आज पहले कुछ आखन-देखी। सुबह के करीब साढ़े आठ बजे हैं। जगह है दिल्ली का लक्ष्मीनगर मुहल्ला। बीते सवा चार वर्षों से इसी इलाके में रहना हो रहा है। कचरे के दो बड़े डब्बे हैं। उत्तरी दिल्ली नगर निगम द्वारा लगाए गए इन दो बड़े डब्बों में लोग अपने घर का कचरा डालते हैं। डब्बों की ऊंचाई पांच फीट से कम नहीं होगी। एक लड़का जिसकी उम्र 6 या 7 साल की होगी, कचड़े के डब्बे पर बैठा है। वह कुछ निकालने की कोशिश कर रहा है। उसके एक हाथ में शराब की बोतल है जो किसी ने डब्बे में फेंक रखा है और दूसरे हाथ में पिज्जा जैसा कुछ। यह पिज्जा भी किसी ने फेंका होगा और उस बच्चे को मिल गया है, और वह उसे खा रहा है। उसे खाते देख दो और बच्चे आते हैं। वे डब्बे के उपर चढ़ते हैं और फिर अंदर कूद जाते हैं। वे कुछ खोज रहे हैं। शायद शराब की खाली बाेतलें या फिर पिज्जा के कुछ टुकड़े।
दूसरा दृश्य- समय करीब साढ़े पांच बजे। जगह दिल्ली के रोहिणी इलाके का रिठाला मेट्रो स्टेशन पर मेट्रो ट्रेन का एक कोच। मेरे सामने अर्द्धसैनिक बल के जवान बैठे हैं। उनके हाथों में मशीनगन है। शायद एके-47। कुछ एक जवान शायद थक गया है और वातानुकूलित मेट्रो में आने के बाद उसे नींद आ रही है। उसने अपना मशीनगन बगल में रख दिया है और उसके बगल में एक नौजवान है जो उसे मशीनगन को ध्यान से देख रहा है। मैं यह सोच रहा हूं कि मेट्रो में आम नागरिकों की इतनी गहन सुरक्षा जांच की जाती है ताकि कोई भी आपत्तिजनक (हिंसात्मक) वस्तु न ले जा सके, अर्द्धसैनिक बल के इन जवानों को हथियार लेकर सफर करने की अनुमति कैसे दी गई? क्या यह नागरिकों की सुरक्षा के लिहाज से खतरा नहीं है? क्या हो अगर कोई विषम स्थिति उत्पन्न हो जाय?
[bs-quote quote=”नड्डा मोदी के काम से इतने खुश और उत्साहित हैं कि वे अपने दल के अन्य नेताओं और कार्यकर्ताओं के साथ सीधे एयरपोर्ट पहुंचे हैं और प्रधानमंत्री का शानदार इस्तकबाल किया है। मैं इस तस्वीर के बारे में सोच रहा हूं और इस इवेंट के बारे में भी। मैं इतना कह सकता हूं कि बाइडेन प्रशासन ने नरेंद्र मोदी के अमरीकी दौरे को तरजीह नहीं दी और उसकी कसर दिल्ली में पूरी की जा रही है, जो कि बनावटी है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
तीसरा दृश्य – वापस लक्ष्मीनगर मेट्रो स्टेशन। समय करीब सात बजे। मेट्रो स्टेशन की सीढ़ी पर एक अधेड़ महिला एक अबोध बच्चे को लेकर भीख मांग रही है। यह महिला मुझे रोज दिख जाती है। आए दिन उसके पास का बच्चा बदल जाता है। लेकिन एक चीज हमेशा रहती है। बच्चे के शरीर पर कपड़ा नहीं होता। अक्सर वह नींद में रहता है। आज मैं सोच रहा हूं कि क्या कोई रैकेट है जो दिल्ली में भीख मंगवाने का काम करता है? आखिर इस महिला के पास बच्चे आते कहां से हैं? हर सप्ताह दूसरा बच्चा। या यह भी हो सकता है कि उसके पास तीन-चार बच्चे हों जो कि उसके ना हों, और वह बदल-बदलकर उनका उपयोग भीख मांगने के लिए करती हो। मेरे पास कोई जवाब नहीं है। मैं पत्रकार हूं, कोई जांच एजेंसी नहीं। चूंकि मैं दिल्ली में किसी अखबार में नहीं हूं, इसलिए मैं चाहूं भी तो इस विषय पर एक खोजी रपट नहीं तैयार कर सकता। यदि मैं यहां किसी अखबार में होता तो कोशिश जरूर करता। लेकिन अन्य क्यों नहीं कर रहे? क्या उन्हें यह सब नजर नहीं आ रहा? क्या दिल्ली पुलिस को इसकी भनक नहीं है? रही बात भिखारियों की तो मेरी नजर में भारत सरकार के स्तर पर दो योजनाएं हैं, जिनके जरिए भिखारियों का पुनर्वास किया जा सकता है। तो क्या सरकारी तंत्र इन योजनाओं को लागू नहीं करना चाहता है? आखिर क्यों दिख जाते हैं ऐसे दृश्य?
बहरहाल, अब आखन-देखी बात नहीं। अब वह जो यहां प्रकाशित जनसत्ता के पन्नों में है। इस अखबार ने अपने पहले पन्ने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तस्वीर को प्रमुखता दी है। तस्वीर में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा करीब एक मन (40 किलो) वजनी माला नरेंद्र मोदी को पहनाकर यह दिखाना चाहते हैं कि उन्होंने (नरेंद्र मोदी ने) अमेरिका में भारत का झंडा बुलंद कर दिया है। नड्डा मोदी के काम से इतने खुश और उत्साहित हैं कि वे अपने दल के अन्य नेताओं और कार्यकर्ताओं के साथ सीधे एयरपोर्ट पहुंचे हैं और प्रधानमंत्री का शानदार इस्तकबाल किया है। मैं इस तस्वीर के बारे में सोच रहा हूं और इस इवेंट के बारे में भी। मैं इतना कह सकता हूं कि बाइडेन प्रशासन ने नरेंद्र मोदी के अमरीकी दौरे को तरजीह नहीं दी और उसकी कसर दिल्ली में पूरी की जा रही है, जो कि बनावटी है।
इसी पहले पन्ने पर उत्तर प्रदेश में योगी मंत्रिमंडल के विस्तार की खबर है। यह विस्तार तब किया गया है जबकि वहां चुनाव होने में महज कुछ माह ही शेष हैं। इस बार के विस्तार में कुल 7 नये मंत्रियों को जगह दी गई है। इनमें तीन ओबीसी, दो दलित, एक अदिवासी और एक ब्राह्मण है। भाजपा छोड़कर कांग्रेस में आए जितिन प्रसाद को कबीना मंत्री बनाया गया है। जाहिर तौर पर यह इसलिए किया गया है ताकि जातिगत समीकरणों को दुरुस्त किया जाय। अब इसका राजनीतिक भावार्थ यह कि भाजपा को यह अहसास हो चुका है कि सूबे में अंडर करेंट है और उसके पांव उखड़ रहे हैं। लेकिन अभी कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी। वजह यह कि विपक्ष के दो बड़े चेहरे मायावती और अखिलेश यादव क्रमश: 20 फीसदी दलित और 40 फीसदी ओबीसी को छोड़ 11 फीसदी आबादी वाले ब्राह्मणों को रिझााने में लगे हैं।
[bs-quote quote=”मैं सोच रहा हूं कि देश में जातिगत जनगणना की मांग कर रहे लोग रो क्यों रहे हैं? कल ही बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इस मुद्दे पर रोते हुए नजर आए। हालांकि उन्होंने इतना जरूर कहा कि वे जातिगत जनगणना के पक्ष में हैं। वहीं देश के कई और राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने जातिगत जनगणना की मांग की है। लेकिन एक तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम के स्टालिन को छोड़कर अन्य याचक की भूमिका में हैं। आखिर इस देश के बहुजन अपने लिए महत्वपूर्ण सवाल को लेकर याचना क्यों कर रहे हैं?” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
अब वह खबर, जो सबसे अलहदा है। सचमुच भारत के वर्तमान मुख्य न्यायाधीश एनवी रमण कमाल के साहसी व्यक्तित्व के स्वामी हैं। मेरी नजर में पिछले चार-पांच वर्षों में वे सबसे साहसी मुख्य न्यायाधीश हैं। मैं उनके फैसलों की गुणवत्ता के बारे में कुछ नहीं कह सकता। लेकिन उनके बयानों से मुझे एक उम्मीद दिखती है। अब कल ही उन्होंने महिला अधिवाक्ताओं के एक कार्यक्रम में कहा कि वे चाहते हैं कि महिलाएं न्यायपालिका में 50 फीसदी आरक्षण मांगें और जब वे मांगें तब रोएं नहीं, चिल्लाकर मांगें। यह बड़ी बात है देश के मुख्य न्यायाधीश के मुख से।
मैं सोच रहा हूं कि देश में जातिगत जनगणना की मांग कर रहे लोग रो क्यों रहे हैं? कल ही बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इस मुद्दे पर रोते हुए नजर आए। हालांकि उन्होंने इतना जरूर कहा कि वे जातिगत जनगणना के पक्ष में हैं। वहीं देश के कई और राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने जातिगत जनगणना की मांग की है। लेकिन एक तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम के स्टालिन को छोड़कर अन्य याचक की भूमिका में हैं। आखिर इस देश के बहुजन अपने लिए महत्वपूर्ण सवाल को लेकर याचना क्यों कर रहे हैं?
मुझे लगता है कि मुख्य न्यायाधीश के उपरोक्त आह्वान को देश के बहुसंख्यक ओबीसी के लोग गंभीरता से समझें और आगे बढ़ें। अंत में रोज की तरह एक कविता।
कविता : इस देश में साबूत हैं दुष्ट आर्यों की वर्चस्ववादी प्रवृत्तियां
पहले मैदान नहीं थे सपाट
होते थे पेड़ और
मैदान भी ऐसे उदास नहीं रहते थे
गोया लूट गया हो सब
और जो शेष है
उसे गंवाने का डर है।
मैं पहाड़ों को देख रहा हूं
और उनके उपर हो रहे बारूदी हमले भी
मुझे मालूम है बारूद का एक गोला
कैसे उड़ा देता है
पहाड़ का एक हिस्सा
और महसूस कर सकता हूं
पहाड़ का धमाके से हिलना।
नदियों, सहानुभूति है तुमसे क्योंकि
रोज-ब-रोज मारी जा रही हो तुम
या तुम्हारी तल का गाद
अब तुम्हारे लिए नासूर बन गया है
और तुम्हें फिकर है कि
कहीं एक दिन तुम
बांध को तोड़ बस्तियां न डूबा दो।
मैं इस मुल्क को देख रहा हूं
और जेहन में है ख्याल कि
कश्मीर के बाशिंदे उदास क्यों हैं
और क्यों है उदासी
पूर्वोत्तर के चेहरे पर
उत्तर, दक्षिण और मध्य को
नहीं नसीब हैं भरपेट रोटियां।
फिर मुझे किस बात है इंतजार
यही सोचता हूं हरबार
और फिर आता है खयाल कि
इस देश में पैदा होगी एक जिंदा कौम
और वह पांच साल इंतजार नहीं करेगी।
जबकि अभी कौमें धर्म के नशे में हैं
मैं सोच रहा हूं
इतिहास के पन्ने पलट लूं
और मान लूं
इस देश में साबूत हैं
दुष्ट आर्यों की वर्चस्ववादी प्रवृत्तियां।
हां, मुझे मान ही लेना चाहिए
इस देश में साबूत हैं
दुष्ट आर्यों की वर्चस्ववादी प्रवृत्तियां।
नवल किशोर कुमार फारवर्ड प्रेस में संपादक हैं ।