुकसान उठाना पड़ा, जबकि वीपी सिंह के राष्ट्रीय मोर्चे को बहुमत वाला जनादेश मिला।

भारतीय जनता पार्टी और वामदलों की मदद से विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री बने। उनके बारे में कहा जाता है कि प्रधानमंत्री पद पर ताजपोशी होने के बावजूद उन्होंने कभी राजीव गांधी को माफ़ नहीं किया। बल्कि पीएम की कुर्सी पर रहते हुए भी कांग्रेस की नीतियों के ख़िलाफ़ प्रचार करते रहे। वीपी सिंह हमेशा से कांग्रेस के दुश्मन नहीं थे। काफी वक़्त तक वे इंदिरा गांधी के करीबी रहे। लेकिन इंदिरा के निधन के बाद राजीव गांधी के साथ उनके वैचारिक और राजनीतिक विचारों का सफ़र नहीं चल सका।

पहला बड़ा फ़ैसला- राजनीतिक भ्रष्टाचार पर प्रहार 

वीपी सिंह ने भ्रष्टाचार को पहली बार राष्ट्रीय राजनीति का मुद्दा बनाया। देश में पहली बार आम चुनाव सरकार के करप्शन के मुद्दे पर लड़ा। राजीव गांधी की कैबिनेट में रहते हुए उन्होंने बोफोर्स और एचडीडब्लू पनडुब्बी सौदों में रिश्वतखोरी का मामला उठाया। एक इंटरव्यू में उन्होंने बताया था कि पनडुब्बी विवाद की जांच के सिलसिले में राजीव गांधी से उनके मतभेद हुए थे। उनकी राजनीतिक मोर्चेबंदी में राजीव गांधी सरकार को इस्तीफा देना पड़ा। मुद्दा जनता के बीच पहुंचा।1989 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस वीपी सिंह से हार गई।

यह भी पढ़ें…

जातिवाद की रात में धकेले गए लोग जिनका दिन में दिखना अपराध है

ओबीसी वर्ग के लिए मंडल कमीशन 

वीपी सिंह ने मंडल कमीशन की रिपोर्ट की एक सिफारिश लागू करके ओबीसी को केंद्र सरकार की नौकरियों में आरक्षण दिया। यह रिपोर्ट 1980 से केंद्र सरकार के पास पड़ी थी। ओबीसी आरक्षण का जब भी ज़िक्र होगा तो दो नाम ज़ेहन में ज़रूर आएंगे- बिन्देश्वरी प्रसाद मंडल और विश्वनाथ प्रताप सिंह। अगस्त 1990 में तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने केंद्र सरकार की नौकरियों में 27 प्रतिशत ओबीसी कोटा लागू करने का ऐतिहासिक ऐलान किया था।

हालांकि, उनके आलोचक बताते हैं कि ये फ़ैसला जल्दबाज़ी में लिया गया था। विरोधी तो यहां तक कहते हैं कि वीपी सिंह ने ये फ़ैसला सामाजिक वजहों से नहीं बल्कि राजनीतिक वजह से लिया था। इसके पीछे दलील यह दी जाती है कि डिप्टी पीएम देवी लाल के इस्तीफे के बाद वीपी सिंह ने सांसदों का समर्थन बरकरार रखने के लिए मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने का फैसला किया था। जबकि एक किताब में दावा किया गया था कि वीपी सिंह ने जल्दबाज़ी में नहीं बल्कि बहुत सोच समझकर वो फैसला लिया था।

वीपी सिंह पर लिखी पत्रकार देबाशीष मुखर्जी की किताब द डिसरप्टर: हाऊ वीपी सिंह शूक इंडिया में बड़ा दावा किया गया है। किताब के मुताबिक, प्रधानमंत्री बनने के कुछ ही हफ्तों में मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू करने के लिए वीपी सिंह ने ग्राउंडवर्क शुरू कर दिया था।

ऐसे लागू किया मंडल कमीशन

1989 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 197 सीटें मिलीं और वीपी सिंह के राष्ट्रीय मोर्चे को 146 सीटें मिलीं। भाजपा, वामदलों ने राष्ट्रीय मोर्चे को समर्थन दिया तब भाजपा के पास 86 और लेफ्ट के पास 52 सांसद थे। राष्ट्रीय मोर्चे को 284 सदस्यों का समर्थन प्राप्त हो गया। प्रधानमंत्री बनते ही वीपी सिंह ने ओबीसी आरक्षण की प्रक्रिया शुरू कर दी। 25 दिसंबर, 1989 को एक ऐक्शन प्लान का ऐलान किया गया। निगरानी के लिए देवी लाल की अगुआई में कमेटी बनाई गई। सामाजिक कल्याण मंत्री राम विलास पासवान ने उनकी मदद की और समाज कल्याण सचिव पीएस कृष्णन की अहम भूमिका थी।

द डिसरप्टर किताब में पीएस कृष्णन के हवाले से लिखा है- कृष्णन (तत्कालीन समाज कल्याण सचिव) ने जनवरी 1990 में चार्ज संभालने के साथ ही एक एजेंडा तैयार किया, एजेंडे में लिखा था कि किन-किन चीज़ों को करना है। इनमें सबसे ऊपर था मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू करना। क्योंकि, केंद्र में मिली-जुली सरकार थी लिहाज़ा यह लंबे वक्त तक स्थिर नहीं रह सकती थी। इसलिए एक-एक पल की कीमत थी। समाज कल्याण सचिव कृष्णन ने 1 मई, 1990 को मंडल रिपोर्ट पर कैबिनेट को एक नोट लिखा। उसमें यह बताया कि रिपोर्ट लागू करने के लिए संसद की मंज़ूरी ज़रूरी नहीं है। इसके लिए सिर्फ़ एक एग्जिक्यूटिव ऑर्डर ही काफी होगा। दूसरे बड़े नौकरशाहों ने कैबिनेट के सामने इस पर आपत्ति भी जताई, लेकिन कृष्णन ने उन सबकी दलीलें ख़ारिज कर दीं। उसके बाद देश में वो हुआ, जिसकी कल्पना करना किसी के लिए भी मुमकिन नहीं था। 7 अगस्त, 1990 को मंडल कमिशन की सिफ़ारिशें लागू हुईं। केंद्र सरकार की नौकरियों में 27 फ़ीसदी ओबीसी आरक्षण पर मुहर लगी।

अगोरा प्रकाशन की किताबें किन्डल पर भी…

इसके बाद दिल्ली यूनिवर्सिटी से लेकर इलाहाबाद यूनिवर्सिटी तक और यूपी समेत देशभर में मंडल कमीशन के आरक्षण वाले फ़ैसले का विरोध होने लगा। कई छात्रों ने इसे सामान्य वर्ग के हक़ को सियासी आग में फूंकने वाला फ़ैसला बताया, तो किसी ने अगड़ों के अधिकारों को दफ़न करने की राजनीतिक साज़िश क़रार दिया। वीपी सिंह को भी नहीं मालूम था कि अब उनके साथ क्या होने वाला है।

बीजेपी के लिए खड़ी हुई मुश्किल

वीपी सिंह का मंडल आयोग देश और समाज में ऐसी सोशल इंजीनियरिंग बन गया, जिसका विरोध करना किसी भी राजनीतिक दल के लिए असंभव था, क्योंकि, उस दौर में भी सियासत से लेकर सड़कों तक और राम मंदिर आंदोलन से लेकर वीपी सिंह की सरकार तक ओबीसी जनता और उनके नेताओं की हैसियत इतनी थी कि कुछ भी करना उनके लिए नामुमकिन नहीं था। लेकिन, उस दौर में अगड़ों की पार्टी कहलाने वाली बीजेपी बेचैन थी, क्योंकि वह वीपी सिंह के साथ सरकार में थी, फिर भी उनका मंडल कमीशन वाला फ़ैसला बीजेपी के तब के वोटर के सामाजिक पैमाने को अखर रहा था।बीजेपी को अपना जनाधार खिसकने से रोकने के लिए मंडल के मुक़ाबले फ़ौरन कमंडल वाला दांव चलना पड़ा।

मंडल आयोग लागू होने के क़रीब डेढ़ महीने बाद ही 25 सितंबर, 1990 को लालकृष्ण आडवाणी ने सोमनाथ से राम रथयात्रा निकाली। आडवाणी का रथ उस दिशा में बढ़ रहा था, जहां से वीपी सिंह सरकार के दरवाजे बंद होने की तैयारी हो रही थी। लालू यादव और मुलायम सिंह दोनों वीपी सिंह के साथ थे। मुलायम यूपी के मुख्यमंत्री थे और लालू प्रसाद यादव बिहार के। आडवाणी की रथयात्रा मुज़फ़्फ़रपुर पहुंची। वीपी सिंह तक ये संदेश पहुंचा कि अगर आडवाणी रथ लेकर 30 अक्टूबर, 1990 को अयोध्या पहुंच गए, तो अनर्थ हो सकता है। बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू यादव ने 23 अक्टूबर, 1990 को आडवाणी की रथयात्रा रुकवाई और उन्हें गिरफ़्तार करा दिया। आडवाणी की गिरफ़्तारी के बाद अयोध्या में कारसेवक बेचैन होने लगे। मुलायम सिंह सरकार ने 30 अक्टूबर को उग्र हो रहे कारसेवकों पर गोलियां चलवा दी। 5 लोगों की मौत हो गई। यूपी से लेकर देश में अस्थिरता का मौहाल बनने लगा। आख़िरकार बीजेपी के पास कोई चारा नहीं बचा। मंडल के जवाब में शुरू की गई कमंडल की राजनीति पिछड़ गई। अब बीजेपी ने वीपी सिंह को जवाब देने के लिए 10 नवंबर, 1990 को वीपी सिंह की सरकार से समर्थन वापस ले लिया। उस दौर की मीडिया रिपोर्ट्स में 11 महीने बाद ही पीएम की कुर्सी छोड़ने के लिए मजबूर हुए वीपी सिंह ने इस पूरे मामले पर सिर्फ़ इतना ही कहा था- मैं प्रधानमंत्री बन गया तो अनिष्ट ही हुआ मानिए। इसलिए इस सवाल पर बहस यहीं खत्म हो तो बेहतर।

लेकिन, यह भी सच है कि प्रधानमंत्री रहते हुए वीपी सिंह ने जो कर दिया, वैसा किसी भी दौर में किसी के लिए सोच पाना भी संभव नहीं है। ओबीसी आरक्षण पर मंडल कमीशन की रिपोर्ट को हाथ लगाने की हिम्मत किसी में नहीं थी। वीपी सिंह की सरकार ने इसे सामाजिक विषमताओं से भरे देश में लागू करके दिखा दिया। भारत में सोशल-इकॉनामिक स्ट्रक्चर से संबंधित इस फैसले ने सबको हिलाकर रख दिया। ये सब कुछ बदलने वाला फैसला था। यहीं से यूपी में मुलायम सिंह यादव और बहुजन समाज पार्टी से कांशीराम उभरे।

यूपी की सियासत तब ऐतिहासिक करवट लेने लगी थी

वीपी सिंह ने मंडल आयोग के मुद्दे पर खुद कहा था- यह वो मैच है, जिसमें गोल करने में मेरा पांव ज़रूर टूट गया, लेकिन गोल तो मैंने कर ही दिया। वीपी सिंह अपने शुरुआती दौर में भारतीय मध्यम वर्ग और मीडिया को खूब पसंद आए। अखबार और पत्रिकाएं उन पर फिदा थीं। उनके द्वारा उठाए गए मुद्दों की गूंज दूर तक सुनाई देती थी। लेकिन, मंडल कमीशन लागू होते ही ये सब बदल गया। मध्य वर्ग और मीडिया का समर्थन खत्म होते ही वीपी सिंह समाज और मीडिया में विलेन के रूप में पेश किए जाने लगे। वे अपने दौर के उन नेताओं में हैं, जिनसे सबसे ज्यादा नफरत की गई और जिनका सबसे ज़्यादा मज़ाक उड़ाया गया।

उन्होंने सांप्रदायिकता से कोई समझौता नहीं किया

पीएम की कुर्सी गंवाकर मंडल आयोग का ख़ामियाज़ा भरने वाले वीपी सिंह ने कहा था- ‘मंडल कमीशन पर फैसले से पहले मेरे किए गए हर काम महान थे और इसके बाद के सारे काम देशविरोधी करार दिए गए। कुछ भी किया जाए तो उसकी एक कीमत होती है। ये नहीं होता कि आपने कुछ किया और बाद में अफसोस करने लगे। मंडल लागू किया तो उसका दाम भी देना पड़ा।’ हालांकि, वीपी सिंह के फ़ैसले को लेकर एक बात आज भी अनसुलझी है कि उनके इस कदम से सवर्णों का बड़ा हिस्सा हमेशा के लिए उनसे नाराज़ हो गया। लेकिन पहेली यह है कि देश के ओबीसी ने उन्हें गर्मजोशी के साथ क्यों नहीं अपनाया?

यह भी पढ़ें…

मुहावरों और कहावतों में जाति

बहरहाल, बीजेपी के बाहरी समर्थन से सरकार चलाने के बावजूद सांप्रदायिकता से उन्होंने कभी समझौता नहीं किया। मंडल कमीशन के जवाब में आडवाणी की रथयात्रा को उन्होंने सांप्रदायिक उन्माद माना और फिर उसके बाद जो कुछ हुआ, वह सियासी कालखंड का रोचक और रोमांचक इतिहास बनकर रह गया। 80 के दशक में संजय गांधी देश की राजनीति में असरदार तरीके से उतर चुके थे। उन्होंने अपने अंदाज़ में चार राज्यों के मुख्यमंत्री तय किए। एमपी में अर्जुन सिंह, हिमाचल प्रदेश में वीरभद्र सिंह, महाराष्ट्र में वाईबी चव्हाण और यूपी में विश्वनाथ प्रताप सिंह की ताजपोशी करवाई।

वादे पर खरा नहीं उतरे तो छोड़ी कुर्सी

वीपी सिंह अपने निजी स्वभाव और राजनीतिक रसूख को लेकर ऐसे नेता थे, जिन्हें दायरे कभी क़ुबूल नहीं थे। यूपी के मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने जो वादा किया था, उस पर खरा नहीं उतर पाए, तो अपनी कुर्सी क़ुर्बान कर दी। 1982 में यूपी के मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए उनके सामने ऐसे हालात बने, जब एक घटना के बाद ख़ुद ही उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया। वह किस्सा भी यूपी समेत देश की सियासत में मिसाल है। 80 के दशक में यूपी-एमपी के बॉर्डर एरिया और यूपी के कुछ हिस्सों में अपहरण की घटनाएं सरकार और कानून व्यवस्था के लिए बड़ी चुनौती बन चुकी थीं। यूपी का मुख्यमंत्री बनने के बाद वीपी सिंह ने जनता से वादा कर दिया कि अगर डाकुओं को ख़त्म नहीं कर पाया तो इस्तीफ़ा दे दूंगा। उत्तर प्रदेश में उस वक्त डाकुओं का आतंक बहुत बढ़ गया था। फूलन देवी का गिरोह भी काफ़ी सक्रिय था।

डाकुओं को काबू करने के बीच एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना हुई। वीपी सिंह के भाई को ही डाकुओं ने अपहरण करके मार दिया। वे जंगल घूमने गए थे। हालांकि यह अनजाने में हुआ था। लेकिन, डाकुओं को अंदाज़ा नहीं था कि यह मुख्यमंत्री के भाई हैं।वीपी सिंह ने दुखी होकर मुख्यमंत्री के पद से रिज़ाइन कर दिया।

यह भी पढ़ें…

मुहावरों और कहावतों में जाति

कहते हैं कि वीपी सिंह परिवार में बच्चों को लेकर कभी-कभी सख़्त लहजा अख़्तियार कर लेते थे। हालांकि, ऐसा वो सिर्फ़ इसलिए करते थे ताकि बच्चे अनुशासन में रहना सीखें। वीपी सिंह के मंडल आयोग लागू करने से देश के लाखों लोगों का जीवन बदल गया, लेकिन उनके अपने जीवन में एक ख़ामोश तूफ़ान घर कर गया। वे समाज और सियासत में बिल्कुल अकेले पड़ गए। चुनाव दर चुनाव उनका राजनीतिक दायरा सिमटता चला गया। जीवन के आख़िरी दौर में वे कविताएं लिखते और पेंटिंग्स बनाते। सांप्रदायिक हिंसा के मुद्दों का विरोध करते हुए अनशन के दौरान उनकी किडनी पर बुरा असर पड़ा। कैंसर उन्हें पहले से ही था। 27 नवंबर, 2008 को दिल्ली के एक हॉस्पिटल में उनका निधन हो गया। उनके निधन पर भी मंडल आयोग का साया साथ रहा। जो कभी मीडिया के हीरो हुआ करते थे, उनकी अंतिम विदाई की ख़बर का दायरा इतना संकुचित था कि न बहुत शोक मनाया गया, ना शोक संताप में बहुत कुछ लिखा गया।

विश्वनाथ प्रताप सिंह, यूपी के उस मुख्यमंत्री और देश के उस प्रधानमंत्री का नाम है, जिसकी बदौलत हमारे मौजूदा समाज में पिछड़ों को पहली कतार में लाने का आरक्षण वाला करिश्मा मुमकिन हो सका था। लेकिन विडंबना देखिए, इसी बात के लिए अगड़ों ने उन्हें मरने के बाद भी माफ नहीं किया और ओबीसी नेताओं को उनकी कोई ज़रूरत नहीं रह गई थी। इसलिए, उन्होंने भी वीपी सिंह को याद करना मुनासिब नहीं समझा। इन सबके बावजूद वीपी सिंह ने अपने राजनीतिक जीवन में विवादों की तमाम पृष्ठभूमि के बीच वो इतिहास लिख दिया, जिसे आप पसंद करें या ना करें, नज़रअंदाज़ कर ही नहीं सकते। विश्वनाथ प्रताप सिंह जिन्हें अधिकतर लोग वीपी सिंह के नाम से जानते हैं, वह 7 अगस्त, 1990 के बाद से भारत के उन चुनिंदा राजनेताओं में से एक रहे हैं जिन्हें यहां के ‘संभ्रांत’ समाज ने सबसे अधिक गालियां दीं और उनके निधन के लगभग 14 वर्षों के बाद भी इस समाज ने उन्हें माफ नहीं किया। हालांकि इससे पहले उन्हें मिस्टर क्लीन कहा जाता था और काशी के ब्राह्मणों ने वास्तव में उन्हें ‘राजर्षि’ की उपाधि से सम्मानित किया था।

अगोरा प्रकाशन की किताबें किन्डल पर भी…

और 7 अगस्त, 1990 को नायक से खलनायक बना दिए गए वीपी सिंह..

7 अगस्त, 1990 को संसद में मंडल आयोग की रिपोर्ट की स्वीकृति उसके बाद से राजनीतिक टिप्पणीकारों ने उन्हें नायक से खलनायक बना दिया और फिर उन्हें भुलाने के पूरे प्रयास किए और उनके केवल उस हिस्से को याद रखा जो उनके लिहाज से ‘जातिवादी’ था। यह कोई आश्चर्य नहीं है मंडल आंदोलन के दौरान उत्तर भारत की सड़कों पर पैदा हुई ‘अराजकता’ के अलावा कुछ भी याद नहीं था लेकिन उस अराजकता को हमारे मीडिया ने देश पर ‘अत्याचार’ और ‘अन्याय’ बताया। विश्वनाथ प्रताप भारत के सबसे बड़े ‘जातिवादी’ हो गए जिन्होंने एक ‘सेक्युलर देश में ‘जाति’ का सवाल खड़ा करके ‘भोली भाली’ सवर्ण आबादी का सबसे बड़ा नुकसान कर दिया। लेकिन सबसे दुखद बात यह है कि सवर्ण या सवर्ण नेता, बुद्धिजीवी और राय बनाने वालों ने तो वीपी को ‘मंडल पाप’ के लिए जिम्मेदार माना ही, इससे लाभान्वित होने वाले ओबीसी नेताओं ने न तो उनकी परवाह की और न ही उनको इसके लिए कोई क्रेडिट दिया।

आश्चर्य तो यह है कि मंडल के 30 वर्षों बाद भी बाकी सभी नेता इसका क्रेडिट ले रहे हैं लेकिन वीपी सिंह को ये क्रेडिट देने के लिए तैयार नहीं हैं जिसके फलस्वरूप उनकी राजनीति संभवतः खत्म ही हो गई।

अगोरा प्रकाशन की किताबें किन्डल पर भी…

एक कार्यक्रम में वीपी ने कहा था कि, मैंने अपना पैर भले ही तुड़वा लिया लेकिन मैं गोल करने में कामयाब हो गया। अब सभी राजनीतिक दलों को मंडल-मंडल का जाप करना होगा।

सादगी और ईमानदारी उनका एक हथियार भी थी और कमजोरी भी

वीपी सिंह की सादगी और ईमानदारी एक शक्तिशाली हथियार थी, लेकिन यह उनकी कमजोरी भी थी और यही कारण है कि 30 साल बाद कार्यान्वयन का श्रेय उनके चतुर मित्रों ने स्वयं ले लिया लेकिन उन्हें आज तक नहीं दिया। उनमें बहुत तो ऐसे थे जो वास्तव में उस महत्वपूर्ण क्षण में उनसे अलग हो गए थे। इसमें कोई संदेह नहीं है कि मंडल आयोग की रिपोर्ट के कार्यान्वयन के समय शरद यादव और रामविलास पासवान वीपी सिंह के दो सबसे मजबूत सहयोगी थे, लेकिन यह सुझाव देने के लिए कि उन्होंने इन्हें केवल चेकमेट देवी लाल के लिए लागू किया, जो उनके उप-प्रधानमंत्री थे। कैबिनेट से बर्खास्त होने का मतलब है कि हम आदमी और उसकी ईमानदारी के बारे में ज्यादा नहीं जानते हैं।

अगोरा प्रकाशन की किताबें किन्डल पर भी…

मार्च 1990 तक जब देवीलाल की अध्यक्षता वाली कमिटी ने कोई काम नहीं किया तो वीपी ने रामविलास पासवान से बातचीत कर इस बात को आगे बढ़ाने के लिए काम करने को कहा। नेता लोग तो अपनी राजनीतिक स्थितियों के अनुसार बात करते हैं लेकिन मंडल सिफ़ारिशों के लागू होने के सबसे बड़े गवाह थे पीएस कृष्णन, जो उस समय केन्द्रीय समाज कल्याण मंत्रालय के सचिव थे और आरक्षण और दलितों के अधिकारों के प्रश्न पर काम करने वाले लोगों में सबसे विश्वसनीय व्यक्ति थे, वह बताते हैं कि उन्हें पता था कि इस सरकार का कार्यकाल बहुत लंबा नहीं होने वाला, इसलिए उन्होंने 1 मई, 1990 को कैबिनेट के लिए एक नोट में ये बात रखी थी कि इसके लिए केवल एक शासनादेश की आवश्यकता है, संसद जाने की ज़रूरत नहीं है, लेकिन बड़े अधिकारियों ने शायद इससे सहमति नहीं व्यक्त की। फिर भी यह नोट वीपी सिंह के पास पहुँच गया और उन्होंने तुरंत ही राज्यों को इस संदर्भ में लिख दिया। हालांकि, मंडल लागू करने का आधिकारिक फैसला 2 अगस्त, 1990 को लिया गया।

कृष्णन कहते हैं, ’16 नवंबर, 1992 को जब सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा साहनी वाले केस में मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू करने के केंद्र सरकार के निर्णय को संवैधानिक तौर पर सही माना तो वीपी सिंह ने उन्हें फोन करके बताया- यदि मैं अभी मर भी गया तो मैं अपने जीवन से संतुष्ट होकर मरूँगा।

अगोरा प्रकाशन की किताबें किन्डल पर भी…

गाँव के लोग
गाँव के लोग
पत्रकारिता में जनसरोकारों और सामाजिक न्याय के विज़न के साथ काम कर रही वेबसाइट। इसकी ग्राउंड रिपोर्टिंग और कहानियाँ देश की सच्ची तस्वीर दिखाती हैं। प्रतिदिन पढ़ें देश की हलचलों के बारे में । वेबसाइट की यथासंभव मदद करें।

लोकप्रिय खबरें