Sunday, September 8, 2024
Sunday, September 8, 2024




Basic Horizontal Scrolling



पूर्वांचल का चेहरा - पूर्वांचल की आवाज़

होमUncategorizedदक्षिण एशियाई देशों में क्यों बढ़ती जा रही आर्थिक बदहाली

इधर बीच

ग्राउंड रिपोर्ट

दक्षिण एशियाई देशों में क्यों बढ़ती जा रही आर्थिक बदहाली

इन दिनों पाकिस्तान भयावह आर्थिक संकट से गुजर रहा है। गेहूं का आटा 150 पाकिस्तानी रुपये (पीकेआर) प्रति किलो है। एक रोटी की कीमत 30 रूपये है। और यह एक ऐसे देश में जहां औसत दैनिक आय 500 रुपये है और एक औसत परिवार को प्रतिदिन 10 रोटियों की आवश्यकता होती है। एक अमरीकी डालर की […]

इन दिनों पाकिस्तान भयावह आर्थिक संकट से गुजर रहा है। गेहूं का आटा 150 पाकिस्तानी रुपये (पीकेआर) प्रति किलो है। एक रोटी की कीमत 30 रूपये है। और यह एक ऐसे देश में जहां औसत दैनिक आय 500 रुपये है और एक औसत परिवार को प्रतिदिन 10 रोटियों की आवश्यकता होती है। एक अमरीकी डालर की कीमत 230 पीकेआर है। पाकिस्तान की आर्थिक स्थिति का वर्णन करते हुए मिशिगन स्कूल ऑफ पब्लिक पालिसी के प्रोफेसर सियोचियारी कहते हैं- ‘पाकिस्तान गंभीर आर्थिक संकट का सामना कर रहा है और उसे बाहरी मदद की सख्त जरूरत है। विदेशी मुद्रा भंडार खाली हो चुका है और उपलब्ध विदेशी मुद्रा से केवल कुछ हफ्तों के आयात बिल का भुगतान किया जा सकता है। मुद्रास्फीति पिछले कई दशकों के सबसे उच्चतम स्तर पर है। आर्थिक प्रगति की गति अति मंद है और केन्द्रीय बैंक द्वारा कमजोर घरेलू मुद्रा को मजबूती देने के लिए ब्याज दरों में अत्यंत तेजी से बढ़ोत्तरी की जा रही है।’ इसमें कोई संदेह नहीं कि इस आर्थिक बदहाली का आंशिक कारण हाल की देशव्यापी बाढ़ की विभीषिका है। परंतु यह भी सही है कि पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था का मूलभूत ढांचा एक लंबे समय से कमजोर रहा है। इसके पीछे सरकार में फौज का दबदबा, राजनीति में इस्लाम का दबदबा और पूरे देश पर अमरीका का दबदबा है।

[bs-quote quote=”दक्षिण एशिया के देशों में ब्रिटेन ने अपने शासन को मजबूत करने के लिए उपनिवेशों की जनता में फूट डालने का काम किया। भारत में हिन्दुओं और मुसलमानों को बांटा गया और श्रीलंका में तमिलों और सिंहलियों को। भारत का विभाजन अंग्रेजों की इसी नीति का नतीजा था। जहां भारत एक आधुनिक राष्ट्र-राज्य बनने की राह पर आगे बढ़ा वहीं पाकिस्तान विघटनकारी राजनीति के दलदल में फंस गया।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

पाकिस्तान की स्वतंत्रता के समय वहां के गर्वनर जनरल मोहम्मद अली जिन्ना ने 11 अगस्त को संविधान सभा को संबोधित करते हुए धर्मनिरपेक्षता की जो परिभाषा दी थी उससे सटीक और बेहतर परिभाषा मिलना मुश्किल है। उन्होंने कहा था, ‘अगर तुम अपने अतीत को किनारे कर इस भाव से काम करोगे कि तुम में से प्रत्येक, चाहे वह किसी भी समुदाय का हो, चाहे अतीत में उसके तुम्हारे साथ कैसे भी रिश्ते रहे हों, चाहे उसकी त्वचा का रंग, उसकी जाति या उसकी नस्ल कोई भी हो, वह सबसे पहले, उसके बाद और सबसे आखिर में इस देश का नागरिक है जिसके अधिकार, विशेषाधिकार और कर्तव्य बराबर हैं, तो तुम कितनी उन्नति कर सकोगे इसकी कोई सीमा ही नहीं है।’ परंतु यह सिद्धांत बहुत लंबे समय तक पाकिस्तान की राजनीति का मार्गदर्शी न रह सका। जिन्ना की मौत के बाद उनके आसपास के कट्टरपंथी तत्वजिनकी जिन्ना के जीवनकाल में उन्हें चुनौती देने की हिम्मत नहीं थी, सत्ता पर काबिज हो गए। हिन्दुओं, ईसाईयोंशियाओें और कादियानियों (इनमें से अंतिम दो इस्लाम के पंथ हैं) की प्रताड़ना शुरू हो गई। धर्म, राजनीति पर काबिज हो गया और उद्योग व कृषि के लिए आधारभूत संरचना के विकास पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। शिक्षा और स्वास्थ्य को सबसे निम्न प्राथमिकता दी गई। जाहिर है कि सेना और कट्टरपंथियों, जो देश में ड्राईविंग सीट पर थे, की प्राथमिकताएं एकदम अलग थीं और यदि पाकिस्तान आर्थिक चुनौतियां का मुकाबला नहीं कर सका तो इसके लिए ये दोनों  काफी हद तक जिम्मेदार हैं।

यद्यपि कोई भी दो स्थितियां एकदम समान नहीं होतीं परंतु दोनों में कुछ समानताएं, कुछ साझा कारक तो हो ही सकते हैं। श्रीलंका में सिंहली बौद्धों की नस्लीय राजनीति, ड्राईविंग सीट पर रही। पहले हिन्दू तमिलों को निशाना बनाया गया और फिर मुसलमानों और ईसाईयों का दमन शुरू हुआ। सेना वहां भी सरकार के निर्णयों में हस्तक्षेप करती रही। सरकार ने मनमर्जी के निर्णय लिए- जैसे हरमनटोटा बंदरगाह के नजदीक राजपक्षे हवाईअड्डे के निर्माण पर बहुत बड़ी धनराशि व्यय की गई। एक अन्य मनमाने निर्णय में देश में रासायनिक खादों का आयात पूरी तरह बंद कर दिया गया। इसी के कारण लगभग 8 माह पूर्व देश में बड़ा राजनैतिक संकट खड़ा हो गया। लोगों के पास खाने को नहीं था और कीमतें आसमान छू रहीं थीं। नतीजे में जनता ने विद्रोह का झंडा उठा लिया। श्रीलंका का स्वतंत्र देश के रूप में जीवन प्रजातंत्र के रूप में शुरू हुआ था परंतु वहां की राजनीति पर नस्लीय और धार्मिक मुद्दे छा गए। वहां के नस्लवादी नेता चाहते थे कि हिन्दू तमिलों और अन्यों को मताधिकार से वंचित कर दिया जाए।

यह भी पढ़ें…

मोहन भागवत साम्प्रदायिक एजेंडे की खातिर इतिहास को विकृत करने की कोशिश कर रहे हैं

श्रीलंका मूल की अध्येता और सामाजिक कार्यकर्ता रोहिणी हेंसमेन ने उन नस्लीय-धार्मिक विभाजनों का सारगर्भित विवरण दिया है, जिन पर प्रमुख राजनीतिक दलों की राजनीति केन्द्रित रही। समय के साथ इन विभाजनों ने जनविरोधी, तानाशाही सरकार को जन्म दिया जिसके मुखिया महिन्दा राजपक्षे और गोताबाया राजपक्षे थे (रोहिणी हेंसमेननाईटमेयर्स एंड न्यू लेफ्ट रिव्यू, 13 जून 2022)। यह दिलचस्प है कि श्रीलंका ने भी निर्धनता से जूझ रहे अपने नागरिकों से यह मांग की कि वे अपने पूर्वजों के संबंध में दस्तावेजी प्रमाण दें।

भारत में इन दिनों साम्प्रदायिक ताकतें दावा कर रही हैं कि मोदी के कारण भारत हर किस्म के संकटों से मुक्त है। यह सही है कि भारत में उस तरह का संकट नहीं है जैसा कि श्रीलंका में कुछ महीनों पहले था या पाकिस्तान में अभी है, परंतु यह तो सच है कि आवश्यक वस्तुओं की बढ़ती कीमतों ने गरीबों और यहां तक कि मध्यम वर्ग की भी कमर तोड़ दी है। यह तब जबकि भारत की वित्त मंत्री यह दावा करती हैं कि वे भी मध्यम वर्ग से है। अमरीकी डालर की तुलना में भारतीय रूपये की कीमत में तेजी से कमी आई है और अब एक डालर खरीदने के लिए आपको 83 रुपये चुकाने पड़ते हैं। बेरोजगारी अपने उच्चतम स्तर पर है और जीडीपी की वृद्धि दर कम है। आक्सफेम की एक रिपोर्ट के अनुसार धनिकों और निर्धनों के बीच की खाई चौड़ी होती जा रही है। मुस्लिम और ईसाई अल्पसंख्यक डर के साये में जी रहे हैं। उनके हाशियाकरण की पीड़ा, प्रतिष्ठित पूर्व पुलिस अधिकारी जूलियो रिबेरो के एक वक्तव्य से झलकती है। उन्होंने कहा था- ‘आज अपने जीवन के 86वें वर्ष में मैं खतरा महसूस कर रहा हूं। मुझे लगता है कि मुझे कोई नहीं चाहता। मैं अपने देश में अजनबी बन गया हूं। नागरिकों की उस श्रेणी, जिसने एक विशिष्ट शक्ति से मुक्ति दिलाने के लिए मुझ पर भरोसा किया था, वे ही अब अचानक इसलिए मेरी खिलाफत कर रहे हैं क्योंकि मेरा धर्म उनके धर्म से अलग है। कम से कम हिन्दू राष्ट्र के पैरोकारों की निगाहों में तो मैं भारतीय नहीं रह गया हूं।’

यह भी पढ़ें…

‘अडानी इज़ भारत’ के खिलाफ क्यों हो भाई!

संकट में फंसे अपने दोनों पड़ोसियों की तुलना में भारत ने स्वाधीनता के बाद के कुछ दशकों तक धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों का यथासंभव पालन किया और उद्योग, सिंचाई, स्वास्थ्य व शिक्षा की सुविधाओं को बेहतर बनाने पर ध्यान केन्द्रित किया। भारत ने उच्च शिक्षा के आईआईटी और आईआईएम जैसे केन्द्र स्थापित किए जो दुनिया की श्रेष्ठतम शिक्षण संस्थाओं से कहीं से कम नहीं थे। सन 1954 में भाभा परमाणु अनुसंधान केन्द्र की स्थापना हुई, सन 1958 में डीआरडीओ की, सन 1962 में इसरो की और 1969 में सीएसआईआर की। इसमें कोई संदेह नहीं कि शुरुआती दौर में विकास की जो योजनाएं बनाईं गईं उनमें कुछ कमियां थीं जैसे भारी उद्योगों और उच्च तकनीकी शिक्षा पर ज्यादा जोर दिया जाना परंतु इसके साथ ही यह भी सही है कि सन 1970 का दशक आते-आते तक भारत ने शिक्षा, उद्योग, स्वास्थ्य और विज्ञान एवं तकनीकी के क्षेत्र में ठोस आधारभूत संरचना तैयार कर ली थी। हमारे संविधान तक ने वैज्ञानिक सोच के विकास को राज्य की जिम्मेदारी निर्धारित किया।

सन 1980 के दशक के बाद से साम्प्रदायिक ताकतों ने सिर उठाना शुरू किया और इस समय वे भारत के राजनीतिक परिदृश्य पर पूरी तरह हावी हैं। अच्छे दिन तो नहीं आए बुरे दिन जरूर आ गए हैं। पिछले 8 वर्षों में जीडीपी की वृद्धि दर 7.29 प्रतिशत से घटकर 4.72 प्रतिशत रह गई है, बेरोजगारी की औसत दर 5.5 प्रतिशत से बढ़कर 7.1 प्रतिशत हो गई हैसकल एनपीए 5 लाख करोड़ रूपये से बढ़कर 18.2 लाख करोड़ रुपये हो गया है, निर्यात की वृद्धि दर 69 प्रतिशत से घटकर 6.4 प्रतिशत रह गई है और डालर की कीमत 59 रूपये से बढ़कर 83 रुपये हो गई है। वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देना तो दूर रहा अवैज्ञानिक सोच और अतार्किकता को भरपूर प्रोत्साहन दिया जा रहा है।

दक्षिण एशिया के देशों में ब्रिटेन ने अपने शासन को मजबूत करने के लिए उपनिवेशों की जनता में फूट डालने का काम किया। भारत में हिन्दुओं और मुसलमानों को बांटा गया और श्रीलंका में तमिलों और सिंहलियों को। भारत का विभाजन अंग्रेजों की इसी नीति का नतीजा था। जहां भारत एक आधुनिक राष्ट्र-राज्य बनने की राह पर आगे बढ़ा वहीं पाकिस्तान विघटनकारी राजनीति के दलदल में फंस गया। एक समय था जब पाकिस्तानी भारत को रोल मॉडल के रूप में देखते थे। परंतु पिछले तीन दशकों से हम पाकिस्तान की राह पर ही चल रहे हैं। बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद पाकिस्तानी कवयित्री फेहमिदा रियाज ने एक कविता लिखी थी जिसका शीर्षक था- तुम बिल्कुल हम जैसे निकले।हम आज भी बिल्कुल उन जैसे ही बनने का भरपूर प्रयास कर रहे हैं।

(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)

राम पुनियानी देश के जाने-माने जनशिक्षक और वक्ता हैं। आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।

गाँव के लोग
गाँव के लोग
पत्रकारिता में जनसरोकारों और सामाजिक न्याय के विज़न के साथ काम कर रही वेबसाइट। इसकी ग्राउंड रिपोर्टिंग और कहानियाँ देश की सच्ची तस्वीर दिखाती हैं। प्रतिदिन पढ़ें देश की हलचलों के बारे में । वेबसाइट को सब्सक्राइब और फॉरवर्ड करें।
1 COMMENT

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here