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ओबीसी को गिनने से क्यों डर रही मोदी सरकार?

पिछड़ी जातियों को नीट परीक्षा में आरक्षण देने के बाद अपनी पीठ थपथपाने वाली मोदी सरकार इन जातियों की गणना कराने में डर रही है। यह स्थिति तब है जब केंद्र सरकार के पास इस बात का कोई पुख्ता प्रमाण नहीं है कि भारत में ओबीसी की आबादी कितनी है?  मंडल कमीशन के आंकड़े पर […]

पिछड़ी जातियों को नीट परीक्षा में आरक्षण देने के बाद अपनी पीठ थपथपाने वाली मोदी सरकार इन जातियों की गणना कराने में डर रही है। यह स्थिति तब है जब केंद्र सरकार के पास इस बात का कोई पुख्ता प्रमाण नहीं है कि भारत में ओबीसी की आबादी कितनी है?  मंडल कमीशन के आंकड़े पर यकीन किया जाए तो इनकी आबादी 52 फीसदी है। हालांकि मंडल कमीशन ने पिछड़ी जातियों की गणना नहीं कराई थी। अर्थशास्त्रियों के परामर्श पर साल 1931 में हुई जनगणना के आधार पर इनका आकलन तैयार किया गया था। चुनाव के समय सियासी दल भी अपने सर्वे कराते हैं और अनुमान के आधार पर आंकड़े पेश करते हैं। मोदी सरकार को जब सियासी मुनाफा कूटना होता है तब वह खुद ओबीसी मंत्रियों की संख्या बताने में तनिक भी नहीं पीछे नहीं रहती, लेकिन जब ओबीसी जातियों की गणना कराने की बात आती है तो सत्तारूढ़ दल के नेता थर-थर कांपने लगते हैं। बड़ा सवाल यह है कि केंद्र सरकार जब हर जनगणना  में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जन जातियों की गिनती कराती है तो ओबीसी जातियों की गणना में उसे किस बात का खौफ है? पिछड़ी जातियां लंबे समय से इस सवाल को उठा रही हैं, लेकिन मोदी सरकार लगातार ना-नुकुर कर रही है।
साल 1990 में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार ने अन्य पिछड़ा वर्ग के उम्मीदवारों को सरकारी नौकरियों में 27 प्रतिशत आरक्षण देने का फरमान जारी किया था। तत्कालीन सरकार के इस फैसले के बाद उत्तर भारत की सियासत में बड़ा बदलाव आया। गौर करें तो केंद्र और राज्य सरकार की कई नीतियां और योजनाएं जातियों के आधार पर ही तैयार की जाती रही हैं। ताजातरीन उदाहरण नीट की परीक्षा में ओबीसी के कोटे से संबंधित है।
केंद्र सरकार दलित और आदिवासियों को गणना कराती है, लेकिन उनकी जाति नहीं पूछती। आर्थिक और सामाजिक पिछड़ेपन को दूर करने के लिए अगर सरकार कोई नीति  बनाती है तो उसे पता होना ही चाहिए कि उनकी सही और सटीक आबादी कितनी है। जातियों की ठीक-ठीक गणना न होने की वजह से तमाम कल्याणकारी योजनाएं उन जातियों तक नहीं पहुंच पा रही हैं, जिनकी वो हकदार हैं।
साल 2018 में मोदी सरकार ने ऐलान किया था कि साल 2021 की प्रस्तावित जनणगना में ओबीसी का आंकड़ा जुटाया जाएगा। जाति आधारित जनगणना कराने के लिए आंदोलन चला रहे लोग मांग उठा रहे हैं कि सिर्फ ओबीसी ही नहीं, सभी जातियों की गिनती की जाए, ताकि भारतीय समाज की विविधता से जुड़े सही तथ्य सामने आ सकें। इनक्लूसिव ग्रोथ के लिए जाति आधारित जनगणना जरूरी है, समाज में सभी जातियों से जुड़े आंकड़े सामने आने के बाद ही संसाधनों के बंटवारे और उनके विकास की नीतियां ठीक ढंग से बनाई जा सकेंगी और उनका सही क्रियान्वयन भी किया जा सकेगा। भारत में दलितों कि आबादी 15 फीसदी है और आदिवासियों की 7.5 फीसदी है, जिसके आधार पर उन्हें सरकारी नौकरियों के अलावा शिक्षण संस्थाओं में दाखिला मिलता है। कुल जातियों में ओबीसी की हिस्सेदारी कितनी है, इसका कोई पुख्ता आंकड़ा देश में नहीं है। सुप्रीम कोर्ट मानता है कि 50 फीसदी से ज्यादा आरक्षण नहीं दिया जा सकता। इसके चलते दलितों और आदिवासियों के आरक्षण को निकालकर बाकी पिछड़ी जातियों के हिस्से में डाल दिया गया, जो नीतिगत नहीं है। शायद यही वजह है कि कुछ सियासी दल जातीय आधार पर गणना के पक्ष में खुलकर बोल रही हैं। भाजपा नेता गोपीनाथ मुंडे ने साल 2010 में संसद में स्पष्ट तौर पर कहा था कि अगर जनगणना में ओबीसी की गिनती नहीं की गई तो इस वर्ग को सामाजिक न्याय देने में सदियों बीत जाएंगे। तत्कालीन गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने भी माना था कि साल 2021 की जनगणना में ओबीसी पर डेटा जुटाया जाएगा। हालांकि मोदी सरकार संसद में ही अपने वादे से मुकर गई।
भारत के ज़्यादातर क्षेत्रीय दल जातिगत जनगणना के समर्थन में हैं, क्योंकि उनका जनाधार ही अन्य पिछड़ी जातियों पर  टिका हुआ है। राष्ट्रीय दलों का चरित्र यह है कि जब वो सत्ता में रहते हैं तब ओबीसी की गणना कराने की मांग नहीं उठाते हैं और सत्ता से उतरते ही जनगणना के पक्ष में राग अलापना शुरू कर देते हैं।
बड़ा सवाल यह है कि आखिर कौन-सी वजहें हैं जिसके चलते सत्ता पर काबिज सरकारें अपना कदम पीछे खींचती जा रही हैं? दरअसल सत्ता में काबिज कुछ लोग ऐसे है जिन्हें इस बात का डर है कि अगर ओबीसी का रेशियो साठ फीसदी हो गया तब क्या होगा? दरअसल, पहले जाति व्यवस्था ज्यादा लचीली और गतिशील थी, लेकिन जब से जातीयों पर आधारित सियासी दल बनने लगे तब से वह जटिल हो गई। मौजूदा समय में  देश में जिस तरह से सियासत चल रही है, वह आधारहीन है और उसे आसानी से चुनौती दी जा सकती है। एक बार जातियों की गिनती  होने के बाद व्यवस्था ठोस आकार ले लेगी। तब यह नारा उठने से कोई नहीं रोक पाएगा कि जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी।
मजे की बात यह है कि केंद्र और राज्यों की सूची में ओबीसी अलग-अलग दर्ज हैं। जातियों को लेकर भी बड़े-बड़े विवाद और वितंडे खड़े हुए हैं। बिहार  का ओबीसी बनिया यूपी में आकर ऊंची जाति में शामिल कर लिया जाता है। यही हाल जाटों का भी है।
जाति जनगणना के पक्षधर लोगों का मानना है कि इससे हम अपने पूर्वजों के बारे में सटीक जानकारी हासिल कर सकेंगे। साथ ही उस जातिगत विविधता को भी आसानी से जान सकेंगे, जिससे प्रेम उपजता है। यह एक आधारहीन भय है कि जाति आधारित जनगणना से जातिवाद फैलेगा। इसके आने से किसी की जाति संकट में नहीं पड़ जाएगी और न ही लोग मरने-मारने पर उतारू हो जाएंगे। जातिविहीन समाज की स्थापना तब तक नहीं की जा सकती, जब तक समानता और सभी को बराबर सुविधाएं नहीं मिलेंगी। यह तभी संभव होगा जब हमारे पास जातियों का सटीक ब्योरा  होगा। जातीय गणना के बाद ही सामाजिक जड़ता खत्म होगी और शोध के नये आयाम विकसित होंगे। कुछ समय बाद इन जातियों से नए सामुदायिक नेता निकलेंगे जो अपनी जातियों के पिछड़ेपन को दूर करने के लिए काम करेंगे। साथ ही सभी दलों में उनकी हिस्सेदारी भी सुनिश्चित होगी। इससे लोकतंत्र मजबूत होगा। यह लोकतंत्र पार्टी के अंदर भी मजबूती पाएगा और बाहर  भी। दलितों और आदिवासियों की वो जातियां भी सामाजिक तौर पर ऊपर दिखने लगेंगी, जिन्हें अभी तक घुमंतू और विमुक्त माना जाता रहा है।
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