कल का दिन चार बातों के कारण खास रहा। एक तो यही कि दिल्ली में अच्छी बारिश हुई। कई जगहों से अप्रिय सूचनाएं भी मिलीं। लेकिन जलजमाव के कारण किसी की जान जाने की सूचना नहीं मिली। दूसरी खास बात यह कि कल एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया (इजीआई) की गतिविधि दिखी। इजीआई ने कल दो न्यूज वेबपोर्टलों न्यूजक्लिक और न्यूजलांड्री के दफ्तरों पर आयकर विभाग द्वारा छापा मारे जाने के संबंध में अपनी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की। इजीआई पत्रकारिता के पक्ष में नजर आया। हालांकि इजीआई की सक्रियता तब नजर नहीं आती है जब दलित-पिछड़े-आदिवासी पत्रकार सरकारी तंत्र द्वारा उत्पीड़न के शिकार होते हैं। कल की तीसरी खास बात यह कि सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमण ने इंदिरा गांधी को अयोग्य करार देनेवाले इलाहाबाद हाई कोर्ट के तत्कालीन जज जगमोहन लाल सिन्हा के निर्णय को ‘साहस भरा’ निर्णय करार दिया। चौथी खास बात यह कि कल मुक्तिबोध की पुण्यतिथि थी।
गजानन माधव मुक्तिबोध (13 नवंबर, 1917- 11 सितंबर, 1964) हिन्दी साहित्य के प्रमुख कवि, आलोचक, निबंधकार और कहानीकार थे। उन्हें प्रगतिशील कविता और नयी कविता के बीच का एक सेतु भी माना जाता है।
तो कल का दिन मुक्तिबोध के नाम रहा। उनकी कविताएं पढ़ता रहा। बीच-बीच में अपना काम भी करना पड़ा। असल में एक पत्रकार के पास सबसे बड़ी चुनौती यही है कि वह केवल पढ़ते नहीं रह सकता। उसे अन्य काम भी करने होते हैं। मुझे लगता है कि विश्वविद्यालयों में पढ़ाने वाले शिक्षकगण इस मामले में बेहतर स्थिति में रहते हैं। उनके पास पढ़ने का भरपूर मौका होता है। एक पत्रकार के पास सूचनाएं भी बहुत आती हैं। मैं पहले जब पटना में था तब भी हालत ऐसी ही थी। दिन की शुरुआत ही सूचनाओं से होती थी और सूचनाएं देर रात तक पीछे पड़ी रहती थीं। लेकिन एक अंतर था। दैनिक अखबार के संपादकीय जिम्मेदारी के निर्वहन के दौरान मेरी प्राथमिकता रहती थी कि जितनी महत्वपूर्ण सूचनाएं मेरे संज्ञान में लायी गयी हैं, उन्हें अखबार में जगह मिले। लेकिन हर सूचना के साथ न्याय करना मुमकिन नहीं होता। हालांकि कई बार सूचनाएं अस्प्ष्ट होतीं और महत्वपूर्ण सूचना की मेरी कसौटी पर खरी नहीं उतरती थीं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वे महत्वपूर्ण नहीं होती थीं।
[bs-quote quote=”संपूर्ण क्रांति नामक आंदोलन इंदिरा गांधी को परेशान करने के लिए किया गया? संपूर्ण क्रांति के जो मुद्दे थे, वे दरअसल डॉ. राममनोहर लोहिया की ‘सप्त क्रांति’ से आयातित थे। महंगाई, गरीबी, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार के सवाल नये सवाल नहीं थे। ये सवाल तो आज भी सवाल हैं। जबकि देश को आजाद हुए सात दशक से अधिक समय बीत चुका है। 1970 के दशक में तो दो दशक से कुछ ही अधिक हुआ था। ब्राह्मणों की सदियों की गुलामी के बाद मुसलमानों के राज और फिर करीब सौ साल तक अंग्रेजों के नियंत्रण में रहा यह मुल्क जब आजाद हुआ तब इसकी हालत कैसी रही होगी, इसकी केवल कल्पना की जा सकती है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
दरअसल वह मेरी सीमा थी। मैं सभी सूचनाओं पर काम नहीं कर पाता था। कुछ सूचनाओं को सूचना भेजनेवाले साथियों के हवाले कर देता और इस उम्मीद में रहता कि सूचनाएं मुकम्मिल रूप में मेरे पास दुबारा लौटकर आएंगीं।
आज वैसी हालत नहीं है। अधिकांश सूचनाएं आलेख के रूप में प्राप्त होती हैं, जिनमें अधिकांश मुकम्मिल होती हैं। लेकिन इसके बावजूद उन्हें महत्वपूर्ण बनाने के लिए मेहनत तो करनी ही पड़ती है। यह तो मेरी अपनी बात हो गयी लेकिन मैं उनके बारे में सोच रहा हूं जो मुझ जैसी स्थिति में नहीं हैं और स्वतंत्र पत्रकारिता करते हैं। वे बेचारे पत्रकार करें भी तो क्या करें। हर विचार पर रोज लिखा जाना संभव नहीं। यदि कोई कलम बहादुर लिख भी ले तो उसके लिखे को छापेगा कौन। अखबारों में विचारों के लिए जगह पर पहले से ही आरक्षण होता है। खासकर द्विजों के लिए। संपादकीय पन्नों को देखिए तो समझ में आता है कि कैसे अखबारों में दर्ज विचारों पर केवल द्विजों का अख्तियार है। कहने का मतलब यह कि हर तरह के विचार पर द्विजों का ही अधिकार है। महंगाई बढ़ी तब द्विजों के विचार होंगे कि महंगाई क्यों बढ़ी, नवउदारवादी व्यवस्था पर निशाना करते आलेखों में पूरे विश्व की चर्चा होगी, लेकिन भारत के बहुसंख्यक बहुजनों पर कोई चर्चा नहीं। इन लेखों में कहीं यह बात शामिल ही नहीं होती कि जबतक इस देश के बहुसंख्यक गरीब रहेंगे, यह देश अमीर कैसे हो सकता है।
दरअसल, भारत के सवर्ण इस देश को अमीर बनने ही नहीं देना चाहते हैं। मुट्ठी भर की संख्या वाले ये लोग उत्पादन के सभी संसाधनों पर अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते हैं। ऐसे में कोई करे तो क्या करे। जबतक भूमि सुधार पूरी तरह से लागू नहीं होंगे कोई नई शुरुआत नहीं होने वाली। फिर चाहे अमर्त्य सेन पत्थर पर सिर पटक-पटककर अपना माथा फोड़ लें।
तो मैं विचारों की बात कर रहा था। मैं सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमण के उपरवर्णित बयान के बारे में सोच रहा हूं। वह जिस निर्णय की बात कर रहे हैं, वह 1975 में दिया गया था। मामला 1971 का था। वर्ष 1971 में इंदिरा गांधी ने राजनारायण को रायबरेली लोकसभा क्षेत्र में पराजित किया था। इसके बाद उनके उपर इलाहाबाद हाई कोर्ट में मामला दर्ज किया गया था कि उन्होंने चुनावी आचार संहिता का उल्लंघन किया है। उनके खिलाफ आरोप था कि उनके चुनावी एजेंट यशपाल कपूर थे जो कि एक सरकारी सेवक थे और ऐसा कर इंदिरा गांधी ने चुनावी लाभ के लिए सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग किया था। मामला तत्कालीन जज जगमोहन लाल सिन्हा के पास गया और वर्ष 1975 में उन्होंने इंदिरा गांधी को अयोग्य घोषित कर दिया।
[bs-quote quote=”जयप्रकाश नारायण स्वयं को समाजवादी कहते थे और जातिवाद का विरोध करते थे। मेरी नजर में मुजफ्फरपुर के मुसहरी प्रखंड में भूमिहीनों के लिए उनके द्वारा किया गया कार्य उनके सबसे महत्वपूर्ण कार्यों में से एक रहा। सामाजिक न्याय को लेकर उनकी सोच विपरीत रही। वे सामाजिक पिछड़ेपन को तरजीह नहीं देना चाहते थे। यही वजह रही कि मोरारजी देसाई की सरकार ने जब 20 दिसंबर, 1978 को मंडल कमीशन का गठन किया ताकि इस देश के सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े लोगों की पहचान हो और शासन-प्रशासन में उनकी समुचित भागीदारी सुनिश्चित हो, तब जयप्रकाश नारायण ने कड़ा विरोध किया। सार्वजनिक मंचों पर उन्होंने अपनी ही सरकार को कटघरे में खड़ा किया।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
यह फैसला बेहद महत्वपूर्ण साबित हुआ। इस फैसले ने डेमोक्रेटिक इंदिरा गांधी को डिक्टेटर बना दिया। इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लागू कर दिया।
वर्ष 1974 के संपूर्ण क्रांति आंदोलन के बारे में जब कभी कुछ अध्ययन करने का अवसर मिलता है, तब एक ही बात जेहन में आती है कि क्या वाकई उस आंदोलन में कुछ खास था कि इंदिरा गांधी को आपातकाल लागू करना पड़ा? मुझे लगता है कि आंदोलन का असर तो रहा होगा, परंतु इतना नहीं कि इंदिरा गांधी जैसी मजबूत इरादों वाली प्रधानमंत्री को मजबूर होना पड़ा होगा।
जब मैं इंदिरा गांधी को मजबूत कहता हूं तो मेरे पास इसके पर्याप्त कारण हैं। पहला कारण तो यही कि वह इंदिरा गांधी ही थीं, जिन्होंने भारतीय संविधान की प्रस्तावना में समाजवाद शब्द जोड़ा। उन्होंने बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया। जमींदारों, राजे-रजवाड़ों और नवाबों को सरकारी खजाने से दिए जाने वाले ‘प्रिवी पर्स’ को खत्म किया था। वह भूमि सुधार को ठोस तरीके से लागू करने की पक्ष में सोच रही थीं।
तो क्या संपूर्ण क्रांति नामक आंदोलन इंदिरा गांधी को परेशान करने के लिए किया गया? संपूर्ण क्रांति के जो मुद्दे थे, वे दरअसल डॉ. राममनोहर लोहिया की सप्त क्रांति से आयातित थे। महंगाई, गरीबी, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार के सवाल नये सवाल नहीं थे। ये सवाल तो आज भी सवाल हैं। जबकि देश को आजाद हुए सात दशक से अधिक समय बीत चुका है। 1970 के दशक में तो दो दशक से कुछ ही अधिक हुआ था। ब्राह्मणों की सदियों की गुलामी के बाद मुसलमानों के राज और फिर करीब सौ साल तक अंग्रेजों के नियंत्रण में रहा यह मुल्क जब आजाद हुआ तब इसकी हालत कैसी रही होगी, इसकी केवल कल्पना की जा सकती है। हालांकि इस संबंध में आंकड़े हैं कि उस समय देश की अर्थव्यवस्था कैसी थी और किन हालातों में थी।
मुझे लगता है कि अंग्रेजों ने भारतीय संसाधनों का दोहन जरूर किया होगा, लेकिन उन्होंने भारत काे आधुनिक भारत बनाने की दिशा में महत्वपूर्ण पहल की। एक तो यही कि उन्होंने शिक्षा पर ब्राह्मण वर्गों के नियंत्रण को खत्म कर दिया था। शिक्षा पर सभी वर्गों का अधिकार का श्रेय अंग्रेजों को देना ही चाहिए। इसके अलावा औद्योगिकीकरण के लिए भी अंग्रेजों के प्रति हम भारतीयाें को कृतज्ञ होना चाहिए।
[bs-quote quote=”हर विचार पर रोज लिखा जाना संभव नहीं। यदि कोई कलम बहादुर लिख भी ले तो उसके लिखे को छापेगा कौन। अखबारों में विचारों के लिए जगह पर पहले से ही आरक्षण होता है। खासकर द्विजों के लिए। संपादकीय पन्नों को देखिए तो समझ में आता है कि कैसे अखबारों में दर्ज विचारों पर केवल द्विजों का अख्तियार है। कहने का मतलब यह कि हर तरह के विचार पर द्विजों का ही अधिकार है। महंगाई बढ़ी तब द्विजों के विचार होंगे कि महंगाई क्यों बढ़ी, नवउदारवादी व्यवस्था पर निशाना करते आलेखों में पूरे विश्व की चर्चा होगी, लेकिन भारत के बहुसंख्यक बहुजनों पर कोई चर्चा नहीं। इन लेखों में कहीं यह बात शामिल ही नहीं होती कि जबतक इस देश के बहुसंख्यक गरीब रहेंगे, यह देश अमीर कैसे हो सकता है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
खैर, इंदिरा गांधी के ऊपर जो हमले हुए, उन हमलों के पीछे राजे-रजवाड़ों की बड़ी भूमिका रही और निस्संदेह उनके सबसे बड़े पैरोकार रहे जयप्रकाश नारायण। वह एक शातिर राजनीतिज्ञ थे। मेरा तो गृह शहर पटना है। वहां कदमकुआं इलाके में जयप्रकाश नारायण का आवास है। पूरा मोहल्ला खास जाति के लोगों से अटा पड़ा है। खास जाति मतलब जयप्रकाश नारायण की जाति। वह कायस्थ जाति के थे। हालांकि जयप्रकाश नारायण स्वयं को समाजवादी कहते थे और जातिवाद का विरोध करते थे। मेरी नजर में मुजफ्फरपुर के मुसहरी प्रखंड में भूमिहीनों के लिए उनके द्वारा किया गया कार्य उनके सबसे महत्वपूर्ण कार्यों में से एक रहा। सामाजिक न्याय को लेकर उनकी सोच विपरीत रही। वे सामाजिक पिछड़ेपन को तरजीह नहीं देना चाहते थे। यही वजह रही कि मोरारजी देसाई की सरकार ने जब 20 दिसंबर, 1978 को मंडल कमीशन का गठन किया ताकि इस देश के सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े लोगों की पहचान हो और शासन-प्रशासन में उनकी समुचित भागीदारी सुनिश्चित हो, तब जयप्रकाश नारायण ने कड़ा विरोध किया। सार्वजनिक मंचों पर उन्होंने अपनी ही सरकार को कटघरे में खड़ा किया। इसके कारण उन्हें आलोचना भी खूब झेलनी पड़ी। पटना के जिस गांधी मैदान में वे ऐतिहासिक सभाएं करते थे, उसी गांधी मैदान में एक सभा में उनके उपर चप्पल फेंके गए। चप्पल फेंकने वाले थे रामअवधेश प्रसाद सिंह जो बाद में सांसद भी बने। खैर जयप्रकाश का नारायण का निधन 8 अक्टूबर, 1979 को हो गया।
बहरहाल, सियासी बातों का कोई अंत नहीं होता। बस चलती रहती हैं। मैं तो मुक्तिबोध की बारे में कुछ बातें दर्ज करना चाहता था। एक कविता जेहन में आयी है (पता नहीं कविता है भी या नहीं, वजह यह कि कविताई में नजाकत जरूरी है और मेरे पास तो वह बिल्कुल भी नहीं है।)
कामरेड मुक्तिबोध का ब्रह्मराक्षस कौन था?
अक्सर यह सवाल सामने होता है
जब कभी मुक्तिबोध मिल जाते हैं
मुहल्ले के चौराहे पर हो जाती है भेंट।
मुक्तिबोध कहते हैं कि
उनका ब्रह्मराक्षस निराकार नहीं था
उसकी शक्ल-सूरत आज भी दिख जाती है
कभी इंडिया गेट के ठीक सामने तो
कभी-कभी संसद और
उसके दाएं-बाएं के महलों में।
फिर कौन था मुक्तिबोध का ब्रह्मराक्षस?
और क्या वह वाकई कोई राक्षस था?
क्या वह मार्क्स और हिटलर के बीच का था
या था वह जिसने भारत के दलितों, पिछड़ों से
छीन ली थी जमीनें सवा सेर गेहूं के बदले?
मुक्तिबोध कहते हैं- कामरेड पहले चाय पीते हैं
बीड़ी का धुआं हवा में छोड़ते हैं
फिर ब्रह्मराक्षस की सोचते हैं।
मुक्तिबोध कहते हैं-
ब्रह्मराक्षस राक्षस नहीं था
वह कविता में फिट बैठने वाला शब्द था
असल तो वह वही था
जिसने शंबूक को मारा
और आज भी उसकी तलवार प्यासी है
रह-रहकर देश से आती है आवाज
मारो-काटो कटुआ है
या फिर मारे जाते हैं
बथानीटोला के बोध-अबोध।
नवल किशोर कुमार फारवर्ड प्रेस में संपादक हैं ।