आज बाबा साहब भीमराव अंबेडकर का 67वां परिनिर्वाण दिवस है। आजादी के बाद भारत के दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक समाज को संविधान के माध्यम से सम्मान और समानता दिलाने में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण रही है। बावजूद इसके जाति की विभाजक रेखा आज भी समाज में कायम है।
हिन्दू धर्म, जिसे ब्राह्मण धर्म भी कहा जा सकता है, पूरी तरह से वर्ण व्यवस्था पर आधारित है, जिसमें ब्राह्मणों ने मनुस्मृति के आधार पर अपने आप को सबसे उच्च स्थान पर स्थापित कर लिया है। इसी क्रम में और सभी इन्सानों को एक दूसरे से ऊंचा-नीचा बनाते हुए हजारों टुकड़ों में बाट दिया है। ब्राह्मणों के स्वर्ग की अनुभूति कराने वाले इसी आदर्श गुण, यानी अपनी जाति को दूसरी जाति से उच्च और पवित्र मानने को ही ब्राह्मणवाद और इसका अनुसरण करने वाले इन्सान को ब्राह्मणवादी कहा जाता है।
आज के वैज्ञानिक युग में पीढ़ियों से चली आ रही, यह ऊंच-नीच की आनुवांशिक बीमारी हर इंसान के हार्मोन में घुस गई है। इस बीमारी से ग्रसित इन्सान को ‘मानसिक बीमार’ भी कहा जा सकता है।
ब्राह्मणों ने अपने स्वार्थ के लिए बड़ी चालाकी से षड्यंत्र के तहत इस व्यवस्था को बनाया। जन-मानस में यह धार्मिक प्रचार कर दिया कि, आपकी जाति पिछले जन्म में किए गए पुण्य और पाप कर्म के आधार पर भगवान ने निर्धारित की है, जिसका पालन करना अनिवार्य है। शुरुआत में दन्डात्मक विधि-विधान बनाकर इसका पालन करवाया गया। बाद में कुछ पीढ़ियों के बाद वही धार्मिक आस्था मान्यता और परम्परा बनती चली गई। हमारे पूर्वजों ने उस समय अज्ञानता में भाग्य और भगवान द्वारा बनाई व्यवस्था समझकर इसे स्वीकार कर लिया। यही नहीं, दिमाग में एक डर पैदा कर दिया गया कि जो इसका अनुसरण नहीं करेगा, वह अधर्मी और पाप का भागीदार होगा तथा अगले जन्म में कुत्ते, बिल्ली या जानवर की योनि में पैदा होगा।
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दिलो-दिमाग में जाति की उच्चता और पवित्रता बनाए रखने के लिए जाति अपमान से बड़ा अपमान कोई हो ही नहीं सकता। पाखंडियों ने इसे अपनी धार्मिक पुस्तकों में भी लिख दिया।
यही कारण है कि जाति व्यवस्था में सबसे निचले पायदान पर रहने वाली कुछ अछूत जातियां, जो समाज में एक गाली का प्रतीक बनी हुई हैं, वे उस गाली में भी धार्मिक पवित्रता और अपनी-अपनी जाति की उच्चता तलाशती रहती हैं। इसे अपने बाप-दादा द्वारा चली आ रही परम्परा, आस्था या विश्वास के नाम पर प्रसारित किया जाता है। यही धारणा इंसानियत के लिए कलंक है। सच कहिए तो यही धार्मिक आस्था और विश्वास मुझे ज्यादा आहत करती है। इसलिए इससे छुटकारा पाना या दिलाना हमारी पहली प्राथमिकता बनी हुई है। जब तक इससे छुटकारा नहीं मिलेगा तब तक शूद्रों की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्वतंत्रता मिलना मुश्किल है।
एक कहावत है ‘जिसके लिए चोरी किया, वही कहे चोरवा’
मैं जानता और समझता भी हूं कि शूद्र को ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने अपमानित किया है, लेकिन सबसे निचले पायदान पर रहने वाली अछूत जातियों की गाली जैसा अपमान तो नहीं किया है, क्योंकि पैदाइशी ब्राह्मण भी अपने आप को यज्ञोपवीत से पहले शूद्र मानता है तथा अपनी ब्राह्मण औरतों को भी जीवनपर्यन्त शूद्र ही मानता है।
सदियों से चली आ रही जात-पाँत की इस मानसिक बीमारी को समाप्त करने के लिए गुलाम भारत में पता नहीं कितने महापुरुषों ने अपना जीवन बलिदान कर दिया।
बहुतों के नाम तो इतिहास से मिटा दिए गए हैं। संत रविदास ने तो अपनी वाणी से ब्राह्मणवाद पर जबरदस्त प्रहार किया था। आज यदि हम लोग खुले मंच से उस वाणी को सिर्फ बोल देते हैं तो आहत गैंग की आस्था को ठेस पहुंचने लगती है। ऐसे ही कबीर, फुले, पेरियार, शाहूजी महाराज और फिर बाबा साहब अम्बेडकर ने भी ब्राह्मणवाद को समाप्त करने के लिए अपनी पूरी जिंदगी लगा दी। डॉ अम्बेडकर हिन्दू धर्म को सुधारने की लाख कोशिश करते रहे। सुधरने की उम्मीद नहीं देखते हुए, अंत में आजिज आकर उन्होंने 1935 की येवला कांफ्रेंस में कहा था कि, ‘हिन्दू धर्म में पैदा हुआ, यह मेरे बस में नहीं था, लेकिन मैं हिन्दू रहकर मरूंगा नहीं, यह मेरे बस में है।’ इस घोषणा के बाद भी उन्होंने हार नहीं मानी थी लगातार कोशिश करते रहे। वह 21 सालों तक सुधारते रहे और सुधरने का इन्तजार भी करते रहे।
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स्वतंत्र भारत में भी संविधान में आर्टिकल 13 और आर्टिकल 51-A-H का प्रावधान देकर ब्राह्मणवाद को समाप्त करने का रास्ता भी हम सभी को दिखाया है। पर अफसोस कि ब्राह्मणवाद आज भी सामाजिक बीमारी की तरह समाज में फल-फूल रहा है। यही नहीं, बल्कि आज के भगवा मंडली शासन में इसे खत्म करने के बजाय, संविधान के खिलाफ जाकर इसे और बढ़ावा दिया जा रहा है।
हम सभी जानते हैं कि बाबा साहब के समय समाज अशिक्षित और अज्ञानी था, इसलिए उनका साथ उस समय नहीं दिया। धार्मिक मान्यता और बाप-दादा की चली आ रही परम्परा का बहाना बनाकर हमारे लोगों ने ही उनका विरोध भी किया। बाबा साहब के इस दर्द को महसूस करने की हम सभी को जरूरत है। पर आज हम, इस वैज्ञानिक युग में सोशल मीडिया जैसा माध्यम होने तथा लाखों करोड़ों लोगों के पढ़े-लिखे और समझदार होने के बाद भी, बाबा साहब के उस अधूरे सपने को पूरा करने की कोशिश नहीं कर रहे हैं।
अज्ञानता और कायरता के कारण कुछ लोग इससे दूर भागने में ही अपनी और अपने परिवार की भलाई समझते हैं। लोगों का बहाना होता है कि हमें बाबा साहब ने बौद्ध धर्म का रास्ता दिखा दिया है तो हमें हिन्दू धर्म के ब्राह्मणवाद से क्या लेना-देना है। यह उनकी नासमझी और गलतफहमी है। यदि बाबा साहब का सिर्फ बौद्ध धर्म परिवर्तन ही उनका अंतिम निर्णय होता तो 1935 के येवला कांफ्रेंस में ही बौद्ध धर्म स्वीकार कर लेते। यही नहीं संविधान में ब्राह्मणवाद के खिलाफ प्रावधान भी नहीं देते।
बाबा साहब ने सभी धर्मों का अध्ययन किया था और उनका मानना था कि हिन्दू धर्म की बुराइयों यानी ब्राह्मणवाद से छुटकारा पाए बिना या मानसिकता बदले बिना धर्म परिवर्तन बेनामी है। यह हकीकत आज धर्म परिवर्तन के बाद भी समाज में दिखाई दे रही है। इसलिए ब्राह्मणवाद को समाप्त करने की हम सभी की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए।
बाबा साहब के अधूरे काम को पूरा करने के लिए जब मैंने अपने नाम के साथ शूद्र टाइटल लगाया तो कुछ तथाकथित शूद्रों की उच्च जातियों में आपत्ति के साथ साथ, मेरे खिलाफ विद्रोह भी पैदा किया गया। लेकिन खुशी की बात यह है कि हकीकत समझने के बाद, जिन्होंने शुरू में विरोध किया था , वही लोग आज इस मिशन को सफल बनाने में स्वत: स्फूर्त ढंग से काम भी कर रहे हैं।
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मुझे शुरुआत में, यह उम्मीद थी कि सबसे निचले पायदान पर रहने वाली अछूत शूद्र जातियां, इस मिशन को सहर्ष स्वीकार कर लेंगी और मेरा साथ भी देंगी, लेकिन अभी तक जिस उम्मीद में था, उसमें उतनी सफलता नहीं मिली। लेकिन जब कभी निराश होता हूं तो बाबा साहब के संघर्षों को याद कर लेता हूं।
जाति व्यवस्था बनाए रखनेवाले समुदाय के लीडर
पिछले साल मुझे बिहार या उसकी सरहद पर, बसने वाले एक विशेष आदिवासी घुमक्कड़ समाज से रूबरू होने का मौका मिला। जिनका स्वतंत्रता के बाद, संविधान लागू होने के 74 सालों बाद भी कोई निजी आवास नहीं है। परिवार अपने कंधे पर ही अपना आवास लेकर घूमते रहते हैं और कहीं भी, थोड़े समय के लिए अपना डेरा जमा लेते हैं। उनका भारतीय संविधान, पुलिस या कोर्ट कचहरी से कोई लेना-देना नहीं है।
गजब यह कि इन जातियों में धार्मिक मान्यता के अनुसार सूचीबद्ध सभी सदस्यों के लिखित आंकड़ों के साथ जिलेवार मुखिया, राज्यवार मुखिया और इसके बाद उनकी तीन लेयर वाली धर्म संसद होती है। यह प्रतिवर्ष एक या दो महीने के लिए बुलाई जाती है। उसी में उस साल के समाज के सभी तरह के विवादों का निपटारा कर दिया जाता है और सभी को निर्णय मानना पड़ता है। न मानने वालों को आर्थिक दंड के साथ-साथ, समाज से बहिष्कार, अपमान, कुजात कहलाने का दंश झेलना पड़ता है। इसके लिए सभी को कुछ टैक्स भी देने पड़ते हैं।
पिछले साल ऐसी ही धर्म संसद को देखने, समझने का मुझे भी नेपाल के बार्डर, जय नगर, बिहार में मौका मिला था। हजारों की संख्या में परिवार एकत्र हुए थे। सरकार की तरफ से ओपन मैदान में सिर्फ पानी और कुछ शौचालय की सुविधा दे दी गई थी। अपने-अपने कंधे पर ढोये जाने वाले घरेलू सामान से इन लोगों ने अपना आशियाना खुद बना लिया था। उनके मुख्य लीडर या नेता को बिहार सरकार से सम्मानपूर्वक सरकारी पद भी दिया गया था। वहीं आन द स्पॉट, सभी विवादों का निपटारा करने के बाद धर्म संसद समाप्त हो गई और अगली संसद कहां, कब होगी उसी समय तय कर ली गई।
लेकिन दुख इस बात का हुआ कि मुझे उनकी अपनी नारकीय व्यवस्था या धार्मिक परंपराओं के खिलाफ बात नहीं रखने दिया गया। जाति का नेतृत्व करने वाले नेता को ऐसी व्यवस्था बनाए रखने में स्वर्ग दिखता है। मैं अनुभव कर रहा हूं कि कम या ज्यादा सभी शूद्रों की जातियों की परिस्थिति ऐसी ही है।
सच कहता हूं, जाति और जाति की उच्चता बनाए रखने की होड़, जाति की संस्था, जाति की राजनीतिक पार्टी और उसके लीडर ब्राह्मणवाद को समाप्त करने में सबसे बड़े रोड़ा बने हुए हैं। सामाजिक तौर पर इसका बहिष्कार हम सभी को करना चाहिए।
शूद्र शिवशंकर सिंह यादव जाने-माने सामाजिक चिंतक और गर्व से कहो हम शूद्र हैं मिशन के प्रणेता हैं।
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