Thursday, March 28, 2024
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बद्री नारायण की बदमाशी (डायरी, 9 जुलाई, 2022) (दूसरा भाग)

साहित्यिक लेखन और इतिहासपरक लेखन में फर्क होता है। साहित्यिक लेखन (आलोचना को अपवाद मान लें) के दौरान लेखक के पास अतीत में झांकने की अनिवार्यता नहीं होती। यह जरूरी नहीं कि किसी कहानीकार की कोई कहानी का पात्र अतीत के आदर्शों का पालन करे ही। यह कहानीकार पर निर्भर करता है कि वह किस […]

साहित्यिक लेखन और इतिहासपरक लेखन में फर्क होता है। साहित्यिक लेखन (आलोचना को अपवाद मान लें) के दौरान लेखक के पास अतीत में झांकने की अनिवार्यता नहीं होती। यह जरूरी नहीं कि किसी कहानीकार की कोई कहानी का पात्र अतीत के आदर्शों का पालन करे ही। यह कहानीकार पर निर्भर करता है कि वह किस तरह के पात्र की कल्पना कर रहा है और फिर यह भी कि वह समाज को देना क्या चाहता है। अब उदाहरण के लिए रजनी मोरवाल की कहानी कोका किंग को ही देखें। इस इरोटिक कहानी को साहित्यिक पत्रिका हंस ने हाल ही में जगह दी थी। कहानी की नायिका और नायक दोनों सेक्स के बहाने मानवीय संबंधों के विभिन्न आयामों पर बातचीत करते हैं। ऐसा रजनी मोरवाल कर सकीं तो केवल इसलिए कि वह साहित्यिक लेखन कर रही थीं और साहित्यिक लेखन लेखक को आजाद बना देता है। मैं तो रजनी मोरवाल की इस कहानी की केवल एक कारण से आलोचना करता हूं कि उन्होंने इस कहानी का जबरदस्ती अंत किया।

खैर, बात रजनी मोरवाल की नहीं, बद्री नारायण की है। वे इन दिनों नरेंद्र मोदी के ऊपर किताब लिखकर चर्चा में हैं। इसके पहले उत्तर भारत के सीमित बौद्धिक गलियारे में वह कभी प्रगतिशील वामपंथी और कभी दलितवादी रहे। दरअसल, ऊंची जाति का होने का फायदा ऊंची जातिवालों को मिलता भी है। यह इसलिए भी होता है क्योंकि ऊंची जातिवालों को हम दलित-बहुजन ऊंची जाति वाला मानकर उसका सम्मान भी करते हैं। वैसे यह केवल सम्मान का मामला भर नहीं है। दरअसल, इस देश के बहुसंख्यकों को शिक्षा से दूर रखने की हर कालखंड में ऊंची जातियों द्वारा कुचेष्टाएं की गई हैं। आज भी यही किया जा रहा है। अब परसों की ही बात है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है कि देश के बच्चे केवल डिग्रीधारी नहीं बनें। वे देश को आगे ले जानेवाले बनें।

वाल्मीकि ने अपनी कहानी रामायण में सूर्पनखा को चरित्रहीन कहा जब उसने राम से प्रणय निवेदन किया। वाल्मीकि तो इतने बदमाश थे कि उन्होंने राम के कहने पर लक्ष्मण के द्वारा उसके नाक-कान कटवा दिया। बद्री नारायण ने भी यही किया है।

यह भी ऊंची जातियों की साजिश ही है, जिसे आरएसएस के इशारे पर पिछड़ा वर्ग के एक बेवकूफ राजनेता द्वारा प्रचारित किया जा रहा है। ऊंची जातियों के लोग यह जानते हैं कि शिक्षा में दलित-बहुजनों की हिस्सेदारी बढ़ी है। हालांकि गति अभी भी बेहद धीमी और संख्या बहुत कम है, लेकिन इसे यदि नहीं रोका गया तो ज्ञान के संसाधनों पर दलितों और पिछड़ों का अधिकार हो जाएगा। तो ऊंची जातियों के लोग ऐसा नहीं चाहते हैं और इसलिए डिग्रियों को कमतर बताने की साजिशें की जा रही हैं। यह सवाल तो भारत के प्रधानमंत्री से पूछा ही जाना चाहिए कि आखिर उन्हें किस तरह के युवा चाहिए? उनके हिसाब से अग्निवीर टाइप के युवा ठीक रहेंगे?

बद्री नारायण भी ऊंची जाति के हैं और उनके पास भी ढेरों डिग्रियां हैं। वे एक प्रतिष्ठित शोध संस्थान के सर्वेसर्वा भी हैं। अपनी किताब कांशीराम : बहुजनों के नायक में उन्होंने अपनी षड्यंत्रकारी विद्वता का अपेक्षित प्रदर्शन किया है। अपनी डायरी के पिछले पन्ने में मैंने यह दर्ज किया कि कैसे बद्री नारायण ने कांशीराम के जन्म को चमत्कार से जोड़ दिया। दरअसल, बद्री नारायण यह मानते हैं कि कांशीराम जैसा ओजस्वी और दृढ़प्रतिज्ञ व्यक्ति बिना किसी ब्राह्मण के आशीर्वाद से उत्पन्न ही नहीं हो सकता। बद्री नारायण की बदमाशी यह पहला उदाहरण है कि कांशीराम के नायकत्व का सारा श्रेय उन्होंने ब्राह्मणवादी आश्चर्य के माथे पर डाल दिया। गोया कांशीराम नामक संत यदि गांव में नहीं जाता, बिशन कौर उसका सत्संग नहीं सुनतीं और उस संत ने आशीर्वाद नहीं दिया होता तो कांशीराम बहुजनों के नायक नहीं होते।

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खैर, यह तो महज एक उदाहरण है बद्री नारायण की बदमाशी की। एक दूसरी बदमाशी देखिए कि उन्होंने चूहड़मल की कहानी को पलट दिया है। अपनी किताब के पृष्ठ संख्या 108 पर उन्होंने रेशमा और चूहड़मल की कहानी को उद्धृत किया है। यह बिहार के मगध इलाके की लोककहानी है। यह एक प्रेम कहानी है। लेकिन जिस तरीके से बद्री नारायण ने इसे प्रस्तुत किया है, उससे उनकी बदमाशी को बड़े आराम से समझा जा सकता है। वे बताते हैं कि रेशमा भूमिहार जमींदार की बेटी थी। उसका भाई था अजब सिंह जो कि चूहड़मल का दोस्त था। दोनों एक साथ स्कूल में पढ़ते थे। एक बार अजब सिंह बीमार पड़ा तो चूहड़मल अपने दोस्त को देखने गए तो रेशमा की नजर चूहड़मल पर पड़ी और उन्हें अपना दिल दे बैठी। बद्री नारायण यहां अपनी कहानी में रेशमा को चरित्रहीन और चूहड़मल को चरित्रवान यह कहते हुए बताते हैं कि चूहड़मल धार्मिक इंसान थे और उन्होंने रेशमा के प्रणय निवेदन को ठुकरा दिया था। इससे आहत होकर रेशमा ने उनके ऊपर काला जादू तक किया। बाद में अजब सिंह से चूहड़मल की लड़ाई भी हुई, जिसमें चूहड़मल जीत गए।

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जबकि हमारे यहां जो लोकगाथा है उसके मुताबिक चूहड़मल और रेश्मा लैला-मंजनू टाइप के प्रेमी युगल थे। जाति बंधन नहीं मानते थे और एक साथ जीना चाहते थे। लेकिन रेशमा के परिजन नहीं चाहते थे कि किसी दलित का वीर्य उनकी इज्जत को दूषित कर दे। फिर चूहड़मल ने रेशमा के साथ मिलकर लड़ाई लड़ी और जीत हासिल की।

दरअसल, लोककथा में रेश्मा को चरित्रहीन नहीं बताया गया है। लेकिन बद्री नारायण ने उन्हें खलनायिका ही बना दिया है। उन्होंने ऐसा क्यों किया, इस पर विचार करने की आवश्यकता है।

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हमें यह समझने की आवश्यकता है कि इतिहासपरक लेखन के दौरान लेखक के पास दो तरह की चुनौतियां होती हैं। एक तो यह कि उसके तथ्यों पर लोग विश्वास करें। और दूसरी चुनौती यह कि यदि कोई तथ्य विश्वासपूर्ण ना हो और विषय तथा विषय के पीछे के मकसद के लिए आवश्यक हो तो उसका पुनर्पाठ किया जाना। अब बद्री नारायण यह बात तो समझते ही हैं कि यदि कांशीराम को बहुजनों का नायक बताना है तो उन नायकों से बेहतर कोई नहीं है, जिनका कोई इतिहास कहीं दर्ज ही नहीं है। लोकगथाएं मौखिक रूप से पीढ़ी-दर-पीढ़ी जिंदा रहती हैं। चुहड़मल और रेशमा की प्रेम कहानी भी ऐसी ही है। लेकिन बद्री नारायण ने चुहड़मल को ‘धार्मिक व्यक्ति’ और अघोषित रूप से रेशमा को चरित्रहीन कहकर खुद को वाल्मीकि के समतुल्य बनाने की कोशिश की है।

वाल्मीकि ने अपनी कहानी रामायण में सूर्पनखा को चरित्रहीन कहा जब उसने राम से प्रणय निवेदन किया। वाल्मीकि तो इतने बदमाश थे कि उन्होंने राम के कहने पर लक्ष्मण के द्वारा उसके नाक-कान कटवा दिया। बद्री नारायण ने भी यही किया है। इसकी वजह यह कि बद्री नारायण भूमिहार-ब्राह्मण ही हैं और उनके मन में यह आज भी मलाल है कि उनकी जाति की एक लड़की एक दलित युवक से प्यार करती थी।

खैर, बद्री नारायण द्वारा लिखित यह किताब ऐसे ही अनेकानेक बदमाशियों से भरी पड़ी है। मैं यह सोच रहा हूं कि दलित लेखकों और बुद्धिजीवियों को क्या हुआ है, जिन्होंने आजतक इस किताब की आलोचना नहीं की। यह मुमकिन है कि कुछ लोगों ने लिखा-पढ़ा होगा, लेकिन किसी बड़े और प्रसिद्ध ने ऐसा किया हो, मेरी नजर से नहीं गुजरा। यह मेरी सीमा भी हो सकती है।

क्रमश: जारी

नवल किशोर कुमार फ़ॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।

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