संपूर्ण क्रांति नामक आंदोलन इंदिरा गांधी को परेशान करने के लिए किया गया? संपूर्ण क्रांति के जो मुद्दे थे, वे दरअसल डॉ. राममनोहर लोहिया की ‘सप्त क्रांति’ से आयातित थे। महंगाई, गरीबी, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार के सवाल नये सवाल नहीं थे। ये सवाल तो आज भी सवाल हैं। जबकि देश को आजाद हुए सात दशक से अधिक समय बीत चुका है। 1970 के दशक में तो दो दशक से कुछ ही अधिक हुआ था। ब्राह्मणों की सदियों की गुलामी के बाद मुसलमानों के राज और फिर करीब सौ साल तक अंग्रेजों के नियंत्रण में रहा यह मुल्क जब आजाद हुआ तब इसकी हालत कैसी रही होगी, इसकी केवल कल्पना की जा सकती है।
जयप्रकाश नारायण स्वयं को समाजवादी कहते थे और जातिवाद का विरोध करते थे। मेरी नजर में मुजफ्फरपुर के मुसहरी प्रखंड में भूमिहीनों के लिए उनके द्वारा किया गया कार्य उनके सबसे महत्वपूर्ण कार्यों में से एक रहा। सामाजिक न्याय को लेकर उनकी सोच विपरीत रही। वे सामाजिक पिछड़ेपन को तरजीह नहीं देना चाहते थे। यही वजह रही कि मोरारजी देसाई की सरकार ने जब 20 दिसंबर, 1978 को मंडल कमीशन का गठन किया ताकि इस देश के सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े लोगों की पहचान हो और शासन-प्रशासन में उनकी समुचित भागीदारी सुनिश्चित हो, तब जयप्रकाश नारायण ने कड़ा विरोध किया। सार्वजनिक मंचों पर उन्होंने अपनी ही सरकार को कटघरे में खड़ा किया।
हर विचार पर रोज लिखा जाना संभव नहीं। यदि कोई कलम बहादुर लिख भी ले तो उसके लिखे को छापेगा कौन। अखबारों में विचारों के लिए जगह पर पहले से ही आरक्षण होता है। खासकर द्विजों के लिए। संपादकीय पन्नों को देखिए तो समझ में आता है कि कैसे अखबारों में दर्ज विचारों पर केवल द्विजों का अख्तियार है। कहने का मतलब यह कि हर तरह के विचार पर द्विजों का ही अधिकार है। महंगाई बढ़ी तब द्विजों के विचार होंगे कि महंगाई क्यों बढ़ी, नवउदारवादी व्यवस्था पर निशाना करते आलेखों में पूरे विश्व की चर्चा होगी, लेकिन भारत के बहुसंख्यक बहुजनों पर कोई चर्चा नहीं। इन लेखों में कहीं यह बात शामिल ही नहीं होती कि जबतक इस देश के बहुसंख्यक गरीब रहेंगे, यह देश अमीर कैसे हो सकता है।