देवरिया। किसी शहर के रोज़ाना के कारोबार में दिखनेवाली आपाधापी उसकी जीवंतता का आधार होती है और यह आपाधापी किसी अन्य आयोजन की बजाय वहाँ की मेहनतकश जनता और साधारण उपभोक्ताओं के कारण होती है। मुंबई एक जीवंत शहर है लेकिन कोलकाता धीरे-धीरे मर रहा है। इसके पीछे भी यही बड़ा कारण है। ऐसे ही बरहज भी कभी एक जीवंत शहर था लेकिन सतरांव निवासी अध्यापक योगेशनाथ यादव कहते हैं कि ‘बरहज अब धूल खाने लगा है।’
हिन्दी के जाने-माने कवि और अपने वक्तृत्व कौशल के लिए मशहूर प्रोफेसर दिनेश कुशवाह का पैतृक गाँव गहिला सतरांव के ही पास है, हालांकि इन्टरनेट पर उपलब्ध सूचना के अनुसार उनका जन्म अयोध्या में हुआ था जहां उनके पिता पुलिस इंस्पेक्टर थे। उन्नीस फरवरी 2023 तक मैं उनके पिता को किसान समझ रहा था और दिनेश ने अपने पिता पर जो कविता लिखी है उसमें उनके चिता पर जलाए जाने का ऐसा कारुणिक दृश्य उपस्थित होता है कि पढ़ते हुये मन बहुत देर तक उदास रहा। मुझे अपने खेतों को छोड़ गए एक ऐसे किसान के प्रति गहरी श्रद्धा हुई जिसका पैर जलती हुई चिता से बाहर गिर पड़ा था। ऐसे में कहाँ ध्यान जाता कि वह किसान नहीं कुछ और था। योगेशनाथ यादव ने बताया कि दिनेश जी और मेरा एक कनेक्शन यह है कि हमारे गाँव आस-पास हैं और हम दोनों के पिता पुलिस इंस्पेक्टर थे। कविवर का लगाव बरहज शहर से बहुत पुराना है। इसी जगह पूर्वाञ्चल के सबसे महत्वपूर्ण कवियों में से एक मोती बीए पढ़ाते थे और रहते थे। लेकिन जब मैंने दिनेश को फोन किया कि बरहज में अपने मित्रों की सूची दीजिये तो उन्होंने कहा यार तीस साल हो गए वह शहर छोड़े हुये। अब वहाँ मेरा कोई परिचित नहीं है।
किसी जमाने में यहाँ से शीरे से लदे जहाज़ घाघरा नदी के रास्ते ढाका तक जाते थे लेकिन फिलहाल घाघरा का पेटा कहीं-कहीं इतना सिमट गया है कि बमुश्किल कोई नाव वहाँ से पार हो सकती है। इसका एक उदाहरण बरहज घाट ही है जहां दूर-दूर तक सिर्फ रेत दिखती है। दूर-दराज के इलाकों से कड़ाही चढ़ाने आए परिवारों की महिलाएँ पूड़ी छानने और हलुआ बनाने में लगी हैं। एक परिवार की महिलाओं से मैंने पूछा क्या मैं एक फोटो ले सकता हूँ। बहुत दिनों बाद ऐसे देख रहा हूँ। इस पर वे ठिठकीं और पूछा कि आप फोटो का क्या करेंगे? फिर अपने काम में लग गईं। सामने नदी की ओर जाते कुछ लोगों का हुजूम नदी के पाट में कई मील का बन चुका रेगिस्तान पार कर रहा था।
अभी दोपहर शुरू नहीं हुई थी, लेकिन धूप चुभने लगी थी। जैसा कि कस्बाई शहरों में होता है कि वे ऊँघते-ऊँघते जागते हैं, बरहज भी मानो अपने आलस्य को त्यागने की कोशिश कर रहा था। मंडियों में कुछ लोग खरीद-फरोख्त में लगे हुये थे। शहर की सड़क पर थोड़ा अंदर जाते हुई कूड़े की दो समानांतर गाड़ियाँ सबका रास्ता रोके हुये थीं। गंतव्य तक पहुँचने की जल्दी में कुछ लोग फोंफर तलाश रहे थे। हालाँकि जिस धैर्य के साथ कूड़ा-गाड़ियाँ खड़ी थीं उससे प्रतीत होता था कि बरहज जैसे मिजाज वाले शहर किसी के लिए जल्दी रास्ता नहीं छोड़ते।
मेरे सारथी अभिनव कुमार यादव युवा नेता हैं और बरहज इलाके से अच्छी तरह वाकिफ हैं। उनको अनेक लोग यहाँ जानते हैं और उनसे बतियाना चाहते हैं। उन्होंने सबसे पहले बरहज घाट चलने का मन बनाया। बरहज घाट किसी ज़माने बहुत गुलजार रहा होगा लेकिन अब वह जर्जर हो रहा है। पुराने जमाने की तस्वीरों में सीढ़ियों तक पानी लहराता दिख जाएगा लेकिन आज तो घाट की सीढ़ियाँ और मंडप उखड़ रहे हैं। अभिनव बताते हैं कि ‘घाघरा लगातार अपना रास्ता बदलती रहती है। इस घाट तक केवल बाढ़ का पानी ही आ पाता है। बाकी के महीने ऐसे ही रेत उड़ती है। तेज चमकती हुई धूप में पानी को देखने लायक आँखें केवल उन्हीं की होंगी जो अच्छी तरह जानते हैं कि नदी की धार एक मील से कम दूर नहीं होगी।’
अभिनव ने लौटते समय बाज़ार के वे हिस्से दिखाये जो बरहज के व्यापारियों से जुड़े थे लेकिन अब वहाँ कोई रहता नहीं। महावीर प्रसाद केडिया द्वारा बनवाए गए अतिथिगृह में अब केयर टेकर के अलावा कोई नहीं रहता। एक दिन पहले जब हम कृषि वैज्ञानिक डॉ जनार्दन यादव के घर जा रहे थे तब पैना गाँव निवासी शायर एसएम मुस्तफ़ा बरहज के बारे में बहुत कुछ बता रहे थे। बरहज का विगत वैभव उनकी बातों से हरा-भरा हो रहा था। मुस्तफा साहब ने बताया कि मोती बीए, जो पूर्र्वाञ्चल के बड़े कवि थे और बरहज के एक कॉलेज में पढ़ाते थे। मैं उनके पास जाया करता था। उनसे बहुत कुछ जानने-समझने का मौका मिला। मुझे उनसे बहुत प्रेरणा मिली। बरहज के बारे में कहा जाता था कि ‘बिटविन कानपुर एंड पटना बरहज इज़ मिनी इंडस्ट्रियल प्लेस’। एक जमाने में बरहज का रुतबा था। उस समय यहाँ से बाँस, शीरा और लकड़ी आदि का व्यवसाय होता था।’ सुनते-सुनते थक गए प्राचार्य दीनानाथ यादव ने कहा ‘पहले वाला गाना कितना भी सदाबहार हो लेकिन ट्रेंड तो नया ही करता है।’
चार चक्कर मारती बरहजिया ट्रेन और निचाट बरहज बाज़ार स्टेशन
वह रेल लाइन जो कि भटनी से चलकर सलेमपुर होते हुए यहां बरहज बाज़ार आती है वह यहीं समाप्त हो जाती है। मऊ-इंदारा से एक रेलवे दोहरीघाट आती है। इसी तरह दिलदारनगर से ताड़ीघाट के लिए भी एक लाइन है। इन स्टेशनों के अपने मजे हैं लेकिन बरहज का जलवा अलग ही रहा है। अभी भी यहाँ की लोकप्रिय गाड़ी बरहजिया सुबह-शाम चार चक्कर लगाती है।
जिस समय हम बरहज बाज़ार स्टेशन पहुँचे उस समय वहाँ कोई ट्रेन नहीं थी इसलिए यह अंदाज़ा नहीं हो सका कि कितने यात्री यहाँ से चढ़ते-उतरते हैं लेकिन दस-बारह लोग रिज़र्वेशन करा रहे थे। स्टेशन कस्बे से बाहर है इसलिए भी यहाँ बैठने-उठने कम ही लोग आते हैं। अभिनव कहते हैं ‘ट्रेन तो चल रही है लेकिन इसका कोई खास फायदा बरहज के लोगों को इसलिए नहीं मिलता क्योंकि केवल सलेमपुर और भटनी तक ही जाती है। गोरखपुर या देवरिया तक जाती तो लोगों को अधिक सहूलियत होती।’
पहले से ही ट्रेन भटनी-बरहज के बीच चलती रही है। भटनी अथवा सलेमपुर से बाकी जगहों के लिए ट्रेन पकड़नी होती थी। पहले मालगाड़ी भी चलती थी क्योंकि वास्तव में बरहज से शीरे और बाँस सुदूर पूर्व में कोलकाता और ढाका तक ले जाया जाता था। अब इस इलाके में कुछेक फसलें ही होती हैं लेकिन एक जमाने में अनेक प्रकार की फसलें होती थीं। सबसे शानदार फसल गन्ने की होती थी। इसलिए घाघरा के दोनों किनारे वाले जिलों में कई चीनी मिलें थीं। प्रतापपुर चीनी मिल देश की सबसे पहली चीनी मिल हुआ करती थी। भाटपार, गौरी बाज़ार, देवरिया, भटनी में भी चीनी मिलें थीं। इससे पहले लोग छोटे पैमाने पर गुड़ बनाने का काम करते थे।
आज से सौ सवा सौ साल पहले यह पूरा इलाका इतना समृद्ध था कि बहुत से लोगों को रोजगार मिल जाता था। इसकी समृद्धि को देखकर ही अनेक बड़े व्यापारी यहाँ आए। बरहज निवासी अधिवक्ता और जगदीश त्रिपाठी इंटर कॉलेज के प्रबन्धक वीरेंद्र त्रिपाठी बरहज के इतिहास में गहरी दिलचस्पी रखते हैं। उनके बड़े पुत्र शैलेंद्र कुमार त्रिपाठी, कवि-आलोचक थे और शांति निकेतन में पढ़ाते थे। मेरी उनसे थोड़ी जान-पहचान थी। शैलेंद्रजी पचास वर्ष की उम्र में चल बसे थे। वे पहले तो कुछ कहने से यथासंभव बचना चाहते थे लेकिन कुरेदने पर बरहज के बारे में बात करने के लिए तैयार हो गए।
वह बताते हैं कि गोरखपुर गज़ेटियर 1908 में यह लिखा गया है कि बरहज का नाम बरहना नाम स्थान के नाम पर पड़ा जो कि नदी के किनारे है। इतिहासकार कार्लाइल इसके बारे में अपनी किताब में लिखते हैं कि ‘यह मल्ल राज्य के अधिकार में था। चंद्रकेतु ने मल्ल भूमि की स्थापना की थी। इसमें कुशीनारा, पावा, मझौली आदि आते थे। मझौली से भी कटकर तीन राज्य बन गए। रुद्रपुर, पडरौना मझौली से कटे हैं। लेकिन यह जगह मूलतः बंजारों की थी।’ यहाँ एक स्थान सोनावें है जो देवी का स्थान है। यहाँ बंजारे रहते थे। एक दोहा प्रचलित है ‘मैरंगगढ़ मैरंगगढ़ी सूखलगढ़ी अपार। सहनकोट गौरागढ़ी डोमिनगढ़ विस्तार॥’ ये सब मल्ल राज्य की गढ़ियाँ थीं। इसमें सहनकोट दिखाई दे रहा है। गौरागढ़ी भी दिखाई दे रही है। नदी के किनारे। इन सब जगहों पर बंजारे रहते थे। बाद में मझौली के मल्लों ने बंजारों को यहाँ से भगा दिया।’
वीरेंद्रजी कहते हैं ‘बरहज कई बार उठता-गिरता रहा है। जब यहाँ गन्ना बहुतायत होता था तब कुछ व्यावसायिक घराने यहाँ आए लेकिन स्थितियाँ बदलते ही वे यहाँ से चले भी गए। यहाँ बेचू साव बड़े सेठ थे। महावीर प्रसाद केडिया बड़े व्यवसायी थे। खेतान भी यहाँ आए लेकिन जैसे-जैसे खांड और शीरे का व्यापार कमजोर हुआ वैसे-वैसे वे लोग पलायन कर गए। एक समय यहाँ करोड़ों का कारोबार होता था और इसीलिए आप छानबीन करें तो पाएंगे कि जब पूर्वाञ्चल से लोग गिरमिटिया मजदूर बनाकर ले जाये जा रहे थे तब इस इलाके के लोग उससे बचे रहे क्योंकि उनके लिए यहीं रोजगार था।’
वह बताते हैं कि इस पूरे क्षेत्र में लगभग डेढ़ सौ से अधिक कारखाने थे। इसके लिए बहुत ज्यादा मैनपावर की जरूरत थी। उन दिनों लकड़ी के बड़े-बड़े पहियों वाली बैलगाड़ियाँ हुआ करती थीं। यह हमलोगों के बचपन तक रहा है। जब उन पर शीरा लाद कर ले जाया जाता था तो कभी-कभी कोई पीपा खुल पड़ता था और शीरा गिरने लगता था। जब शीरा गिरता था तो लोग सड़क से काछ कर कड़ाही में भरते थे। उस शीरे को भैंस आदि को रस पिलाने के लिए दुकानदार खरीद लेते थे। इस प्रकार शीरा इकट्ठा करने के वालों के पास भी अच्छा-खासा पैसा हो जाता था। शीरा का व्यवसाय यहाँ बहुत अच्छा था। धीरे-धीरे मारवाड़ी लोग इसमें घुसे। वह व्यावसायिक कौम है। उनमें एक गुण होता है कि वे सहनशील और पॉज़िटिव होते हैं। यदि उन्होंने कोई आदमी रखा जिसने दस लाख का बिजनेस किया और दो लाख चुरा लिया तो भी वे कहते हैं कि आठ लाख तो दिया न। यह ढंग देसवाली लोगों में नहीं होता। वे एक-एक पैसे का हिसाब लेते हैं और दाँत से पैसा दबाते हैं। धीरे-धीरे जब देसवाली लोग डाउन होने लगे तब मारवाड़ी लोगों का वर्चस्व बढ़ने लगा। कारखाने मारवाड़ी लोगों के कब्ज़े में तो नहीं आए लेकिन उन लोगों ने यहाँ इंडस्ट्री लगाई। यह पहले दाल मिल के रूप में थी।’
बाद में दाल मिल की जगह रोलिंग मिल शुरू हो गई। लेकिन मजदूर आंदोलन के चलते वह भी बंद हो गई। एक समय ऐसा आया कि कोई भी बड़ा कारख़ाना यहाँ नहीं रह गया। सब खत्म हो गए। इसलिए धीरे-धीरे लोग दूसरी जगहों पर चले गए। बरहज में अब केवल उनका मकान भर रह गया है। जैसे हीरा लाल भगवती लाल पडरौना वाले। उनके भाई हीरालाल की कोठी आज भी यहाँ है।
बाद में चलकर बरहज में लोहे और लकड़ी के सामान बनाने का काम शुरू हुआ। यहाँ की लकड़ी के बने सामान की मांग दूर-दूर तक थी। अभी भी बाज़ार में लकड़ी के काम के कई कारखाने हैं। हालांकि अब यह काफी मंद पड़ चुका है। पहले जहां लकड़ियाँ सस्ती मिल जाती थीं अब उनके दाम आसमान छू रहे हैं। इमारतों में दरवाजे आदि भी अब लोहे के लगते हैं क्योंकि वे किफ़ायती होते हैं। इसके साथ ही कड़ाहियों एवं अलमारियों को बनाने का काम शुरू हुआ और तेजी से चला लेकिन उसकी अवधि भी लंबी नहीं थी। फिलहाल बरहज किसी तरह से जी-खा रहा है। यहाँ से भी पलायन और विस्थापन तेज हुआ है। कस्बे में सैकड़ों ऐसे घर हैं जहां अब कोई नहीं रहता और वे पूरी तरह खाली पड़े हैं।
बाबा राघवदास यदि उत्तर भारत के होते ….
बरहज में बाबा राघवदास द्वारा स्थापित शिक्षण संस्थानों को निकाल दिया जाय तो शायद ही कुछ बचेगा। शिक्षण संस्थानों के मामले में बरहज बहुत समृद्ध है। यहाँ प्राइमरी, मिडिल और हाईस्कूल से लेकर इंटरमीडिएट और डिग्री कॉलेज तक हैं। बाबा राघवदास भगवानदास स्नातकोत्तर महाविद्यालय के सामने चाय समोसे और दूसरी चीजों की एक दुकान पर चहल-पहल थी और कॉलेज के सामने का विशाल वटवृक्ष अपने वैभव के साथ लहरा रहा था।
जब हम बाबा राघवदास के आश्रम पहुँचे तो प्रांगण के गेट पर एक युवा सांड खड़ा था लेकिन आने-जाने वालों से निस्पृह था। इससे पता चलता था कि वह मरकहा नहीं था। अंदर भी एक बड़ा सांड विचर रहा था। गेट के पास चबूतरे पर किसी अन्य कॉलेज से आई हुई कुछ लड़कियां थीं जिन्होंने बताया कि वे यहाँ B.Ed की परीक्षा के लिए आई हैं। हमें आश्रम के कर्ता-धर्ता से मिलना था। हम अंदर गए तो कोई नहीं मिला। पिछले भवन में जाने पर लगा कि वहाँ कोई है। एक सज्जन चटाई बिछाए सो रहे थे। हमारी आहट पाते ही उठ गए। हमने कहा जरा बाहर निकलिए आपसे कुछ पूछना है। उन्होंने अपना कपड़ा पहना और बाहर आए। यह बताने पर कि मैं बनारस से गांव के लोग का एक प्रतिनिधि हूं। उन्होंने कहा कि लेकिन मैं तो यहाँ बेतिया जिले से आया हुआ हूं। यहां मेरी बेटी का इम्तिहान है। आप महात्मा जी से बात कीजिए। फिर वे बाटने लगे कि मैं बिहार सरकार से अभी-अभी रिटायर हुआ हूँ। वे स का उच्चारण श कर रहे थे जो हँसी पैदा करता।
थोड़ी देर के बाद हम लोग बाहर आए तो देखा कि नेता किस्म के एक नौजवान और एक अधेड़ महंतजी से बातें कर रहे थे। इसी बीच एक सज्जन आए जिन्हें बेतियावाले पहचानते थे। उन्होंने अपना नाम संजय मिश्रा बताया और कहा कि बाबा राघवदास कॉलेज में एडहॉक पर पढ़ाते हैं। बेतिया वाले सज्जन बीच में बोले आप तो डिफेंस में थे न। मैं आपको पहचान रहा हूँ। इस पर संजय मिश्रा बोले हाँ।
थोड़ी देर के बाद जब महंत खाली हुए तो मैंने उनसे कहा कि मुझे आपसे कुछ बात करनी है तो उन्होंने कहा, एक मिनट रुकिए मैं आपसे बात करता हूं। फिर वह गायों की तरफ गए और पगहा तुड़ाकर बाहर भागने को आतुर एक बछिया को बांधने लगे। उसके बाद वह हमारे पास आए। उनका नाम आंजनेय दास है। एक दशक से ज्यादा समय से यहाँ हैं।
उन्होंने बताया कि मैंने देखा कि जो सम्मान और प्रेम यहाँ आश्रम में है वह कहीं और नहीं है। इसलिए मैं आश्रम की सेवा में आ गया। उन्होंने योगीराज अनंत महाप्रभु की गुफा दिखाई। उन्होंने तथ्यों और लोकश्रुतियों से बनी एक कहानी सुनाई। बाबा राघवदास सफाई के प्रति बहुत सचेत थे। जहां गंदगी देखते थे झाड़ू लेकर सफाई में लग जाते थे।
बाबा राघवदास मूलतः महाराष्ट्र के पुणे के रहने वाले थे। उनका असली नाम राघवेंद्र था। उन दिनों पुणे में प्लेग फैला तो सारा परिवार उसका शिकार हो गया। अकेले बालक राघवेंद्र विरक्त होकर शांति की तलाश में घर से निकल पड़े। प्रयाग, काशी आदि होते हुये वे बरहज आए। यहाँ अनंत महाप्रभु से मिलकर उनके शिष्य हो गए।
बाबा राघवदास बेशक साधु थे लेकिन उनका दिल समाज के लिए धड़कता था। समाज के दुखों को दूर करने के लिए उन्होंने बहुत काम किए। खासतौर से शिक्षा के क्षेत्र में उनका योगदान बेमिसाल है। उन्होंने लगभग डेढ़ सौ संस्थाएं बनाई थी और उसके प्रमुख रहे लेकिन बाद में उन्होंने सबसे इस्तीफा दे दिया और मात्र कुछ में ही शामिल रहे। बरहज में भी अब केवल पाँच-छः संस्थाएं ही बच रही हैं जो इन शिक्षण संस्थाओं का प्रबंधन कर रही हैं।
बाबा राघव दास आज़ादी के आंदोलन से जुड़े हुये थे। कई बार जेल गए। गोरखपुर जेल में जब राम प्रसाद बिस्मिल को फांसी हुई तो बाबा राघव दास ने उनका पार्थिव शरीर हासिल किया और अंतिम-संस्कार के बाद इसी आश्रम में उनकी समाधि बनवाई। एक छत के नीचे अनंत महाप्रभु और राम प्रसाद बिस्मिल के स्टेच्यू बनाए गए हैं। उनके अनेक क्रांतिकारियों से संबंध थे। चन्द्रशेखर आज़ाद और भगत सिंह जैसे लोग भी यहाँ आए। इसी कारण इस आश्रम पर प्रतिबंध लगाने का भी दबाव था। वे चौरी-चौरा की घटना में किसानों और वालंटियरों के पक्ष में खड़े थे।
आज़ादी के बाद उन्होंने चुनाव में दिग्गज समाजवादी आचार्य नरेन्द्रदेव को हराया। जब सरकार ने कोल्हू पर टैक्स लगाया तो बाबा राघवदास ने इस्तीफा दे दिया और आजीवन भूदान आंदोलन में विनोबा भावे के साथ देश में घूम-घूम कर भूमिहीनों को ज़मीन दिलवाने का कार्य किया।
आज भी बरहज की धरती पर उपस्थिति को महसूस किया जा सकता है। मेरे मन में विचार आया कि अगर बाबा राघव दास उत्तर प्रदेश के होते तो क्या होता है? यहाँ आध्यात्मिक लोगों की कोई कमी नहीं है और न ही मंदिरों के पास संपत्ति की। अयोध्या, काशी विश्वनाथ, संकट मोचन मंदिर, गोरखनाथ पीठ, कबीर मठ, रैदास मंदिर जैसे न जाने कितने मठ-मंदिर हैं जिनके पास अकूत ज़मीन और अरबों-खरबों की संपत्ति है लेकिन शायद ही किसी ने इस तरह शिक्षा के लिए काम किया हो। शायद ही सामान्य जनता के लिए कोई वैसा सोच रहा हो जैसा बाबा राघवदास ने सोचा और किया।
इसके अलावा भी यहाँ सैकड़ों की संख्या में स्कूल और कॉलेज हैं जो लिखित रूप में जनसेवा के उद्देश्य से बनाए गए हैं लेकिन वास्तविकता यह है कि वे लूट-खसोट के अड्डे भर होकर रह गए हैं। गरीब विद्यार्थियों के लिए तो उनके दरवाजे शायद ही कभी खुलते हों।
लेकिन बरहज में बाबा राघवदास ने एक अलग दुनिया बनाई है। एक तरह से बरहज उनका ऋणी है। अभी कल ही मैं एक ऐसे गाँव में था जहां तीस हज़ार की आबादी होने के बावजूद लड़कियों के लिए एक भी विद्यालय नहीं है। डिग्री अथवा पीजी कॉलेज तो बहुत दूर की बात है। बरहज जैसे ऊँघते कस्बे में एक बात खासतौर से देखी जा सकती है कि यहाँ दूर-दराज के इलाकों से लड़कियां पढ़ने आती हैं। झुंड की झुंड साइकिल चलाती और घंटी बजाती हुई!
एक पुल जो राजनीतिक अखाड़ेबाजी का शिकार है
देवरिया की राजनीति में मोहन सिंह बहुत महत्वपूर्ण शख्सियत थे। वे दो बार देवरिया से सांसद रहे और जीवन के अंतिम दिनों तक समाजवादी पार्टी के महासचिव रहे। उत्तर प्रदेश में जब समाजवादी पार्टी का शासन था उन्हीं दिनों बरहज और मधुबन को जोड़नेवाले एक पुल का शिलान्यास हुआ और मोहन सिंह की स्मृति में इसका नाम मोहन सेतु रखा गया। अगर मोहनसेतु बन जाता तो आजमगढ़ और देवरिया की दूरी आधी घट जाती। इस पार बरहज उस पार मधुबन। जनता को बहुत बड़ी राहत मिलती। लेकिन एक दशक होने को आए जब पुल आधे से अधिक बन ही नहीं पाया।
बरहज घाट से पश्चिम दिशा की ओर पुल का ढड्ढा धूप में निर्जन और डरावना लग रहा था। घाट-बाज़ार घूमते हुये हम मोहन सेतु देखने गए। अभी यह पुल किस सड़क से जुड़ेगा इसका कुछ पता नहीं लेकिन यह घाघरा नदी पर लगभग 1 किलोमीटर अंदर तक बढ़ाया जा चुका है कुछ ही दूरी तक रह गया है लेकिन बजट खत्म होने और योगी सरकार के आने के बाद इसका काम रोक दिया गया था। सपा से जुड़े हुये लोग इसे लेकर सवाल उठा रहे हैं कि इस पुल के लिए तत्कालीन अखिलेश सरकार ने 95 करोड़ रुपए का बजट जारी किया था। पुल 49 पाये का बनना है लेकिन पाँच साल में एक इंच काम नहीं हुआ। लोग पूछते हैं कि आखिर वह बजट कहाँ गया?
फिलहाल पास जाने पर पता लगता है और पुल का काम फिर से शुरू हो गया है, गिट्टी बालू से लदे ट्रक, बुलडोजर और दूसरे वाहन खड़े हैं और इंजीनियरों, मिस्त्रियों और कामगारों की एक खेप वहाँ काम कर रही है लेकिन यह पूरा कब होगा, इसका कोई अंदाजा नहीं है।
अभिनव ने बताया कि इस पुल को लेकर कई साल से आंदोलन चल रहा है। कई बार आंदोलन करने वाले स्थानीय सपा नेता विजय रावत ने इस मुद्दे पर बरहज में लगातार गर्मजोशी पैदा की है और लोगों को इस बात के लिए प्रेरितकिया है कि वे अपनी समस्याओं के लिए उठ खड़े हों। उन्होंने इस पुल को पूरा करने के लिए कई बार मांग की। विजय रावत कहते हैं ‘विधानसभा में भी इसको लेकर सवाल उठा, लेकिन आज तक यह पुल निर्माणाधीन अवस्था में ही है। बेशक इसके बन जाने से आजमगढ़ और देवरिया की दूरी काफी सिमट जाती। इस पार बरहज और उस पार मधुबन सीधे-सीधे जुड़ जाते हैं। 5 मिनट के रास्ते पर आजमगढ़ जिला और मऊ शहर दोनों ही बहुत नजदीक हो जाते, लेकिन इसे जानबूझकर लटकाया जा रहा है।’
विजय युवा और बहुत विनम्र व्यक्ति हैं। उनके परिवार में कई पीढ़ी पहले राजनीतिक चेतना आई। उनके दादा और पिता का क्षेत्र की राजनीति में दखल रहा है। उनके दरवाजे पर एक सफ़ेद अंबेसडर खड़ी थी जिसके बारे में अभिनव का कहना था कि यह विजय जी के पिता को नेताजी ने दी थी। यह समय रामचरित मानस को लेकर खासा सरगर्म है। जब से उत्तर प्रदेश में स्वामी प्रसाद मौर्य ने इसकी आलोचना की है तब से उत्तर प्रदेश की राजनीति में भूचाल आया हुआ है। पिछड़ों में रामचरित मानस की चौपाइयों की एक समझ बनी है कि ये उन्हें अपमानित करने के लिए लिखी गई हैं। अनेक लोग इसका बहिष्कार कर रहे हैं। लेकिन जब हम विजय के घर पर थे तो उनके पड़ोस से लाउडस्पीकर के सहारे कर्कश आवाज में कुछ पेशेवर रामचरित मानस का पाठ कर रहे थे।
विजय रावत दो दशक से बरहज की राजनीति में सक्रिय हैं। उन्होंने, सड़क, रोजगार, शिक्षा स्वास्थ्य से लेकर विकास, पिछड़ापन, महँगाई और मोहन सेतु जैसे सभी बुनियादी मुद्दों पर संघर्ष किया है लेकिन अपनी पार्टी की राजनीति को लेकर वह खासे निराश दिखे। उन्होंने बताया कि सपा यहां लगभग शून्य पर पहुंच चुकी है और सांगठनिक रूप से स्थानीय लोगों को किसी तरह कोई महत्व नहीं दिया जाता है। वह कहते हैं कि ‘जिस तरीके से हम लोग समस्याओं को स्थानीय स्तर पर उठाते हैं अगर केंद्रीय नेतृत्व हम लोगों को थोड़ा महत्व दे और हमारी बात को ऊपर तक ले जाए तो हम समझते हैं कि स्थानीयता और केंद्रीयता दोनों मिलकर एक महत्वपूर्ण फैक्टर बन सकते हैं और जनता के दिलों में खोई हुई जमीन को हम वापस पा सकते हैं। अन्यथा जिस तरह से यहां की राजनीति जहरीली हुई है, यहां के लोग पोगापंथ और हिंदुत्व के शिकार हुए हैं और यहां की समस्याएं जस की तस बनी हुई हैं। जिस तरीके से यहां की सड़कें लगातार गड्ढे में तब्दील हो रही है। वैसे में यह नहीं कहा जा सकता कि बरहज अभी जिस रूप में है, वैसे भी आगे रह पाएगा अथवा पूरी तरह बदल जाएगा।’
यहां से होकर हम मोहन सिंह के घर पहुंचे। उनका घर एक विशाल पीले रंग की का भवन है जहां अब कोई रहता नहीं है। उनकी दो बेटियों में से एक कोविड-19 में नहीं रहीं और दूसरी बड़ी बेटी कनकलता सिंह लखनऊ में रहती हैं। कभी-कभी वह आती हैं। मोहन सिंह के घर को देखकर लगता है कि वह बहुत संपन्न परिवार के व्यक्ति रहे होंगे। उनका एक पुराना विशाल घर इस मकान के ठीक पीछे दिखाई पड़ता है। जहां जाने के रास्ते पर ताला बंद है और इस से सटा हुआ उनका एक प्रांगण है जहां पर वह बैठते थे। जहां उनकी पंचायत जुटती थी। लोग जन समस्याएं लेकर उनके सामने आते थे। अब वहां पर मदार और रेंड़ के पेड़ उगे हुए हैं। लंबी-लंबी घास हैं। अब वहां कोई आता-जाता नहीं। हम वहां से झांक कर देखते हैं तो भी कुछ स्पष्ट नहीं दिखाई देता है।
मोहन सिंह की याद में यह घर और दूसरी चीजें तो मौजूद हैं लेकिन मोहन सिंह के परिवार का कोई व्यक्ति यहां नहीं रहता। देवरिया से उनके रिश्ते को पुख्ता करने के क्रम में जिला अस्पताल देवरिया उनके नाम पर रखा गया है और बरहज के निर्माणाधीन पुल का नाम मोहन सेतु रखा गया है। विजय रावत कहते हैं कि अखिलेश सरकार में इस पुल के लिए 95 करोड़ रुपए एलाट हुये थे। अभी भाजपा ने सौ करोड़ का बजट जारी किया है। मैं पूछता हूँ वह पंचानबे करोड़ कहाँ गए? सौ करोड़ का प्रचार ज़ोर-शोर से कर रहे हैं लेकिन वे 95 करोड़ कहाँ गए नहीं बता रहे हैं। बाकी सदको के गड्ढे देखकर आप खुद ही बता सकते हैं विकास किस गति से चल रहा है।’
नाम न लिखने की शर्त पर एक स्थानीय व्यक्ति ने कहा ‘मोहन सिंह अब पुराने हो गए हैं। उन्होंने कोई राजनीतिक पूंजी देवरिया में नहीं छोड़ी। हो सकता है यह जो पुल है वह किसी और के नाम पर कर दिया जाय। हो सकता है कल्याण सिंह के या किसी भी भाजपा नेता के नाम। सपा का सूर्य अस्त हो रहा है। अगर पुल का नाम बदल जाएगा तो अखिलेश यादव या कनकलता सिंह क्या कर लेंगी?’
बरहज से सलेमपुर जाते हुए दाएँ तरफ एक पीली बिल्डिंग दिखाई देती है, जिस पर “हिन्दी भवन, बरहज” लिखा है। क्या यह भवन अब नहीं है?
हिंदी भवन तो अभी है लेकिन अब उसका काम काज ठप पड़ा हुआ है
मानो वह किसी की राह देख रहा हो , की कोई आए और मुझे फिर से जीवंत करने का अहसास कराएं , 😔
अपना प्यारा बरहज ।
बहुत बढ़िया । विस्तृत और गहन रिपोर्टिंग। बरहज का पूरा अतीत और वर्तमान मानो सजीव हो उठा। रामजी भाई को साधुवाद।
[…] एक धूसरित होता शहर बरहज […]
[…] एक धूसरित होता शहर बरहज […]