(आज आलोचक वीरेंद्र यादव अपना बहत्तरवाँ जन्मदिन मना रहे हैं। वे बहुत सधे और गंभीर अध्येता हैं। वे नई से नई किताबें पढ़ते हैं। हर ओर से आनेवाली देश दुनिया की महत्वपूर्ण खबरें पढ़ते हैं और उन पर अपनी बेबाक और संतुलित राय भी दर्ज करते हैं। प्रायः फेसबुक पर उनकी टिप्पणियाँ यह बताती हैं कि एक लेखक के रूप में वे किस बेचैनी से गुजर रहे हैं और किसी घटना या किताब को देखने का उनका सरोकार क्या है? वीरेंद्र जी का हर लेख पाठकों के बीच एक विशिष्ट तवज्जो और सुगबुगाहट पैदा करता है। उनको अनेक गोष्ठियों में सुनते हुये यह लगा कि एक प्रबुद्ध आलोचक जिन विषयों पर बात करता है उसके कितने आयामों और संदर्भों को एक्सप्लोर करता है और अपनी आस्था व्यक्त करने में कितने गहरे विवेक से काम लेता है। हम जिस दौर में हैं वहाँ ज़्यादातर लोग एक दूसरे को खुदा लिखने के फेर में कहीं का ईंट कहीं का रोड़ा जोड़ने में कतई गुरेज नहीं करते लेकिन वीरेंद्र जी प्रायः इस प्रवृत्ति से अलग एक ऐसे आलोचक और वक्ता हैं जो हर कहीं खर्च होने के लिए तैयार नहीं बैठा है बल्कि इसके बरक्स सही बात कहने के लिए अनेक असुविधाओं को मोल लेने में अधिक भरोसा करता है। देश की अनेक सांस्कृतिक-सामाजिक गतिविधियों और मोर्चों पर वीरेंद्र जी की उपस्थिति शब्द और कर्म की अन्योन्यश्रयता का एक विरल उदाहरण है। उनकी यौमे-पैदाइश के मौके पर जानी-मानी कथाकार-उपन्यासकार मधु कांकरिया का एक छोटा सा लेकिन दिलचस्प संस्मरण तथा गाँव के लोग यू ट्यूब चैनल पर प्रसारित वीरेंद्र के एक साक्षात्कार के दो अंशों को को प्रस्तुत करते हुये गाँव के लोग की ओर से उन्हें बहुत बहुत बधाई और हार्दिक शुभकामनाएँ – संपादक)
कुछ दोस्तियाँ खुले परिंदों की तरह होती हैं, लम्बे समय तक किसी एक डाल पर नहीं बैठतीं… वीरेंद्रजी से मेरी दोस्ती भी कुछ ऐसी ही रही। संवाद बनता… फिर टूट जाता… फिर बनता… फिर खामोशी छा जाती। और खासे अंतराल तक संवादहीन संवाद ही बना रहता। फिर भी यह ऐसी दोस्ती है जिसके पन्ने सदैव हरियाले ही रहे। शायद ही मेरा कोई उपन्यास हो जिसे उन्होंने न पढ़ा हो और अपनी बेबाक राय से मुझे समृद्ध न किया हो।
भला हो संगमन का, जिसके चलते वीरेंद्रजी से पहली बार मुलाकात तो हुई लेकिन मैं उनसे खार खाकर ही लौटी। अजीब मगरूर इनसान लगे। कुछ महिलाओं का राजेंद्र यादव के प्रति पूजा भाव क्या देखा मुझ पर ही तंज कस दिया… आपके लिए तो राजेंद्र यादव जैसे मीरा के लिए गिरधर… मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई। अब उन्हें कैसे समझाती कि राजेंद्रजी से तो मैं खुद खार खाए बैठी थी… क्योंकि अपनी साहित्यिक यात्रा में जब सारी पत्रिकाओं की परिक्रमा कर डाली मैंने तब कहीं जाकर सबसे अंत में हंस में छपी मेरी कहानी। मेरा उन दिनों साहित्यिक बपतिस्मा हुआ था, इस कारण चुप्पी मार गई।
खुदा मेहरबान तो… आलोचक पहलवान!
ऐसी लालसा कभी पाली ही नहीं कि वीरेंद्रजी जैसे आलोचक कभी मुझ पर लिखेंगे, इस कारण पहला उपन्यास प्रकाशित होने पर उन्हें नहीं भेजा… क्या होगा भेजकर, लेकिन एकबार अचानक उनका एक आलेख, जो सम्भवत: अन्यथा पत्रिका में निकला था, अचानक मेरे सामने आ गया जिसमें उन्होंने अलका सरावगी, मैत्रयी पुष्पा, गीतांजलि श्री और अनामिका के चर्चित उपन्यासों के साथ मेरे उन्हीं दिनों आए पहले उपन्यास खुले गंगन के लाल सितारे पर भी अपने बेहद सकारात्मक विचार रखे थे। उसके नन्हें अंश को उद्धृत भी किया था। उस आलेख को पढ़कर मैं अभिभूत थी यह सोचकर कि बंदे की पैनी निग़ाह से कुछ भी नहीं छूटता। बहरहाल, पुराना रोष बहते पानी की तरह जाने कहाँ बह गया और फिर तो संवाद का जो सिलसिला शुरू हुआ तो काफी समय तक चला क्योंकि एक तो मैं गोबर गणेश ऊपर से आत्मविश्वास जीरो बटे सन्नाटा। फिर भी हौसला देखिए मेरा कि जब भी किसी गोष्ठी या साहित्यिक सम्मेलन में बुलाया जाता मैं सहर्ष निमंत्रण स्वीकार कर लेती… पर हल्दी की डेढ़ गाँठ से भला पंसारी की दुकान खुल सकती है? मैं परेशान रहती कि किन बिंदुओं को उठाऊँ… कैसे उठाऊँ… कई बार हिंदी की नहीं होने के चलते एकेडेमिक भूलों की भी गुंजाइश बनी रहती… जाने कितनी बार वीरेंद्रजी ने ऐसे संकट में मुझे आत्मविश्वास के ऊँचे पायदान पर चढ़ाकर मेरी रक्षा की।
संवाद किसी भी विषय पर हो, दलित हो, स्त्री विमर्श हो आदिवासी हो… क्यूबा में हुई सशस्त्र क्रांति हो, राष्ट्रपति फिदेल कास्त्रो हो, क्रांतिदूत चे ग्वारा हो, इरोम शर्मिला हो, सोनी सोरी हो, अरुंधती राय, मेधा पाटेकर, दयामनी बारला हो या फिर आम आदमी पार्टी हो… उनकी राजनैतिक सामाजिक चेतना के केंद्र में कोई था तो वह थी हाशिए पर पड़ी पीड़ित मानवता। यही वह बिंदु था जहाँ मेरे विचार पानी से मिले पानी की तरह उनसे जा मिलते। और शायद यही हमारी साहित्यिक दोस्ती का आधार भी बना।
संवाद किसी भी विषय पर हो, दलित हो, स्त्री विमर्श हो आदिवासी हो… क्यूबा में हुई सशस्त्र क्रांति हो, राष्ट्रपति फिदेल कास्त्रो हो, क्रांतिदूत चे ग्वारा हो, इरोम शर्मिला हो, सोनी सोरी हो, अरुंधती राय, मेधा पाटेकर, दयामनी बारला हो या फिर आम आदमी पार्टी हो… उनकी राजनैतिक सामाजिक चेतना के केंद्र में कोई था तो वह थी हाशिए पर पड़ी पीड़ित मानवता। यही वह बिंदु था जहाँ मेरे विचार पानी से मिले पानी की तरह उनसे जा मिलते। और शायद यही हमारी साहित्यिक दोस्ती का आधार भी बना।
इस दोस्ती को खाद-पानी बराबर मिलता रहा। कोलकाता आए वीरेंद्रजी तो इनके पदार्पण हमारे यहाँ भी हुए। जहाँ आम सैलानी कोलकाता के मिलेनियम पार्क, बिड़ला प्लेनिटेरियम जैसी जगहों के लिए बेताब रहता है वहीं वीरेंद्रजी रवींद्रनाथ ठाकुर के पैतृक निवास ‘ठाकुर बाड़ी’ को देखना चाह रहे थे। पहली बार उनकी पत्नी से बात हुई। बातों ही बातों में उन्होंने बताया कि उनके पुत्र का नाम बाबा नागार्जुन ने रखा था ‘नवेंजीत’। बाबा नागार्जुन ने ‘आप क्या उनसे मिली हुई हैं’ हाँ…हाँ…! जब भी वे लखनऊ आते थे हमारे यहाँ ही तो ठहरते थे। कौन जाने उनके अक्खड़ और बेबाक व्यक्तित्व की निर्मिती में बाबा नागार्जुन का हाथ रहा हो।
दिल्ली में हुई एक संगोष्ठी में उन्होंने मेरी उन्हीं दिनों तद्भव में छपी एक कहानी चूहे को चूहा ही रहने दो पर अपने विचार रखे और इसे स्त्री विमर्श का नया मुहावरा बताया तो टीवी चैनल आईबीएन-7 पर जब युवा नशाखोरों को केंद्र में रखकर लिखे गए मेरे उपन्यास पत्ताखोर पर बोलने का प्रस्ताव उनके पास आया तो मेरी खिंचाई करते हुए पूछा मुझसे ‘बताइए आपके साथ क्या सलूक किया जाए।’ मेरा जवाब था वैसा ही जैसे एक लेखक दूसरे लेखक के साथ करता है। उन्होंने उस प्रोग्राम में भी उपन्यास पर न सिर्फ जमकर बात की वरन उसे पाठ्यक्रम में शामिल करने की भी सिफारिश कर दी। और संयोग देखिए कि यह उपन्यास पिछले वर्ष मुम्बई विश्वविद्यालय के प्रथम वर्ष के पाठ्यक्रम में शामिल भी कर लिया गया।
बंधुओं की दुआओं का कुछ तो असर होता ही है! लेकिन वीरेंद्रजी के असली रंग तो मुझे अब देखने थे। उनके साथ गम्भीर विषयों पर विचार करना न सिर्फ अपने को नए सिरे से जानना था वरन सामाजिक चेतना को साहित्य और कला के साथ रखकर देखने की तमीज़ भी सीखनी थी। सामाजिक विषमता, धर्म के अमानवीय रूप, हिंदुत्व, अंधविश्वास, आवारा पूँजी के बढ़ते संकट और सत्ता का विद्रूप चेहरा जैसे विषयों पर कोई उन्हें छेड़कर देखे – वे कब ज्वालामुखी की तरह फूट पड़ेंगे और आपको झुलसा देंगे… आपको अंदेशा भी न होगा। दाभोलकर, पानसरे, कलबुर्गी या फिर गौरी लंकेश की हत्या हो… उनकी आग उगलती पोस्ट सबसे पहले आपको फेसबुक पर मिल जाएगी। फेसबुक पर वे सबसे अधिक पढ़े जाने वाले लोगों में हैं और हाशिए के लोगों की राजनैतिक आवाज हैं।
समय भी अजीब शै होती है… उठापटक करता रहता है। इसी कारण हर किसी को, चाहे वह आपका कितना भी अच्छा मित्र क्यों न हो, आप हमेशा अपनी सुविधानुसार उसकी मूलसत्ता में उसे नहीं पा सकते। वीरेंद्र यादवजी की भी प्रबुद्धता और बौद्धिकता अब उतनी फुरसतिया नहीं रही थी बल्कि कई बार तो आभास होता जैसे उनके पास समय कम है और आलोचना कर्म बहुत ज्यादा है। अंतिम बार उन्होंने मेरे उपन्यास सेज पर संस्कृत पर बोला था और जमकर बोला था। अवसर था कथाक्रम सम्मान। इतना धुँआधार तो उस अवसर पर राजेंद्र यादवजी भी नहीं बोले थे। किताबें आती रहती हैं… आती रहेंगी… कुछ आगे बढ़ेंगी तो कुछ आसमान में तारा बन जाएँगी। पर वीरेंद्रजी ने जो हौसला अफजाई की मेरी शुरुआती किताबों पर वह आज तक साथ निभा रही है मेरा।
अंत में, एक बात और कहना चाहूँगी। रचनात्मक साहित्य यदि जीवन से गुजरने का नतीजा है तो आलोचना उस साहित्य से शब्द-शब्द गुजरने का। जहाँ लेखक जीवन की खोज में यात्राएँ करता है वहीं वीरेंद्रजी सरीखे आलोचक श्रेष्ठ कृतियों की खोज में शब्दों की
अथक यात्राएँ करते हैं। उनकी सामाजिक राजनैतिक चेतना जन अस्मिता से जुड़कर साहित्य को परखती है। वे कालजयी रचनाओं का भी न सिर्फ पुनर्पाठ करते हैं वरन उनके नए-नए अर्थ और संदर्भ भी खोज निकालते हैं। इसलिए उनकी आलोचना के ढेर सारे दरवाजें हैं। खिड़कियाँ हैंजिनसे गुजरना हर एक के बस की बात नहीं।
अथक यात्राएँ करते हैं। उनकी सामाजिक राजनैतिक चेतना जन अस्मिता से जुड़कर साहित्य को परखती है। वे कालजयी रचनाओं का भी न सिर्फ पुनर्पाठ करते हैं वरन उनके नए-नए अर्थ और संदर्भ भी खोज निकालते हैं। इसलिए उनकी आलोचना के ढेर सारे दरवाजें हैं। खिड़कियाँ हैंजिनसे गुजरना हर एक के बस की बात नहीं।
(मुंबई से प्रकाशित पत्रिका कथाचली (संपादक शाश्वत रतन) के वीरेंद्र यादव पर एकाग्र अंक मार्च -2018 से साभार)
मधु कांकरिया जानी-मानी कथाकार और उपन्यासकार हैं।
रोचक जानकारी सर??
सर को जन्मदिन की हार्दिक बधाई??
बधाई हो।
[…] वीरेंद्र यादव बनाम ज्वालामुखी यादव […]