Friday, March 29, 2024
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नीतीश कुमार की ‘पालिटिकल स्लेवरी’ (डायरी 3 मई, 2022) 

कल मनाली के आगे गया। दरअसल, मैं और मेरी पत्नी की इच्छा रही कि हिमालय की उन चोटियों पर जाया जाय, जहां बर्फ अभी भी हैं। इसकी भी वजह रही। हुआ यह कि जिस होटल में ठहरे हैं, वहां से वे चोटियां साफ नजर आती हैं और वे बेहद करीब प्रतीत होते हैं। खैर, यह […]

कल मनाली के आगे गया। दरअसल, मैं और मेरी पत्नी की इच्छा रही कि हिमालय की उन चोटियों पर जाया जाय, जहां बर्फ अभी भी हैं। इसकी भी वजह रही। हुआ यह कि जिस होटल में ठहरे हैं, वहां से वे चोटियां साफ नजर आती हैं और वे बेहद करीब प्रतीत होते हैं।
खैर, यह सफर के आगे के सफर की दास्तान है। हम मनाली से आगे निकले लाहूल की तरफ। यह जानकारी तो थी कि पहले की तुलना में अब लाहूल जाना अधिक आसान है। इसकी वजह सोलंग वैली में बनाया गया अटल सुरंग है, जो कि करीब 9 किलोमीटर लंबा है। वाहनचालक से नाम पूछा तो उन्होंने अपना केवल सरनेम बताया– भारद्वाज। वे गैर हिमाचली लगे। हालांकि ऐसा उन्होंने कहा नहीं। लेकिन यहां के मूल हिमाचली और गैर हिमाचली लोगों में अंतर साफ-साफ देखा जा सकता है।
तो भारद्वाज ने जानकारी दी कि अटल सुरंग के कारण लाहूल की तरफ जाने के लिए रोहतांग दर्रे को पार करने की आवश्यकता नहीं है और करीब 85 किलोमीटर की दूरी घट गयी है। इतना ही नहीं लेह जाना भी अब आसान हो गया है। इस तरह हिमालय की बर्फ से ढंकी चोटियों तक पहुंचने की हमारी यात्रा करीब एक घंटे की रही और हम आसानी से पहुंच गए। पर्यटकों के लिए यहां खास तरह के इंतजाम भी दिखे। खाने-पीने की बात करूं तो नूडल्स, मोमोज और ऑमलेट आदि तो थे ही, कुछ ढाबों पर पंजाबी व्यंजनों के इश्तहार भी दिखे।

[bs-quote quote=”वे मजदूर थे और सड़क निर्माण में लगे थे। उन्हें पहचानना मुश्किल न था। वे नेपाली मूल के नागरिक थे। भारद्वाज से पूछा तो उनका कहना था कि अब यहां कोई हिमाचली नागरिक श्रम नहीं करता। फिर चाहे वह सड़क बनाने का काम हो, सड़क साफ करने का काम हो या फिर खेती करने का। पहाड़ों पर खेती करना श्रमसाध्य काम है और इस काम में नेपाली मजदूर बड़े कारगर साबित होते हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 

हिमालय अतिक्रमण का शिकार हो रहा है। यह देखकर मन में तकलीफ भी हुई कि लोग इन चोटियों पर प्लास्टिक व अन्य कचरे फैलाते हैं। स्थानीय लोग नहीं के बराबर नजर आए। पुलिस के बजाय सुरक्षा बलों की मौजूदगी दिखी। वजह यह कि सुरक्षा के लिहाज से यह बेहद संवेदनशील सड़क मार्ग है।
हम लौट रहे थे और हमारे सामने व्यास नदी थी। हिमालय की चोटी से सैकड़ों की संख्या में जलप्रपात और कल-कल बहती नदी भला किस इंसान का मन न मोह ले। हम भी स्वयं को रोक न सके और करीब आधा घंटा व्यास नदी को महसूस करते रहे। थोड़ा आगे बढ़ने पर कुछ लोग नजर आए। वे मजदूर थे और सड़क निर्माण में लगे थे। उन्हें पहचानना मुश्किल न था। वे नेपाली मूल के नागरिक थे। भारद्वाज से पूछा तो उनका कहना था कि अब यहां कोई हिमाचली नागरिक श्रम नहीं करता। फिर चाहे वह सड़क बनाने का काम हो, सड़क साफ करने का काम हो या फिर खेती करने का। पहाड़ों पर खेती करना श्रमसाध्य काम है और इस काम में नेपाली मजदूर बड़े कारगर साबित होते हैं।

लाहुल नदी और अटल सुरंग,हिमाचल प्रदेश

नेपाली नागरिकों को मजदूर के रूप में काम करते देख मन में कई सवाल आए ही थे कि जवाब मिलने शुरू हो गए। हुआ यह कि हम जिस स्थान तक पहुंच सके, वह काकसार गांव कहलाता है। भारद्वाज ने बताया कि इसके आगे गांवों की सघनता कम होती जाती है। काकसार गांव को देख मेरी पत्नी ने कहा कि यह तो मुश्किल से पचास घर का गांव भी नहीं है। भारद्वाज ने कहा कि यहां गांव ऐसे ही होते हैं। तो क्या अब गांव में भी हिमाचली नागरिक श्रम नहीं करते? यह मेरा अगला सवाल था।
वे श्रम तो करते हैं, लेकिन केवल उन्हीं इलाकों में जहां पर्यटक नहीं पहुंच पाते। भारद्वाज ने जवाब दिया।
मैं भारद्वाज की बातों को यह मानकर डायरी में दर्ज कर रहा हूं क्योंकि उनके पास झूठ बोलने का कोई खास कारण नजर नहीं आता।
खैर, एक सफर में अनेक अफसाने होते ही हैं और अभी सफर जारी है तो देखने-समझने का काम आगे भी करता रहूंगा। फिलहाल मैं पटना से आयी एक खबर के बारे में सोच रहा हूं। खबर का सार यह है कि भाजपा नीतीश कुमार के माथे पर न केवल सवार हो गयी है बल्कि वह उन्हें उंगलियों पर नचा भी रही है। अब यह बात पुरानी हो गई कि बिहार में अकादमिक स्वतन्त्रता के मामले देश के अन्य राज्यों से बेहतर था। असहमति को दबाने के मामले में बिहार सरकारें अपेक्षाकृत कम क्रूर रहती थीं। लेकिन अब सब बदल गया है।
मैं यह बात एक खास घटना की वजह से कह रहा हूं। दरअसल, ए.एन सिन्हा समाज अध्ययन संस्थान, पटना द्वारा  16 मई को ‘आज़ादी के अमृत महोत्सव ‘  पर एक कार्यक्रम का होना तय था। प्रमुख वक्ता  इतिहासकार ओ.पी जायसवाल थे और विषय था– फर्स्ट अंटचेबल रिवोल्युनशरी हीरो हू चैलेंज्ड ब्राह्मनिकल ऑर्डर इन एनशिएंट इंडिया। 
लेकिन फिर खबर आयी कि संस्थान प्रबंधन ने उपरोक्त सेमिनार को स्थगित कर दिया है। जाहिर तौर पर यह एक ऐसा निर्णय है जो संस्थान खुद से नहीं ले सकता। वजह यह कि सेमिनार के आयोजन से पहले विषय आदि को लेकर उसने सहमति दी थी और तभी जाकर इसके आयोजन की विधिवत सूचना लोगों को दी गयी थी। फिर वजह क्या रही? इस संबंध में मैंने संस्थान के एक अधिकारी से बात करने की। जानकारी मिली कि यदि वह सच बताएंगे तो उनकी नौकरी चली जाएगी।
सरकारी नौकरी वालों के साथ यही परेशानी रहती है। वे होते तो इंसान ही हैं, लेकिन एक मजबूर इंसान। वे अपने सामने गलत होता देखकर भी मुंह नही खोल सकते। यही वजह है कि ऐसे लोगों को मैं ‘पेड स्लेवर’ वे (गुलाम, जिन्हें गुलामी करने की कीमत अदा की जाती है) मानता हूं। संभव है कि कुछ लोग मेरी इस टिप्पणी पर आपत्ति व्यक्त करें, लेकिन सच यही है। मेरे एक करीबी रिश्तेदार हैं। भारत सरकार में बड़े पद पर हैं। अच्छे साहित्यकार भी हैं। लेकिन स्थिति वही ‘पेड स्लेवर’ की ही है।
बहरहाल, मैं नीतीश कुमार और बिहार के बारे में सोच रहा हूं। क्या नीतीश कुमार को इस बात की जानकारी नहीं होगी कि वे कौन लोग हैं, जिन्होंने ए एन सिन्हा सामाजिक अध्ययन संस्थान में पूर्व निर्धारित उपरोक्त कार्यक्रम को स्थगित करवा दिया? मुझे लगता है कि वे यह जानते हैं और केवल पालिटिकल स्लेवर बनकर रह गए हैं।

नवल किशोर कुमार फ़ॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं

गाँव के लोग
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