हाल ही में मैंने फेसबुक पर सवर्ण समुदाय की अमानवीयता पर एक पोस्ट डालकर बताया कि यह समाज वर्ण व्यवस्था के वंचितों अर्थात बहुजनों की उन्नति व प्रगति से सदा ईर्ष्या करता रहा है और इनके प्रगति के मार्ग में तरह-तरह का अवरोध खड़ा करते रहे हैं। मेरे उस पोस्ट से कई सवर्ण मित्र आहत हुए और राहुल सांकृत्यायन, लोहिया, चंद्रशेखर इत्यादि का दृष्टांत देते हुए मुझे गलत साबित करने का प्रयास किया। ऐसे लोगों को मैंने समझाया कि हर सामान्य सिद्धांत के कुछ अपवाद भी होते हैं और राहुल सांकृत्यायन, लोहिया जैसे लोग अपवाद की श्रेणी में आयेंगे। सच बात तो यह है कि दूसरे देशाें के प्रभु वर्ग,खासकर अमेरिका के मुकाबले भारत के सवर्ण समुदाय हृदयहीन व विवेकशून्य है। फिर भी सवर्ण विद्वान बंधु संतुष्ट नहीं हुए। बहरहाल हिंदुओं का प्रभु वर्ग विवेक शून्य है। यही साबित करने के लिए मुझे इस लेख को लिखने की आवयश्कता महसूस हुई।
बाबासाहेब डॉ. अंबेडकर ज्ञानार्जन के सिलसिले में तीन साल अमेरिका रहे। तीन साल के अमेरिकी प्रवास से मिले अनुभव ने उन्हें नए सिरे से संस्कारित किया। इस संबंध में उन पर दो दर्जन से अधिक किताबें लिखने वाले डॉ. डी.आर. जाटव डॉ.आंबेडकर का समाजशास्त्रीय विचार नामक अपनी रचना के पृष्ठ 6 पर लिखते हैं- ‘अमरीकी समाज में भीमराव को एक अभूतपूर्व स्वच्छ वातावरण देखने को मिला। वहां उन्हें बुकर टी वाशिंगटन और लिंकन जैसे लोगों के बारे में विशेष जानकारी मिली, जिन्होंने स्वतंत्रता, और अधिकारों के लिए संघर्ष किया था। भीमराव इनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाए और संकल्प किया कि वह भारत में पददलित एवं कमजोर मान-सम्मान तथा अधिकारों के लिए संघर्ष करेंगे।’ कहना न होगा उन्होंने अपने संकल्प का निर्वहन इतना शानदार तरीके से किया कि वे खुद ही असंख्य मनीषियों द्वारा भारत के बुकर टी वाशिंगटन और अब्राहम लिंकन के खिताब से नवाजे गए। लेकिन डॉ. आंबेडकर कुछ गिने-चुने अमरीकी महापुरुषों से ही नहीं,बल्कि आम अमरीकियों से भी बहुत प्रभावित रहे। इसका विस्तृत साक्ष्य बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर संपूर्ण वाङ्मय, खंड 9 के पृष्ठ 148-156 पर हिंदू और सामाजिक विवेक का अभाव नामक अध्याय में लिपिबद्ध है।
[bs-quote quote=”भारत का प्रभु वर्ग क्यों अपने ही सहधर्मी वंचितों के खिलाफ अविवेकपूर्ण आचरण, व्यवहार के लिए अभिशप्त हुआ? क्यों इस समाज में हैरियट बीचर स्टो जैसी लेखक/लेखिका, लिंकन और लिंडन जैसे राजनेता पैदा करने में विफल रहा? क्यों यह अमेरिका के कालों जैसे अस्पृश्यों का मूंछ रखना,घोड़े पर सवारी करना, अच्छे वस्त्र धारण करना सहन नहीं कर पाता? इसका उत्तर है हिंदू धर्म शास्त्रों में इसकी आस्था।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
उक्त अध्याय की शुरुआत करते हुए डॉ. आंबेडकर लिखते हैं, ‘जो भी व्यक्ति अस्पृश्यों की दयनीय स्थिति से दुखी होता है, तो वह यह कहकर शुरुआत करता है। हमें अस्पृश्यों के लिए कुछ करना चाहिए। लेकिन इस समस्या का हल निकालनेवालों में से शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो, जो यह कहता हो कि हमें हिंदुओं को बदलने के लिए कुछ करना चाहिए। यह धारणा बनी हुई है कि अगर किसी को सुधारना है तो वह अस्पृश्यों को। अस्पृश्य होने के कारण अपनी हालत के लिए के स्वयं जिम्मेदार है। हम जो भी लक्ष्य बनाएं वह अस्पृश्यों के लिए हों। हिंदू के बारे में कुछ भी नहीं। उनकी भावनाएं आचार विचार और आदर्श उच्च है। वे पूर्ण हैं। उनमें कोई खोट कहीं नहीं है। वे पापी तो है ही नहीं!
असलियत क्या है? यह तर्क कि हिंदुओं में कोई दोष नहीं है और अस्पृश्य जो कष्ट झेलते हैं, उसके लिए वे जिम्मेदार है, ठीक वैसा ही है जैसा कि यहूदियों के साथ अमानवीय व्यवहार करने पर अपने बचाव में ईसाई देते हैं। लुइस गोल्डिंग ने यहूदियों की तरफ से ईसाइयों को करारा जवाब दिया। यहूदियों की समस्या के मूल की विवेचना करते हुए लुइस गोल्डिंग का कहना है-
‘मैं जिस रूप में यहूदियों की समस्या को असलियत में ईसाई समस्या समझता हूं, उसको स्पष्ट करने के लिए एक बहुत ही सीधी सी मिसाल देता हूँ। मेरे ध्यान में एक मिश्रित जाति का आइरिश शिकारी कुत्ता आ रहा है। इसे में बहुत दिनों से देखता हूँ। यह मेरे दोस्त जॉन स्मिथ का कुत्ता है, नाम है पैडी। वह इसे बेहद प्यार करते हैं। पैडी को स्कॉच शिकारी कुत्ते नापसंद हैं। इस जाति का कोई भी कुत्ता उसके आस-पास बीस गज दूर से भी नहीं निकल सकता और यदि कोई दिख गया, तो भौंक-भौंक कर आसमान सिर पर उठा लेता है। उसकी यह बात जॉन स्मिय को बेहद बुरी लगती है और वह उसे चुप करने का हर समय प्रयत्न भी करते हैं, क्योंकि पैडी जिन कुत्तों से नफरत करता है, ये बेचारे चुपचाप रहते हैं और कभी भी पहले नहीं भौंकते। मेरा दोस्त हालांकि पैडी को बहुत प्यार करता है, तो भी वह सोचता है और जैसा कि मैं भी सोचता हूं कि पैडी की यह आदत बहुत कुछ उसके किसी जाति विशेष होने पर उसके स्वभाव के कारण है। हम में से किसी ने यह नहीं कहा कि यहां जो समस्या है, वह स्कॉच शिकारी कुले की समस्या है और जब पैडी अपने पास किसी कुत्ते पर झपटता है, जो बेचारा टट्टी-पेशाब वगैरह के लिए जमीन पर सूंघ-सांघ रहा होता है, तब उस कुत्ते को क्या इसलिए मारना-पीटना चाहिए कि वह अपने अस्तित्व के कारण पैडी को हमला करने के लिए उकसा देता है।
यहां यदि हम पैडी की स्थिति में हिंदुओं को और स्कॉच शिकारी कुत्ते की स्थिति में अस्पृश्यों को रखकर विचार करें, तो हमे देखेंगे कि लुईस गोल्डिंग का तर्क हिंदुओं के संबंध में उतना ही लागू होगा, जितना ईसाइयों पर होता है। अगर गोल्डिंग की बात मानी जाए, तो यहूदियों की समस्या वास्तव में ईसाइयों की समस्या है, तब अस्पृश्यों की समस्या मूलतः हिंदुओं की समस्या है! क्या हिंदुओं को इसका अहसास है? क्या वे इस पर विचार करते हैं ?’
हिंदुओं से उपरोक्त सवाल करने के बाद वह कहते हैं, ‘सच्चाई जानने के लिए कुछ बातें जाननी होगी।’ फिर पृष्ठ 150 के अंतिम पैरा से लेकर पृष्ठ 155 तक तीन कसौटियों पर हिंदुओं के व्यवहार को तौलते हैं। पहली कसौटी कि इन्होंने अस्पृश्यों के लिए कितना साहित्य तैयार किया। दूसरी, अस्पृश्यों के प्रति सामाजिक व्यवहार और तीसरी कसौटी अस्पृश्यों की सेवा और उनके प्रति त्याग-भावना। आश्चर्य की बात है कि तीनों कसौटियों पर वे अमरीकियों की नीग्रो लोगों के प्रति व्यवहार की तुलना जब हिंदुओं से करते हैं, तो एक बड़ी निराशाजनक तस्वीर सामने आती है। हिंदू अमरीकियों के समक्ष पूरी तरह मानवताबोध से शून्य नजर आते हैं। विशेषकर नीग्रो लोगों का जीवन स्तर उठाने के लिए अमरीकियों ने व्यक्तिगत स्तर पर जिस विपुल परिमाण में डॉलर दान दिया है, वह पृष्ठ153-55 तक देखकर हैरानी होती है। अमरीकियों और हिंदुओं की क्रमशः नीग्रों और अस्पृश्यों के प्रति व्यवहार व त्याग इत्यादि की विशद तुलना कर लेने के बाद डॉ. आंबेडकर पृष्ठ 155-156 पर कहते हैं:
‘यह अंतर क्यों है? अमरीका में लोग अपने यहां के नीग्रो लोगों के उत्थान और त्याग कर इतना सब कुछ क्यों करते हैं ? इसका एक ही उत्तर है कि अमरीकियों में सामाजिक विवेक है, जबकि हिंदुओं में इसका सर्वथा अभाव है। ऐसी बात नहीं कि हिंदुओं में उचित-अनुचित भला-बुरा या नैतिकता नहीं है- हिंदुओं में दोष यह है कि अन्य के संबंध में उनका जो नैतिक विवेक है वह सीमित वर्ग, अर्थात अपनी जाति के लोगों तक ही सीमित है।’
अमेरिकी और हिंदू दो समाजों का ऐसा निर्भूल समाजशास्त्रीय विश्लेषण डॉ.अंबेडकर जैसे ज्ञानी ही दे सकते थे! यह अमरीकियों में व्याप्त सामाजिक विवेक है, जिसके कारण अश्वेतों पर अकथनीय अत्याचार करने वाले अमेरीकियों में अपने पुरखों के पापों का प्रायश्चित करने वालों की लम्बी परम्परा रही है जिसकी शुरुआत हैरियट स्टो से हुई थी। यह एक पादरी पिता की पुत्री कई संतानों की जननी गृहिणी हैरियट बीचर स्टो ही थीं जिन्होंने 1851 में अंकल टॉम्स केबिन लिखकर कालों की मुक्ति के लिए हृदय परिवर्तन का अभियान चलाया। उनकी पुस्तक का ही असर था कि दुनियां भर में नीग्रो लोगों को दमन से आजाद करने की होड़ लग गई। यह पुस्तक ही तब अश्वेतों के मुक्ति के मुद्दे 1860 के दशक में अमेरिकी गृहयुद्ध का अन्यतम कारण बनी थी। उस युद्ध में हैरियट स्टो से प्रभावित गोरों ने उठा लिया था। अपने ही उन भाइयों के खिलाफ बन्दूक जिनमें वास कर रही थी। उनके पुरखों की आत्मा! अमेरिकी गृह युद्ध के सौ सालों बाद 1960 के दशक में अमरीकियों के जाग्रत सामाजिक विवेक से एक और इतिहास रचित हुआ।
जब 60के दशक में तत्कालीन राष्ट्रपति लिंडन बी जॉनसन ने राष्ट्र के समक्ष अश्वेतों को नौकरियों सहित उद्योग, व्यापार और प्रत्येक क्षेत्र में भागीदार बनाने का आह्वान किया। तो हर कोई होड़ लगाने के लिए सामने आया। परिणामस्वरूप अमरीकी दलितों को उद्योग-व्यापार, फिल्म, टी.वी., मीडिया, शिक्षण संस्थाओं इत्यादि सहित राष्ट्र के जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रतिनिधित्व मिला। वंचित अश्वेतों को सर्वव्यापी भागीदारी दिलाने की जो डाईवर्सिटी पॉलिसी जॉनसन ने अख्तियार की उसे परवर्तीकाल में दलगत भावना से ऊपर उठकर आगे बढ़ाने के लिए सामने आए। निक्सन, जिमी कार्टर ,रोनाल्ड रीगन जैसे दूसरे राष्ट्रपति! अमेरिकीयों क्रियाशील सामाजिक विवेक ही वहां के प्रभु वर्ग को अश्वेतों पर होने वाले नस्लीय हमलों के विरोध में अपने ही वर्ग के लोगों के खिलाफ स्वत: स्फूर्त रूप से सड़कों पर उतरने के लिए प्रेरित करता है!
यह भी पढ़ें…
सामाजिक विवेक जो दृष्टांत अमेरिकी प्रभु वर्ग ने वंचित नस्लीय समूह
खासकर अफ्रीकी मूल के कालों के प्रति स्थापित किया है,उसके मुकाबले भारत के सवर्णों की स्थिति अत्यंत कारुणिक लगती है। भारतीय प्रभु वर्ग अपने यहां के वंचितों को समस्त मानवीय अधिकारी से महरूम करने के लिए सदियों से शस्त्र और शास्त्रों से लैस होकर सीना ताने खड़ा रहा है। शास्त्र और शस्त्रों की युगलबंदी से इसने बहुजनों को हजारों साल से शक्ति के समस्त स्रोतों ( आर्थिक,राजनीतिक,शैक्षकऔर धार्मिक) से बहिष्कृत रखा। इन्हें सदियों से भारतीय प्रभु वर्ग ने व्यवसाय वाणिज्य, राजनीति के साथ देवालयों और शिक्षालयों से तो दूर रखा ही, अच्छा नाम तक रखने की इजाजत नहीं दी। उसके हिसाब से शुद्रातिशुद्रो का मानवीय अधिकार से समृद्ध होना अधर्म था।इसलिए धर्म की रक्षा के नाम पर वंचित वर्गो को जब अंग्रेजों ने अधिकारों से समृद्ध करना शुरू किया, भारतीय प्रभु वर्ग में रोष व्याप्त हो गया और वह अंग्रजों पर इससे विरत रहने का दबाव बनाने लगा। बाद में जब डॉ. आंबेडकर के प्रयासों से आरक्षण के जरिए एससी/ एसटी शक्ति के स्रोतों में अवसर पाने लगे: भारतीय प्रभु वर्ग आरक्षण के खिलाफ षड्यंत्र रचने लगा।
जिस आरक्षण के चलते वर्ण व्यवस्था को सदियों के वंचितों को राष्ट्र की मुख्यधारा से जुड़ने का अवसर मिला। उसके प्रति सवर्णों में ईष्यों का विस्फोट तब हुआ। जब 7 अगस्त 1990 मंडलवादी आरक्षण की घोषणा हुई! 8 अगस्त 1990 से उनकी आरक्षण विरोधी भावना ज्वालामुख बनकर फट पड़ी। इसके खिलाफ विशेषाधिकारयुक्त भारतीय प्रभु वर्ग के छात्रों, लेखक पत्रकारों, साधु-संतों एवं राजनीतिक दलों ने किस तरह अपनी भावना इजहार किया, वह इतिहास है, जिससे हर कोई वकिफ़ है।
यह भी पढ़ें…
मंडलवादी आरक्षण ने सवर्णों को सरकारी नौकरियों में 27 प्रतिशत अवसरों से वंचित एवं राजनीतिक रूप से लाचार में तब्दील कर दिया था। इससे हुई क्षति की भरपाई ही दरअसल मंडल उत्तर में शासक दलों एवं हिंदुओं के प्रभु वर्ग का प्रधान लक्ष्य रहा। मंडल के बाद इन्होंने ने दो मोर्चों पर काम किया। एक, आरक्षण को कागजों की शोभा बनाना और दूसरा सवर्णों को शक्ति के समस्त स्रोतों पर एकाधिकार कायम करना। कहना न होगा 24 जुलाई, 1991 को गृहित नवउदारवादी अर्थनीति हथियार बनाकर भारत के प्रभु वर्ग ने मंडल से हुई क्षति का भरपाई कर लिया है। मंडलवादी आरक्षण लागू होते समय कोई कल्पना नहीं कर सकता था, पर यह सच्चाई है कि आज की तारीख में भारत के सुविधाभोगी वर्ग का धन- दौलत सहित राज-सत्ता, धर्म-सत्ता, ज्ञान-सत्ता पर 90 प्रतिशत से ज्यादा कब्जा हो गया है। इस काम के लिए ही संविधान को व्यर्थ करने के साथ ही देश बेचने जैसा चरम राष्ट्र विरोधी काम अंजाम दिया गया है। दुनिया के किसी भी प्रभु वर्ग ने अपने
स्वार्थ के लिए देश बेचने जैसा जघन्य व अविवेकपूर्ण काम अंजाम नहीं दिया होगा।
सवाल पैदा होता है भारत का प्रभु वर्ग क्यों अपने ही सहधर्मी वंचितों के खिलाफ अविवेकपूर्ण आचरण, व्यवहार के लिए अभिशप्त हुआ? क्यों इस समाज में हैरियट बीचर स्टो जैसी लेखक/ लेखिका, लिंकन और लिंडन जैसे राजनेता पैदा करने में विफल रहा? क्यों यह अमेरिका के कालों जैसे अस्पृश्यों का मूंछ रखना,घोड़े पर सवारी करना, अच्छे वस्त्र धारण करना सहन नहीं कर पाता? इसका उत्तर है हिंदू धर्म शास्त्रों में इसकी आस्था। हिंदू धर्म शास्त्र शक्ति के समस्त स्रोतों के भोग का अधिकार सिर्फ सवर्ण पुरुषों को देते हैं। खुद इस वर्ग की स्त्रियां भी धर्म शास्त्रों से इससे बहिष्कृत हैं। ये हिंदुओं के धर्म शास्त्र हैं जो शूद्रातिशूद्रों सहित आधी आबादी को अर्थ, ज्ञान, धर्म और राज सत्ता के भोग की मनाही करते हैं। अतः हिंदू धर्म शास्त्रों द्वारा निर्मित सोच से पुष्ट हिंदुओं का प्रभु वर्ग इनको तमाम अधिकारों से वंचित करना धर्म का कार्य समझता है। धर्म रक्षा के लिए वह अस्पृश्यों से घृणा करता एवं उन्हें मूंछ रखने, अच्छा वस्त्रादि धारण से रोकता है और इस अमानवीय कृत्य पर उसे विवेक दंश की अनुभूति नहीं होती। इसलिए ही वह सती, विधवा, बालिका विवाह जैसी प्रथाओं के उन्मूलन वाले कानूनों को हमेशा से धर्म पर हमला के रूप में लेता रहा है। इस कारण ही ग्लोबल जेंडर गैप में आई इस रिपोर्ट से निर्लिप्त है कि भारत की आधी आबादी को आर्थिक रूप से पुरुषों के बराबरी पर आने के लिए 257 साल लगेंगे। धर्मशास्त्रों में गहरी आस्था के कारण हिंदुओं की आधी आबादी इस स्थिति से निर्लिप्त है। धर्मशास्त्रों में गहरी आस्था के कारण हिन्दुत्ववादियों द्वारा नए सिरे से बहुजनों को नर पशु में तब्दील किए जाने के खिलाफ इनमें विद्रोह की अग्नि प्रज्वलित नहीं पा रही है! तो हिंदुओं के प्रभु वर्ग को सामाजिक विवेक से शून्य बनाने के लिए जो तत्व जिम्मेवार है, वह हिंदू धर्म शास्त्र हैं। इसीलिए डॉ. आंबेडकर ने अपनी मशहूर रचना जाति के विनाश में हिंदू धर्म शास्त्रों को डायनामाइट से उड़ाने का निर्देश दिया था।