भइया हमको विकास नगर जाना है!

अनूप मणि त्रिपाठी

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‘भइया हमको विकास नगर जाना है!’

‘तो जुमला एक्सप्रेस पकड़ो!’

‘जी यहीं से जाएगी!’

‘हाँ’

‘इसी प्लेटफॉर्म से जाएगी!’

‘सिर्फ इसी से।’

‘जी, कब आएगी!’

‘थोड़ा लेट कर दिए!’

‘क्यों!’

‘अभी चली गयी’

अगले दिन

‘भइया आज तो हम समय पर आए हैं न!’

‘मगर क्या कहा जाये तुम्हारा समय ही खराब चल रहा है!’

‘क्यों!’

‘आज वह बिफोर टाइम चली गयी।’

‘धत्त तेरी की!’

अगले दिन

——-

‘भइया आज का स्टेटस क्या है! आज तो पहुँच जाएंगे न विकास नगर!’

‘बिल्कुल, मगर आज नहीं’

‘अब क्या हुआ! निरस्त हो गयी!’

‘न लेट होगी न ही निरस्त होगी! यह लिख कर रख लो तुम! पहले ये सब होता था, अब यह सब नहीं चलेगा!’

‘फिर!!!’

‘उसका रूट बदल गया !’

‘ऐसे कैसे बदल गया! आप तो बोले थे यहीं से जाएगी!’

‘तो हम कहाँ मना कर रहे हैं!’

‘फिर!!!’

‘भइया तुम्हीं नहीं हो अकेले!’ सबको लेकर चलना है, सो रूट बदल दिया गया है!’

‘तो अब हम क्या करें! हम तो आप पर ही भरोसा किये बैठे थे!’

‘घबराओ नहीं! जुमला एक्सप्रेस की जगह अब बुलेट ट्रेन चलने वाली है!’

‘फिर!’

‘पलक झपकते ही पहुँच जाओगे!’

‘पर चलेगी कब!’

‘अगले दिन से!’

‘अरे गजब!’

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अगले दिन

‘भइया बुलट ट्रेन आयी!’

‘आवश्यकता ही नहीं है!’

‘क्या मतलब!’

‘जुमला एक्सप्रेस अब से… यहीं से जाएगी!’

‘अच्छा! तो अब!!!’

‘अब क्या ! निकल गयी!’

‘अभी टाइम तो नहीं हुआ!’

‘टाइम चेंज हो गया है उसका! पहले रात में जाती थी, अब दिन-दहाड़े जाती है।’

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अगले दिन

‘ठीक समय पर आये न भइया!’

‘बिल्कुल सही समय पर! ट्रेन खड़ी है।’

‘भइया विश्वास नहीं हो रहा!’

‘तुम्हारी तरह से कइयों को विश्वास नहीं हो रहा है।’

‘सच्ची!’

‘अब जाओ जल्दी से टिकट ले लो, नहीं तो नहीं पहुँच पाओगे विकास नगर।’

‘भइया एक बात पूछें!’

‘पूछो!’

‘आप का मन नहीं करता कि आप भी विकास नगर जाए!’

‘कान खोल कर सुन लो!’

‘जी भइया!’

‘हम सेवक हैं। हमारा काम पहुँचाना है, पहुँचना नहीं।’

‘उच्च विचार भइया जी के उच्च विचार!’

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थोड़ी देर बाद

‘टिकट ले लिए!’

‘नहीं भइया जी!’

‘क्यों !!!’

‘टिकट बहुत महंगा है!’

‘तो एक काम करो!’

‘जी भइया जी!’

‘आत्मनिर्भर बनो और पैदल निकल लो!

‘कैसी बात करते हैं भइया जी! हम तो  आपसे पहले ही कहे हैं कि हम तो आपके भरोसे ही बैठे हैं!’

‘तो फौरन टिकट कटा लो!’

‘लेकिन भइया टिकट खरीदने में तो कपड़े तक बिक जाएंगे !’

‘विकसित हो कर भी नंगे ही होंगे और बिना नंगे विकसित भी नहीं होंगे! सोच लो!’

वह व्यक्ति टिकट लेकर आता है।

‘ट्रेन दिख नहीं रही!’

‘उसका प्लेटफार्म बदल दिया गया है!’

‘पर क्यों!’

‘सुरक्षा कारणों के चलते!’

‘फिर!’

‘फिर क्या! भागो!’

‘ मिल तो जाएगी न ‘

‘भागो तो सही!’

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वह आदमी उघार बदन तेजी से भागता है।

उसका हौसला अफजाई करने के लिये भइया जी जोर-जोर से ताली बजाने लगते हैं।

अनूप मणि त्रिपाठी युवा व्यंग्यकार हैं और लखनऊ में रहते हैं।

3 Comments
  1. […] भइया हमको विकास नगर जाना है! […]

  2. विकास नगर की यात्रा रोचक है।

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