अंततः सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद जम्मू-कश्मीर में चुनाव संपन्न हो गया है,जनता ने अपनी सरकार चुन ली है, हालांकि लेफ्टिनेंट गवर्नर का शासन,अभी खत्म नहीं हुआ है, अभी भी जम्मू-कश्मीर केंद्र शासित प्रदेश बना हुआ है, नयी सरकार भी बेहद सीमित अधिकारों के साथ सत्ता का संचालन करने को बाध्य होगी।
पर इस सीमित चुनावी अभ्यास के जरिए, यानि अपने चुने हुए प्रतिनिधियों के माध्यम से आने वाले समय में,अपने बुनियादी सवालों को उठाने,संवाद को आगे बढ़ाने के लिए एक संकरा रास्ता खुल गया है, जिसे पिछले 5 सालों से मोदी सरकार ने भयानक सैनिक दमन व सैन्य निगरानी के जरिए बंद कर रखा था।
अब जम्मू-कश्मीर की जनता के पास, कम से कम एक अपना सदन होगा, जहां वे अपनी बात खुलकर कर सकेंगे, अपने सभी मुद्दों यानि 370,35 A, पूर्ण व विशेष राज्य का दर्जा, काले कानूनों के खात्मे जैसे ज्वलंत मसलों पर प्रस्ताव पास कर सकेंगे,केंद्रीय सत्ता को भेज सकेंगे।
इस चुनाव के जरिए जम्मू-कश्मीर की जनता ने बेहद संतुलित हस्तक्षेप किया है, पांच साल के दमघोंटू व दमनात्मक माहौल के बाद, मौका मिलते ही जनता ने जो जनादेश दिया है, उसमें गंभीरता व परिपक्वता साफ-साफ झलक रही है।
इस चुनाव में भाजपा ने बहुत सारे पैंतरे अपनाए, अपने हितों को ध्यान में रखते हुए जम्मू रीज़न में परिसीमन के जरिए 6 सीटें बढ़वा दी गई, कुछ मुस्लिम उम्मीदवारों को भी आज़माया गया, आरक्षण का दांव खेला गया,कश्मीर रीज़न में आजाद उम्मीदवारों को सफलता दिलाने की संभावना पर काम किया गया,पर कोई पैंतरा काम नही आया।
जम्मू क्षेत्र में भी भाजपा को उम्मीद के मुताबिक सफलता नहीं मिली, पुराने दायरे में ही सिमट कर रह गई भाजपा।
उधर कश्मीर घाटी में पीडीपी,जो पहले भाजपा के साथ सरकार बना चुकी है, को मात्र तीन सीटों पर जनता ने समेट दिया। इंजीनीयर रशीद की पार्टी, सज्जाद लोन की पार्टी, जमात-ए-इस्लामी सहित कई आजाद उम्मीदवारों, जिन पर भाजपा से सांठगांठ का आरोप लग रहा था,को जनता ने हरा दिया।
कांग्रेस भी चूँकि पूरे चुनाव,जम्मू-कश्मीर की जनता की मूल आकांक्षाओं को खुल कर व्यक्त करने से बचती रही, 370 पर कांग्रेस की चुप्पी को जनता ने पसंद नही किया, संभवतः इन्हीं वजहों से कांग्रेस भी जनता का भरोसा नहीं जीत पायी, मात्र 6 सीटों तक ही उसे, सीमित रहना पड़ा।
नेशनल कांफ्रेंस को ज़रूर तात्कालिक तौर पर जनता ने समर्थन दिया है, हालांकि बहुमत से कुछ पीछे ही रह गई फारुख अब्दुल्ला की पार्टी, पर कुछ स्वतंत्र विधायकों, जो अब नेशनल कांफ्रेंस का हिस्सा बन गए हैं और कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार चलाने का जनादेश जनता ने दे दिया है।
इस पूरे चुनावी कवायद के ज़रिए यह स्पष्ट हो गया है कि जम्मू-कश्मीर की जनता क्या चाहती है।
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विशेष राज्य और अनुच्छेद 370 अभी भी है केंद्रीय मुद्दा
370 को दरअसल केवल 2019 में ही नहीं ख़त्म किया गया,1952-53 के बाद से ही विशेष राज्य के अलग-अलग प्रावधानों और अधिकतम स्वायत्तता को बार-बार टुकड़े-टुकड़े में तोड़ा जाता रहा है।
सबसे पहला हमला तो 1953 में ही कर दिया गया, जब तत्कालीन जम्मू-कश्मीर के प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला को लंबे समय के लिए जेल में डाल दिया गया, फिर बाद में प्रधानमंत्री व सदर-ए-रियासत जैसे पदों को भी खत्म कर दिया गया,यानि अधिकतम स्वायत्तता की बहाली के साथ ही,अधिकतम कटौती की शुरुआत भी आरम्भ से ही कर दी गई।
ऐसे हमले बार-बार किए गए। अनुच्छेद 370 के एक-एक हिस्से को बार-बार तोड़ा जाता रहा,और धीरे-धीरे अधिकतम स्वायत्तता को न्यूनतम स्वायत्तता में तब्दील कर दिया गया और फिर 2019 में 370 और 35 A को औपचारिक तौर पर खत्म कर न्यूनतम स्वायत्तता के भ्रम को भी खत्म कर दिया गया है।
स्वायत्तता, आरंभ से ही भारतीय संविधान का केंद्रीय तत्व रहा है, अधिकतम स्वायतता से लेकर न्यूनतम स्वायत्तता तक के कई माडल भारतीय राज्य के पास शुरू से मौजूद रहे हैं।
‘राज्यों का संघ है भारत’ यह लोकप्रिय वाक्य भी, संविधान के आरंभ में ही दर्ज है, बावजूद इसके अनुच्छेद 370, जिसे संविधानिक दर्ज़ा प्राप्त रहा है, के खिलाफ लंबा घृणा अभियान संचालित किया गया, इस मांग को देशव्यापी स्तर पर बदनाम किया गया और खासकर उत्तर भारत में तो इस बेहद लोकतांत्रिक मांग को एंटी नेशनल मांग के बतौर स्थापित कर दिया गया।
इस घृणा अभियान को मुख्य रूप से संचालित तो संघ-भाजपा ने किया,पर मुख्य धारा के हर दल ने, बहती गंगा में बार-बार हाथ धोया और अनुच्छेद 370 के बारे में जो सेंस, संघ-भाजपा का था,उसे जनता का कामन सेंस बनाने में अच्छा खासा सहयोग किया।
आज भी अगर इंडिया गठबंधन से जुड़े तथाकथित राष्ट्रीय दलों और जम्मू-कश्मीर के बाहर के बहुत सारे क्षेत्रीय दलों के एजेंडे में आप अगर अनुच्छेद 370 को खोजेंगे तो निराशा ही हाथ लगेगी। उन सब दलों ने बीच का रास्ता तलाश लिया है,भारत का शासक वर्ग जितना देना चाहता है, विपक्ष बस उतना ही मांग रहा है,यानि पूर्ण राज्य का दर्जा।
एक सामान्य सी बात हर तरह के विपक्ष व समूचे समाज को समझनी होगी कि 370 हो 371 या 35A हो 6वीं अनुसूची, ऐसे बहुत सारे प्रावधान,भारतीय लोकतंत्र को व मुल्क की एकता को मजबूत करने वाले हैं। संविधान प्रदत्त स्वायत्तता को जमीन पर अमल में लाने वाले हैं, साथ ही भारत की विविधता को संबोधित करते वाले प्रावधान है।
जहां-जहां भी स्वायत्तता व स्वशासन की चाह व ज़रूरत है वहां-वहां,अलग-अलग तरह के प्रावधान,स्वशासन का कोई न कोई माडल निर्मित कर देना, पहले भी सही साबित होता रहा है और आगे भी भारत के सुंदर भविष्य के लिए बेहद जरूरी क़दम साबित होगा।
370 भी अपने तरह की स्वायत्तता की ऐसी ही मांग है, जैसे 371 A से लेकर 371 J तक पूर्वोत्तर व अन्य इलाकों में, 12 राज्यों को पहले से ही मिला हुआ है और जैसे 6वीं अनुसूची के तहत असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिज़ोरम को भी विशेष स्वायत्तता पहले से हासिल है।
अनुच्छेद 370 और 35A को हेट कैंपेन चलाकर सनसनीखेज बना दिया गया है, अन्यथा जैसे दिल्ली, पूर्ण राज्य का दर्जा मांग रहा है या लद्दाख,6वीं अनुसूची मांग रहा है,उसी तरह 370 भी सहज, स्वाभाविक और सांविधानिक मांग है, स्वायत्तता का एक माडल है, जिसे जम्मू-कश्मीर मांग रहा है।
आमतौर पर जब बिहार विशेष राज्य का अनुमोदन चाहता है या झारखंड स्वशासन की चाह के चलते जब अलग हुआ था या जब इसी प्रक्रिया के तहत उत्तराखंड राज्य बना था या हाल-फिलहाल में तेलंगाना आंध्र प्रदेश से अलग हुआ, तो स्वायत्तता व स्वशासन के ऐसे सभी मांग,थोड़ी बहुत जटिलता के बाद अंततः मान लिए जाते रहे। पर ज्यों ही पूर्वोत्तर की बात आती है और उससे भी ज्यादा जब कश्मीर और उसकी स्वायत्तता का सवाल आता है, तूफान खड़ा हो जाता है,राष्ट्र ख़तरे में पड़ जाता है, खासकर उत्तर भारत में तो पाकिस्तान, हिंदुस्तान और सबसे ज़्यादा मुसलमान,बहस के केंद्र आ जाता है और राष्ट्रवादी ख़ून उबलने लगता है।
ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि संघ-भाजपा ने अनगिनत अभियानों, जबरदस्त नकारात्मक प्रयासों के जरिए,जम्मू-कश्मीर से जुड़े छोटे-छोटे प्रश्नों को भी तथाकथित राष्ट्रवाद से नत्थी कर दिया है और लगभग समूचे विपक्ष की चुप्पी और वैचारिक सरेंडर ने भी जम्मू-कश्मीर को सनसनीखेज बनाने में अच्छा खासा सहयोग किया है। आज जिस पर नए सिरे से सोचने,वैचारिक पहल लेने की ज्यादा जरूरत है।
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न्याय के साथ अमन-शांति का आना अभी बाकी है
जम्मू-कश्मीर,भारत का पहला राज्य है, जिसे विशेष राज्य से, केंद्र शासित प्रदेश में बदल दिया गया है। विशेष राज्य की जो फिलिंग थी, स्वशासन व स्वायत्तता की जो भावना भर बची थी,उसे भी अचानक खत्म कर दिया गया।
कश्मीर लंबे समय से दुनिया के कुछ चुनिंदा सैनिक घनत्व वाले इलाकों में एक रहा है, 5 अगस्त 2019 के बाद सैन्य निगरानी को और भी विस्तार दे दिया गया यानि पिछले 5 सालों से वहां की जनता को और ज्यादा सैन्य निगरानी में रहना पड़ा है। इस दौरान नए तरह की मिलिटैंसी का विस्तार हुआ है,जो जम्मू के इलाके में भी फैल गया है और जिसका बैकअप भी कहीं बाहर नहीं, अंदर ही मौजूद हैं।
भयंकर सैन्य दबाव के चलते,जनता की टेक्टिकल चुप्पी को अमन व शांति समझने की भूल कतई नहीं करनी चाहिए। कई बार चुप्पी देर से टूटती है, जो की कई बार बेहद विस्फोटक होती है।
90 के दशक में जब विस्फोटक माहौल बना, मिलिटैंसी फैली, तो ये अचानक नहीं हुआ या केवल 1987 के चुनाव में भारी धांधली के चलते ही केवल नहीं हुआ।
इसकी जड़ें 50 के दशक तक जाती हैं, जब शेख अब्दुल्ला को दिल्ली से भिन्नता रखने के चलते 10 सालों के लिए जेल भेज दिया गया।
इसके बाद हर चुनाव में कश्मीरी आकांक्षाओं को रौंदा गया, 67 में तो 118 प्रत्याशियों का पर्चा ही रद्द कर दिया गया, 72 के चुनाव को भी दिल्ली के इशारे पर अपहरित किया गया।
जम्मू-कश्मीर में लगभग सभी चुनावों को, दिल्ली के लिए प्रबंधित किया गया। 87 तक आते-आते जम्मू-कश्मीर की जनता का धैर्य जबाब दे गया,यानी 40 सालों के बाद जाकर,जम्मू-कश्मीर की जनता ने अपनी चुप्पी तोड़ी।
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87 के चुनाव को भी, दिल्ली द्वारा अपहरण कर लिए जाने यानि भयंकर धांधली के बाद, जनता इस निष्कर्ष पर पहुंच गई कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया के ज़रिए, स्वशासन व स्वायत्तता की आकांक्षाओं को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता है, फिर शुरू होता मिलिटैंसी का दौर, जिधर बढ़ने के लिए दिल्ली ने अंततः कश्मीर को मजबूर कर दिया।
आज़ जब एक बार फिर, 5 सालों की पीड़ादायक चुप्पी के बाद, जम्मू-कश्मीर की जनता ने, चुनाव के जरिए अपनी लोकतांत्रिक आकांक्षाओं को व्यक्त करने का रास्ता चुना है और कहा है कि हमें अधिकतम स्वायत्तता चाहिए, विशेष राज्य का दर्जा चाहिए, काले कानूनों व सैन्य निगरानी से मुक्ति चाहिए, तो भारतीय स्टेट को इस पर नये सिरे से गौर करना चाहिए,ये सारी मांग बेहद लोकतांत्रिक व सांविधानिक है, जिन पर भारतीय गणतंत्र कभी भी ठीक से विचार नहीं किया। आज लंबे समय बाद एक बार फिर से, यह मौका मिला है कि लोकतांत्रिक दायरे में रहते हुए कोई न कोई सकारात्मक समाधान, समय रहते तलाश लिया जाए।