Friday, April 19, 2024
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पानी और पहाड़ चोरों के खिलाफ भी सिनेमा की भूमिका है

जलवायु परिवर्तन और उसके नकारात्मक प्रभावों से पूरी दुनिया प्रभावित हो रही है। प्रकृति बहुत नाराज है। हिमाचल में पहाड़ सडकों पर गिरकर राहगीरों की जान ले रहे तो महाराष्ट्र में कई जिलों को डूबा दिया है बाढ़ ने। अल्जीरिया के जंगलों में भयानक आग लगी है और सैंकड़ों लोग मारे गए हैं (11 अगस्त […]

जलवायु परिवर्तन और उसके नकारात्मक प्रभावों से पूरी दुनिया प्रभावित हो रही है। प्रकृति बहुत नाराज है। हिमाचल में पहाड़ सडकों पर गिरकर राहगीरों की जान ले रहे तो महाराष्ट्र में कई जिलों को डूबा दिया है बाढ़ ने। अल्जीरिया के जंगलों में भयानक आग लगी है और सैंकड़ों लोग मारे गए हैं (11 अगस्त 2021)। पिछले दो सालों से विश्व समुदाय को तबाह करने वाली कोरोना की वैश्विक महामारी प्राकृतिक व्यवस्थाओं में गैर-जरूरी हस्तक्षेप के कारण ही आयी है। जून-जुलाई 2021 में कनाडा और अमेरिका के कुछ क्षेत्रों में तापमान 50 डिग्री सेल्सियस से उपर चले जाने से सैंकड़ों लोगों की मौत हो गयी। उत्तरी ध्रुव के पास के भूभाग में इस तरह तापमान का बढ़ना एक अप्रत्याशित घटना है जो भविष्य के खतरों के प्रति चेतावनी है। जून 2018 में अख़बारों में एक खबर छपी कि दक्षिणी अफ्रीका के केपटाउन शहर के में भूगर्भ जल पूरी तरह समाप्त हो गया है। आज भारत के कई छोटे-बड़े शहरों में भूगर्भ जल समाप्त होने के कगार पर हैं। सन 2019 में चेन्नई शहर में भी पानी की भयानक कमी हुई। महाराष्ट्र के लातूर शहर में जब सन 2013 में 342 किमी की लम्बी दूरी से ‘वाटर ट्रेन’ लायी गयी तो पूरा देश आँखें फाड़े और कान लगाये आश्चर्य से इस खबर को देख-सुन और पढ़ रहा था। पानी पर जीवन भर शोध करने और लिखने वाले अनुपम मिश्र अपनी किताब ‘आज भी खरे हैं तालाब’ में मध्य प्रदेश के देवास शहर में पानी के संकट आने के बाद 25 अप्रैल 1990 को इंदौर से 50 टैंकर पानी वाटर ट्रेन से लाकर देवास पहुँचाने की बात बताते हैं और उस दिन से रोज पानी की ट्रेन देवास शहर आती है। उत्तर प्रदेश के कई जिलों में मिलाकर सैकड़ों विकास खंड ‘डार्क ज़ोन’ में जा चुके हैं। इस खतरे का सबसे बड़ा कारण हैण्डपम्प, बोरिंग और सबमर्सिबल की तकनीकी के जरिये फैला ‘पानी खेंचू’ नजरिया है जो हर खासो-आम को सिखाता है कि तालाब, कुआँ, नदी, झील सब पाट डालो, गंदे पानी और प्लास्टिक से भर डालो। जमीन के नीचे बहुत सारा पानी है उसे खींचो और बर्बाद करो। पानी अगर पीने लायक नहीं बचा है तो क्या हुआ आर.ओ. मशीन से फ़िल्टर करके पियो। इस तकनीकी परस्त और उपभोक्तावादी सोच ने हर तरफ जलसंकट पैदा कर रखा है।

फिल्म मोहन्जोदारो के एक सीन में पूजा हेगड़े और रितिक रोशन

फ़िल्में मनोरंजन के साथ ही अपने आसपास की आबोहवा और उभरती हुई नयी समस्याओं के प्रति लोगों को जागरूक करने का एक बेहतरीन माध्यम हैं। बॉलीवुड में भी कुछ फिल्में पर्यावरण के प्रति जनता को जागरूक एवं सम्वेदनशील बनाने के उद्देश्य से बनाई गयी हैं। जल के संरक्षण और तार्किक उपयोग के लिए गम्भीरता से सोचने और काम करने की जरूरत है।

पानी जीवन भी है और रोमांस भी

पानी सभी के जीवन के लिए एक महत्वपूर्ण प्राकृतिक तत्व है। जुलाई के महीने में जब स्कूल खुलते हैं भारत में चारो तरफ आसमां में बादल होते हैं। बरसात से खेत और समस्त धरती हरी-भरी हो उठती है। चारों तरफ पानी और खुशहाली होती है। लेकिन ये बरसात और पानी कम होते जा रहे हैं। शहर तो शहर गाँव का आदमी भी अपने घर और खेत के आसपास के तालाबों को पाटने और कब्जा लेने पर आमादा है। खेतों के बीच से बहती छोटी नदियों को किसान लोग जोतकर खेत बनाने में लगे हैं क्योंकि उन्हें नदी से ज्यादा अपने पम्पिंग सेट और नलकूप पर भरोसा हो गया है। संकट तो आना ही है। बचपन में गाँव में कोई तालाब की तरफ मुंह करके पेशाब भी करता था तो बड़े-बूढ़े तुरंत टोकते थे। कुओं को तो इतना पवित्र माना जाता था कि प्रयोग में न आने पर भी कोई उन्हें बंद नहीं करता था और ये मान्यता थी कि जो कुएं को पाटेगा उसकी अगली पीढ़ी के सभी बच्चे गूंगे-बहरे पैदा होंगे। लड़के की शादी में बारात निकालते समय गाँव के सभी कुओं की परिक्रमा व पूजा की जाती थी।

गाँव में तो फिर भी तालाब कुंए बचे हैं शहर में तो पक्के वाले विकास ने परम्परागत जल स्रोतों को बर्बाद कर रखा है। तालाब-झील कूड़ा फेंकने और गन्दा पानी बहाने के एक ‘स्पेस’ मात्र बनकर रह गये हैं। उन्हें भरने के बाद प्लाटिंग करके बेच देने या घर बनाकर कब्जा करने की सनक-सी सवार हो गयी है। शहरों में सैंकड़ों सालों से स्थित झील और तालाबों का अस्तित्व हमेशा के लिए समाप्त किया जा रहा है। सन 2008 की गर्मियों में जब हम जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में छात्र थे तो कैम्पस के पीछे वसंत कुञ्ज की तरफ एक गाँव के लोगों ने सडक पर आकर प्रदर्शन करना शुरू कर दिया क्योंकि वहां एक ‘नीला हौज’ नाम का एक सुंदर जलस्रोत था जिसको भरकर सड़क बनाया जाना था। अरावली की पहाड़ियों में बसे इस क्षेत्र से पहले कई नदियाँ निकलती थीं और यमुना में आकर मिलती थीं लेकिन दिल्ली शहर के पक्के वाले विकास ने उन्हें हमेशा के लिए खत्म कर उन्हें गंदे नालों और रिहायशी इलाको में तब्दील कर दिया। बरसात में ज्यादा पानी बरस जाने पर जब पानी अपना पुराना रास्ता खोजता है तो सड़कें और मोहल्ले कुछ घंटों के लिए तालाब और नदी बनकर उनका अरमान पूरा कर देते हैं। हॉस्टल में जीवविज्ञान के एक विद्यार्थी को जब अनावश्यक पानी बहाने पर हम लोग टोकते थे तो उनका लॉजिक होता था कि पानी तो रीसाईकल होकर फिर से वापस आ ही जाता है। दिल्ली के लोगों के लिए भूगर्भ जल और यमुना नदी के पानी के कम पड़ने पर अब हिमाचल की रेणुका झील और गंग नहर से पानी ले रहे हैं।

समाज भी पानी का कम गुनाहगार नहीं है

फिल्म काई पो चे में अमित साध, सुशांत सिंह और राजकुमार राव

उत्तर प्रदेश के विभिन्न जनपदों में तैनाती के दौरान घटी कुछ ऐसी घटनाओं का ज़िक्र भी यहाँ करना समीचीन होगा क्योंकि उनसे ये पता चलेगा कि नदी, तालाब और कुओं को लेकर लोगों की सोच कितनी घटिया स्तर की हो चुकी है। पहली घटना जनवरी 2014 में फर्रुखाबाद जिले की है। वहाँ प्रत्येक वर्ष गंगा नदी के मैदान में घटिया घाट पर एक महीने लंबा चलने वाला कुम्भ की भांति रामनगरिया मेला लगता है। देश के और शहरों की तरह वहां भी गंदे नाले सीधे नदी में गिरते हैं। मेला के उद्घाटन के दिन कुछ तथाकथित समाजसेवी और संत लोग धरने पर बैठ गये कि जब तक नदी में गिरने वाले नालों को बंद नही किया जाता हम मेला शुरू नहीं होने देंगे। कई वरिष्ठ अधिकारी उन्हें मनाने में लग गये। नालों को दूसरी तरफ मोड़ा जा चुका था और कुछ काम उस दिन भी किया गया। जब संत समाज धरने पर बैठा था ठीक उसी समय जब मैं वापस शहर की तरफ जा रहा था तो देखा कि पुल के एक तरफ ट्राली-ट्रेक्टर खड़ी है और तीन-चार मजदूर ट्राली से टोकरी भर-भर के गंदा सामान गंगा में फेंक रहे हैं। पूछताछ करने पर पता चला कि वे पड़ोस के मैनपुरी जिले के थे और किसी कारखाने का जहरीला कचरा फेंकने आये थे और वे पहले भी ऐसा करते रहे हैं। इसी बीच उनका एक आदमी फोन पर किसी से मेरी बात कराने के लिए आगे बढ़ा। दूसरी तरफ के आदमी ने सिफारिश कि मैं उसकी फैक्ट्री का कूड़ा नदी में फेंकने दूं। मैंने फोन काटा और उसे दूर जमीन पर फेंक दिया। आदमियों को ट्राली-ट्रेक्टर सहित भगाया गया। धरनारत नागरिकों और कूड़ा नदी में डालने वालों को देखकर हमने सोचा कि लोग सब कुछ बहती नदियों की धार में फेंकना चाहते हैं चाहे वो जहर ही क्यों न हो। इसी तरह प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर खीरी लखीमपुर जिले में जिसे ‘चीनी का कटोरा’ कहा जाता है, कुल आठ चीनी मिलें हैं और सभी का गन्दा-विषैला और बदबूदार पानी वहाँ की सरायन, कठिना, उल्ल और शारदा नदियों में डाल दिया जाता है। यहाँ नदियों के किनारे बसे लोगों का पूरा-पूरा गाँव कई तरह की बीमारियों से ग्रसित हो चुका है। इन गंदे पानी के नालों के असंशोधित पानी को रोकना चाहो तो आसान नहीं है। जौनपुर में सन 2016 में एक और अजीबोगरीब घटना से सामना हुआ जिससे पता चलता है कि गाँव के लोग जो कभी अपने जलस्रोतों को पूजते थे उनकी स्वच्छता को लेकर बेहद जागरूक थे उनकी सोच का स्तर रसातल में जा चुका है। वहाँ के सरायख्वाजा थाना क्षेत्र में एक गाँव के बीच में और चारों तरफ आबादी से घिरे एक तालाब के किनारों पर लोगों ने शौचालय बनाये और सीधे उनका मुंह तालाब के पानी में खोलकर मल प्रवाह कर रहे थे। जब हमें शिकायत मिली तो पुलिस और तहसील के कर्मचारी जाँच में गये और लोगों को ऐसा करने से मना किया तो टीम को भीड़ ने घेर लिया। उनके खिलाफ मुकदमे की कार्यवाही भी की गयी शौचालयों को बंद भी कराया गया। सीतापुर में एक पूरा मोहल्ला सीधे सीवेज में अपने शौचालयों के मल को बहा रहा है और सरायन नदी में भी। ऐसे कुकृत्यों से जलस्रोत कैसे बचेंगे और क्या होगा पानी का और भविष्य की पीढ़ियों का हम सहज अंदाजा लगा सकते हैं।

मैदान तो पानी की समस्या से जूझ ही रहे हैं हिमालय जैसे पहाड़ में बसे शिमला जैसे शहरों का भी बुरा हाल है। एक तरफ बनारस में गंगा सूखकर इतनी क्षीण हो जाती हैं कि बाइकर्स गैंग उसमे स्टंट और रेस करके धूल उड़ाते हैं तो दूसरी तरफ शिमला में पीने के पानी के लिए लम्बी कतारे लगती हैं। ऐसा होना एक भयानक संकेत है। हिमालय पहाड़ में अपनी यात्राओं (जम्मू-कश्मीर, नैनीताल, डलहौजी-खजियार, शिलांग) के दौरान हमने प्राकृतिक झरनों से गिरने वाले स्वच्छ, शीतल, ठंडे और मीठे पानी को पीने का आनंद उठाया। हिमालय में बसे स्थानीय लोग ऐसी ही छोटी-छोटी धाराओं से पानी लेते हैं और अपनी रोजमर्रा की जरूरतें पूरा करते हैं। डलहौजी-खजियार जैसी पहाड़ी हिल स्टेशनों पर सभी होटलों तक में इन्ही जलधाराओं से पानी की आपूर्ति होती है। जब लालचवश इन प्रकृति प्रदत्त धाराओं का मुह बंदकर आवास, होटल और पक्के निर्माण कर दिए जाते हैं तो हिमालय की गोंद में बसे होने के बावजूद यहाँ के आमजन को पानी के लिए कतार लगानी पड़ती है। यहाँ पानी और पर्यावरण से जुड़े मुद्दों पर बनी बॉलीवुड और हॉलीवुड की कुछ ऐसी फिल्मों का विवरण देना प्रासंगिक होगा।

बॉलीवुड सिनेमा में एक निगाह पैसे पर, आधी कला और आधी सरोकारों पर

बॉलीवुड सिनेमा ने पानी और पर्यावरण की समस्याओं को उसके वास्तविक स्वरूप में दिखाने की जगह उसको प्रतिकीत करने में ज्यादा दिलचस्पी ली है। अधिकतर फिल्में मसालावाद का शिकार हैं। वक्त (1965), राम तेरी गंगा मैली (1985), मदर इंडिया (1957), दसावतारम (2008), भोपाल एक्सप्रेस (1999), वाटर (2005), लगान (2001), कौन कितने पानी में (2015), वेल डन अब्बा (2009), जल (2013), तुम मिले (2009), काई पो चे (2013), मोहनजोदाड़ो (2016), कड़वी हवा (2017), रेणुका जी इन डेलहीस टैप्स (2010) हालांकि कुछ उल्लेखनीय फिल्में भी हैं।

हॉलीवुड ने गंभीर फिल्में बनाई

हॉलीवुड में पर्यावरणीय विषयों पर फिल्में बनाने की समृद्ध परम्परा रही है, कुछ प्रमुख फ़िल्में यहाँ दी जा रही हैं: सोयलेंट ग्रीन (1973), चाइना टाउन (1962), देरसू उजाला (1975), एन एनिमी ऑफ़ द पीपुल (1978), द चाइना सिंड्रोम (1979), वाटर एंड अ सिटी (2010), एरिन ब्रोकोविच (2000), , फ्लो: फॉर लव ऑफ़ वाटर (2008), मोबी डिक (1956), फाइंडिंग निमो (2003), अवतार (2009), लाइफ ऑफ़ पाई (2012), मार्च ऑफ़ द पेंगुइन्स (2005) एन इनक्न्वीनिएंट ट्रुथ (2006), आर्कटिक टेल (2007), द डे आफ्टर टुमारो (2004), द एलेवेनथ ऑवर (2007), फ्रेंगुल्ली: द लास्ट रेनफारेस्ट (1992),  हैपी फीट (2006),एर्थ (2007) वाल-इ (2008), अटुरे ओसंस (2009) चेसिंग आइस (2012), जस्ट इट इट (2014), गैसलैंड (2010), ब्लैकफिश (2013),  फ़ास्ट फ़ूड नेशन (2006), द हैपेनिंग (2008), नो इम्पैक्ट मैन (2009), टैपड (2009), डर्ट (2019), फ्यूल (2008) रेसिंग एक्सिटिन्सन (2015), अ ब्यूटीफुल प्लेनेट (2016), बिफोर द फ्लड (2016), रिवर ब्लू (2017) ओक्जा (2018), द ह्यूमन एलिमेंट (2019), सी पायरेसी (2021).

‘लगान’ मुक्ति की फिल्मी कोशिश के बाद ‘कड़वी हवा’ से बचना मुश्किल है

लगान (2001), आमिर खान द्वारा निर्मित और आशुतोष गोवारिकर द्वारा लिखित-निर्देशित एक पीरियड फिल्म है जिसकी संकल्पना अंग्रेजी हुकूमत के दौर (1893) में की गयी है जिसमें सूखे से प्रभावित गुजरात के भुज क्षेत्र के चंपानेर गाँव के लोग अपना लगान माफ़ कराने के लिए अंग्रेज आधिकारी की एक चुनौती को स्वीकार कर लेते हैं कि वे एक क्रिकेट मैच खेलेंगे। शर्त यह रखी जाती है कि यदि भारतीय लोग मैच जीत गये तो पूरे क्षेत्र की लगान तीन साल के लिए माफ़ हो जायेगी और यदि हार गए तो तीन गुना लगान देना होगा। फिल्म के नायक भुवन द्वारा यह शर्त स्वीकार कर ली जाती है। बॉलीवुड और क्रिकेट के ड्रामे के पैसा कमाऊ फार्मुले के बीच यहाँ मुख्य मुद्दा पानी और सूखा ही है। आशुतोष गोवारिकर ने अपनी फिल्म मोहनजोदाड़ो में भी सिन्धु नदी पर लालचवश बाँध बनाने और उसकी धारा को मुक्त कराने के जद्दोजहद के बीच अपनी कथा की बनावट काल्पनिक तरीके से की है। सिन्धु घाटी की सभ्यता के विनाश का एक प्रमुख कारण बाढ़ से होना इतिहासकारों द्वारा बताया गया है और इसी को आधार बनाकर इस फिल्म का निर्माण किया गया है।

फिल्म कड़वी हवा का एक मार्मिक

‘कड़वी हवा’ (2017) का निर्देशन नील माधव पांडा द्वारा जलवायु परिवर्तन के विषय को ध्यान में रखकर किया गया है। इसके पूर्व में भी पंडा ने आई एम कलाम, जलपरी और कौन कितने पानी में जैसी फिल्मों से सामाजिक और पर्यावरणीय मुद्दों को उठाया है। इस फिल्म की कहानी बुंदेलखंड के सूखा प्रभावित क्षेत्र, उड़ीसा के तटीय क्षेत्रों एवं धौलपुर राजस्थान के चम्बल क्षेत्र से उजड़ते गांवों की पीड़ा पर केन्द्रित है। देशभर में खेती की दुर्दशा और किसानों के पलायन और आत्महत्या की खबरें आजकल आम हो चली हैं। इस फिल्म में एक छोटे से गाँव का अँधा किसान हेडू एक सूखाग्रस्त गाँव में रहता है जहां कभी-कभार ही बारिश होती है। इस किसान के बेटे मुकुंद ने खेती के लिए बैंक से कर्ज लिया हुआ है जो फसल चौपट होने के कारण वापस नहीं लौटा पा रहा है। गाँव के अन्य किसानों के भी ऐसे ही हालात हैं। सूखे और कर्ज की दोहरी मार से एक के बाद दूसरे किसान आत्महत्या कर रहे हैं। एक बैंक कर्मचारी गुनु बाबू जब भी कर्ज वसूलने गाँव में आता है कोई न कोई किसान आत्महत्या जरूर करता है। अंधा किसान हेडू अपने कर्जदार बेटे मुकुंद को बचाने के लिए गुनु बाबू से एक डील करता है कि वह अपने गाँव के लोगों की सूचनाएँ एजेंट गुनु बाबू को देगा और बदले में उससे कुछ पैसे लेगा ताकि वह अपने बेटे का कर्ज चुका सके। गुनु बाबू ओडिशा के चक्रवात में अपने पिता को खो चुका है और इतना पैसा कमाना चाहता है कि बाढ़ प्रभावित गाँव से अपने परिवार को बाहर निकाल सके। हैरानी की बात यह है कि बारिश और बाढ़ से आतंकित गुनु बाबू हेडू के सूखा प्रभावित उसी गाँव में रहना चाहता है जहाँ रोज किसान आत्महत्या करने को विवश हैं। फिल्म जलवायु परिवर्तन से पर्यावरणीय क्षरण की ही बात नहीं करती बल्कि मुश्किलों से घिरे मानवीय समुदायों में मूल्यों के क्षरण की तरफ भी संकेत करता है। ये सारी आपदाएँ मनुष्य ने अपने लालच और अविवेकपूर्ण हरकतों से आमंत्रित की हैं जिसका परिणाम भी उसे ही भुगतना होगा, कड़वी हवा इसी सन्देश का दस्तावेज है। दिनांक 24 जून 2018 रविवार को इंडियन एक्सप्रेस ने उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले के भारत-चीन सीमा से लगे और उत्प्रवास के कारण निर्जन हो चुके ‘घोस्ट विलेजेज’ पर एक रिपोर्ट प्रस्तुत की थी। यहाँ यह कहना समीचीन होगा कि प्राकृतिक आपदाएं विस्थापन का मूलभूत कारण बनती जा रही हैं।

बरसात और पानी से तरल और हरे-भरे गीत

फिल्म भोपाल एक्सप्रेस में केके मनन और नसीरुद्दीन शाह

बॉलीवुड फिल्मों में बरसात और पानी का फिल्मांकन बाढ़, सूखा की समस्या को दिखाने तथा रोमांटिक गानों और दृश्यों में किये जाने की परम्परा रही है। कुछ बरसात आधारित फ़िल्मी गीतों की सूची यह दी जा रही है जो बॉलीवुड फिल्मो के क्रमिक विकास और इतिहास की तरफ भी इशारा करती हैं :

बरसात में हम से मिले तुम और ज़िन्दगी भर नही भूलेगी वो बरसात की रात –बरसात (1949), प्यार हुआ है इकरार हुआ है – श्री 420 (1955), भीगा-भीगा प्यार का समां – सावन (1959), गंगा आये कहाँ से गंगा जाए कहाँ पे – काबुली वाला (1961),काली घटा छाये मोरा जिया घबराए – सुजाता (1959), ठंडी हवा काली घटा आ ही गयी झूम के – मि. एंड मिसेस 55 (1955), मेघा छाये आधी रात- शर्मीली (1971), कुछ कहता है ये सावन – मेरा गाँव मेरा देश (1971) पानी रे पानी रे तेरा रंग कैसा – शोर (1972), सावन के झूले पड़े- जुर्माना (1979),रिम झिम गिरे सावन सुलग सुलग जाये मन – मंजिल (1979),आज रपट जाए तो हमे ना बचइयो-नमक हलाल (1982), बादल यूँ गरजता है – बेताब (1983),रिमझिम के तराने लेके – काला बाज़ार (1989), छोटी सी कहानी से बारिशो के पानी से – इजाज़त (1987), लगी आज सावन की फिर वो झड़ी है – चांदनी (1989), मेघा रे मेघा रे – लम्हे (1991), रिमझिम-रिमझिम – 1942 अ लव स्टोरी  (1994), टिप-टिप बरसा पानी, पानी ने आग लगायी- मोहरा (1994), पानी पानी रे खारे पानी रे – माचिस (1996),  गीला गीला पानी – सत्या (1998), करने लगी हूँ बूदों से बातें – तक्षक (1999), बरसो रे मेघा मेघा-गुरु (2007), घनन घनन घन घिर आये बदरा – लगान (2001), मोहब्बत बरसा देना तुम सावन आया है (2015)।

द ह्यूमन एलिमेंट और सी पायरेसी जैसी हॉलीवुड मूवीज और डॉक्यूमेंट्री फिल्मों में दिखाया गया है कि जल, जंगल, जमीन, समुद्र और पहाड़ों में खनन की आक्रामकता और अधिकतम मुनाफा लूटने की लालच के कारण हमारी यह धरती रहने लायक नहीं बची है और हालात और खराब होते जा रहे हैं। जेम्स बालोग ने अपनी फिल्म में मनुष्य और प्रकृति के बीच के जटिल सम्बन्धों का फिल्मांकन करते हुए यह आशावादी नजरिया भी प्रस्तुत किया है कि मनुष्य ही वह एलिमेंट है जो इस धरती को पुनः पुराने और अच्छे स्वरूप में ला सकता है। बालोग का यह नजरिया सही भी है क्योंकि संसाधनों का दूरदर्शितापूर्ण सदुपयोग कर हम सतत विकास करते हुए अपनी भावी पीढ़ियों के लिए अपने सुंदर ग्रह को सुरक्षित रख सकते हैं।

पानी और पर्यावरण के जमीनी योद्धा जिनके व्यक्तित्व का अंकन सिनेमा पर कर्ज़ है

फिल्म कौन कितने पानी में

भारतवर्ष के विभिन्न भागों में अपने प्रयासों से जल जंगल जमीन को बचाने के लिए प्रयासरत जागरूक नागरिकों को हम योद्धा मानते हैं। उनमें से कुछ प्रमुख व्यक्तियों के नाम निम्न प्रकार हैं : बलबीर सिंह सीचवाल, अमृतलाल बेगड़, अनुपम मिश्र, राजेंद्र सिंह, सीता अनंतसिवन, मोहन चावरा एवं उनकी पत्नी रुक्मिणी, अफरोज शाह, अनिल मल्होत्रा एवं उनकी पत्नी पामेला गेल मल्होत्रा, शुभेंदु शर्मा, जादव मोलाई पायेंग, चेवांग नोर्फेल, अमला रुइया, आबिद सुरती, अय्यप्पा मसागी, श्रीश आप्टे, मेधा पाटकर (नर्मदा बचाओ आन्दोलन), रिचा सिंह (संगतिन), वंदना शिवा, सुनीता नारायणन, अनिल जोशी, जया देवी, श्यामजी भाई अंतला, हर्शिनी वक्कालंका आदि।

इन सभी हस्तियों ने जल, वायु, जंगल और ज़मीन को बचाने, साफ़ शुद्ध रखने के लिए अपने जीवन को समर्पित कर रखा है। किसी ने नदियों को पुनर्जीवित किया है तो किसी ने अपने दम पर नये जंगल बसा दिए हैं। कोई कृत्रिम ग्लेशियर बनाकर पानी को संजोया है तो किसी ने रेगिस्तान में मरूद्यान की हरियाली बिखेर दी है। उदाहरण के लिए संत बलवीर सिंह सीचवाल ने पंजाब में ‘व्यास’ की सहायक 164 किमी लम्बी ‘काली बीन’ नदी को साफ़ कराकर पुनर्जीवित किया जो प्रदूषण के कारण लुप्त होने के कगार पर थी। अमृतलाल बेगड़ ने नर्मदा के किनारे पैदल यात्राएँ। कर उसे ‘सौन्दर्य की नदी’ के तौर पर लिखा तो मेधा पाटकर ने नर्मदा पर बाँध को जनविरोधी और अप्राकृतिक बताकर लम्बी लड़ाई लड़ी। रिचा सिंह शारदा नदी की तबाही से किसानों और गाँवों को बचाने के लिए उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले में लगातार संघर्षरत हैं। राजेन्द्र सिंह ने राजस्थान की कई सूख चुकी नदियों को चेक डैम और लोकप्रचलित तरीकों से पुनर्जीवित किया और जलपुरुष कहलाये।

“केवल धार्मिक महत्व के कारण गंगा-जमुना और सरस्वती को महत्व देने और नदियों के घाटों पर मनमोहक आरती का आयोजन करने मात्र से जीवनदायिनी नदियों का कल्याण नही होगा। साथ ही ये केवल सरकारों की ज़िम्मेदारी नही है। देश के हर नागरिक के उपर पानी की हर एक बूँद को बचाने की महती ज़िम्मेदारी है।”

उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड के ललितपुर जनपद में जल सहेली नामक महिलाओं के संगठन ने सूखा प्रभावित इस क्षेत्र में उम्मीद की एक राह दिखायी है। पानी पंचायत भूगर्भ जल के संचयन और विवेकपूर्ण वितरण के लिए कार्य करने वाली किसानो की एक रजिस्टर्ड संस्था है। सन 1974 में महाराष्ट्र के सूखा प्रभावित पुरंधर तालुका के नईगाँव में आरम्भ करते हुए विलासराव सालुंके द्वारा पानी पंचायत की स्थापना की गयी। ‘राष्ट्रीय जल बिरादरी’ का गठन ‘तरुण भारत संघ’ द्वारा देशभर के गाँवों और स्थानीय समुदायों को जल संचयन और वितरण के लिए एक मंच प्रदान करने के उद्देश्य से ‘नेशनल वाटर कन्वेंशन’ की वर्ष 2001 की बैठक में किया गया। देश के प्रत्येक राज्य में इसकी शाखाएं हैं जिसमें जल विशेषज्ञ, वैज्ञानिक, समाजसेवी और निजी संस्थाएं शामिल हैं जो सरकारों से तालमेल कर जनहित में नीतियाँ बनाने हेतु प्रयासरत रहती हैं। जल संरक्षण और विवेकपूर्ण सदुपयोग के प्रति जनता को संवेदनशील बनाना भी इस आन्दोलन का उद्देश्य है। इन सबके बावजूद अभी सिनेमा ने इनमें से किसी के भी व्यक्तित्व और कृतित्व पर कोई सार्थक फिल्म नहीं बनाई। इससे पता चलता है कि अभी भी वह जीवित नायकों की उपेक्षा ही करना चाहता है। शायद यह कॉर्पोरेट के लगे पैसे का प्रभाव है। क्योंकि असल में तो जंगल, पहाड़, नदियां, समंदर के लिए वही सबसे बड़ा खतरा है।

बॉलीवुड के पास जेनुइन विषयों का घोर दारिद्र्य है

इलाहाबाद में गंगा-जमुना के संगम पर तीसरी विलुप्त नदी सरस्वती की परिकल्पना करने और नासा की सेटेलाइट मैपिंग करके उसकी धारा को खोजवाने वाले लोग आज विलुप्त हो रही नदियों की दुर्दशा से अनजान हैं। केवल धार्मिक महत्व के कारण गंगा-जमुना और सरस्वती को महत्व देने और नदियों के घाटों पर मनमोहक आरती का आयोजन करने मात्र से जीवनदायिनी नदियों का कल्याण नही होगा। साथ ही ये केवल सरकारों की ज़िम्मेदारी नही है। देश के हर नागरिक के उपर पानी की हर एक बूँद को बचाने की महती ज़िम्मेदारी है।

फिल्म वेल डन अब्बा का एक दृश्य

व्यक्तिगत स्तर पर जंगल, पानी, हवा और पर्यावरण के अन्य उपादानों को बचाने की कोशिश लगातार की जा रही हैं और उनमें सफलता भी मिली है लेकिन अभी इसे एक मिशन और आन्दोलन बनना बाकी है। पर्यावरणीय चुनौतियों को समझने और उनसे निपटने के लिए सबको निजी तौर पर तैयार होना होगा। सतत विकास के लिए एक सामूहिक ज़िम्मेदारी का विकास करना होगा। फिल्में इस कार्य में बड़ी सन्देशवाहक हो सकती हैं लेकिन दुःख की बात है कि बॉलीवुड में ऐसे विषयों पर केन्द्रित फिल्मों का घोर अभाव है। डाक्युमेंटरी फ़िल्में जरूर बनी हैं लेकिन उनकी पहुँच आमजन तक नहीं है। हॉलीवुड में ऐसी दर्जनों फ़िल्में बनी हैं जो जल, जंगल, जमीन, ईंधन, फ़ास्ट फ़ूड के नुक्सान आदि मुद्दों पर गहराई से विमर्श प्रस्तुत करती हैं लेकिन बॉलीवुड में ऐसी फिल्मों को अँगुलियों पर गिना जा सकता है, जिससे पता चलता है की कृषि प्रधान देश में, जहां किसान कठिनाइयों से विवश होकर आत्महत्या करने को मजबूर हैं वहाँ बॉलीवुड जैसी विशाल सिनेमा इंडस्ट्री उनकी दुश्वारियों पर फ़िल्में बनाने के बारे में बिलकुल गम्भीर नहीं है। ऑस्ट्रेलिया में प्रत्येक साल पर्यावरण पर बनाई गयी फिल्मों को दिखाने के लिए ‘इन्वायरमेंटल फिल्म फेस्टिवल’ का आयोजन किया जाता है और ये जानने का प्रयास किया जाता है कि ये फिल्में जानवरों के कल्याण से लेकर, सतत विकास और जलवायु परिवर्तन जैसे क्षेत्रों में क्या असर डालती हैं। ये फिल्में लोगों को अपने वातावरण के प्रति जागरूक करती हैं। यही इस आयोजन का उद्देश्य भी है। नये प्रयास तो गंभीरता से नहीं ही हो रहे हैं, अपने देश में परम्परागत भारतीय मूल्य और आचार-व्यवहार थे उनको भी लोगों ने आधुनिक तकनीक के चक्कर में भुला दिया और परजीवी बन गए। आज कोई भी अपनी सुविधाभोगी आदतों के चक्कर में सावधानी बरतने को तैयार नहीं और दुर्व्यस्थाओं के लिए दूसरे को दोषी ठहराने और उपचारात्मक उपायों को अपनाने में लगा हुआ है। बॉलीवुड का सारा ध्यान बेहिसाब पैसा बनाने में लगा है। न वे पर्यावरण के मुद्दे पर फिल्में बनाते हैं और न ही जल, जंगल, जमीन और समन्दर को बचाने को ही आगे आते हैं। बॉलीवुड की अब तक की भूमिका पर्यावरण के क्षेत्र में नगण्य है। 28 अगस्त 2015 को इसी तथ्य को ध्यान में रखकर इंडियन एक्सप्रेस को दिए एक इंटरव्यू में प्रख्यात अभिनेता अमोल पालेकर ने जोर देकर कहा था कि ‘बॉलीवुड को पर्यावरणीय मुद्दों पर ज्यादा से ज्यादा फ़िल्में बनानी चाहिए’।

 

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7 COMMENTS

  1. पानी और पहाड़ चोरों के खिलाफ ंंंंंं
    लेख पढ़कर अच्छा लगा। भारतीय सिनेमा में पहाड़ों और झरनों नदियों को भरपूर इस्तेमाल किया जाता है और फिल्मों को इससे आर्थिक मजबूती भी मिल रही है परंतु प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा व जागरूकता के संबंध में हिंदी सिनेमा में अभी बहुत कार्य होना बाकी है ।लेखक द्वारा इस बिंदु पर विशेष रोशनी डाली गई है।

  2. बेहद शोधपरक और जरूरी लेख। हम सभी को सोचना होगा। जल संरक्षण से ही भविष्य को जीवित रखा जा सकता है। लेख के लिए साधुवाद।

  3. सारगर्भित आलेख सर। पानी को सिनेमा से इतनी बरिकी से व्याख्या।??????????

    • सारगर्भित आलेख सर। पानी को सिनेमा से इतनी बारीकी से व्याख्या????

  4. पर्यावरण को लेकर जमीनी चिंताओं से लैस शोध आलेख। अगर लोग भक्ति के बदले अपने जंगल, नदी और तालाब से प्रेम करें तो स्थिति बेहतर होगी। राकेश जी ने जमीनी सच्चाई के साथ साथ फिल्मों में आए संदर्भों का भी वारीक विश्लेषण किया है। बधाई।

  5. पानी और पहाड़ चोरों के खिलाफ लेख पढ़कर बहुत अच्छा लगा।आज के इस भौतिकतावादी युग में लोगो के द्वारा जिस प्रकार अपने आने वाले वंश का पूरी तरह अनजान और स्वार्थी बनकर प्राकृतिक संसाधनों का दुष्प्रयोग बहुत ही सोचनीय है,हालाकि इसके संरक्षण के लिए सिनेमा के माध्यम से दर्शकों को सामने परोसा गया।लेकिन अभी भी लोगो को अपने जीवन में उतारने के लिए बहुत कुछ बाकी है।

  6. माननी लेखक श्री राकेश जी ने अति गंभीर जल संकट की तरफ आम व खास जनों का ध्यान आकर्षित करने व कुछ समाधानात्मक पहल करने हेतु प्रेरित करने का बृहद प्रयाश किया है।
    मेरी निजी राय में सरकारी मशीनरी की पहल ही प्रभावी तौर पर कुछ सार्थक परिणाम ला सकती है।
    आज हम अपने ही परिवेश मे कही तालाब पाट कर खेत मे तब्दीली देखते हैं और कही शहरों मे पेय जल द्वारा सड़कों, गाड़ियों की धुलाई मे अपव्यय देख कर कुछ भी न कर पाने की माजबूरिवश नजरें फेर कर चल देते हैं।
    अतः सरकारों को इस मुद्दे पर जागृत होने की नितांत आवश्यकता है।

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