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मिथिलांचल के पर्व चौठचन्द्र का इस्लामिक कनेक्शन

आज के इस दौर में जब धार्मिक विभाजन की खाई रोज ब रोज गहरी की जा रही है, भारत के एक हिस्से मिथिलांचल में मुस्लिम शासक के हस्ताक्षर से एक हिंदू त्योहार का जन्म हुआ था। त्योहार का नाम है- चौठचंद्र। इस त्योहार की उत्पत्ति कथा को आज के विषैलै वातावरण में जानना इसलिए भी […]

आज के इस दौर में जब धार्मिक विभाजन की खाई रोज ब रोज गहरी की जा रही है, भारत के एक हिस्से मिथिलांचल में मुस्लिम शासक के हस्ताक्षर से एक हिंदू त्योहार का जन्म हुआ था। त्योहार का नाम है- चौठचंद्र। इस त्योहार की उत्पत्ति कथा को आज के विषैलै वातावरण में जानना इसलिए भी जरूरी है कि जिनके लिए इस त्योहार का जन्म हुआ उनके वंशज तथा लाभार्थियों के संतति भी माहौल को विषाक्त बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं।

चौठचंद्र(चौरचन) मिथिलांचल के हिंदू मतावलंबियों द्वारा मनाया जाने वाले प्रमुख त्योहारों मे से एक है। यहां की लगभग नब्बे प्रतिशत आबादी द्वारा मनाया जाने वाला यह त्योहार भाद्रपद (भादो) शुक्लपक्ष चतुर्थी को मनाया जाता है। मिथिलांचल से बाहर की हिंदू दुनिया के लिए लगभग अपरिचित यह त्योहार सिर्फ उन इलाकों में मनाये जाता है जो कभी दरभंगा राज के अधीन रहे हैं।

रामनरेश यादव

चौठचंद्र महिलाओं द्वारा मनाया जाने वाला त्योहार है। यह पर्व कुशी अमावस्या के दिन से मिट्टी के नए बर्तनों में दही जमाने से शुरू होता है। दही जमाने का सिलसिला चार दिनों तक चलता रहता है। गांवों में आज भी जिनके दुधारू पशु नहीं होते हैं, उनके यहां दूध पहुंचाने का रिवाज है। अपने पड़ोसियों के यहां बिना कीमत के दूध पहुँचाने का रिवाज़ आज भी सुदूर देहातों में अक्षुण्ण है। हालांकि शहर-बाजार के आसपास के इलाकों में बाजारीकरण के चलते सारे लेनदेन में नगदी का प्रभाव देखा जा सकता है। इस त्योहार में महिलाएँ दिनभर उपवास रखती हैं। खीर-पूड़ी और तरह-तरह के पकवान बनते हैं। डालियों (Baskets) को फलों से भरा जाता है। आंगन में चौका लगाकर सारे शाम के वक्त चांद को सारे खाद्य पदार्थ अर्पण करने के साथ यह पर्व अगले चरण में पहुँचता है।

घर के मुंहपुरुख को सम्मान के साथ मड़र पर बैठाकर जिमाया(खिलाया) जाता है। मुंहपुरुष के खाने के बाद ही किसी अन्य को खाने को मिलता है। मुंहपुरुष उस पुरुष को बोलते हैं, जो घर- परिवार के सर्वेसर्वा होते हैं तथा ऐसे मुंहपुरुष को मड़र के नाम से पुकारने की परंपरा रही है। मड़र को सम्मानित करने वाले इस त्योहार की उत्पत्ति की जड़ें दरभंगा राज के संस्थापक खंडवला वंश के शासकों से जुड़ती हैं। अधिक छानबीन करने पर इसकी जड़ें दरभंगा राज से आगे बढ़ते हुए मुगलिया सल्तनत के दरबार तक पहुँचती हैं। आपको जानकर हैरत होगी कि चौठचन्द्र पंडितों की इस मान्यता के बाबजूद मनाया जाता है कि भाद्रपद, शुक्लपक्ष चतुर्थी के चाँद को देखना अशुभ है। पोंगापंथियों के अनुसार इस दिन चाँद दिख जाए तो दोष मुक्ति के लिए उसकी ओर ढेला फेंकने का रिवाज रहा है। आखिर इस तिथि के अशुभ चांद के शुभ में बदलने के पीछे क्या कारण रहे हैं? पंडित आखिर किस कारण से इस तिथि के चाँद को शुभ मानने के लिए बाध्य हुआ?

जी हाँ! चौठ चन्द्र पर्व का दरभंगा राज से कनेक्शन है और दरभंगा राज का कनेक्शन मुगलिया सल्तनत से है। इस पर्व की उत्पत्ति के बारे में दो कहानियाँ प्रचलित हैं।

[bs-quote quote=”वे अकबर के दरबारियों और दरबार में मौजूद अपने चेलों, खासकर रघुनंदन, की मदद से ईद के ईदी के रूप में फिर से मनसबदारी हासिल करने में सफल रहे। इसी खुशी में ईद के दो दिन बाद चाँद की कृपा को धन्यवाद ज्ञापित करने के लिए हिंदू पर्व के रूप में चौठचन्द्र पर्व का जन्म हुआ। भाद्रपद शुक्ल पक्ष चतुर्थी के चाँद को देखना अब शकुन में बदल चुका था।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 

पहली कहानी

बात सोलहवीं सदी की है। मुगल बादशाह जलालुद्दीन अकबर अपने रणनीतिक कौशल से सल्तनत का विस्तार कर रहा था। मिथिलांचल में ओइनवार वंश का समापन हो चुका था। यहां शासन-प्रशासन में अराजकता थी। अकबर की इच्छा थी कि उनके शासन का विस्तार तिरहुत(मिथिला) तक हो। चूँकि पहले के शासक ओइनवार राजाओं का संबंध ब्राह्मण वंश से था इसलिए राजनीतिक कारणों से तिरहुत के लिए विश्वसनीय, विद्वान और चतुर ब्राह्मण मनसबदार की तलाश हो रही थी।

ऐसा करना अकबर को इसलिए उचित लगा कि ओइनवार राजाओं के शासन के दौरान ब्राह्मण सामंतों ने इस इलाके की खेती योग्य जमीन के बड़े भाग को हथिया चुका था। उन्हें लगा कि कोई ब्राह्मण मनसबदार ही ब्राह्मण भू सामंतों को स्वीकार हो सकता है। इस इलाके के नये मनसबदार की तलाश में अकबर के दरबार के नवरत्नों में महत्वपूर्ण हस्ताक्षर मान सिंह ने मदद की। उन्होंने मिथिलांचल से आए गढ़मंडला (मध्यप्रदेश) के राजपुरोहित और प्रकांड पंडित चन्द्रपति ठाकुर को इस मनसबदारी के लिए आमंत्रित किया। राजपुरोहित के पूर्वज मिथिला के ओईनवार शासकों के यहां मंत्री रह चुके थे। इस वंश के पतन के बाद वे लोग मध्यदेश के खंडवा चले गए थे, जहाँ से होते हुए वे गढ़मंडला मे बस गये थे।

राजपुरोहित मनसबदारी के अनिच्छुक थे। परंतु उनके मंझले बेटे महेश ठाकुर ने रुचि दिखाई जिसने अपने शिष्य की मदद से मनसबदारी हासिल किया। यह 1577 ई० के रामनवमी का दिन था। महेश ठाकुर ने अपने जन्म स्थान राजग्राम भौर से शासन प्रारंभ किया। यह गांव मधुबनी के नजदीक है। महेश ठाकुर के पास राजकाज चलाने का कोई अनुभव नहीं था। अनुभवहीनता के चलते वे लक्ष्य के अनुरूप टैक्स जमा न कर सके। फलस्वरूप उनसे मनसबदारी छीन ली गई। परंतु महेश ठाकुर ने हिम्मत नहीं हारी।

वे अकबर के दरबारियों और दरबार में मौजूद अपने चेलों, खासकर रघुनंदन, की मदद से ईद के ईदी के रूप में फिर से मनसबदारी हासिल करने में सफल रहे। इसी खुशी में ईद के दो दिन बाद चाँद की कृपा को धन्यवाद ज्ञापित करने के लिए हिंदू पर्व के रूप में चौठचन्द्र पर्व का जन्म हुआ। भाद्रपद शुक्ल पक्ष चतुर्थी के चाँद को देखना अब शकुन में बदल चुका था।

 एक मिथक और है  

दूसरी कहानी भी दरभंगा राज से संबंधित है। औरंगजेब की मृत्यु(1707 ई.) के बाद मुगलिया दरबार की चमक फीकी पड़ने लगी थी। हैदराबाद, अबध और बंगाल के सूबेदार मजबूत होकर दिल्ली दरबार से लगभग स्वतंत्र हो गए थे। ऐसी स्थिति में टैक्स के अधिकार क्षेत्र को लेकर दरभंगा राज और बंगाल के नवाब अली वर्दी खां (शासन काल-1700-1727) के बीच खींचतान चल रही थी। दरभंगा महाराज राघव सिंह (1700-1739ई०) पहले की तरह दिल्ली दरबार को टैक्स देना चाह रहे थे। जबकि बंगाल के नवाब अली वर्दी खां दरभंगा राज को अपने अधीनस्थ मान रहे थे। ऐसी स्थिति में मजबूत होते बंगाल के नवाब ने टैक्स को लेकर चल रहे रस्साकशी के बीच अपने सिपहसालार के माध्यम से  दरभंगा महाराज राजा राघव सिंह (9वें शासक) को गिरफ्तार करवाकर पटना के कैदखाने में डलवा दिया। टैक्स सम्बंधित मामलों का निपटारा होने के बाद उन्हें छोड़ दिया गया।

फिर से जागीरदारी हासिल करने की खुशी में चांद को खास मानने वाले शासक की कृपा के प्रति आभार में भाद्रपद शुक्ल पक्ष चतुर्थी को चौठचन्द्र पर्व की शुरुआत हुई।

दोनों कहानियों में कौन सी सच है, पता नहीं। परंतु इतना तो स्पष्ट है कि इस पर्व की उत्पत्ति का संबंध दरभंगा राज और मुगलिया सल्तनत से जरूर रहा है।

रामनरेश यादव अध्यापक और प्रसिद्ध लेखक हैं। मधुबनी में रहते हैं।

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