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ग्राउंड रिपोर्ट

दलित दूल्हों का घोड़ी पर चढ़ना : उनका कहना है कि घोड़ी हमारे बाप की है, हमारी ज़िद है कि इंसान सब बराबर हैं

संविधान भले ही सभी को बराबरी का अधिकार देता है लेकिन समाज में मनुस्मृति के समर्थकों के गले यह बात नहीं उतरती। यही लोग हैं जो समाज की जातिवादी व्यवस्था को मजबूत किए हुए हैं। इसके साथ नेता मंत्री अपने भाषणों में सभी के बराबर होने की बात करते हैं लेकिन कहीं न कहीं उनके लोग इसे नकारते दिख जाते हैं। दलितों को समाज में उपेक्षित नज़रों से देखते हैं। दलित दुल्हों को घोड़ी पर देखकर सवर्ण बिदक जाते हैं। समाज के वंचित समुदाय के लोगों का आगे बढ़ना उन्हें नागवार गुजरता है और विरोधस्वरूप मारपीट पर उतारू हो जाते हैं। वैसे तो दलितों से भेदभाव हर प्रदेश में हो रहा है लेकिन इन पर हमले और हिंसा के मामले में उत्तर प्रदेश सबसे आगे है।

शहरी दलित मध्यवर्ग के लोगों को लगता है कि जाति-प्रथा कमजोर पड़ती जा रही है। यह भ्रम अकारण नहीं है। वे अपने कार्यस्थलों पर उच्च जातियों के कुछ व्यवहारों के आधार पर यह राय बनाते हैं, जैसे साथ बैठकर गप-शप, चाय-पानी या कभी-कभार लंच। ये सतही स्तर पर दिखने वाले परिवर्तन हैं, कुछ व्यक्तियों तक सीमित हैं। बुनियादी मामलों में व्यापक तौर पर कोई परिवर्तन नहीं आया है। सर्व विदित है कि दलितों पर अत्याचार सदियों होता आ रहा है। यह कोई नई बात नहीं है। आज भी यहाँ-वहाँ दिलितों पर अत्याचार की घटनाएं घटती ही रहतीं हैं अलग-अलग राज्यों से रोज-बरोज दलित उत्पीड़न की घटनाएं सामने आती रहती हैं।

पिछले दिनों राजस्थान विधानसभा में खुद सरकार की तरफ से यह जानकारी उपलब्ध कराई गई कि तीन साल में दलित दूल्हों को घोड़ी पर चढ़ने से रोकने की 38 घटनाएं संज्ञान में आई हैं। करीब दो साल पहले मध्य प्रदेश में एक दलित दूल्हे का हेलमेट लगाए फोटो चर्चा में आया था। उसकी वजह भी घोड़ी पर चढ़कर बारात आना था। विरोध कर रही भीड़ ने पहले उसकी घोड़ी छीन ली, फिर पथराव शुरू कर दिया। दूल्हे को घायल होने से बचाने के लिए पुलिस को उसके लिए हेलमेट का बंदोबस्त करना पड़ा। इन्हीं घटनाओं से एक सवाल उपजता है कि दलित शादी करें, इस पर किसी को कोई ऐतराज नहीं होता है लेकिन दूल्हा घोड़ी पर बैठकर नहीं आ सकता, इस सोच की कुछ और वजह नहीं अपितु गैरदलितों की नाक का सवाल है।

ध्यान रहे कि धर्म राजनेताओं और पूँजीपतियों के हाथों की वह जादुई छड़ी है जिसका उपयोग कर ये दोनों संयुक्त शक्तियाँ जनता को सम्मोहित (हिप्नोटाइज)  कर देती हैं ताकि उसी बेहोशी की अवस्था में ये दोनों पेट भरकर जनता का खून पी सकें। इस दौरान जनता जीवित तो रहती है, जादू के असर के चलते होशोहवास में नहीं रहती। जैसे-जैसे रक्तपान की यह प्रक्रिया बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे जादू का असर भी बढ़ता जाता है। यह षड्यंत्र तब तक निर्विरोध चलता रहता है जब तक जनता का वह हिस्सा (मजदूर वर्ग) जो इस जादू का सबसे बड़ा शिकार होने के कारण सबसे ज्यादा शोषित है, जादू के इस मायाजाल को तोड़ नहीं देता। इस मायाजाल के ध्वस्त होने के बाद भी शोषण का अंत नहीं हो जाता। शोषण का अंत वर्गीय चेतना से संपन्न जागृत जनता (मजदूर वर्ग) के राजसत्ता और धनसत्ता के खिलाफ निर्णायक युद्ध से ही होता है।

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सुरक्षा के बीच दलित दूल्हे की बारात घोड़ी पर निकली

राजस्थान के झुंझुनू जिले के खेतड़ी उपखंड में एक दलित दूल्हे की बिंदौरी (एक तरह से बारात) कड़ी पुलिस सुरक्षा में निकाली गई। इस दौरान चार थानों की पुलिस के अलावा, लगभग 60 महिला-पुरुष पुलिसकर्मी और जिला पुलिस लाइन से क्यूआरटी की टीम भी मौजूद रही।

अजमेर जिले के श्रीनगर थाना इलाके के लवेरा गांव के नारायण खोरवाल ने भी 20 साल पहले अपनी बहन के विवाह में घोड़ी को लेकर हुए विवाद के भुक्तभोगी रहे हैं। 22 जनवरी 25 को होने वाली शादी में किसी तरह का विवाद पैदा न हो इस वजह से  दूल्हे के पिता नारायण रैगर ने अपनी बेटी की शादी में प्रशासन से सुरक्षा की मांग की थी। इस शादी में में सुरक्षा देने के वास्ते दलित दूल्हे की शादी में बारातियों से कहीं ज्यादा पुलिसकर्मी नजर आए।

सुरक्षा के बीच दलित दूल्हे की बारात घोड़ी पर निकली इस मौके पर उपखंड अधिकारी देवीलाल यादव, तहसीलदार ममता यादव, एडिशनल एसपी डॉ। दीपक कुमार और कई अन्य पुलिस अधिकारियों की उपस्थिति रही।

 दलित दूल्हे की घुड़चढ़ी के लिए पुलिसकर्मी बने बाराती

बनासकांठा ज़िले के पालनपुर तहसील के गडलवाड़ा गांव में 7 फरवरी 25 को दूल्हे मुकेश परेचा अपनी शादी में घुड़चढ़ी की रस्म करना चाहते थे। इलाके के दबंगों ने दलितों की घुड़चढ़ी पर रोक लगा रखी थी। परेचा ने इस रस्म के लिए स्थानीय विधायक जिग्नेश मेवाणी और पुलिस से सुरक्षा मांगी। उन्होंने 22 जनवरी को बनासकांठा ज़िले के पुलिस अधीक्षक को एक आवेदन दिया। आवेदन में परेचा ने बताया कि उनके गांव में दलित कभी घुड़चढ़ी या वरघोड़ा नहीं निकालते हैं। मेरे घोड़े पर बारात निकालने पर किसी अनहोनी की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता। इस वजह से हमें पुलिस सुरक्षा प्रदान की जाए। तो पुलिस ने उनकी बारात की सुरक्षा के लिए 145 पुलिसकर्मियों की ड्यूटी लगाई। जब वह घोड़े पर सवार थे, तब कुछ नहीं हुआ। लेकिन जब वह घोड़े से उतरे और अपनी कार में बैठे तो किसी ने उनकी गाड़ी पर पत्थर फेंक दिया। फिर पुलिस इंस्पेक्टर के एम वसावा ने खुद स्टेयरिंग थाम लिया। उनके साथ कार में वडगाम के विधायक जिग्नेश मेवाणी भी मौजूद थे।

 दलित दूल्हे को बग्गी पर बिठाना महंगा पड़ गया

 मध्य प्रदेश के दमोह जिले के देहात थाना की जबलपुरनाका पुलिस चौकी के चौरई गांव में 12 दिसंबर 24 को एक दलित परिवार के यहां शादी थी। इस दौरान बारात में दूल्हे को घोड़े की बग्गी में बैठाकर घुमाया गया। दलित दूल्हे का घोड़े की बग्गी पर बैठना इलाके के दबंगों ने बग्गी वाले को जमकर पीटा।  ठाकुर समाज के लोगों ने क्षेत्र के तमाम बग्गी वाले को न बिठाने की हिदायत डी। बाद में कुछ अन्य बड़े लोगों ने बग्गी राजी कर सुरक्षा की पूरी जिम्मेदारी ले ली। जिसके बाद बग्गी से दलित की बारात निकली।

इसके बाद कुछ दंबगों ने वापस लौटते ही घोड़े और बग्गी वाले युवकों की दौड़ा कर पिटाई कर दी। मध्यप्रदेश के दमोह जिले के कुछ ग्रामीण इलाकों में अभी भी जात-पात और छुआ-छूत का बोलबाला है। यहां पर दलित दूल्हों को घोड़ी चढ़ने और बग्गी में बारात निकालने की मनाही है।

मथुरा के बाद मेरठ में दलितों पर अत्याचार

उत्तर प्रदेश के मथुरा जनपद में 24 फरवरी 25 के दिन दो बहनों की शादी के दिन एक अफवाह फैलने से कुछ दबंगों ने बहनों और उनके परिवारों पर हमला कर दिया और बारात वापस लौट गई।

इसी तरह एक घटना 21 फरवरी 25 की है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर के कोतवाली देहात क्षेत्र के गांव धमरावली में डीजे बजाने को लेकर दलित परिवार की बारात पर हमला किया। गाँव के ऊंची जाति के लोगों ने बारात में बज रहे डीजे पर आपत्ति दर्ज करते हुए बंद करवा दिए और बरातियों से मारपीट की।

दलितों पर अत्याचार के मामले में यूपी, राजस्थान, एमपी शीर्ष पर

यह तो केवल कुछ घटनाएं हैं लेकिन एनसीआरबी के वर्ष 2023-2024 के आंकड़े बताते हैं कि दलितों पर हमले और हिंसा के मामले में उत्तर प्रदेश सबसे आगे है।

अफसोस कि बात तो ये है कि दलित दुल्हों को घोड़ी पर देखकर सवर्ण क्यों बिदक जाते हैं? यहाँ दलित दुल्हों पर नाना प्रकार से किए जाने वाले अत्याचारों पर चर्चा की जा रही है। कुछेक ऐसे मामलों  का हवाला भी दिया जा रहा है जो सरकारी आँकड़ों में दर्ज हैं

23 सितंबर, 2024 के नई दिल्ली से प्रकाशित द हिंदू की एक रिपोर्ट के अनुसार 2022 में अनुसूचित जातियों (एससी) के लिए कानून के तहत दर्ज 51,656 मामलों में से, उत्तर प्रदेश में 12,287 मामलों के साथ कुल मामलों का 23.78% हिस्सा था, इसके बाद राजस्थान में 8,651 (16.75%) और मध्य प्रदेश में 7,732 (14।97%) मामले दर्ज किए गए।  पी टी आई : एक नई सरकारी रिपोर्ट के अनुसार, 2022 में अनुसूचित जातियों के खिलाफ अत्याचार के लगभग 97.7% मामले 13 राज्यों से दर्ज किए गए, जिनमें उत्तर प्रदेश, राजस्थान और मध्य प्रदेश में ऐसे अपराधों की सबसे अधिक संख्या दर्ज की गई। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत नवीनतम सरकारी रिपोर्ट के अनुसार, अनुसूचित जनजातियों (एसटी) के खिलाफ अधिकांश अत्याचार भी 13 राज्यों में केंद्रित थे, जहां 2022 में सभी मामलों का 98.91% दर्ज किया गया।

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दलित प्रताड़ना से  संबंधित घटनाएं

  • एमपी के एक गांव में दलित दंपत्ति और उनके बेटे की गोली मारकर हत्या, 4 गिरफ्तार, 3 फरार और जातिगत अत्याचार के चलते राजस्थान में एक दलित परिवार के 12 सदस्यों ने बौद्ध धर्म अपनाया;
  • मध्य प्रदेश में दलित परिवार को श्मशान घाट तक जाने से रोका गया, 3 लोग हिरासत में;
  • उत्तर प्रदेश के बरेली शहर में दलित पहचान के प्रतीक को ‘बुलडोजर’ से ध्वस्त कर दिया गया;
  • अनुसूचित जातियों के विरुद्ध अत्याचार के महत्वपूर्ण मामलों वाले अन्य राज्य थे बिहार (6,799) (13।16%), ओडिशा (3,576) (6।93%), तथा महाराष्ट्र (2,706) (5।24%)। इन छह राज्यों में कुल मामलों का लगभग 81% हिस्सा था।
  • रिपोर्ट में कहा गया है, “वर्ष 2022 के दौरान भारतीय दंड संहिता के साथ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत अनुसूचित जातियों के सदस्यों के खिलाफ अत्याचार के अपराधों से संबंधित कुल मामलों (52,866) में से 97।7% (51,656) का पंजीकरण तेरह राज्यों में हुआ है।” इसी प्रकार, अनुसूचित जनजातियों के विरुद्ध अत्याचार के अधिकांश मामले 13 राज्यों में केंद्रित थे।
  • रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि अनुसूचित जनजातियों के लिए कानून के तहत दर्ज 9,735 मामलों में से, मध्य प्रदेश में सबसे अधिक 2,979 (30।61%) मामले दर्ज किए गए।
  • राजस्थान में 2,498 (25।66%) मामले सामने आए, जो दूसरे स्थान पर है, जबकि ओडिशा में 773 (7।94%) मामले सामने आए। अन्य राज्यों में महाराष्ट्र में 691 (7।10%) और आंध्र प्रदेश में 499 (5।13%) मामले सामने आए।

आंकड़ों से अधिनियम के तहत जांच और आरोप-पत्र की स्थिति

  • सुप्रीम कोर्ट से संबंधित मामलों में, 60।38% मामलों में आरोप पत्र दायर किए गए, जबकि 14।78% मामलों में झूठे दावों या साक्ष्य के अभाव जैसे कारणों से अंतिम रिपोर्ट दी गई। 2022 के अंत तक 17,166 मामलों में जांच लंबित थी। अनुसूचित जनजाति से संबंधित मामलों में 63।32% मामलों में आरोप पत्र दाखिल किए गए, जबकि 14।71% मामलों में अंतिम रिपोर्ट दी गई। समीक्षाधीन अवधि के अंत में, अनुसूचित जनजातियों के विरुद्ध अत्याचार से संबंधित 2,702 मामले अभी भी जांच के अधीन थे। रिपोर्ट में सबसे ज़्यादा चिंताजनक रुझानों में से एक है इस अधिनियम के तहत मामलों में सज़ा की दर में गिरावट। 2022 में सज़ा की दर 2020 के 39।2% से गिरकर 32।4% हो गई। इसके अलावा, रिपोर्ट में इस कानून के तहत मामलों को निपटाने के लिए स्थापित विशेष अदालतों की अपर्याप्त संख्या की ओर भी ध्यान दिलाया गया। 14 राज्यों के 498 जिलों में से केवल 194 ने ही इन मामलों में तेजी लाने के लिए विशेष अदालतें स्थापित की थीं।
  • रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि आंध्र प्रदेश, असम, बिहार, छत्तीसगढ़, गुजरात, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, मेघालय, मिजोरम, ओडिशा, पंजाब, राजस्थान, सिक्किम, तमिलनाडु, तेलंगाना, त्रिपुरा, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पश्चिम बंगाल, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह, चंडीगढ़, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली, जम्मू और कश्मीर, लद्दाख और पुडुचेरी में एससी/एसटी संरक्षण प्रकोष्ठ स्थापित किए गए हैं।

मोदी-योगी  का ढोंग

यह तब हो रहा है जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री का बयान आया कि राज्य में  बाबा साहब डॉ भीमराव अंबेडकर का नाम लेकर समाज में जातियां खत्म कर दी गई हैं, जातिगत भेदभाव को खत्म कर दिया गया है और धर्म के नाम पर सब एक हो गए हैं।

अभी कुछ दिन पहले उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ सदन में खड़े होकर बाबा साहब डॉ भीमराव अंबेडकर के विचारों की तारीफ में कसीदे पढ़ रहे थे- ‘देश को आजाद हुए करीब 100 साल हो चुके हैं। 26 जनवरी 1950 को देश का संविधान अपनाया गया था। यह हमारा सौभाग्य है कि प्रधानमंत्री मोदी ने बाबा साहब भीमराव अंबेडकर से जुड़े पंच तीर्थ की स्थापना की। उत्तर प्रदेश में हमारी सरकार लखनऊ में बाबा साहब भीमराव अंबेडकर के नाम पर राष्ट्रीय सांस्कृतिक केंद्र बनाने जा रही है। सरकारी स्तर पर बाबा साहब भीमराव अंबेडकर से जुड़े कई कार्यक्रम शुरू हो चुके हैं।’

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी फरवरी 2016 में दक्षिण भारत के तेलंगाना में एक बयान दिया था, जब दलितों पर तथाकथित हिंदू संगठनों द्वारा हमले की खबर आई थी। मोदी ने कहा था, ‘मैं ऐसे लोगों से कहना चाहता हूं, अगर आपको कोई दिक्कत है तो मेरे दलित भाइयों पर हमला करना बंद करो, हमला करना है तो मुझ पर हमला करो, गोली मारना है तो मुझे मारो।‘  शायद प्रधानमंत्री यह दिखाना चाह रहे थे कि जाति आधारित शोषण और अन्याय के तहत हजारों सालों से दलितों पर अत्याचार कम होंगे, लेकिन आंकड़े बताते हैं कि वे कम नहीं हुए हैं, बल्कि बढ़े हैं। अगर अकेले उत्तर प्रदेश की बात करें तो 2022-23 में दलितों पर होने वाले हमले और हिंसा का करीब 24% हिस्सा अकेले उत्तर प्रदेश का है।

पीएम मोदी कभी सफाईकर्मियों के पैर धोते हैं, कभी बाबा साहब भीमराव अंबेडकर को न्याय दिलाने की बात करते हैं, कभी पंच तीर्थ संघ की बात करते हैं, कभी कहते हैं कि बाबा साहब का सामाजिक न्याय भाजपा ने किया। लेकिन प्रधानमंत्री और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के सामने, डबल इंजन की सरकार के सामने दलित समाज पर अत्याचार और हिंसा की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं और सरकार उन्हें रोकने में विफल रही है। आज उत्तर प्रदेश पहले नंबर पर है। मथुरा और मेरठ के बहाने इस पर बात करना बहुत ज़रूरी है। मथुरा में हमलावर OBC के यादव समुदाय से आते हैं और मेरठ में हमलावर समन समुदाय यानी ठाकुर समुदाय से आते हैं। लेकिन जिन पर हमला हुआ वो कमेरा समुदाय था, मेहनतकश समुदाय था, जिसे जाति व्यवस्था ने नीचे धकेल दिया था, संसाधनों, सम्मान और अवसरों से वंचित कर दिया था।

इनके लिए लड़ाई कभी ​​बुद्ध ने, कभी कबीर रैदास ने, कभी पलटू दादू, भीखा बुल्ले शाह, बाबा फरीद, गुरु नानक, चोखा मेला, संत गाडगे, छत्रपति शाहूजी महाराज, ज्योतिबा फुले, बाबा साहब मणिवर्णकशी राम, मंडल आंदोलन ने लड़ी। इन सभी लोगों ने जाति व्यवस्था से वंचित 90% कमेरा लोगों को एकजुट किया और मानवतावादी समाज बनाने के लिए संघर्ष किया। लेकिन यह लड़ाई अक्सर अपने आंतरिक कलह के कारण कठिन होती है।

लेकिन सभी इस अघोषित बुरी खबर से परिचित हैं। जहां इस दौर में तानाशाही तरीके से आगे ले जाने की कोशिश कर रहा है। संविधान की आत्मा पर अगर किसी को भरोसा होता तो वो यह नहीं कहता कि उनकी  पार्टी के लोग यह नहीं कहते कि, कोई मुसलमान विधायक बन गया तो उसे संसद से बाहर सड़कों पर फेंक दिया जाएगा। अस्पताल में मुसलमानों के लिए अलग वार्ड बनाओ।

जब तक संविधान है और संविधान के ख़िलाफ़ लड़ाई है, तब तक मुसलमान हैं। जान लें कि मुसलमानों से निपटने के बाद जिस दिन मनुस्मृति आएगी उस दिन इस देश का दलित निशाने पर होगा, यह देश पीछे छूट जाएगा, फिर मुसलमानों से लड़ने का अधिकार खत्म हो जाएगा, फिर मनुस्मृति के दौर में जो लोग शोषण का शिकार बनाना चाहते हैं वो अलग निशाने पर होंगे, निशाना बनेंगे। इसलिए  दलितों को सरकार के असली चरित्र को पहचानने की जरूरत है।

तेजपाल सिंह 'तेज'
तेजपाल सिंह 'तेज'
लेखक हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार तथा साहित्यकार सम्मान से सम्मानित हैं और 2009 में स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त हो स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं।

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