जहां कहीं भी ईश्वर की अवधारणा कायम है, लोग नियति को मानते ही हैं। हमारे देश में तो नियतिवाद को बढ़ावा देनेवाला एक ग्रंथ ही है, जिसे हम गीता के नाम से जानते हैं। ब्राह्मण इसे भगवद्गीता कहते हैं। इसमें तो यहां तक कहा गया है कि जो कुछ भी हो रहा है, वह विष्णु की इच्छा से हो रहा है। कुछ ऐसा नहीं जो उससे परे हो। इसलिए लोगों को यह भी बताया जाता है कि ‘जो हुआ अच्छा हुआ’।
मैं चूंकि नास्तिक आदमी हूं और ईश्वर को पूर्णरूपेण खारिज करता हूं तो नियति को मानने का सवाल ही नहीं उठता। मैं तो विज्ञान का आदमी हूं जो यह मानता है कि कोई भी घटना बिना किसी वजह के मुमकिन ही नहीं। अलग-अलग ताकतें काम करती हैं किसी घटना के घटित होने में। अब जैसे कल संसद में प्रेसीडेंट द्रौपदी मुर्मू को लेकर जो कुछ हुआ, उसे हम नियति नहीं कह सकते। यह तो होना ही था एक न एक दिन। अधीर रंजन चौधरी ने उनके लिए कल राष्ट्रपत्नी शब्द का प्रयोग किया तो हंगामा हुआ। हंगामे वाली बात उस समाज के लिए तो है ही जिसके पुरुष स्वयं को पति और महिलाएं स्वयं को पत्नी मानती हैं। हमारे यहां अमेरिका या इंग्लैंड का समाज थोड़े ना है जहां महिलाएं खुद को वाइफ और पुरुष हसबैंड कहलाना पसंद करते हैं। वैसे हमारे यहां भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो बोलचाल की भाषा में कुछ और शब्द का उपयोग करते हैं। जैसे आजकल पतियों को कुछ महिलाएं हबी कहना पसंद करती हैं।
मेरे हिसाब से यह बहुत डेरोगेटरी शब्द है। संसद इस पर विचार करे। समाज भी विचार करे कि कोई एक व्यक्ति पूरे देश का पति कैसे हो सकता है। आप बेशक चाहें तो उसे राष्ट्र अध्यक्ष कहें। इसका उपयोग शीर्षस्थ पद पर आसीन महिला के लिए भी आसानी से किया जा सकता है।
दरअसल, मैं यह भी नहीं मानता कि अधीर रंजन चौधरी ने भूलवश राष्ट्रपत्नी शब्द का उपयोग किया होगा। यह उनके अवचेतन में जरूर चल रहा होगा। चौधरी भी इंसान हैं और इसी देश की आबोहवा में पले-बढ़े हैं। मैं तो इंडियन एक्सप्रेस के उस पन्ने को याद कर रहा हूं, जिसमें एक तस्वीर में सिने अभिनेत्री रेखा राज्यसभा सदस्य मनोनीत किये जाने के बाद पहली बार संसद की कार्यवाही में हिस्सा लेने पहुंची थीं, और उन्हें एकटक निहारते कुछ पुरुष सदस्य दीख रहे थे। यह कोई अनोखी बात भी नहीं है। रेखा सुपरस्टार अभिनेत्री रही हैं। यदि वह कहीं भी जाएं तो लोग तो उन्हें इसी तरह एकटक होकर ही देखेंगे। हालांकि इसका दूसरा पक्ष भी है और वह है पितृसत्ता। पुरुष चाहे तो किसी महिला को एकटक होकर निहार सकता है, लेकिन महिलाओं के लिए निहारना वर्जित है।
खैर, मैं यह सोच रहा हूं कि राष्ट्रपत्नी शब्द पर हंगामा एक न एक दिन होना तय ही था। यह कल हो गया तो अच्छा ही हुआ। अब मुमकिन है कि राष्ट्रपति शब्द पर विचार हो। राष्ट्रपति शब्द में दो शब्द हैं– राष्ट्र और पति। जब देश आजाद हुआ तभी यह शब्द हमारे तत्कालीन नेताओं के दिमाग में आया होगा। तब हमें यह देखना होगा कि ये तत्कालीन नेता थे कौन? इनमें अधिकांश तो ब्राह्मण वर्ग के थे, जिनका वजूद इस बात पर निर्भर करता है कि इस देश में जातिवाद और पितृसत्ता कायम रहे। हालांकि यह जिम्मेदारी तत्कालीन बुद्धिजीवियों, जिनमें समाजशास्त्री और साहित्यकार आदि भी शामिल हैं, को यह जिम्मेदारी लेनी चाहिए थी कि वह राष्ट्रपति शब्द का विरोध करते। लेकिन जिन लोगों ने हिंदू कोड बिल का समर्थन नहीं किया, उनसे राष्ट्रपति शब्द का विरोध कहां संभव था।
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भारतीय समाज में पति और पत्नी की अवधारणा पितृसत्ता का परिचायक है। पेरियार अलहदा रहे। वह कहते थे कि पति और पत्नी एक-दूसरे को प्रेमी युगल अथवा जीवनसाथी मानें। उन्होंने तो आत्मसम्मान आंदोलन चलाया। लेकिन उनकी भी सीमा ही थी। उनका आंदोलन तमिलनाडु तक सीमित रह गया। मुझे झारखंड के चर्चित लेखक अश्विनी कुमार पंकज के उस उपन्यास की याद आ रही है, जिसका नाम था– चरका आयो होर। इस नाम ने तब मुझे हैरान किया था क्योंकि मैं पहले और अंतिम शब्द का मतलब नहीं जानता था। फिर पटना में अश्विनी कुमार पंकज से मुलाकात हुई थी युवा साहित्यकार व समालोचक अरुण नारायण के घर में। वहीं पंकज जी से पूछा तो उन्होंने बताया कि चरका आयो होर का मतलब है – गोरी लड़की आयी है। दरअसल, यह उपन्यास महिषासुर वध पर केंद्रित है, जिसका हिंदू कहानियों के मुताबिक दुर्गा ने छल से वध कर दिया था।
मैंने पंकजजी से पूछा कि “होर” शब्द क्या केवल लड़कियों अथवा महिलाओं के लिए इस्तेमाल किया जाता है? उनका जवाब था कि नहीं, इस शब्द से पुरुष को भी संबोधित किया जाता है। उनके मुताबिक आदिवासी समाज में स्त्री और पुरुष के बीच भेदभाव इतना नहीं है, जितना कि गैर-आदिवासी समाज में। वहां संबोधन के लिए भी अलग-अलग शब्द नहीं हैं। एकरूपता है।
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खैर, भारतीय समाज में इस तरह की एकरूपता मुमकिन नहीं है। मैं तो हिंदी प्रदेशों के बारे में सोच रहा हूं जहां पति शब्द के न जाने कितने पर्यायवाची हैं और पत्नी शब्द के लिए भी। फिर चाहे कोई पति कहे, भतार-सैंया-साजन-बालम-मालिक-हमार अदमी कहे या फिर कोई पत्नी-घरवाली-औरत-जनाना-घरे के-सजनी कहे। सब कहते ही हैं। मैं भी अपनी जीवनसाथी को अलग-अलग संबोधनों से बुलाता ही हूं। वह भी मुझे अलग-अलग संबोधनों से बुलाती है। अक्सर तो वह मुझे हमारी बड़ी बेटी के नाम से ही बुलाती है। नवल कहना तो उसने अब लगभग छोड़ ही दिया है। यह हमारे घर में परंपरा के मुताबिक ही है।
लेकिन राष्ट्रपति शब्द का पर्यायवाची शब्द खोजा जाना चाहिए। यह काम जितनी जल्दी हो, कर लिया जाय। मेरे हिसाब से यह बहुत डेरोगेटरी शब्द है। संसद इस पर विचार करे। समाज भी विचार करे कि कोई एक व्यक्ति पूरे देश का पति कैसे हो सकता है। आप बेशक चाहें तो उसे राष्ट्र अध्यक्ष कहें। इसका उपयोग शीर्षस्थ पद पर आसीन महिला के लिए भी आसानी से किया जा सकता है। लोकसभा अध्यक्ष के रूप में हम मीरा कुमार आदि को संबोधित कर ही चुके हैं। फिर राष्ट्र अध्यक्ष कहे जाने में किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
नवल किशोर कुमार फ़ॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।
बढ़िया विश्लेषण
राष्ट्रपत्नी उच्चारण के प्रति आक्रोश का कारण पति शब्द का स्वामी के रुप में एवं पत्नी का भोग्या के रुप में सामान्य प्रयोग है! ऐसे भेदपूर्ण उपयोगकर्ता एवं लाभार्थियों का आक्रोश न सिर्फ स्वाभाविक है बल्कि उद्देश्यपूर्ण भी!
पत्नी शब्द का प्रयोग स्वामिनी ,धारणकर्ती के रुप में प्रयोग करने का साहस समाज को जुटाना चाहिए
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