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भाजपा की हार सुनिश्चित करने के लिए जरूरी है सामाजिक न्यायवादी विजन

कर्नाटक चुनाव की सफलता के बाद आत्मविश्वास से लबरेज राहुल गाँधी पासपोर्ट की क़ानूनी अड़चनों को पार कर मई में अमेरिका पहुंचे। अपनी छह दिवसीय अमेरिका यात्रा के दौरान उन्होंने एनआरआई समुदाय, व्यापारिक नेताओं, छात्रों और मीडियाकर्मियों से संवाद किया। उनकी यात्रा इतनी चर्चित रही कि उस पर चर्चाएँ आज भी जारी हैं। इस यात्रा […]

कर्नाटक चुनाव की सफलता के बाद आत्मविश्वास से लबरेज राहुल गाँधी पासपोर्ट की क़ानूनी अड़चनों को पार कर मई में अमेरिका पहुंचे। अपनी छह दिवसीय अमेरिका यात्रा के दौरान उन्होंने एनआरआई समुदाय, व्यापारिक नेताओं, छात्रों और मीडियाकर्मियों से संवाद किया। उनकी यात्रा इतनी चर्चित रही कि उस पर चर्चाएँ आज भी जारी हैं। इस यात्रा में उन्होंने विभिन्न तबकों से संवाद के दौरान जो कुछ कहा, उसे लेकर भाजपा के बुद्धिजीवी और नेताओं ने उनकी आलोचना में अतीत के सारे कीर्तिमान ध्वस्त कर दिए। उनका आरोप है कि राहुल गाँधी ने हालिया यात्रा में देश की छवि ख़राब करने के साथ मुस्लिम तुष्टिकरण को नई ऊँचाई दी है। किन्तु भाजपा से इतर बाकी लोग इस यात्रा में उनका परिपक्व रूप देखकर अभिभूत हुए बिना न रह सके। उनकी अमरिकी यात्रा पर गैर-भाजपाई लोगों की भावना का सही प्रतिबिम्बन शिवसेना के संजय राउत के इन शब्दों हुआ- ‘उन्हें (राहुल गाँधी) वहां बहुत अच्छी प्रतिक्रिया मिल रही है। उनके भाषण में बड़ी संख्या में लोग शामिल हो रहे हैं। राहुल गांधी, सचिन तेंदुलकर और विराट कोहली की तरह शानदार फॉर्म में हैं। एक सांसद के रूप में अयोग्य होने और अपना आधिकारिक बंगला खाली करने के बावजूद, राहुल गांधी स्थिति को अच्छी तरह से संभाल रहे हैं।’ अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत के बारे में राहुल गांधी के भाषणों पर आगे टिप्पणी करते हुए राउत ने कहा है कि ‘गांधी के देश में जो हो रहा है, उसके बारे में बोलते हैं। मोदीजी ने 2014 से पहले और बाद में जो कुछ भी किया, राहुल गांधी देश के बाहर उसी के बारे में बोलते हैं!’ बहरहाल, अमेरिका के तीन शहरों की यात्रा में उनका हर संबोधन ही खास रहा। किन्तु इस लेखक के मुताबिक सांताक्रूज में यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के सिलिकन वैली कैंपस में अपने प्रतिपक्षी भाजपा के विषय में कही गई उनकी बात बेहद खास रही।

[bs-quote quote=”भाजपा की सबसे बड़ी कमजोरी सामाजिक न्याय का मुद्दा है, यह शत-प्रतिशत राजनीतिक विश्लेषक और समाज विज्ञानी ही मानते हैं। यदि चुनाव को सामाजिक न्याय की पीच पर केन्द्रित किया जाए तो वह हारने के लिए अभिशप्त रहती है, इसमें शायद ही किसी को संदेह हो। चुनाव को सामाजिक न्याय पर स्थिर कर विपक्ष मोदी राज में दो बार इतिहास रच चुका है, यह इतिहास पन्नों में दर्ज हो चुका है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

भाजपा को हराने के लिए विपक्षी एकता काफी नहीं

कर्नाटक चुनाव परिणाम सामने आने पार भाजपा से त्रस्त नेताओं और बुद्धिजीवियों की सोच में बड़ा बदलाव आया और लोग 2024 में भाजपा की विदाई के प्रति कुछ ज्यादे ही आशावादी होने लगे थे। राहुल गाँधी ने सांताक्रूज में यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के सिलिकन वैली कैंपस में इस खुशनुमा ख्याल पर ब्रेक लगा दिया। हालांकि उन्होंने भी औरों की तरह माना कि भाजपा को हराना असंभव तो नहीं है! उन्होंने कहा कि 2024 के आम चुनावों में एकजुट विपक्ष होने के अलावा, देश को सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी को हराने के लिए एक वैकल्पिक दृष्टि की आवश्यकता है। विपक्षी एकता के मामले में, हम इस दिशा में काम कर रहे हैं और यह बहुत अच्छी तरह से आ रहा है। लेकिन मुझे लगता है कि भाजपा को हराने के लिए विपक्षी एकता से कहीं ज्यादा और कुछ की जरूरत है। मुझे लगता है कि आपको बीजेपी के लिए एक वैकल्पिक विजन की जरूरत है। भारत जोड़ो यात्रा का हिस्सा इस तरह के विजन को प्रस्तावित करने में पहला कदम था। यह वह दृष्टिकोण है, जिसके साथ सभी विपक्षी दल गठबंधन कर रहे हैं। कोई भी विपक्षी दल भारत जोड़ो यात्रा के विचार से असहमत नहीं होगा।’ 2024 को दृष्टिगत रखते हुए यह बहुत मूल्यवान राय है। कर्णाटक चुनाव के बाद आमतौर पर लोगों में धारणा बनी है कि विपक्ष यदि सही तरीके से एकजुट हो जाए तो 2024 में भाजपा की हार पक्की है। लेकिन भाजपा के खिलाफ उपयुक्त दृष्टिकोण/ विजन पेश किए बिना विपक्षी एकता प्रभावी नहीं हो सकती, यह अन्य कई चुनावों के साथ लोकसभा चुनाव 2019 ने आँख में उंगली डाल कर दिखा दिया था।

वैकल्पिक विजन शून्य महागठबंधन की विफलता की मिसाल बना यूपी

देश के राजनीति की दिशा तय करने वाले यूपी में सपा-बसपा का अनंत प्रभाव रहा है। नई सदी में 2017 के पूर्व अधिकांश समय तक यही दोनों पार्टियां प्रदेश की सत्ता में रहीं। किन्तु भाजपा से बढ़ते प्रभाव को ध्यान में रखते हुए, दोनों पार्टियां दो दशक से अधिक पुरानी शत्रुता भूलकर 2019 के लोकसभा चुनाव में एक-दूसरे के करीब आईं और भाजपा के खिलाफ एक महागठंधन बनायीं, जिसमें बसपा और सपा के अतिरिक्त उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय लोकदल, आंध्र प्रदेश एवं तेलंगाना में जनसेना पार्टी, हरियाणा में लोकतंत्र सुरक्षा पार्टी, आंध्र प्रदेश में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के साथ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) एवं पंजाब तथा अन्य राज्यों में भी छोटे-छोटे दल शामिल रहे। यद्यपि इस महागठबंधन का विस्तार मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, पंजाब, आंध्र प्रदेश सहित अनेक राज्यों तक था, किन्तु, दोनों पार्टियों के समर्थकों सहित ढेरों राजनीतिक विश्लेषकों ने आँख मूंदकर कम से कम यूपी में भाजपा के सफाए की घोषणा कर दी थी। पर, जब चुनाव परिणाम सामने आया तो देखा गया कि भाजपा ने जबरदस्त सफलता अर्जित की है। जिस यूपी में सपा-बसपा गठबंधन के स्वीप करने की उम्मीद थी, वहां उसे 15 सीटों पर संतुष्ट होना पड़ा। भाजपा खुद अपनी पार्टी के 62 और अपना दल (एस) के दो लोगों को चुनाव जिताने में सफल रही। 2014  के मुकाबले 2019 में सपा-बसपा के महागठबंधन के बावजूद भाजपा गठबंधन को महज 7 सीटों का नुकसान हुआ। भाजपा के खिलाफ सपा-बसपा का प्रभावशाली गठबंधन अंततः यूपी में कोई हो नहीं सकता, किन्तु 2019 में यह गठबंधन अपने गढ़ में प्रत्याशित परिणाम देने में इसलिए विफल हुआ, क्योंकि राहुल गांधी के शब्दों में उसने वैकल्पिक विजन प्रस्तुत करने में कोई रूचि ही नहीं लिया। अब 2019 में सपा-बसपा गठबंधन के हस्र को देखते हुए आज की तारीख में विपक्षी एकजुटता की जो कवायद चल रही है, बिना वैकल्पिक विजन पेश किए यदि 2024 के लिए महागठबंधन बन भी जाता है, तो भाजपा को हराने के प्रति खूब आशावादी नहीं हुआ जा सकता। कारण, इस गठबंधन का सीधा-सा लक्ष्य होगा भाजपा को हटाकर खुद उसकी जगह काबिज होना। विपक्षी एकता हो, इसके लिए भाजपा विरोधी तमाम दल चिंतित तो दिख रहे हैं, पर, विरले ही कोई राहुल गांधी की तरह वैकल्पिक विजन की बात कर रहा है। ठोस वैकल्पिक विजन के अभाव में यह गठबंधन भाजपा को हरा भी देगा तो निकट भविष्य में उसे सत्ता में आने से नहीं रोक पाएगा। रोक पाएगा तभी जब उसके पास सॉलिड वैकल्पिक विजन और उस विजन को सत्ता में आने पर जमीन पर उतार सकने की इच्छाशक्ति हो। बहरहाल, क्या है वह वैकल्पिक विजन जिसके अभाव में 2024 में राहुल गाँधी के हिसाब से भाजपा को हराना कठिन होगा।

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राजदंड बिना सब सून…

वैकल्पिक विजन को समझने के लिए राहुल गाँधी गांधी को उद्धृत करते हुए उनकी यह बात फिर याद दिलाना जरूरी हो जाता है कि ‘भाजपा को हराने के लिए विपक्षी एकता से कहीं ज्यादा की जरूरत है। मेरी राय में सिर्फ विपक्ष की एकता कम करने के लिए काफी नहीं होगी। मुझे लगता है कि बीजेपी के लिए एक वैकल्पिक विजन की जरूरत है। भारत जोड़ो यात्रा का हिस्सा इस तरह के विजन को प्रस्तावित करने में पहला कदम था। यह वह दृष्टिकोण है, जिसके साथ सभी विपक्षी दल गठबंधन कर रहे हैं।’ राहुल गाँधी ने भारत जोड़ो यात्रा के सार पर प्रकाश डालते हुए कहा था- ‘भारत जोड़ो यात्रा ने घृणा के बाजार में मोहब्बत की दुकान खोली है। इसने राजनीति के एक वैकल्पिक दृष्टिकोण के बारे में बात की है। भारत के पास अब वरीयता के लिए दो रास्ते हैं। पहला, आवाज को दबाने, द्वेष और हिंसा को फ़ैलाने और दूसरा, समूहों को जोड़ना है। मैं इस यात्रा को पहले कदम के तौर पर देखता हूँ, जिसका प्रभाव देश की राजनीति पर आएगा!’ बहरहाल, नफरत भाजपा की राजनीति का एक साधन मात्र है, जो उसके लक्ष्य को साधने का एक जरिया मात्र है। लेकिन भाजपा की राजनीति के लक्ष्यों की स्पष्ट समझ बनाए बिना वैकल्पिक विजन नहीं प्रस्तुत किया जा सकता! ऐसे भाजपा का वैकल्पिक विजन देना है तो इसके इतिहास में जाना होगा, ताकि उसका विजन समझ कर उपयुक्त विकल्प दिया जा सके।

नफरत की राजनीति के सहारे उत्तरोत्तर आगे बढ़ती गई भाजपा

भाजपा आरएसएस का राजनीतिक संगठन है। इसे 1925 में डॉक्टर हेडगेवार ने हिन्दू धर्म-संस्कृति के उज्जवल पक्ष और मुस्लिम विद्वेष के प्रसार के आधार पर देश की सत्ता उच्च वर्ण लोगों के हाथों में देने के मकसद से स्थापित किया था। 1951 में श्यामा प्रसाद द्वारा जनसंघ के नाम से स्थापित यह पार्टी अपने नफरती चरित्र के कारण लम्बे समय से राजनीतिक रूप में अस्पृश्य रही। इसकी अस्पृश्यता 1975 में तब दूर हुई जब इंदिरा गाँधी की तानाशाही सत्ता से लड़ने के लिए जय प्रकाश नारायण ने इसका विलय जनता पार्टी में कराया। किन्तु 1980 में जनता पार्टी की टूट के बाद जनसंघ ने भारतीय जनता पार्टी का जो स्वरुप ग्रहण किया, वह आज  भी कायम है। बहरहाल, 1984 में इंदिरा गांधी के शहादत की सहानुभूति की लहर में दो सीटों पर सिमटी भाजपा 1989 के लोकसभा चुनाव में वीपी सिंह द्वारा बोफर्स के जरिये राजीव गाँधी के खिलाफ बनाए गए माहौल में सबसे बड़ी सफलता अर्जित करते हुए 86 सीटों तक पहुंच गई। किन्तु बड़े मौके की तलाश में दूसरे दलों के सहारे आगे बढ़ रही भाजपा को जिस मौके की तलाश थी, वह 7 अगस्त, 1990 के दिन मिल गया। जब वीपी सिंह ने पिछड़ों के आरक्षण के लिए मंडल रिपोर्ट प्रकाशित किया। मंडल रिपोर्ट के प्रकाशित होते ही इस देश के जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग के छात्र और उनके अभिभावक, लेखक- पत्रकार आरक्षण के खिलाफ सड़कों पर उतर आए। ऐसे माहौल में भाजपा के लालकृष्ण अडवाणी ने रामजन्म भूमि मुक्ति के नाम पर 25 सितम्बर, 1990 से सोमनाथ से अयोध्या के लिए रथ यात्रा शुरू की। रथ यात्रा के जरिये नफरत की राजनीति को इतना हवा दिया गया कि पूरा देश जल उठा। ऐसे माहौल में लालू प्रसाद यादव के समक्ष रथ यात्रा रोकने के सिवाय कोई चारा नहीं रहा। अडवाणी की रथ यात्रा रोकते ही भाजपा ने अपने प्लान के मुताबिक, वीपी सिंह की सरकार को गिरा दिया। कई घटनाक्रमों के मध्य 1991 में लोकसभा का चुनाव अनुष्ठित हुआ। इस दरम्यान नफरत की राजनीति के चलते तेजी से चुनावी माहौल भाजपा के पक्ष में बनता गया। किन्तु राजीव गांधी की शहादत ने उसके मंसूबों पानी फेर दिया। भाजपा 120 सीटों तक सिमटकर रह गयी और कांग्रेस के नरसिंह राव के हाथ में देश की सत्ता आई। लेकिन नफरत की राजनीति को उत्तरोत्तर बढ़ावा देते-देते भाजपा 1996 में 161 सीटों तक पहुँच गयी और अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री के रूप में शपथ लिए। पर, 13 दिन बाद ही उनकी सरकार गिर गयी। किन्तु विपक्ष की नाकामी के चलते 1998 देश को फिर चुनाव का सामना करना पड़ा और वाजपेयी प्रधानमंत्री बने। लेकिन वह गठबंधन भी अल्पजीवी साबित हुआ। उसके बाद फिर 1999 में चुनाव हुआ और वाजपेयी के नेतृत्व में राजग 13 अक्टूबर, 1999 को सत्ता संभाला और अपना कार्यकाल पूरा किया।

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वाजपेयी के कार्यकाल में जिस तरह शाइनिंग इंडिया की फिजा बनी, राजनीति के बड़े- बड़े पंडितों से लेकर आम लोगों को लगा कि 2004 में वाजपेयी फिर सत्ता में वापसी करेंगे। किन्तु सोनिया गांधी का करिश्मा भाजपा के शाइनिंग इंडिया पर भारी पड़ा और वह 10 सालों के लिए सत्ता से दूर हो गयी। अवश्य ही 2009 में राहुल फैक्टर भी उसके खिलाफ गया। किन्तु 2014 में नरेंद्र मोदी अच्छे दिन लाने, हर साल युवकों को दो करोड़ नौकरियां देने और हर व्यक्ति के खाते में 100 दिन विदेशों से काला धन लाकर 15 लाख हर किसी के खाते में जमा करने जैसे ऐतिहासिक झूठ के सहारे सत्ता में आए। यदि नफरत की राजनीति को हराना है, तो वैकल्पिक विजन के साथ इसका भी तथ्यान्वेषण करना होगा कि भाजपा कैसे नफरत की राजनीति को इतनी बुलंदी प्रदान करने में सफल हो गई! इसके तह में जाने पर साफ़ दिखेगा कि भाजपा ने अपने शक्ति के स्रोतों का जमकर सदव्यवहार करके ही हेट पॉलिटिक्स को तुंग पर पहुंचाकर उसकी राजनीतिक फसल काटी। ऐसे जानना जरूरी है, क्या है भाजपा की शक्ति के स्रोत?

भाजपा ने नफ़रत की राजनीति को पहुँचाया शिखर पर

भाजपा की शक्ति का प्रधान स्रोत आरएसएस है। आरएसएस के पीछे भारतीय मजदूर संघ, सेवा भारती, राष्ट्रीय सेविका समिति, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, विश्व हिन्दू परिषद, स्वदेशी जागरण मंच, सरस्वती शिशु मंदिर, विद्या भारती, वनवासी कल्याण आश्रम, मुस्लिम राष्ट्रीय मंच, बजरंग दल, अनुसूचित जाति आरक्षण बचाओ परिषद, लघु उद्योग भारती, भारतीय विचार केंद्र, विश्व संवाद केंद्र, राष्ट्रीय सिख संगठन, विवेकानंद केंद्र और भारतीय जनता पार्टी सहित दो दर्जन से अधिक आनुषांगिक संगठन हैं। सूत्रों के मुताबिक इनके साथ 28 हजार, 500 विद्यामंदिर, 2 लाख, 80 हजार आचार्य, 48 लाख, 59 हजार छात्र, 83 लाख, 18 हजार, 348 मजदूर, 595 प्रकाशन समूह, 1 लाख पूर्व सैनिक, 6 लाख, 85 हजार वीएचपी-बजरंग दल के सदस्य जुड़े हुए हैं। यही नहीं, इसके साथ 4 हजार पूर्णकालिक कार्यकर्ता हैं, जो देश भर में फैले 56 हजार, 859 शाखाओं में कार्यरत 55 लाख, 20 हजार स्वयंसेवकों के साथ मिलकर भाजपा को शक्ति प्रदान करते हैं। संघ के बाद भाजपा के दूसरे प्रमुख शक्ति के स्रोत में नजर आते हैं। वे साधु-संत जिनका चरण-रज लेकर देश के कई पीएम-सीएम और राष्ट्रपति-राज्यपाल खुद को धन्य महसूस करते रहे हैं। इन्हीं साधु-संतों ने मंदिर आन्दोलन को हवा देकर इसके सत्ता का मार्ग सुगम किया। हालांकि, पिछली सदी में मीडिया मुख्यतः अख़बारों-रेडियो तक सीमित रहने के कारण बहुत ज्यादा प्रभावी भूमिका नहीं कर पाती थी। किन्तु नई सदी में चैनलों के विस्तार ने मीडिया को, सत्ता को प्रभावित करने की बेइंतहा ताकत प्रदान कर दी है। ऐसी ताकतवर मीडिया के प्रायः 90 प्रतिशत समर्थन से पुष्ट कोई पार्टी है तो संघ का राजनीतिक संगठन भाजपा ही है। भाजपा की शक्ति का तीसरा स्रोत यही मीडिया है, जबकि चौथे प्रधान शक्ति के स्रोत के रूप में लेखक ही नज़र आते हैं। राष्ट्रवादी और गैर-राष्ट्रवादी खेमे में बंटे मुख्यधारा के प्रायः 90 प्रतिशत लेखक ही भाजपा के पक्ष में विचार-निर्माण करते देखे जा सकते हैं। शुरू से ही भाजपा की पहचान मुख्यतः ब्राह्मण-क्षत्रिय-बनियों की पार्टी के रूप में रही है। इनमें बनिया कौन? भारत का धनपति वर्ग ही तो! भाजपा से बनियों के लगाव में आज भी रत्ती भर कमी नहीं आई है। पूंजीपतियों का प्रायः 90 प्रतिशत पैसा इसी के हिस्से में आता है। ऐसे में कहा जा सकता है कि आज की तारीख में भारतीय पूंजीपति वर्ग से प्रायः 90 प्रतिशत उपकृत होने वाली राजनीतिक पार्टी भाजपा ही है। राहुल गांधी ने यूं ही नहीं माना है कि भाजपा के पास कांग्रेस के मुकाबले दस गुना पैसा है। सिर्फ साधु-संत, लेखक-पत्रकार और पूंजीपति ही नहीं, खेल-कूद, फिल्म-टीवी जगत के प्रायः 90 सेलेब्रिटी भाजपा के साथ ही है। इसके साथ उच्च वर्ण के प्रायः शत-प्रतिशत मतदाता भी जुड़ा हुआ है, जो अपने जातिगत प्रभाव के चलते एकाधिक बहुजन मतदाताओं को अपने हिसाब से मोड़ लेते हैं।शक्ति के इन स्रोतों के प्राबल्य से ही भाजपा आज प्रायः अप्रतिरोध्य बन गई है।

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विशुद्ध सामाजिक न्याय विरोधी है भाजपा का विजन

बहरहाल, भाजपा का विजन क्या है? यह हम तभी जान पाएंगे, जब यह जानने का प्रयास करें कि नफ़रत की राजनीति के सहारे मिली सत्ता का उसने क्या इस्तेमाल किया? जब इसकी खोज में निकलते हैं तब पता चलता है उसका विजन विशुद्ध सामाजिक न्याय विरोधी है। ऐसा है तभी जब मंडल रिपोर्ट के जरिये सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ी विशालतम आबादी के लिए आरक्षण मिलने का मार्ग प्रशस्त हुआ। साथ ही साथ अडवाणी ने यह कहकर कि मंडल से देश में सामाजिक विभाजन पैदा हो रहा है। मंदिर आन्दोलन छेड़ दिया, जिसकी जोर से परवर्तीकाल में  भाजपा केंद्र से लेकर राज्यों की सत्ता पर काबिज हुई। सत्ता पर काबिज होने के बाद उसका अधिकतम इस्तेमाल आरक्षण के खात्मे में किया। इसी मकसद से संघ प्रशिक्षित पीएम वाजपेयी बाकायदे विनिवेश मंत्रालय बनाकर उन संस्थाओं को निजी हाथों में देने में जूनून की हद तक मुस्तैद हो गए, जहाँ आरक्षण के अवसर रहे। सामाजिक न्यायवादी दलों की राजग में बाहुल्यता के बावजूद देश में निजीकरण का सैलाब बहा देना प्रधानमंत्री के रूप में वाजपेयी की सबसे बड़ी सफलता रही। वाजपेयी राज में ही पेंशन योजना को ख़त्म करने का काम हुआ, जिससे सर्वाधिक क्षतिग्रस्त अरक्षित वर्ग ही हुआ। वाजपेयी के दस साल बाद जिस नरेंद्र मोदी के हाथ में सत्ता आई, उन्होंने प्रायः वर्ग संघर्ष का इकतरफा खेल खेलते हुए सत्ता का सदियों के सामाजिक अन्याय के शिकार लोगों को फिनिश करने से किया। विगत नौ वर्षों में आरक्षण के खात्मे तथा बहुसंख्य लोगों की खुशियां छीनने की रणनीति के तहत ही मोदी राज में श्रम कानूनों को निरंतर कमजोर करने के साथ ही नियमित मजदूरों की जगह ठेकेदारी-प्रथा को बढ़ावा देकर शक्तिहीन अरक्षित वर्गों को शोषण और वंचना के दलदल में फंसाने का काम जोर-शोर से हुआ। बहुसंख्य वंचित वर्ग को आरक्षण से महरूम करने के लिए ही एयर इंडिया, सेल-भेल, रेलवे स्टेशनों, बस अड्डों, हवाई अड्डों, शिक्षण संस्थानों और हास्पिटलों इत्यादि को निजी क्षेत्र में देने की शुरुआत हुई। आरक्षण के खात्मे की योजना के तहत ही सुरक्षा तक से जुड़े उपक्रमों में 100 प्रतिशत एफडीआई की मजूरी दी गयी। अरक्षित वर्ग के लोगों का जीवन बदहाल बनाने के लिए ही कई दर्जन विश्वविद्यालयों को स्वायतता प्रदान कर दी गई, ताकि वंचित वर्गों के युवाओं के लिए उच्च शिक्षा में नौकरी एक सपना बनकर रह जाए। कुल मिलकर जो सरकारी नौकरियां वंचित वर्गों के धनार्जन का प्रधान आधार थीं, मोदी राज उसके स्रोत आरक्षण को कागजों की शोभा बनाने का काम लगभग पूरा कर लिया गया। मोदी राज में एक ओर जहां जन्मजात वंचित वर्गों को आरक्षण से महरूम करने का कार्य हुआ, वहीं गरीब सवर्णों को आरक्षण देकर सामाजिक न्याय का जनाजा ही निकाल दिया गया है। ऐसा ही एक काम लैटरल इन्ट्री की शुरुआत रही। कुल मिलाकर नफरत की राजनीति से अर्जित सत्ता का जैसा इस्तेमाल भाजपा ने किया है, उसके आधार पर जोर गले से कहा जा सकता कि सामाजिक विरोध ही भाजपा का विजन है, जिसका वैकल्पिक विजन सिर्फ सामाजिक न्यायवादी विजन ही हो सकता है। राहुल गाधी भाजपा को हराने के लिए जिस वैकल्पिक विजन को अपनाने का सुझाव दे रहे हैं, वह सामाजिक न्यायवादी विजन ही है।

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सामाजिक न्याय के विजन की जोर से भाजपा को एकाधिक बार दिया जा चुका है मात

भाजपा की सबसे बड़ी कमजोरी सामाजिक न्याय का मुद्दा है, यह शत-प्रतिशत राजनीतिक विश्लेषक और समाज विज्ञानी ही मानते हैं। यदि चुनाव को सामाजिक न्याय की पीच पर केन्द्रित किया जाए तो वह हारने के लिए अभिशप्त रहती है, इसमें शायद ही किसी को संदेह हो। चुनाव को सामाजिक न्याय पर स्थिर कर विपक्ष मोदी राज में दो बार इतिहास रच चुका है, यह इतिहास पन्नों में दर्ज हो चुका है। पहली बार 2015 में लालू प्रसाद यादव ने ऐसा किया। बिहार विधानसभा चुनाव 2015 में संघ प्रमुख मोहन भगवत ने जब आरक्षण के समीक्षा का सवाल उठाया, लालू प्रसाद उसे लपक लिए और हर चुनावी सभा में कहने लगे। ‘तुम आरक्षण खत्म करने की बात करते हो, हम सत्ता में आएं तो तो आरक्षण को संख्यानुपात बढ़ाएंगे।’ सत्ता में आने पर आरक्षण बढ़ाने के लालू के दांव की काट भाजपा नहीं कर पाई और मोदी के पिक फॉर्म में रहते भी ऐतिहासिक हार झेलने के लिए विवश हुई। भाजपा कभी इस हद तक बढ़ नहीं पाती, यदि बिहार विधानसभा चुनाव 2015 को मंडल बनाम कमंडल बनाने वाले लालू प्रसाद यादव से प्रेरणा लेकर 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव, 2019 के लोकसभा, 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव और 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव को हिंदी पट्टी का बहुजन नेतृत्व सामाजिक न्याय पर केन्द्रित किया होता। इन चुनावों में बहुजनवादी नेतृत्व ने सामाजिक न्याय को विस्तार देने अर्थात आरक्षण बढ़ाने पर एक शब्द भी उच्चारित नहीं किया। 2015 के आठ साल बाद 2023 में कर्नाटक विधानसभा चुनाव को कांग्रेस ने सामाजिक न्याय पर केन्द्रित किया और नफरत की राजनीति को तुंग पर पहुंचा कर भी भाजपा ऐतिहासिक हार झेलने के लिए विवश रही। 2015 का बिहार विधानसभा चुनाव और 2023 कर्नाटक चुनाव एक ऐतिहासिक दृष्टान्त स्थापित कर गए कि यदि चुनाव में भाजपा के विरुद्ध  सामाजिक न्यायवादी विजन प्रस्तुत किया जाए तो वह हारने के सिवाय और कुछ कर ही नहीं सकती।

2024 में राहुल गाँधी ही पेश कर सकते हैं सामाजिक न्यायवादी विजन

लगता है 2023 के कर्नाटक चुनाव में सामाजिक न्यायवादी मुद्दे की सफलता से उत्साहित होकर ही राहुल गाँधी ने भाजपा को हराने के लिए वैकल्पिक अर्थात सामाजिक न्यायवादी विजन अपनाने का सन्देश विपक्ष को दिया है। पर, बड़ा सवाल है कि एकजुटता कायम करने में व्यस्त विपक्ष क्या 2024 में राहुल के सुझाए वैकल्पिक दृष्टिकोण को अपनाएगा? मैं इसके प्रति शंकित हूँ। कारण, विपक्षी गठबंधन में शामिल होने जा रहे संभावित चेहरों में कई ऐसे हैं, जिन्हें सामाजिक न्याय से कमोवेश भाजपा की भांति ही एलर्जी है। वे किसी तरह गठबंधन के सहारे भाजपा को हटाकर उसकी जगह काबिज तो होना चाहते हैं, पर दलित, आदिवासी, पिछड़े, अल्पसंख्यकों और महिलाओं के जीवन में आरक्षण के सहारे सुखद बदलाव आए, इसमें उनकी रूचि शायद नहीं के बराबर है। जहां तक गठबंधन में शामिल होने जा रहे सामाजिक न्यायवादी दलों का सवाल है, तो एमके स्टालिन और हेमंत सोरेन जैसे कुछेक को छोड़कर बाकी लोग ईडी, सीबीआई के डर से शायद मुखरता से सामाजिक न्याय की बात नहीं करेंगे। ऐसे में सवाल पैदा होता है कि जिस सामाजिक न्याय के जोर से भाजपा को शर्तियां तौर पर शिकस्त दिया जा सकता है। उस पर लोकसभा चुनाव 2024 को केन्द्रित करने का जोखिम कौन उठाएगा? जवाब हैं राहुल गांधी।

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फ़रवरी 2023 रायपुर अधिवेशन से कांग्रेस की सोच में सामाजिक न्याय को जगह देने वाले राहुल गाँधी कर्नाटक में बेख़ौफ़ होकर सामाजिक न्याय का सफल खेल खेले, उसके बाद उन्हें कोई ‘लिविंग बुद्धा’ तो कोई ‘सामाजिक न्याय की राजनीति का नया आइकॉन’ बता रहा है। ऐसा इसलिए कि उन्होंने कर्नाटक में दिल से उस हथियार का इस्तेमाल किया, जिसका सामना करने पर भाजपा कभी सफल ही नहीं हो सकती। इस मामले में कोलार का उनका भाषण सामाजिक न्याय की राजनीति में मील का एक पत्थर है, जहां उनका भाषण सुनकर योगेन्द्र यादव जैसे अनुभवी चिन्तक को कहना पड़ा। ‘राहुल गाँधी का कोलार वाला भाषण किसी क्षणिक आवेग की देन नहीं। कांग्रेस सामाजिक न्याय की खोई हुई अपनी जमीन हासिल करने की कोशिश कर रही है, इस बात का संकेतक उनका भाषण सामाजिक न्याय की राजनीति में एक नए मोड़ की सूचना है।’ कोलार में उन्होंने सामाजिक न्याय की राजनीति को जो बुलंदी प्रदान की, शायद सामाजिक न्याय के बड़े-बड़े महारथी भी वह न कर सके। कर्नाटक की चुनावी फिजा में उन्होंने साहेब कांशीराम का ऐतिहासिक नारा ‘जितनी जिसकी आबादी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’ उछाल कर एक बड़े  विस्मय की सृष्टि कर दिया है। सोचा भी नहीं जा सकता कि कोई गैर-बहुजन कांशीराम का क्रान्तिकारी नारा फिजा में गुंजित करने का साहस करेगा। पर, राहुल ऐसा इसलिए कर सकें, क्योंकि वह समग्र-वर्ग की चेतना से समृद्ध हैं, जिस मामले में भारत के बड़े-बड़े नेता, साधु-संत, लेखक-पत्रकार काफी हद तक दरिद्र रहे। उन्होंने सामाजिक न्याय का अपना विजन कांशीराम के ऐतिहासिक नारे के जरिये इन शब्दों में जाहिर कर दिया है,। ‘यदि 70 प्रतिशत भारतीय ओबीसी/ एससी/ एसटी जातियों के हैं, तो विभिन्न व्यवसायों और क्षेत्रों में उनका प्रतिनिधित्व भी मोटे तौर पर 70 प्रतिशत होना चाहिए।’ यह वही बात है, जिसको 2002 के भोपाल सम्मलेन से डाइवर्सिटीवादी बार-बार राष्ट्र के समक्ष रखते रहे हैं। राहुल गांधी की ‘जिसकी जितनी आबादी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’ का व्यवहारिक मतलब है कि सरकारी और निजी नौकरियों के साथ अर्थोपार्जन की समस्त गतिविधियों- सप्लाई, डीलरशिप, ठेकेदारी, ट्रांसपोर्टेशन, मीडिया, शैक्षणिक संस्थाओं में भारत के विविध सामाजिक समूहों और उनकी महिलाओं के संख्यानुपात में भागीदारी। सामाजिक न्याय के नए आइकॉन का समतावादी विजन जमीन पर उतरेगा, इसके प्रति ढेरों लोग आशावादी हैं। लेकिन इसके लिए 2024 का महासंग्राम जीतना होगा, जिसमें देश की बहुसंख्य जनता को शामिल करना होगा। और यह तभी पूरी तरह मुमकिन होगा जब ‘भारत जोड़ों यात्रा’ की भांति राहुल गांधी संख्यानुपात में भागीदारी का संदेश के लिए एक और भारतमय यात्रा करें।

लेखक बहुजन डाईवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।

गाँव के लोग
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