Saturday, July 27, 2024
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 नई सरकार के गठन में सहयोगी दलों की मांग क्या गुल खिलाएगी?

लोकसभा 2024 के चुनाव हो चुके और परिणाम भी सामने आ चुके हैं। लेकिन किसी भी एक दल को बहुमत हासिल नहीं हुआ है। 400 पार का दावा करने वाली भाजपा को इस बार जनता ने सबक सिखा ही दिया, उसने मात्र 240 सीटों पर भाजपा ने जीत दर्ज की। वाराणसी संसदीय सीट से नरेंद्र मोदी के जीत का अंतर कम हुआ है। भाजपा की कम सीट आने पर भक्त दुखी जरूर हैं लेकिन यह कहकर मन को तसल्ली दे रहे हैं कि मोदी एक बार फिर प्रधानमंत्री बन रहे हैं। लेकिन सहयोगी दल समर्थन देने के लिए जिस तरह से मंत्री पदों की मांग कर रहे हैं, आने वाले दिनों में क्या स्थिति बनेगी, देखना होगा।

ईडी, आईटी, सीबीआई, दलाली में जुटा हुआ भगवा मीडिया, बिकी हुई प्रशासनिक मशीनरी, एक तरफा निर्णय सुनाने वाले कोर्ट, पुलिस, डंडा-लाठी, अश्रु गैस, केचुएं के नाम से मशहूर चुनाव आयोग बार-बार बिगड़ने-सुधरने वाली ईवीएम मशीन और एकतरफा एग्जिट पोल बताने वाले स्लीपर सेल, विश्वगुरू का डंका पीटने वाले स्वयंभू नेता, स्वयंभू नेता की हवा-हवाई गारंटी, मुख्यमंत्रियों सहित कई नेताओं को जेल में डाल देने और कांग्रेस का एकाउंट फ्रीज कर देने के बाद भी अगर भाजपा चार सौ का आंकड़ा पार नहीं कर पाई तो इसे क्या कहा जाना चाहिए? सच तो यह है कि देश की एक बड़ी आबादी भाजपा की जीत को जीत नहीं बल्कि शर्मनाक हार के तौर पर देख रही है। यह कहना ठीक नहीं होगा कि जीत, जीत होती है और हार, हार।

कोई भी जीत अगर सम्मानजक नहीं है तो यह मान लेना चाहिए कि जनता ने खारिज कर दिया है। भाजपा को इस चुनाव में 240 सीट मिली है और इन सीटों में कई सीटें ऐसी हैं, जहां वोट का आंकड़ा बहुत कमजोर रहा। कुछ सीटों पर तो ऐसे लोग जीत दर्ज किए हैं जो दूसरे दलों से आए हुए थे।

चुनाव परिणाम के दिन लोगों ने आगरा हिंदू परिषद भारत के अध्यक्ष गोविंद पाराशर को टीवी फोड़ते और टीवी पर आग लगाते हुए देखा है। पाराशर साहब का दुःख यह था कि भाजपा को अनुकूल परिणाम नही मिला। ऐसे कई दृश्य सोशल मीडिया पर सामने आए हैं। सोशल मीडिया में भगवा वस्त्र पहने हुए एक ऐसे शख्स को देखा जा रहा है जो कह रहा है कि यूपी में भाजपा की करारी हार इसलिए हुई क्योंकि सारा ठेका गुजरातियों को दे दिया गया था। हकीकत यह है कि मामूली जीत पर कुछ लोग रो भी नहीं पा रहे हैं तो कुछ लोग अजीब तरह के डिप्रेशन में चले गए हैं। कुछ लोगों का डिप्रेशन इस बात को लेकर है कि जब देश के महामानव स्वयं 400 साल के बाद प्रभु श्रीराम को अयोध्या में लेकर लौटे थे तो फिर अयोध्या की सीट कैसे हार गए? डिप्रेशन में गए ऐसे लोगों का कहना है कि हिन्दुओं ने ही हिन्दुओं को हरा दिया है।  हिन्दुओं को कितना भी जगाओ, वह हर बार सो जाता है।

सच तो यह है कि जो लोग भी हिन्दुओं को गरिया रहे हैं वे यह भूल जाते हैं कि हर कोई भाजपा वाला हिन्दू नहीं हो सकता है। कुछ लोग देश और संविधान को बचाने वाले हिन्दू भी होते हैं।

खैर, आनन-फानन में राम मंदिर का शिलान्यास और शंकराचार्यों की गैर-मौजूदगी का जो नुकसान होना था वह सामने है।अब नैरिटव गढ़ने की कोशिश की जा रही है कि अयोध्या के लोगों ने पहले भी प्रभु श्रीराम का साथ नहीं दिया था तो फिर वे मोदी का साथ कैसे दे सकते हैं?

इस नैरिटिव के जरिए यह बताने की कोशिश हो रही है कि प्रभु राम और मोदी एक बराबर है।

देखा जाय तो नरेंद्र मोदी का साथ वाराणसी की जनता भी नहीं दिया है। वर्ष 2014 के चुनाव में नरेंद्र मोदी 3 लाख 70 हजार वोट से जीते थे जबकि 2019 के चुनाव में उन्होंने चार लाख 31 हजार वोट से जीत हासिल की थीं मगर 2024 के चुनाव में मोदी को एक लाख 52 हजार वोटों से ही जीत मिल सकी है। इंडिया गठबंधन से जुड़े लोगों का कहना है कि जोड़-तोड़ और प्रशासनिक मशीनरी के दुरूपयोग के चलते मोदी जैसे-तैसे डेढ़ लाख वोट पा गए। यदि निष्पक्ष ढंग से चुनाव होता तो मोदी हार जाते। वाराणसी के प्रत्याशी अजय राय कहते हैं कि मोदी को देश की जनता ने खारिज कर दिया है। अब मोदी अगली बार वाराणसी से चुनाव नहीं लड़ेंगे। अयोध्या से समाजवादी पार्टी की तरफ से चुनाव लड़कर जीत हासिल करने वाले अवधेश प्रसाद कहते हैं- ‘मोदी पहले अयोध्या से ही चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे थे, लेकिन जब उन्हें पता चला कि हार जाएंगे तो फिर पीछे हट गए।’

भले ही मोदी समर्थकों का बचा-खुचा धड़ा यह नहीं मानता है कि मोदी की लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आई है लेकिन वस्तुस्थिति अलग है।

मोदी की एकला चलो और विपक्ष मुक्त भारत करने वाली नीति के चलते लोकप्रियता का ग्राफ घट गया है। जो मोदी अपने नाम से सीट और वोट दोनों ले आते थे उसमें भी फर्क आ गया है। चुनाव में भाजपा को सहयोगी दलों के साथ तो बहुमत मिल गया है लेकिन अगर सहयोगी दल किसी भी कारण से इधर-उधर हो जाते हैं तो देश में मध्यावधि चुनाव की संभावना बढ़ जाएंगी। वैसे अकेले 240 सीट पाकर भी भाजपा बहुमत से दूर है। अब मोदी को अपने सहयोगी दलों की उन सब बातों को सुनना पड़ेगा जो उन्हें शायद पसंद ना हो। सब जानते हैं कि 2019 में चंद्रबाबू नायडू ने मोदी को ‘खूंखार आतंकवादी’ कह दिया था। तब गोदी मीडिया के साथ-साथ भक्तों की टोली ने मोदी को रामभक्त और चंद्रबाबू को मुस्लिम भक्त कहा था। अब इसे सौभाग्य कहें या दुर्भाग्य, मोदी उसी मुस्लिम भक्त को तवज्जो देने के लिए विवश हैं। चंद्रबाबू नायडू ने आंध्र प्रदेश में मुस्लिमों को ठीक-ठाक आरक्षण देने का वादा किया है। अब मोदी किस मुंह से इस आरक्षण का विरोध कर पाएंगे क्योंकि चंद्रबाबू एनडीए का हिस्सा है। बहरहाल हर वक्त सबकी नज़रें मोदी से ज्यादा चंद्रबाबू नायडू और नीतीश कुमार पर ही टिकी रहने वाली है। एक पत्ता भी कहीं खड़का तो संशय उठेगा कि कोई इंडिया गठबंधन की तरफ खिसक तो नहीं गया है? चंद्रबाबू नायडू के साथ यह बात विख्यात है कि वे बहुत ज्यादा दिनों तक किसी को बर्दाश्त नहीं कर सकते हैं। अगर किसी बात पर तनातनी हुई तो वे कभी भी अपना हाथ खींच सकते हैं। यही बात नीतीश कुमार के चमत्कार और नमस्कार को लेकर भी कहीं जाती है। वे कब चमत्कार कर देते हैं और कब नमस्कार, समझ से परे हैं। सोशल मीडिया में एक मजेदार टिप्पणी पढ़ने को मिली है- ‘जिस मोदी से उनकी पार्टी का छोटा-बड़ा हर नेता खौफ खाता था, अब वहीं मोदी आंध्र और बिहार के दो मदारियों से डर रहे है।’

इधर भाजपा के अंदरखाने से यह आवाज उठने लगी है कि मोदी के बदले राजनाथ सिंह, नितिन गड़करी या मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह को प्रधानमंत्री बनाया जाना ज्यादा ठीक हो सकता है।

वैसे किसे प्रधानमंत्री बनाना है और नहीं बनाना है यह पार्टी का अंदरूनी मसला है। लेकिन सोशल मीडिया में भी एक  बड़ी आबादी नितिन गड़करी के साथ-साथ आठ लाख से भी ज्यादा वोटों से चुनाव जीतने वाले शिवराज सिंह को प्रधानमंत्री के तौर पर देखना चाहती है।

हालांकि इन दिनों टीवी में जो खबरें चल रही है उसमें यह बताया जा रहा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जल्द ही तीसरी बार प्रधानमंत्री पद की शपथ ले सकते हैं।

अगर जल्द ही कोई शपथ ग्रहण समारोह होता है तो हम सबको कई तरह की हलचलों को देखने के लिए तैयार रहना चाहिए। पूरा देश इस समय कई तरह की हलचलों का गवाह बना हुआ है। कोई मंत्री पद मांग रहा है तो किसी को स्पीकर का पद चाहिए…किसी को बड़ा महकमा चाहिए।

वैसे तमाम तरह की कवायद के बाद भले ही इंडिया गठबंधन को अपेक्षित सफलता नहीं मिली फिर भी इंडिया गठबंधन से जुड़े हुए लोग खुश है। दरअसल यह चुनाव तानाशाही के खिलाफ था, लेकिन उससे ज्यादा इस बात के लिए था यह देश कैसे बनेगा और कैसे बचेगा? यहीं एक वजह है कि पूरे देश में कहीं पर भी मंदिर-मस्जिद और हिन्दू-मुसलमान, पाकिस्तान-तालिबान, राम किशन, राशन और छदम राष्ट्रवाद का मुद्दा नहीं चल पाया।

अब भूखे आदमी से कोई कहेगा कि कि तुम प्रभु श्रीराम की पूजा करते रहो। तुम्हारा पेट तो अपने आप भर जाएगा तो ऐसे-कैसे चलेगा? लोगों ने इस बात को समझा कि प्रभु श्रीराम की आस्था तो ठीक है, लेकिन कमरतोड़ मंहगाई में पेट को भरने का उपाय भी खोजना है। यहीं एक वजह है चुनाव में लोगों ने संविधान, रोजगार, आरक्षण, मंहगाई, अग्निवीर जैसे मसलों को महत्व दिया। इस चुनाव से एक संदेश यह भी देखने को मिला है कि अब देश में हिन्दू-मुस्लिम का खेल नहीं चल पाएगा। यदि हिन्दू-मुस्लिम करते हुए कोई नफरत का खेल खेलेगा उसे तो मुंह की खानी पड़ेगी। मोदी पूरे चुनाव में मटन-मुर्गा-मछली-मंगलसूत्र और सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न करने वाला वक्तव्य देते रहे जिसके चलते बहुत सी सीटों पर नुकसान देखने को मिला। अपने भाषणों में जहर उलगने वाली माधवी लता चुनाव हार गई है। बात-बात में लोगों को पाकिस्तान भेजने की धमकी देने वाली नवनीत राणा हार गई है। अमेठी से मतदाताओं ने एक घमंडी को सबक सिखाया। दुष्कर्म के आरोपी प्रज्वल रेवन्ना को हार मिली, किसानों के कुसूरवार अजय मिश्रा टेनी की हार हुई। कई ऐसे दिग्गज हार गए हैं तो अपनी जुबान से देश की अमन पंसद जनता के बीच जहर घोल रहे थे।

इस चुनाव में यह भी साफ हो गया है अब आप जैसे भी सरकार चलाएं। कम से कम संविधान के साथ खिलवाड़ तो नहीं कर पाएंगे। मनमानी नहीं चल पाएगी। वैसे भी बैसाखियों पर टिकी हुई सरकार थोड़ा संभल-संभलकर चलती है।

अब यह देखना दिलचस्प होगा कि बैशाखी के सहारे चलने वाली सरकार कितने दिनों तक चलती है। कब तक चलती है?

राजकुमार सोनी
राजकुमार सोनी
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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