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ग्राउंड रिपोर्ट

झारा शिल्प के विकास के लिए बना वर्क शेड स्वयं अपनी बदहाली पर आँसू बहा रहा है

झारा शिल्प का इतिहास खँगालने पर पता चलता है कि इसके सूत्र भारत की महान हड़प्पा सभ्यता से जुड़ते हैं। इसकी बनावट और रूपाकार भारत की प्राचीन रूप कलाओं की तरह विविधतापूर्ण और जीवन से भरी हुई है। रोज़मर्रा के जीवन से जुड़ी हर गतिविधि और जीवन में काम आनेवाली हर चीज को इस कला में देखा जा सकता है। प्रकृति, लोक संस्कृति, आमोद-उत्सव के अनेक आयामों का चित्रण इनकी बनावट में है।

एकताल गाँव की कहानी – दो 

रायगढ़। झारा शिल्प जिसे बेलमेटल कलाकृति या ढोकरा शिल्प भी कहा जाता है को देखकर सहज ही अंदाजा होता है कि यह एक समृद्ध और वैभवशाली कला है जो दुनिया में अपना परचम लहरा रही है। झारा शिल्प का इतिहास खँगालने पर पता चलता है कि इसके सूत्र भारत की महान हड़प्पा सभ्यता से जुड़ते हैं। इसकी बनावट और रूपाकार भारत की प्राचीन रूप कलाओं की तरह विविधतापूर्ण और जीवन से भरी हुई है। रोज़मर्रा के जीवन से जुड़ी हर गतिविधि और जीवन में काम आनेवाली हर चीज को इस कला में देखा जा सकता है। प्रकृति, लोक संस्कृति, आमोद-उत्सव के अनेक आयामों का चित्रण इनकी बनावट में है।

इस कला से जुड़े अनेक ख्यातिनाम कलाकार हैं। रायगढ़ जिले का एकताल गाँव ऐसे कलाकारों का ही गाँव है। एकताल में दर्जन भर राष्ट्रीय और राज्य पुरस्कार से सम्मानित कलाकार रहते हैं। पैंतीस ऐसे कलाकार भी हैं राज्य स्तरीय पुरस्कार मिल चुके हैं।

यहीं पर रहनेवाले गोविन्द राम झारा झारा शिल्प के शिल्पगुरु माने जाते हैं। झारा शिल्पकला को देश-विदेश  में ख्याति और सम्मान दिलाने में इनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है। वे एकताल ग्राम के शिल्प को विश्व स्तर पर ले जाने वाले पुरोधा कलाकार हैं। शिल्पगुरु गोविंदराम झारा के परिवार में ही तीन लोगों को राष्ट्रीय सम्मान और तीन लोगों को राज्य स्तरीय सम्मान प्रदान किया गया है। एकताल निवासी शंकर लाल झारा को धातु की असाधारण कुर्सियाँ बनाने में महारथ हासिल है।

बेलमेटल या ढोकरा शिल्प की बनी बैलगाड़ी और आदिवासी 

धनमति झोरखा गाँव की पहली महिला हैं जिन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। बुधियारिन झारा आठ राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता हैं।  इन्हें ‘चंद्री माता का रथ’ बनाने पर उन्हें हस्त शिल्प विकास बोर्ड द्वारा यह पुरस्कार मिला था। अपनी कला का प्रदर्शन इन्होने सूरजकुंड, शिमला, बंगलोर के अलावा और भी कई जगहों पर आयोजित क्राफ्ट मेलों में किया है। चाई बाई और पदमा झारा को राज्य सम्मान से नवाजा गया है।

लेकिन इतनी बड़ी विरासत के इन प्रतिनिधियों का वास्तविक जीवन अभाव और गरीबी की दुखभरी कहानी बनकर रह गया है। गोविंद राम झारा के पास जो घर है वह अत्यंत दयनीय स्थिति में हैं। जिन कलाकारों ने इसके सिस्टम को समझ लिया है, वे लगातार आगे बढ़ रहे हैं और सिस्टम से बाहर रहने वाले शिल्पी अभाव और बदहाली का जीवन जी रहे हैं।

इतनी समृद्ध कला के प्रति सरकार अथवा हस्त शिल्प विकास बोर्ड का क्या रवैया है यह भी सवालों के घेरे में है। जिन कलाकारों की मेहनत और ज्ञान के उत्पादों को दुनिया के अनेक बड़े शहरों में प्रदर्शित और विक्रय किया जाता है वास्तव में उनके सामने आज रोटी के लाले हैं। दवाएं खरीदने तक के लिए पैसे नहीं हैं। उनको मिले मेडल और सम्मान मानो उनकी गरीबी पर उनका मुंह चिढ़ा रहे हैं।

राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त झारा शिल्पी धनमती झोरखा और बुधियारीन बाई काम में मगन

सरकार ने एकताल गाँव में एक वर्क शेड बना बनाया है। इसका उद्देश्य था कि इससे कलाकार यहाँ अपना काम करेंगे और उनकी कमाई से घर चलेगा। बच्चे पढ़ेंगे-लिखेंगे और सबकी आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति होगी लेकिन इसकी वास्तविकता दिल दहलाने वाली है।

झारा शिल्पियों के गाँव एकताल में हमने जैसे ही प्रवेश किया तो वहाँ एक छोटे-से तालाब और मंदिर दिखाई पड़ा। आस-पास के खेतों में काम करते हुए कुछ लोग दिखे। सड़क पर एक्का-दुक्का लोग ही दिखाई दे रहे थे। गाँव में कुछ बच्चे खेलते दिखाई दे रहे थे। 50 मीटर आगे बढ़ने पर दायें हाथ पर एक खंडहरनुमा एक भवन दिखाई दिया और उसके सामने टीन का एक टूटा-फूटा शेड दिखा, जिस पर धुंधली पड़ गई स्याही से स्वर्ण जयंती ग्राम स्वरोजगार योजना के अंतर्गत स्वीकृत ( ग्रामीण यांत्रिकी सेवा) लिखा दिखा। उत्सुकता हुई। मैंने गाड़ी रोकी। खंडहरनुमा भवन के चारों तरफ से झाड़-झंखाड़ और घास दिख रहा था। मुख्य दरवाजे और गेट पर ताला लगा हुआ था और खिड़कियों में लगी हुई जाली से अंदर की स्थिति और बदतर दिखाई दे रही थी। बड़े से हाल में तीन-चार मशीनें दिखाई दे रही थीं।

बदहाल वर्कशेड में भट्ठी और और दूसरे वर्कशेड के अंदर जंग खाई मशीनें अपनी कहानी कहती हुईं

असल में हम यही देखने के लिए गए थे। इसकी यह हालत देखकर हम सकते में थे। निर्माण शेड में घुसकर देखने की इच्छा बलवती हो गई। मनोज श्रीवास्तव और मैं गाड़ी से उतरकर वहाँ पहुँच गए। उस भवन के गेट के आगे 7-8 फीट ऊँची घास उगी थी और नीचे की गंदगी से बचते हुए जब मैं खिड़की के करीब  पहुंची तो अंदर तीन-चार मशीनें ही दिखाई पड़ रही थी जो बहुत बुरी स्थिति में थी। इस शेड के निर्माण का उद्देश्य एकताल गाँव के शिल्पियों को आत्मनिर्भर बनाते हुए उन्हें निर्माण की हर सुविधा उपलब्ध कराना था। मनोज जी ने बताया कि यहाँ के शिल्पियों की सुविधा के लिए ही यह शेड बनाया गया था लेकिन इस भवन की स्थिति को देखते हुए लग नहीं रहा था कि इसका लाभ शिल्पियों ने कभी उठाया होगा।

भट्ठी के पास खड़े रायगढ़ के प्रसिद्ध चित्रकार मनोज श्रीवास्तव

जिला प्रशासन के निर्देशन में ग्रामीण यांत्रिकी सेवा द्वारा वर्ष 2002-2003 में स्वर्ण जयंती ग्राम स्वरोजगार योजना के अंतर्गत झारा शिल्पियों के लिए सर्वसुविधायुक्त वर्क शेड का निर्माण किया गया। वर्ष 2011-12 में इसे छत्तीसगढ़ हस्तशिल्प विकास बोर्ड को हैन्डओवर कर दिया गया। इस शेड में झारा शिल्पियों द्वारा निर्मित मूर्तियों की ढलाई, बफिंग, सफाई आदि के लिए मशीनें लगाई गई थीं। हालांकि हर शिल्पी अपने घर में मूर्ति निर्माण और ढलाई की अपनी परंपरागत व्यवस्था रखे हुए है लेकिन बफिंग के लिए उन्हें बाहर जाना पड़ता था और उसके लिए उन्हे ज्यादा भुगतान करना पड़ता था क्योंकि हर शिल्पी यह मशीन खरीदने की क्षमता नहीं रखता।

गाँव के अंदर पहुँचने पर एक कच्चे रास्ते के दोनों तरफ कुछ कच्चे और कुछ पक्के घर दिखाई दे रहे थे और घर के बाहर हर परिवार के लोग सामूहिक रूप से धूप सेंकते हुए कलाकृतियों पर मोम की मैगीनुमा लड़ी को चिपकाने में लगे हुए थे।

राष्ट्रपति सम्मान प्राप्त शिल्पी धनीराम झारा
राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित धनीराम झारा

मैंने झारा शिल्पियों से वर्क शेड की बदहाली के मुद्दे पर बात की। हम राष्ट्रपति और राज्य सम्मान से सम्मानित  शिल्पकार धनीराम और राज्य पुरस्कार प्राप्त विजय झारा के घर पहुंचे। वे दोनों पिता-पुत्र हैं और इन दोनों के साथ पूरा परिवार इसी काम में लगा हुआ था। विजय झारा जो इस वर्कशेड के बनाई गई समिति के अध्यक्ष थे ने काम करते हुए बताया कि वास्तव में इस वर्कशॉप के निर्माण का उद्देश्य एकताल गाँव के शिल्पियों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए सुविधा उपलब्ध कराना था। क्योंकि झारा शिल्पियों द्वारा बनाई गई कलाकृति को मुख्यत: 7-8 प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है। जो काम मैनुअल होते हैं वह तो स्वयं की मेहनत से सम्पन्न कर लेते हैं लेकिन मशीन द्वारा किए जाने वाले बफिंग और घिसाई के लिए दूसरों पर आश्रित रहना पड़ता था क्योंकि इसकी मशीनें बहुत महंगी आती हैं और इसे खरीदना हममें से किसी लिए संभव नहीं। और बाहर इन कलाकृतियों की बफिंग और घिसाई के लिए अतिरिक्त भुगतान करना पड़ता था। इससे उसकी लागत बढ़ जाती थी।

इस वजह से इनके काम को सुविधाजनक और कम खर्चीला बनाने के लिए जिला प्रशासन ने उसी गाँव में वर्ष 2002-03 में एक वर्कशॉप का निर्माण किया, जिसमें दो वर्कशॉप बनाए गए। एक में बड़ी भट्ठी बनाई गई , जहां पीतल को पिघलाकर साँचे में डाला जाता था और दूसरे में चार-पाँच मशीनें लगाई गईं, जहां कलाकृति बन जाने के बाद उसकी बफिंग और सफाई कर सके ताकि गाँव में रहते हुए ही काम पूरा हो सके।

लगभग दस लाख की लागत में इस वर्कशॉप को तैयार करवाया था बाद में इसे छत्तीसगढ़ हस्तशिल्प विकास बोर्ड को सौंप दिया गया। छत्तीसगढ़ हस्तशिल्प विकास बोर्ड ने इस शेड को संचालित करने के लिए गाँव के लोगों को लेकर एक समिति बनाई, जो इस वर्कशॉप को संचालित कर रही थी।

वर्कशेड के लिए निर्मित समिति के अध्यक्ष और राज्य सम्मान प्राप्त शिल्पी विजय झारा

इस शेड में बिजली, पानी, बफिंग,सफाई के साथ ढलाई के लिए भट्ठी/चूल्हा और ग्राइन्डर लगाया गया। मॉनिटरिंग के लिए समिति द्वारा कुछ नियम बनाए गए। यहाँ की मशीन के उपयोग के बदले नाममात्र शुल्क बीस रुपये रखा गया जो इस शेड की देखरेख के साथ बिजली बिल के भुगतान के काम आता था। शुरुआत में तो कुछ दिनों तक सही चलता रहा लेकिन एक समय के बाद यहाँ लोग काम तो करते लेकिन नाममात्र तय किए गए शुल्क का भुगतान करने में भी आनाकानी और लापरवाही करने लगे, जिसके चलते इस गाँव वालों में ही आपसी मनमुटाव और झगड़ा होने लगा।

समिति के अध्यक्ष विजय झारा ने बताया कि आर्थिक दबाव बढ़ने लगा और एक समय आया कि 78000 रु का बिजली बिल बकाया हो गया। यह बंद होने की कगार पर आ गया। यहाँ बफिंग और पॉलिश के लिए 20/- लगते थे अब वही बाहर करवाने पर 100/- प्रति घंटे की दर से भुगतान करना पड़ता है। साथ ही वहाँ जाने के लिए समय, पेट्रोल और इंतजार खर्च करना पड़ता था।

अभाव और बदहाली में जीने वाले कोई पहले कलाकार नहीं हैं गोविंदराम झारा

अभिनेता ही नहीं सामाजिक आंदोलनकारी भी थे नीलू फुले

जब हमने छत्तीसगढ़ हस्तशिल्प विकास बोर्ड के प्रभारी अधिकारी आरडी खूँटे से बात की तो उन्होंने बताया कि ‘2011-12 में जिला प्रशासन ने जब उन्हें यह वर्कशॉप सौंपा तो छग हस्तशिल्प बोर्ड ने 5 लोगों की एक समिति का गठन किया और एक अध्यक्ष, एक सचिव, एक कोषाध्यक्ष और गाँव के कुछ लोगों को कार्यकारी सदस्य बनाया ताकि सभी मिलजुल कर इसे चलाएं। उन्हें अपनी तैयार मूर्तियों और कलाकृतियों की सफाई, बफिंग और ढलाई के लिए अन्य लोगों पर निर्भर न रहना पड़े। 9-10 वर्ष तक यह चालू हालत में था क्योंकि इसके लिए उन्हें एक फंड उन्हें दिया गया था। लेकिन शिल्पियों द्वारा उपयोग के बाद न्यूनतम भुगतान भी नहीं किए जाने के बाद इस वर्कशॉप की स्थिति दिन पर दिन खराब होती गई। धीरे-धीरे बकाया बढ़ता गया और 78000/- के बिजली बिल का भुगतान बकाया हो गया। बिजली कनेक्शन कट गया। तब छत्तीसगढ़ हस्तशिल्प बोर्ड ने एक मीटिंग बुलाई गई। बातचीत हुई और आगे यह चलता रहे इसके लिए बोर्ड ने 78000/- रुपये का भुगतान कर दुबारा शुरू किया गया लेकिन ज्यादा दिन तक इसे नहीं चला पाए और अब तो यह पूरी तरह बंद हो चुका है और देखरेख के अभाव में खंडहर हो गया है। मशीनों पर जंग लग रहा है। कुछ मशीनें यहाँ से उठाकर एकताल गाँव के लोग व्यक्तिगत उपयोग कर रहे हैं।’

छग हस्तशिल्प विकास बोर्ड रायगढ़ के प्रभारी आरडी खूँटे 

सरकारी लापरवाही से इस तरह वर्कशॉप तो बंद होते देखे हैं लेकिन यहाँ जिनके लिए सुविधा मुहैया कराई गईं उनकी लापरवाही से अब यह वर्कशॉप पूरी तरह खत्म हो चुका है। लेकिन एकताल गाँव के शिल्पी चाह रहे हैं कि यह वर्कशॉप फिर से शुरू हो क्योंकि ढोकरा शिल्प की बनी मूर्तियों पर पॉलिश करने के लिए 100/- प्रति घंटे की दर से भुगतान करना पड़ता है। वे फिर यहाँ उपलब्ध मशीनें खरीदने के लिए 30-40 हजार रुपये नहीं लगा सकते। इसके बारे में छत्तीसगढ़ हस्तशिल्प बोर्ड के अधिकारी ने बताया कि ‘इस वर्कशॉप को दुबारा शुरू करने का प्रस्ताव और इस्टिमेट  छग हस्तशिल्प बोर्ड विभाग के मुख्य कार्यालय, रायपुर को भेजा गया है।’

अपर्णा
अपर्णा
अपर्णा गाँव के लोग की संस्थापक और कार्यकारी संपादक हैं।
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