किसने सोचा होगा कि जो भारतीय जनता पार्टी 2014 के लोकसभा चुनाव में काले धन को मुद्दा बनाकर सत्ता में आई, ईमानदारी और पारदर्शिता का दम भरने वाली वही पार्टी शेल कंपनियों से चंदा लेगी। कम से कम भाजपा के समर्थकों के लिए इस तथ्य पर यक़ीन कर पाना मुश्किल होगा।
न्यूजलॉन्ड्री की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भाजपा ने कम से कम चार शेल कंपनियों से 4.94 करोड़ रुपये का चुनावी चंदा लिया। यह चंदा 2013-14 से लेकर 2022 के बीच दिया गया। ये कंपनियां सेबी (SEBI) की सूची में बतौर शेल कंपनी दर्ज थीं।
जाहिर है कि यह पूरी तस्वीर नहीं हैं। यह जांच का विषय है कि ऐसी और कितनी फर्जी कंपनियां हैं जिन्होंने भाजपा को या किसी अन्य पार्टी को चंदा दिया। उन शेल यानी फर्जी कंपनियों के पीछे कौन है? यह चंदा क्यों दिया गया? बदले में चंदा देने वाले को क्या दिया गया?
हाल ही में न्यूजलॉन्ड्री और द न्यूज़ मिनट ने एक और खोजी रिपोर्ट प्रकाशित की थी जिसमें कहा गया कि भाजपा को लगभग 335 करोड़ रुपये चंदा देने वाली 30 कंपनियां ऐसी हैं जिन्हें केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई का सामना करना पड़ा। इन कंपनियों ने 2014 के बाद भाजपा को कभी चंदा नहीं दिया था। लेकिन छापा पड़ने और कानूनी कार्यवाही के दौरान इन कंपनियों ने भाजपा को करोड़ों रुपये का चंदा दिया। रिपोर्ट में कहा गया कि कुछ कंपनियों ने छापे के दौरान या उसके बाद चंदा दिया और कुछ कंपनियों को चंदा देने के बाद लाइसेंस या मंजूरी मिली। ये तथ्य केंद्रीय एजेंसियों के छापे और भाजपा को चंदा देने के बीच एक पैटर्न की ओर इशारा करते हैं।
इन तथ्यों से यह आशंका प्रबल हुई है कि क्या भाजपा राजनीतिक चंदे के नाम पर काले धन का कारोबार कर रही है? क्या भाजपा केंद्रीय एजेंसियों का इस्तेमाल करके, कारोबारियों को डरा धमकाकर चंदा वसूलती है? या दूसरे शब्दों में कहें तो भाजपा सत्ता का दुरुपयोग करके कारोबारियों से उगाही करती है?
सबसे चिंताजनक बात ये है कि अकूत धनबल, बाहुबल और लठैती का खेल बन चुकी खरीद-फरोख्त की राजनीति में शेल कंपनियों से चंदा लिया जा रहा है। शेल कंपनियां वे कंपनियां हैं जो कागजों पर होती हैं लेकिन असल में उनका कोई वजूद नहीं होता। ये सिर्फ नाम की फर्जी कंपनियां होती हैं जिनके जरिये काले धन का कारोबार किया जाता है।
हाल ही में जब सुप्रीम कोर्ट ने इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम को गैरकानूनी बताते हुए रद्द किया तो उसमें भी ये चिंता जताई गई कि इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिये राजनीतिक दलों को शेल कंपनियों द्वारा भी चंदा दिये जाने की आशंका है।
इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम के बारे में अलग-अलग समय रिजर्व बैंक आफ इंडिया, चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट यह आशंका जता चुके थे कि इसके जरिये हवाला यानी काले धन का कारोबार किया जा सकता है और आखिरकार कोर्ट ने इसे रद्द कर दिया।
अगर आपको 2014 के लोकसभा चुनाव का दौर याद हो तो काले धन को भाजपा ने मुद्दा बनाया था। 9 जनवरी 2014 को नरेंद्र मोदी ने अपने एक भाषण में कहा, “मेरे कांकेर के भाइयों बहनों, मुझे बताइए कि हमारा चोरी किया हुआ पैसा वापस आना चाहिए कि नहीं आना चाहिए? ये काला धन वापस आना चाहिए?…. एक बार ये जो चोर-लुटेरों के पैसे विदेशी बैंकों में जमा हैं ना, उतने भी हम रुपये ले आए ना, तो भी हिंदुस्तान के एक-एक गरीब आदमी को मुफ्त में 15-20 लाख रुपये यूं ही मिल जाएंगे।…” बाद में इसी बात को अमित शाह ने चुनावी जुमला बताया जो अब एक राजनीतिक मुहावरा बन चुका है।
भाजपा ने 2014 में अपने घोषणा पत्र में भी वादा किया कि 100 दिन के अंदर विदेशों से एक एक पाई काला धन वापस लाया जाएगा। लेकिन सत्ता में आने के बाद से आजतक भाजपा ने इस पर कोई बात नहीं की है। अब सवाल ये है कि क्या विदेशों में सच में कोई काला धन था? अगर था तो कितना था और कितना वापस आया? इसका कोई ठोस जवाब आज मौजूद नहीं है। जो तथ्य मौजूद हैं, वे सारे दावों के उलट और बेहद चिंताजनक हैं। जून 2022 में रिपोर्ट आई कि 2021 के दौरान स्विस बैंकों में भारतीय लोगों का काला धन 50 प्रतिशत बढ़कर 14 साल के उच्चतम स्तर पर पहुंच गया।
एक तरफ, वह वादा है जिसमें विदेशों में जमा काला धन लाने की बात थी। दूसरी तरफ, यह तथ्य है कि भाजपा के राज में विदेशों में काला धन बढ़ रहा है। सत्ता में बैठी पार्टी खुद शेल कंपनियों से चंदा ले रही है। हिंडनबर्ग रिपोर्ट में गौतम अडानी समूह से जुड़ी 38 शेल कंपनियों का नाम आया, जिसकी आजतक कोई जांच नहीं हुई। मार्च, 2023 में इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित रिपोर्ट में कहा गयाकि इलारा इंडिया नाम की विदेशी शेल कंपनी ने अडानी डिफेंस में निवेश किया हुआ है और अडानी समूह के जरिये यह शेल कंपनी भारतीय रक्षा क्षेत्र में घुसी हुई है। आज तक इसकी कोई जांच नहीं हुई, न देश की जनता के सामने कोई स्पष्टीकरण दिया गया। देश की संसद में पारदर्शिता के नाम पर जो इलेक्टोरल बॉन्ड लाया गया था, वह रद्द ही इसी आधार पर हुआ कि इसमें पारदर्शिता नहीं है और काले धन के इस्तेमाल की आशंका है।
हर घोटाले या काले कारोबार के आरोप तब तक सिर्फ आरोप हैं जब तक उनकी निष्पक्ष जांच न हो और भारत में इस समय एक ऐसी सरकार है जो किसी आरोप की जांच का खतरा उठाने की जगह आरोप लगाने वालों को निपटाने में यकीन रखती है। ऐसे में नुकसान तो जनता का है। यह जो अकूत संपत्तियों की संगठित लूट चल रही है, यह धन तो जनता का है।
काश इस देश का मीडिया स्वतंत्र होता तो जनता को आसानी से पता चलता कि पारदर्शिता, ईमानदारी, राष्ट्रवाद, अमृतकाल और न्यू इंडिया के चमकीले नारों के पीछे क्या क्या खेल खेला जा रहा है!