Thursday, March 28, 2024
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न्यूनतम मजदूरी भी नहीं पा रहीं पटखलपाड़ा की औरतें लेकिन आज़ादी का अर्थ समझती हैं

पटखलपाड़ा के सामने जो खाली मैदान है वह पूरे नालासोपारा की गंदगी से पट रहा है। महिलाएं बताती हैं कि पश्चिम से हवा बहने पर धूल और गंदगी उड़कर यहाँ तक आ जाती है जिससे बाहर रखे कपड़े और सामान गंदगी से भरते हैं। वे बताती हैं कि बदबू की तो अब आदत हो गई है क्योंकि इसके अलावा कोई चारा ही नहीं हैं। यहाँ करीब पाँच हज़ार की आबादी है जो इन समस्याओं के साथ जी रही है।

पहले तो उन्होंने नाम पूछने पर संकोच में जवाब नहीं दिया लेकिन दोबारा-तिबारा पूछने पर बताया – आशा चौहान। अपना घर उन्होंने बनारस बताया लेकिन बनारस में कहाँ पूछने पर मिर्ज़ापुर कहने लगीं। मुझे लगा मिर्ज़ापुर भी शायद नहीं है इसलिए गाँव का नाम पूछने पर सोनभद्र जिले के सुकृत इलाके का लोहरा गाँव बताया। उनका मायका अहरौरा में है। वह कितने साल से यहाँ रह रही हैं वह इसको भी स्पष्ट नहीं बता सकीं लेकिन उनके साथ बैठी महिला ने कहा पंद्रह-बीस साल से रह रही हैं।

आशा चौहान तेजी से काम कर रही हैं। वह सलवार में लगाने वाला घुँघरू का लच्छा और हेयरबैंड बना रही हैं। एक दर्जन बनाने की मजदूरी पाँच रुपए है। वह बताती हैं कि दिन भर में बारह-पंद्रह दर्जन बना देती हूँ। इस हिसाब से उनकी औसत कमाई पचास-साठ रुपए रोज अर्थात महीने में पंद्रह सौ से अठारह सौ हो जाती है। उनके पास मालाड से एक गारमेंट कंपनी का कर्मचारी सामान पहुँचा जाता है। बनाने के बाद वही आकर माल ले जाता है।

इसी तरह गाजीपुर उत्तर प्रदेश की रहनेवाली बबीता राजभर भी तेजी से अपना काम कर रही हैं। कुछ पूछने पर वह भी सीधे कोई जवाब नहीं देतीं लेकिन साथ में मौजूद लोगों के कहने पर बताती हैं कि चालीस-पैंतालीस रुपए का काम कर लेती हैं। उनके पति एक तरह से दिहाड़ी मजदूर हैं और हार बेचने का काम करते हैं।

आशा चौहान

मनीषा यादव जौनपुर जिले के मड़ियाहू के मोकलपुर गाँव की हैं और पिछले आठ साल से यहाँ हैं। उनके परिवार का एक तबेला है। मनीषा तबेले में काम नहीं करतीं बल्कि पूरे परिवार के अलावा दो कामगारों सहित आठ लोगों के भोजन का प्रबंध करती हैं। उनके तबेले में छोटे-बड़े मिलाकर कुल पैंतालीस मवेशी हैं जिनके चारे और दूध का हिसाब भी वह रखती हैं। रोज सबेरे छः बजे उठकर वह चाय बनाती हैं। फिर नाश्ता और दोपहर के भोजन के बाद बर्तन और साफ-सफाई का काम निपटाती हैं। रात में ग्यारह बजे से पहले सो पाना असंभव है। इस काम में उनकी बेटी भी सहायता करती है हालांकि वह अब कॉलेज जाती है और उसे पढ़ाई के लिए और समय चाहिए। मनीषा की तीन बेटियाँ और एक बेटा है।

जौनपुर जिले के मड़ियाहू के मोकलपुर गाँव की मनीषा यादव

फुलकुमारी पाठक के परिवार के पास एक तबेला है जिसे उनके पति भैयालाल पाठक चलाते हैं। पहले वह खारघर में रहती थीं लेकिन पिछले आठ साल से नालासोपारा के इस इलाके में रहती हैं। वह दुहाई के समय यहाँ आती हैं और दूध का हिसाब उन्हीं के जिम्मे है। इसके अलावा सभी लोगों के भोजन की व्यवस्था भी वही करती हैं।

नालासोपारा के अचोले गाँव के पूर्वी इलाके पटखलपाड़ा में सबसे ज्यादा ध्यान खींचते हैं तबेले, डम्पिंग ग्राउंड बनता जा रहा खाली मैदान और एक जगह बने कई पार्टियों के दफ्तर तथा खंभे पर लगे सीसीटीवी कैमरे। इसके साथ ही एक ही जगह सूअर के मीट की दुकान और दुर्गा मंदिर है। ऐसा दृश्य बेशक मुंबई और उसके आस-पास ही संभव है। मीट की दुकान में एक आदमी गहरी नींद में सो रहा था और दुर्गा मंदिर में दरवाजे के पास बनी शेर की मूर्ति के पास एक कुत्ता निश्चिंत भाव से खड़ा था। आने-जाने के लिए ऊंची चढ़ाई और संकरा रास्ता है। गंदगी-धूल का कोई हिसाब नहीं है। लेकिन हजारों लोग इस माहौल में ही अपनी झुग्गियाँ बना कर रह रहे हैं।

फुलकुमारी पाठक

इस इलाके में पानी की भारी किल्लत है। तबेलों के लिए पानी का इंतज़ाम एक बड़ा काम है। पेयजल की भी दिक्कत है। सभी महिलाओं ने बताया कि पानी की व्यवस्था करना बहुत कठिन काम है। एक तो ऊँचाई की वजह से पानी बहुत मुश्किल से चढ़ता है, दूसरे एक निश्चित समय तक ही पानी आता है। हमारे पास कोई छत नहीं है इसलिए हम लोग बाल्टियों और टबों में ही पानी इकट्ठा करते हैं।

पटखलपाड़ा के सामने जो खाली मैदान है वह पूरे नालासोपारा की गंदगी से पट रहा है। महिलाएं बताती हैं कि पश्चिम से हवा बहने पर धूल और गंदगी उड़कर यहाँ तक आ जाती है जिससे बाहर रखे कपड़े और सामान गंदगी से भरते हैं। वे बताती हैं कि बदबू की तो अब आदत हो गई है क्योंकि इसके अलावा कोई चारा ही नहीं हैं। यहाँ करीब पाँच हज़ार की आबादी है जो इन समस्याओं के साथ जी रही है।

पटखलपाड़ा का खाली मैदान, जहाँ नालासोपारा इलाके की गंदगी डंप की जाती है

आशा चौहान और बबीता राजभर ने लॉकडाउन के दौर के सन्नाटे और भय का ज़िक्र करते हुये बताया कि अपनाझोपड़ा होने से हम लोग गाँव तो नहीं गए लेकिन अनेक कठिनाइयों का सामना हमें ज़रूर करना पड़ा। ये परेशानियाँ आर्थिक तौर पर इतनी भयानक थीं कि आज भी उनकी याद करके रोएँ खड़े हो जाते हैं।

उन्होंने यह भी बताया कि यहाँ अनेक महिलाएँ उन्हीं की तरह छोटे-मोटे काम करके घर चलाने में मदद करती हैं। यह पूछने पर कि क्या आप कभी सोचती हैं कि आपको जो मजदूरी मिलती है वह भारत सरकार द्वारा तय न्यूनतम मजदूरी से भी बहुत कम है? इस पर बबीता राजभर कहती हैं कि सरकार ने कानून से तय कर दिया उसको कौन मानता है? अगर हम काम करने से मना कर देंगी तो और भी बहुत से लोग यह काम करेंगे। काम तो कभी नहीं रुकता लेकिन जो भी कमाता है गरीब की ही मेहनत से कमाता है। सरकार जानती है यह बात लेकिन वह उन लोगों की गरदन क्यों नहीं पकड़ती जो हमको कम रेट देते हैं। हम लोग ने अपना गाँव छोड़ा क्योंकि वहाँ न हमारा खेत है और न ही कोई कारख़ाना है। अब यहाँ भी काम न करेंगे तो क्या खाएँगे? यहाँ से उजड़ेंगे तो कहाँ जाएँगे?

सूअर के मीट की दुकान

आँकड़ों को खंगालें तो मुंबई, ठाणे और पालघर के उपनगरों में लाखों ऐसी महिला कामगार हैं जो ठेके पर काम करती हैं लेकिन उन्हें न्यूनतम मजदूरी नहीं मिलती। सभी इसी तरह प्रदूषित और गंदगी भरी जगहों पर रहने को अभिशप्त हैं। अनेक महिलाएं स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों से जूझ रही हैं। कम मजदूरी की वजह से उन्हें खान-पान और रोज़मर्रा की अनेक जरूरतों में कोताही भी करनी पड़ती हैं जबकि उनकी मेहनत के बल गारमेंट उद्योग को करोड़ों रुपए का मुनाफा होता है। गारमेंट व्यावसायियों के संगठन अपने राजनीतिक संरक्षण के लिए राजनीतिक पार्टियों भारी चंदा देते हैं जिसका एक लाभ यह है कि उनके शोषण के विरुद्ध कोई आवाज नहीं उठ सके।

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इन महिला कामगारों की कोई कारगर यूनियन भी नहीं है जो इनके सवालों को उठा सके। यह पूछने पर कि आप किसी कामगार यूनियन में क्यों नहीं शामिल हुईं? आशा चौहान हँसते हुये कहती हैं कि यहाँ तो कोई आता ही नहीं। फिर हम किसको कहाँ बताने जाएँ कि हमारी क्या समस्या है? बबीता राजभर को इस बारे में कोई जानकारी नहीं है। फूलकुमारी पाठक कहती हैं कि तबेला मेरा ही है फिर भी मैं अपने हिस्से का पैसा अलग निकाल कर रखती हूँ। कल जब काम करने की स्थिति न रहे तो किसके भरोसे रह पाएंगे। इसलिए अपने हक का पैसा अपने कब्जे में रखना जरूरी है।

असंगठित क्षेत्र में कम मजदूरी, सेहत के प्रतिकूल माहौल, धीमी बीमारियों, रोज़मर्रा की समस्याओं के अलावा असंवाद और अलगाव के कारण कोई सांगठनिक ताकत दिखा पाना और न्यूनतम मजदूरी तथा बुनियादी सुविधाओं के लिए आवाज उठाना फिलहाल दूर की कौड़ी और आदर्शवाद लगता है लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि पटखलपाड़ा की ये कामगार महिलाएँ यदि अपने अधिकारों के प्रति शिक्षित की जा सकें तो वे एक बेहतर जीवन और दुनिया के लिए संघर्ष कर सकती हैं।

तीस हज़ार की आबादी वाला गाँव जहां शहादत की गाथाएँ हैं लेकिन लड़कियों का एक भी स्कूल नहीं

बबीता राजभर कहती हैं कि मैं जानती हूँ यहाँ बहुत सी असुविधाएं हैं। हम बुरे हालात में रह रहे हैं और जितना हो पाता है उतना मेहनत कर रहे हैं लेकिन गाँव की घुटन और बेरोजगारी से निजात पाने के लिए ही यहाँ आए हैं। काम के साथ एक आज़ादी और बिंदासी की फिलिंग होती है लेकिन मौका मिला तो इसको और भी अच्छा बना देंगी!

 

रामजी यादव
रामजी यादव वरिष्ठ कहानीकार और गाँव के लोग के संस्थापक व सम्पादक हैं।

5 COMMENTS

  1. Ram ji sir mai Dr Chandan from Prayagraj .Mai आपके gaw ke लोग kaa ek sajag pathak hai. बहुत marmic lekh raha hai apka. Hum samasyawo par bat करते hai . Karna chahiye likhna chahiye. Aur iska ek series hona chahiye. आपके ke pathak apko madam karenge हर jile me हर Jagah ki case study ho aur ek report ke taur par iska documentation करे. Fir social science department ke professor se bat kar inpar research ke liye Prerit करे. ऐसा mujhe lagata hai. Apko बहुत बहुत sadhuwad sir

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