प्रयागराज। प्रयागराज पूर्वांचल का एक बड़ा जिला है। जहाँ शिक्षा के अलावा इलाज के लिए भी आस-पास के जिलों से बड़ी मात्रा में लोग इलाज के लिए आते हैं। जहाँ स्वरूपरानी, तेज बहादुर सप्रू (बेली) और कमला नेहरू तीन बड़े सरकारी अस्पतालों में लोगों को रियायती दामों पर इलाज मिलता आ रहा है। इन अस्पतालों में बड़े से बड़े जांच का भी इंतजाम है। लेकिन एमआरआई केवल बेली और स्वरूपरानी अस्पताल में ही होता है। स्वरूपरानी अस्पताल का हाल यह है कि यहाँ एमआरआई के लिए तीन महीने की लम्बी वेटिंग लिस्ट चल रही है। वहीं तेज बहादुर सप्रू (बेली) अस्पताल में एमआरआई के लिए चार दिनों की वेटिंग लिस्ट चल रही है। अमूमन बेली अस्पताल में एक दिन में 8-10 मरीजों का एमआरआई होता है। लेकिन बेली अस्पताल की एमआरआई मशीन खराब हो गयी है। जिसके सोमवार से पहले ठीक होने की उम्मीद नहीं है।
मऊ आईमा से एमआरआई के लिए बेली अस्पताल आये अवधेश कुमार बताते हैं कि अस्पताल द्वारा शुक्रवार 8 जून को उन्हें एमआरआई के लिए बुलाया गया था। लेकिन जब वो अस्पताल पहुंचे तो पता लगा कि मशीन ही खराब है। अब उन्हें मंगलवार का नंबर दिया गया है। वहीं दूसरी ओर स्थानीय अख़बारों में जिले का एक नामी प्राइवेट अस्पताल फ्रंट पेज पर फुल साइज विज्ञापन देकर एमआरआई की बुकिंग करवाने पर 50% डिस्काउंट दे रहा है। ये बिल्कुल उसी तरह है जैसे कि राजधानी दिल्ली में प्रदूषण के शोर के बाद अगले दिन अख़बारों के पहले पन्ने पर एयर प्योरीफायर का विज्ञापन छपा नज़र आता है। या फिर G-20 समिति की बैठक में खाद्यान्न संकट पर चिंता जाहिर करने के बाद अगले दिन ज़्यादा उत्पादन का दावा करते मोनसैंटो के जीएम बीजों का विज्ञापन छपा दिखता है। ऐसे में लोगों के दिमाग में साजिश की बात का घर कर जाना लाजिम ही है कि क्या जिले के सरकारी अस्पतालों में एमआरआई जांच के लिए आने वाले मरीजों को प्राइवेट अस्पताल की ओर डायवर्ट करने के लिए जानबूझकर ये चीजें की गयी हैं।
4 जून को अख़बारों में विज्ञापन छपता है कि 9 जून से संचालित होने वाले एमआरआई जांच के लिए तुरंत बुकिंग कराने वाले मरीजों को 50% छूट दिया जाएगा। 9 जून को उस नामी प्राइवेट अस्पताल में एमआरआई यूनिट का उद्घाटन होता है और ठीक एक दिन पहले यानि 8 जून को बेली अस्पताल के एमआरआई मशीन में खराबी आ जाती है। क्या ये महज इत्तेफाक़ है?
सरकारी अस्पतालों की महँगी होती जाँच
प्रवीण कुमार को ख़ूनी बवासीर, कमजोरी चक्कर, थकान की तकलीफ़ है जबकि उनकी साथी को लगातार बुखार बना रहता है, थकान और कमजोरी, दर्द बना रहता है। शिल्पा बेरोज़गार हैं जबकि प्रवीण इफको में ठेका मज़दूर हैं, जहां दो महीने की ड्युटी के बाद एक महीने बैठकी रहती है। यानि साल में केवल आठ महीने ड्युटी मिलती है और महीने में केवल 22-22 हाजिरी। दोनों शहर के स्वरूपरानी अस्पताल गये जहाँ उन्हें जांच के लिए टोकन लेने के लिए 2500 रुपये जांच शुल्क जमा करने को कहा गया। जेब में पैसे न होने के चलते दोनों निराश होकर वापिस घर लौट आये। प्रवीण बताते हैं कि पति-पत्नी दोनों की जांच बाहर कराने पर साढ़े चार पांच हज़ार रुपये लगते।
सरकारी में आधा ही लग रहा है। लेकिन एक मज़दूर के लिए जिसे बराबर काम भी नहीं मिलता हो 2500 रुपये भी बहुत ज़्यादा है।
महँगी दवाइयाँ डिस्पेंसरी से नदारद
प्रयागराज जिले के तीनों अस्पतालों की डिस्पेंरी में महंगी दवाइयां नदारद हैं। यहां तक की गैस की दवा भी सरकार द्वारा बंद कर दिया गया है। गॉल ब्लैडर स्टोन में दी जाने वाली दवाईयां डिस्पेंसरी में मौजूद नहीं हैं। तेज बहादुर सप्रू अस्पताल (बेली) के डिस्पेंसरी के सामने दीवार पर लगी ‘चिकित्सालय में उपलब्ध औषधियों की सूची’ में केवल 68 दवाइयों का नाम दर्ज़ है। हमने डिस्पेंसरी की खिड़की पर दवा वितरित करने वाले कर्मचारी से पूछा कि क्या सिर्फ़ यही 68 दवाइयां आपके यहां उपलब्ध हैं या और दवाईयां भी आपके पास उपलब्ध हैं। उसने कहा साहेब ऊपर बोर्ड में जितनी दवाइयों का नाम लिखा है सिर्फ़ वही दवाइयां डिस्पेंसरी में हैं। एक तुलनात्मक दृष्टि से देखें तो। देश के सबसे पिछड़े राज्यों में शुमार बिहार के सरकारी अस्पतालों में मुफ़्त मिलने वाली दवाओं की संख्या 611 है। जिसमें कैंसर और किडनी की बीमारी की भी दवाइयाँ शामिल हैं।
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पीएचसी, सीएचसी को पीपीपी मॉडल में देने की कोशिश
एक्टू उत्तर प्रदेश के राज्य सचिव अनिल वर्मा बताते हैं कि सरकार द्वारा पीएचसी और सीएचसी को पीपीपी मॉडल में देने की बात कही जा रही है। पीपीपी मॉडल का मतलब प्राइवेट पब्लिक पार्टनरशिप। जो यह बात कर रहे हैं कि पैसा पब्लिक का लगेगा और उसका मैनेजमेंट और फायदा प्राइवेट सेक्टर ले जाएगा। इस तरह की जो व्यवस्था है वो सरकार कर रही है। दूसरी ओर आशावर्कर का वेतन नहीं दिया जा रहा है। और उन्हें बदनाम करने के लिए प्राइवेट अस्पतालों में पीआर नियुक्त करके उन्हें आमंत्रित किया जाता है उनको गिफ्ट देते हैं कि आप हमारे नर्सिंग होम में मरीजों को लेकर आइए हम आपको कमीशन देंगे। तो इस तरह की भी साजिश सरकार और प्राइवेट सेक्टर मिलकर कर रहे हैं।
एक महिला डॉक्टर जोकि फूलपुर सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र पर भी बैठती हैं वो अपना खुद का भी क्लीनिक चलाती हैं। नेहा नामक एक मरीज जोकि पहले उन्हें सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र पर दिखा चुकी थी उन्हें दोबारा दिखाने उनके प्राइवेट क्लीनिक पर जाती है। चूंकि क्लीनिक पर खुद की डिस्पेंसरी भी चलाती है। तो अधिकांश प्राइवेट अस्पतालों की तर्ज पर वो जो दवा मरीज को लिखती हैं उसे उन्हीं के मेडिकल स्टोर से लेना पड़ता है। जहाँ उक्त मरीज को एक पैरासीटामाल का 10 टैबलेट का पत्ता 138 रुपये में ख़रीदना पड़ा। जबकि पैरासिटामाल सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में मुफ़्त में मिलता है। सरकार ने सरकारी डिस्पेंसरी में मिलने वाली दवाईंयों की संख्या में भारी कटौती की है।
साथ ही कई जांच अलग अलग कारणों से नहीं किया जे रहे हैं। लम्बी लाइन लगने के बाद यदि मरीज को सभी दवाइयाँ और जांच नहीं मिलेगा तो वो सरकारी अस्पतालों में इलाज के लिए जाएंगे ही क्यों? जब से सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रो और जिला अस्पतालों में संविदा पर डॉक्टरों को रखने का सिलसिला शुरु हुआ है। सरकारी डॉक्टर प्राइवेट प्रैक्टिस नहीं कर सकते ये मेडिकल इथिक्स खत्म हो गया है। क्योंकि संविदा पर रखे गये डॉक्टरों को बहुत कम पैसा दिया जाता है। ऐसे में उन्हें प्राइवेट प्रैक्टिस से रोका भी तो नहीं जा सकता है।