बार-बार की नकारात्मक कोशिश के ज़रिए एक बार फिर से बिहार में सामाजिक न्याय, आरक्षण के पक्ष में बढ़ते अभियान को रोक दिया गया है। चूँकि किसी राजनीतिक ताकत द्वारा खुलकर अतिरिक्त आरक्षण का विरोध कर पाना आज़ के दौर में और खासकर बिहार में थोड़ा मुश्किल है, इसीलिए एक बार फिर से न्याय तंत्र का बेजा इस्तेमाल किया गया है, जिसने बिहार में दिए गए अतिरिक्त आरक्षण को असंवैधानिक करार दे दिया है।
वही 50 फीसदी सीमा वाला पुराना तर्क देकर, बिहार में नए आधार पर दिए गए, अतिरिक्त आरक्षण को, अवैध घोषित किया गया है, जब कि आरक्षण का 50 फीसदी सीमा वाला तर्क काफ़ी पुराना पड़ चुका है। इंदिरा साहनी बनाम सरकार वाले फैसले को खुद सुप्रीम कोर्ट ने पलट दिया है। 10 फीसदी इडब्ल्यूएस आरक्षण को मान्यता देकर न्यायतंत्र ने ही 50 फीसदी की सीमा को बेमानी बना दिया है। 10 फीसदी इडब्ल्यूएस आरक्षण को मान्यता देते समय सुप्रीम कोर्ट ने 50 फीसदी की सीमा पर ज़िक्र तक करना ज़रूरी नही समझा। कोर्ट अनेकों बार अन्य समूहों की तरफ़ से आरक्षण की मांग को इसी आधार पर खारिज करता रहा है कि आपके पास आंकड़े कहाँ हैं। इडब्ल्यूएस के मामले में इस बेहद ज़रूरी सवाल को भी गोल कर दिया गया। इस गंभीर संवैधानिक प्रश्न पर भी कोर्ट ने गजब की चुप्पी साध ली कि आखिर आर्थिक आधार पर आरक्षण का प्रावधान, संविधान के किस हिस्से में है?
हालांकि बिहार में दिया गया अतिरिक्त आरक्षण, बिल्कुल ही नये आंकड़ों पर आधारित था। इस मामले में कोर्ट यह भी नही कह सकता था कि आंकड़े कहा हैं। क्योंकि बिहार में आरक्षण में बदलाव नए तथ्यों के सामने आने के बाद ही किया गया था। सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह कि नया जनादेश सामाजिक न्याय को आगे बढ़ाने के पक्ष में आया था, बावजूद इसके न्यायतंत्र ने फिर से इस मसले की उपेक्षा ज़ारी रखी।
मूल बात यह है कि न्यायपालिका पहले से ही सवालों के घेरे में रही है। रह-रहकर उस पर सवाल उठते रहे हैं, पर मोदी काल में यानि पिछले 10 सालों से न्यायतंत्र पर भारतीय जनता का भरोसा बेहद निचले स्तर पर चला गया है। इस दौरान, कानून की व्याख्या का अधिकार, न्यायधीशों को जो मिला हुआ है, उसके चलते उनकी विवेकशीलता का ग़लत इस्तेमाल होते, कई-कई बार देखा जाता रहा है। इन 10 सालों में सामाजिक न्याय और सेकुलर प्रश्नों पर न्यायतंत्र का रवैया बेहद निराशाजनक रहा है। इसके दर्जनों उदाहरण दिए और देखे जा सकते हैं।
पर असल सवाल, न्यायपालिका की संरचना और भारतीय सामाज की संरचना के बीच का जो मुख्य अंतर्विरोध है, उसको ठीक-ठीक पहचाननें का है। भारतीय राज्य के गठन के दौर से ही शक्ति के जितने भी केंद्र थे लगभग वे सभी भारतीय समाज की विविधता के खिलाफ काम करते रहे हैं। पर न्यायतंत्र इस खास संदर्भ में इन सभी सत्ता केंद्रों का अगुवाई करता रहा है। नीचे से उपर तक न्यायपालिका, अपने देश के पुरानी व नई वर्चस्ववादी ताकतों के विचार, दर्शन व सोच का ही ज्यादा प्रतिनिधित्व करता रही है। इसीलिए एक बेहद महत्वपूर्ण पहलू, कालेजियम सिस्टम पर अलग-अलग समयों में गंभीर सवाल उठता रहा है। भारत एक बहुसांस्कृतिक, बहुधार्मिक, बहुजातीय विविधता लिए हुए है। भाषायी, क्षेत्रीय और वर्गीय चुनौतियां भी बनी हुई हैं। इस नजरिए से अगर देखा जाए तो भारतीय राज्य के जितने भी पावर सेंटर हैं वे अपनी संरचना में ही बेहद एकरंगी हैं। न्यायपालिका तो इस मामले में और भी ज्यादा विपन्न है। यह विपन्नता तब और बढ़ जाती है जब उसी तरह या उससे भी ज्यादा एकरंगा भारत बनाने की मंशा रखने वाली सरकार या कार्यपालिका भी आ जाती है।
इस आपराधिक तालमेल के चलते ही इस दौर में न्यायतंत्र मणिपुर की महिलाओं की आवाज को नही सुन पाता है। उसे 370 की ऐतिहासिकता नही दिखाई देती है। या उसे कश्मीरियों की भावनाएं नही समझ में आती हैं। इस एकरंगेपन के चलते ही एससी-एसटी को सुरक्षा देने वाले कानून उसे ऊंची जातियों को सताने वाले नज़र आने लगते हैं। इस नजरिए के चलते ही बिहार उच्च न्यायालय ने तथ्यों और तर्कों से परे जाकर ईबीसी,ओबीसी, एससी-एसटी आरक्षण को नये सर्वेक्षण के आधार पर जो विस्तार दिया गया था, उसे असंवैधानिक घोषित कर दिया है।
इस तरह के अनगिनत फैसलों ने यह साफ कर दिया है कि संविधान, लोकतंत्र व सामाजिक न्याय को ख़तरा, केवल संसद या सरकार से ही नही न्यायतंत्र से भी है। शायद अब वह समय भी आ गया है कि व्यापक न्यायिक सुधार भी बहस के केंद्र में आए। जन नियंत्रण का और विस्तार हो।
अब जबकि, पटना हाईकोर्ट के फैसले पर प्रतिक्रिया आनी शुरू हो गई है और चूंकि यह फैसला बिहारी समाज के बहुत बड़े हिस्से पर नकारात्मक असर डालने वाला है। इस वज़ह से समूचा विपक्ष इस फैसले की आलोचना के साथ-साथ सरकार की मंशा पर भी सवाल खड़ा कर रहा है। ठीक लोकसभा चुनाव के बाद इस तरह के नकारात्मक फैसले का आना भी,संदेहों के घेरे में है।
बिहार सरकार में उप मुख्यमंत्री व भाजपा नेता सम्राट चौधरी, जेडीयू महासचिव केसी त्यागी या अन्य सत्ताधारी नेता भी फैसले को पढ़ने के बाद जल्दी ही सुप्रीम कोर्ट जाने की बात कर रहे हैं। शाय़द वे अपनी राजनीतिक मजबूरियों के चलते उपरी कोर्ट में जाएंगे भी।
पर हम सब जानते हैं कि भाजपा सामाजिक न्याय के आज के बुनियादी व लोकप्रिय मांगों के खिलाफ है। केंद्र में उनकी सरकार ने जाति जनगणना कराने से पहले ही इंकार कर दिया है। भाजपा,ओबीसी, ईबीसी व एससी-एसटी जातियों लिए आरक्षण के विस्तार के भी खिलाफ है। 18वीं लोकसभा चुनाव के भाजपाई घोषणापत्र से भी ये अहम मुद्दे ग़ायब रहे हैं। ऐसे में इस मसले पर भाजपा क्या करने जा रही है यह बिल्कुल स्पष्ट है। उसका रास्ता घुमावदार ज़रूर होगा, पर भाजपा सामाजिक न्याय के इस बेहद अहम मुद्दे को अंततः भटका देना चाहेगी।
लेकिन असली सवाल विपक्ष से है और खासकर बिहार के विपक्ष से है कि वह आरक्षण के समग्र प्रश्नों पर और इस दौर में सामाजिक न्याय की दिशा में एक क़दम भी आगे बढ़ने के लिए बेहद जरूरी,जाति जनगणना के सवाल पर क्या करता रहा है? और अब क्या करने जा रहा है? जब हम इसकी पड़ताल करते हैं तो यहां भी उत्साहित करने वाले बिंदु बहुत कम मिलते हैं।
जुलाई 2019 में ही सदन के अंदर तत्कालीन गृह राज्यमंत्री, नित्यानंद राय, जो बिहार से ही आते हैं, ने जाति जनगणना कराने से साफ़-साफ़ इंकार कर दिया था। लगभग सभी विपक्षी दलों ने इसका विरोध भी किया। जाति जनगणना के समर्थन में वाम दल, राजद व कांग्रेस जैसे सभी मुख्य दलों के बयान भी आते रहे। प्रधानमंत्री से बिहार का एक प्रतिनिधिमंडल भी मिल आया और फिर अंत में, बिहार में जातिगत सर्वेक्षण के लिए ये दल अलग से कोशिश में लग गए। उसमें एक हद तक सफल भी रहे, और संतुष्ट भी हो लिए। लेकिन विपक्ष को यह यह ठीक से पता था कि आम जनगणना के केंद्रीय विषय होने के चलते, बिहार में हुए जातिगत सर्वेक्षण की संवैधानिकता हरदम ही संदिग्ध बनी रहेगी। उसे कभी भी बाधित किया जा सकता है। ऐसी कोशिश बार-बार चलती भी रही और अभी फिर से इस पूरे प्रोजेक्ट पर अड़ंगा लगा दिया गया है।
क्या ऐसा नहीं हो सकता था कि जातिगत सर्वेक्षण के लिए प्रयास के साथ-साथ, जनगणना एक्ट 1948 के तहत जाति जनगणना की गारंटी के लिए देशव्यापी स्तर पर या पूरे उत्तर भारत में या बिहार में जनांदोलन के रास्ते पर बढ़ता। क्या सदन के साथ-साथ सड़कों की तरफ नहीं बढ़ा जा सकता था?जिस जनतंत्र में जनता सबसे बड़ी और अंतिम ताकत होती है, क्या उसकी अदालत में नही जाया जा सकता था?
पर पूरे उत्तर भारत में, और खासकर यूपी बिहार में सन्नाटा छाया रहा। जाति जनगणना का सवाल प्रतीकात्मकता का क्लासिक उदाहरण बना रहा। उसे बौद्धिक समर्थन तक सीमित कर देने का राजनीतिक अपराध किया गया। सचेतन रूप से इस मुद्दे को सड़क की ओर जाने से रोका गया और कार्यपालिका और न्यायपालिका के दायरे में ही घूमते रहने दिया गया।
ऐसा क्यों हुआ? वह कौन सी वैचारिक और राजनीतिक बाधा है जिसने बार-बार सामाजिक न्याय के समर्थकों तक को धीमी गति से चलने के लिए मजबूर किया है?
असल में सामाजिक न्याय और समाजवादी धारा की मुख्य राजनीतिक ताकतों के बीच एक ताकतवर विचार अभी भी बना हुआ है कि उत्तर भारत में सवर्ण वर्चस्व को नकार कर मुख्यधारा की राजनीति नहीं की जा सकती है। इसी बुनियादी समझ पर खड़ा होकर ही सामाजिक न्याय व सेकुलरिज्म के सवालों को संबोधित किया जाता रहा है। यह विचार अभी अस्तिवमान है। जाहिर सी बात है इसका असर वाम दलों के भी अलग-अलग हिस्सों पर भी होगा ही लेकिन वहाँ एक और वैचारिक संकट भी है कि जाति का प्रश्न उनके लिए वर्ग संघर्ष का बुनियादी हिस्सा नही है। संसद को सड़क के या जनांदोलन के मातहत रखने वाले वामदलों के लिए भी जाति जनगणना एवं आरक्षण सड़क या जनांदोलन का प्रश्न नहीं है और उनकी इसी वैचारिक संकीर्णता के चलते जाति का प्रश्न कई बार वर्ग संघर्ष के खिलाफ खड़ा मिलता है।
ये कुछ बिंदु हैं जिनके चलते, जब बिहार विधानसभा में, जाति जनगणना के पक्ष में बार-बार प्रस्ताव पास किए जा रहे थे, ठीक उसी समय न केवल बिहार बल्कि पूरे उत्तर भारत की सड़कों पर सन्नाटा बना रहा। इन्ही वजहों के चलते,पटना हाईकोर्ट द्वारा अतिरिक्त आरक्षण रद्द कर दिए जाने के बाद भी समूचा विपक्ष बयान तो दे रहा है पर जनता के बीच सड़कों पर जाने से परहेज़ कर रहा है। संसदीय चुनावों के इतिहास में शायद पहली बार संविधान, सामाजिक न्याय और जाति जनगणना जैसे प्रश्नों को जनता द्वारा केंद्रीय मुद्दा बना दिए जाने के बाद, समाज के बड़े हिस्से को ऐसा लग रहा था कि विपक्ष इन मसलों पर अपनी पुरानी रणनीति में बदलाव लाएगा। लेकिन पटना हाईकोर्ट के फैसले बाद, तात्कालिक तौर पर ऐसा होता हुआ तो नही दिख रहा है।