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जूम करके देखिए, भारत में नवउदारवाद का ब्राह्मणवादी स्वरूप (डायरी 2 नवंबर, 2021)

पटना में अल्पप्रवास का आज चौथा दिन है। पारिवारिक सुखद अनुभूतियों को छोड़ दूं तो ऐसा कुछ भी अच्छा नहीं की दर्ज करूं। एक बड़ी समस्या यह है कि मेरे पास इंटरनेट के दो साधन हैं और दोनों यहां काम नहीं कर रहे। एक कनेक्शन तो पटना का ही है, लेकिन इसके बावजूद बिहार के […]

पटना में अल्पप्रवास का आज चौथा दिन है। पारिवारिक सुखद अनुभूतियों को छोड़ दूं तो ऐसा कुछ भी अच्छा नहीं की दर्ज करूं। एक बड़ी समस्या यह है कि मेरे पास इंटरनेट के दो साधन हैं और दोनों यहां काम नहीं कर रहे। एक कनेक्शन तो पटना का ही है, लेकिन इसके बावजूद बिहार के मुख्यमंत्री आवास से करीब सात किलोमीटर दूर मेरे गांव में इंटरनेट की स्पीड इतनी धीमी होने की वजह से मैं अपना कुछ भी काम नहीं कर पा रहा। खैर, पटना अपना शहर है और अपनों से शिकवे-शिकायत तो लगे ही रहेंगे। कल एक खास अनुभव हुआ।

दरअसल, कल बहुत दिनों बाद टेलीविजन पर क्रिकेट मैच देखने बैठा। टी-20 वर्ल्ड कप प्रतियोगिता के अंतर्गत श्रीलंका और इंग्लैंड के बीच मुकाबला चल रहा था। श्रीलंकाई टीम के लगभग सभी खिलाड़ियों से अनजान था। इंग्लैंड की टीम में भी उसके कप्तान इवोन मार्गन व जॉस बटलर को छोड़ मैं नहीं जानता था। हां, एक मोईन अली को जानता था। उन्हें देख मुझे पाकिस्तान के धाकड़ खिलाड़ी सईद अनवर और युसूफ योहोन्ना (जो बाद में युसूफ अली बन गए) की याद आयी। एक लिहाज से कल मेरा भी अभी के क्रिकेट खिलाड़ियों से परिचय हुआ।

क्रिकेट मैच तो महज बहाना था। दरअसल, मैं भारतीय समाज को देखना चाहता था और वैश्विक स्तर पर हो रहे बदलावों को भी। मैच का टॉस श्रीलंका ने जीता और उसने इंग्लैंड की टीम को बल्लेबाजी के लिए आमंत्रित किया। मैच शुरू होने के पहले दोनों राष्ट्रों के राष्ट्रीय गान बजाए गए। चूंकि टॉस श्रीलंका ने जीता था तो सबसे पहले श्रीलंका का राष्ट्रीय गान का रिकार्ड बजा। यह पहला अवसर था जब मैं श्रीलंका के राष्ट्रीय गान को सुन रहा था। इस गीत में संस्कृत के शब्द थे और पालि के भी। धुन बहुत प्यारी थी और जितना कुछ मैं समझ सका, उसके हिसाब से यह कि गीत में ‘नमो नमो माता’ का उच्चारण कर रहे थे।  जबकि इंग्लैंड के राष्ट्रीय गीत को मैं नहीं समझ सका। दोनों देशों के राष्ट्रीय गीतों में एक बड़ा अंतर यह था कि श्रीलंकाई राष्ट्रीय गान की अवधि ब्रिटेन के राष्ट्रीय गान की अवधि से अधिक थी।

[bs-quote quote=”मुझे लगता है कि यह ब्रिटेन के साम्राज्यवदी अतीत की वजह से है। वह आज भी अपने अतीत पर रश्क करता है। और चूंकि श्रीलंका उन देशों में शामिल है, जो कि गुलाम रहा है तो उसके राष्ट्रगान के समय जो मुद्रा रहती है, वह आज भी गुलामों वाली ही है। ऐसी ही मुद्रा भारत के राष्ट्रीय गान के समय हमारी भी होती है। हम गुलामों की तरह सावधान की मुद्रा में खड़े होते हों और ‘जन-गण-मन अधिनायक’ के सामने अपनी वफादारी का परिचय देते हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 

एक और अहम अंतर था। श्रीलंकाई राष्ट्र गान के समय उसके सभी खिलाड़ी व श्रीलंकाई समर्थक सावधान की मुद्रा में खड़े थे। जबकि इंग्लैंड के खिलाड़ी व समर्थक अपने देश के राष्ट्रीय गान के बजने के समय विश्राम की मुद्रा में। विश्राम की मुद्रा का मतलब यह कि उनके हाथ पीछे थे और उनकी आंखें सामने की ओर थीं।

मुझे लगता है कि यह ब्रिटेन के साम्राज्यवदी अतीत की वजह से है। वह आज भी अपने अतीत पर रश्क करता है। और चूंकि श्रीलंका उन देशों में शामिल है, जो कि गुलाम रहा है तो उसके राष्ट्रगान के समय जो मुद्रा रहती है, वह आज भी गुलामों वाली ही है। ऐसी ही मुद्रा भारत के राष्ट्रीय गान के समय हमारी भी होती है। हम गुलामों की तरह सावधान की मुद्रा में खड़े होते हों और ‘जन-गण-मन अधिनायक’ के सामने अपनी वफादारी का परिचय देते हैं।

खैर, यह तो एक अलग अनुभूति है। दूसरा अहम दृश्य जो मेरे सामने नजर आया, वह यह कि इंग्लैंड के खिलाड़ियों ने 2019 में अमरीका के मिनियापोलिस में श्वेत पुलिस अधिकारी द्वारा बर्बर तरीके से मारे गए अश्वेत नागरिक जार्ज फ्लॉयड की याद में अश्वेत नागरिकों के प्रति समर्थन में ब्लैक लाइव्स मैटर्स की भावना को अभिव्यक्त करते के लिए घुटनों पर बैठे। यह सबसे अहम दृश्य था और जब यह हो रहा था मेरा मन इंग्लैंड के प्रति श्रद्धा से भर गया। वजह यह कि वे बड़े उदार मन से अपनी भावना जाहिर कर रहे थे।

मैं तो भारत की बात करता हूं। भारतीय समाज का बड़ा हिस्सा सदियों से खास तबके का गुलाम रहा है। आजादी के सात दशकों के बाद भी जबकि देश में एक संविधान है जो सभी को समान तरीके से जीवन जीने की शक्ति और अधिकार देता है, के बावजूद हर दिन औसतन 19 दलितों के उपर जातिगत अत्याचार किया जाता है। यह आंकड़ा भारत सरकार के गृह मंत्रालय द्वारा जारी किया गया है। यह तो केवल एक पक्ष है। सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक स्तर पर भेदभाव व उत्पीड़न के मामले तो संज्ञान में ही नहीं लिये जाते हैं।

बहरहाल, कल टीवी पर विज्ञापनों को देख रहा था। इन विज्ञापनों से मुझे दो जानकारियां मिलीं। एक तो यह कि मिडिल क्लास को कौन-सी चीजें प्रभावित कर रही हैं। सबसे खास ऑनलाइन क्लासेज उपलब्ध कराने वाली कंपनियों के विज्ञापन। एक विज्ञापन में तो शाहरूख खान नजर आते हैं और कहते हैं कि अमुक कंपनी के द्वारा उपलब्ध कराये जा रहे ऑनलाइन क्लासेज में छात्रों को एक साथ दो शिक्षकों का मार्गदर्शन मिलेगा। एक दूसरे विज्ञापन में एक शिक्षिका कहती  है कि– ‘मैं तुम्हारा केवल मनोरंजन करने के लिए नहीं हूं, तुम्हें जिताना चाहती हूं।’

जब यह विज्ञापन मेरे सामने था तब मैं भारत के दलित-बहुजनों के बारे में सोच रहा था कि वे नवउदारवादी युग में नये तरह के गुरुकुल में कैसे दाखिला ले सकेंगे। उनके सामने आर्थिक दीवार खड़ी कर दी गयी है। हालांकि पहले भी इस दीवार में अर्थ पक्ष था लेकिन सामाजिक पक्ष महत्वपूर्ण था। मतलब यह कि गरीब से गरीब ब्राह्मण के बच्चों को भी अच्छी शिक्षा मिल जाती थी। जबकि अछूत तो हमेशा अछूत ही रहते थे।

विज्ञापनों के जरिए एक अहम जानकारी यह मिली कि यह देश अब सचमुच व्यापारियों और जुआरियों का हो गया है। लोगों को निवेश करने के लिए उत्साहित करनेवाले अनेक विज्ञापन दिखे। जाहिर तौर पर ये विज्ञापन बेवजह तो नहीं ही दिखाए जा रहे थे। पूंजी बाजार में निवेश करनेवाले मुनाफा कमाते भी हैं और वह भी बिना श्रम के। रही बात श्रम करनेवालों की तो उनके लिए विमल गुटखा का विज्ञापन है, जिसमें भारतीय फिल्म जगत के दो बड़े सितारे अजय देवगन और शाहरूख खान नजर आते हैं।

कल एक कविता जेहन में आयी।

मेरे कानों तक पहुंचती हैं

असंख्य आवाजें

गोया जीवन और आवाजों के मध्य है एक

अन्योन्याश्रय संबंध।

यह बात मैं दावे से कह सकता हूं कि

आवाजों में नहीं होती हैं केवल

अक्षरों की अंतरघ्वनियां

कुछेक आवाजों में अक्षर नहीं होते?

मैं नहीं जानता कि

आप सुन पाते हैं या नहीं

सूरज की परिक्रमा करती

और अपनी धुरी पर नाचती पृथ्वी की आवाज?

मैं आवाजों को सहेजना चाहता हूं

लेकिन भूख की आवाज करती है विद्रोह

और भूख को साकार देखता हूं अपने सामने

जब संसद में गूंजती है आवाज–

जन-गण-मन अधिनायक जय हे

भारत भाग्य विधाता…

 

नवल किशोर कुमार फारवर्ड प्रेस में संपादक हैं ।

गाँव के लोग
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