जर्मनी में तुर्क एक एथनिक समुदाय के रूप में निवास करते हैं। यद्यपि इन दोनों देशों के प्रवास का इतिहास बहुत पुराना है लेकिन सन 1961 में दोनों देशों के बीच एक समझौते पर हस्ताक्षर के बाद गेस्ट लेबरर का आवागमन आरंभ हुआ। तुर्क लोग अपने साथ तुर्की भाषा और इस्लाम धर्म से जुड़ी संस्कृति लेकर जर्मनी गए एवं वहाँ के समाज के अंग बन गए। सन 2011 की जनगणना के उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार तुर्की समुदाय के 2.7 मिलियन लोग जर्मनी में रहते हैं परंतु वर्तमान अनुमानों के अनुसार लगभग सात मिलियन तुर्क लोग जर्मनी में रह रहे हैं। तुर्की के लोग जर्मनी में मुख्यतः नगरीय क्षेत्रों में ही बसे हुए हैं जिनमें बर्लिन, हॅम्बर्ग, बरेमें, डुइसबर्ग, फ्रैंकफर्ट, म्यूनिख, आदि शहर मुख्य हैं।
विस्थापन और फातिह अकीन की फिल्में
तुर्की से जर्मनी का प्रवास इन दोनों देशों के बीच अहम मुद्दा है। अन्य तुर्क प्रवासियों के सामने भी नागरिकता, घर वापसी, हाइब्रिड कल्चर, राष्ट्रीयता के आधार पर भेदभाव और एक नये मेजबान देश (Host Countries) में मानवीय गरिमा और सम्मान के साथ रहने व स्वीकार किये जाने के कई मुद्दे हैं जिनसे उन्हें निरंतर जूझना पड़ता है। फातिह अकीन दूसरी पीढ़ी के तुर्क- जर्मन फिल्मकार हैं, जिनकी फिल्मों की विषय-वस्तु प्रवासियों के जीवन से जुड़े मुद्दे हैं। फातिह अकीन ने जर्मनी के मेनस्ट्रीम सिनेमा में अपनी अलहदा फिल्म निर्माण शैली से जान फूंकने का काम करने के साथ ही प्रवासी तुर्कों के मुद्दों को भी प्रमुखता देने का महत्वपूर्ण कार्य किया है।फतीह अकीन के माता-पिता तुर्की मूल के थे, जो गेस्ट लेबरर की तरह जर्मनी आए थे। अकीन का जन्म जर्मनी के हैम्बर्ग शहर में हुआ, जहाँ तुर्की मूल के प्रवासी काफी संख्या में रहते हैं। डायस्पोरा के सदस्य या दूसरे मुल्कों में बसे प्रवासी फिल्मकार, जो दो देशों के बीच संकर संस्कृति (Hybrid Culture) और दोहरी चेतना (Double Consciousness) को मिक्स कर राष्ट्रीयताओं के परे (Trans-National) सिनेमा बनाते हैं उन फिल्मकारों की फिल्मों को प्रख्यात फिल्म अध्येता हामिद नफीसी बलाघातित (Accented Cinema) कहते हैं। नफीसी के अनुसार असेन्टेड सिनेमा की परिभाषा इस प्रकार हैं – ‘The concept of accented cinema comprises different types of cinema made by exilic diasporic and post-colonial ethnic and identity film makers who live and work in countries other than their country of origin (Naficy 2001:11)’.
फातिह अकीन की फिल्मों को न केवल दर्शकों ने पसंद किया, बल्कि कई राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्टीय पुरस्कार भी मिले है। उनकी प्रमुख फिल्में- इन जुलाई–2000 (In July-2000), हेड आन (Headon 2004) क्रासिंग द ब्रिज: द साउंड आफ इंस्ताबुल (Crossing The Bridge : The Sound of Istanbul- 2005) इन द फेड (2017), गुडबाय बर्लिन (2016), ग्लोव (2019), सोल किचेन (2009) और द एज आफ हैवेन (2007) हैं। फातिह अकीन का अपनी आइडेंटिटी के बारे में कहना है कि “My sens of home has spanded. As tectonic plates come closer together so too have Turkey and Germany grown together for me.” इन दो राष्ट्रीयता को जोड़ने वाले सूत्रों की पहचान कर उनके साथ जीना और इससे जुड़ी अन्य समस्याओं को फतीह अकीन ने अपनी फिल्मों में प्रमुखता से उठाया है।
दोनों देशों की संस्कृतियों को खुद के व्यक्तित्व में समाहित किए हुए यह फिल्मकार अपने को टर्किश-जर्मन (Turkish-German) कहलाना पंसद करते हैं। अकीन के माता-पिता सन 1960 में गेस्ट वर्कर्स रूप में हजारों अन्य तुर्की लोगों के साथ जर्मनी आये थे। इसे लोगों को विषय बनाकर अकीन ने Thinking About Germany. We forget to Go Back (2003) नाम से डाक्यूमेन्ट्री फिल्म बनायी। जर्मनी में बस चुके दूसरी पीढ़ी के लोगोें के भविष्य के बारे में चिंता करते हुए उन्होंने Solino (2002) फिल्म बनायी जिसका नायक रोमानो अमाटो एक इटालियन रेस्टोरेन्ट खोलता है जिसको चलाने में सांस्कृतिक टकराव और नासमझी के कारण मुश्किलें आती हैं। अकीन की फिल्म सोल किचेन में भी ऐसे सांस्कृतिक टकराव के मुद्दे सामने आते हैं। सोल किचेन फिल्म में ग्रीक मूल के दो सगे भाई जिनोस और इलिस हैम्बर्ग शहर में एक पोस्ट इंडस्ट्रियल बिस्ट्रो (ढाबा) चलाते हैं। फातिह अकीन की इन फिल्मों में केवल जर्मनी और तुर्की के बीच के संबंधों से जुड़े स्टीरियोटाइप ही सामने नहीं आते बल्कि, उत्तरी और दक्षिणी जर्मनी के बीच जो अंतर और binary है वह भी उभरकर सामने आती है।
फातिह अकीन की फिल्मों में हास्य दृश्यों के बीच पूर्वाग्रह और कलंक जैसी गंभीर बातें भावनात्मक परतों में लिपटी हुई पर्दे पर आती हैं, जिन्हें दर्शक देखकर समझ जाते हैं। किसी भी समुदाय के प्रति जमी-जमायी धारणाएं और पूर्वाग्रह, नकारात्मक एवं यथार्थ से दूर होते हैं। फातिह अकीन की फिल्में यह संदेश देने का काम करती हैं कि किसी समुदाय के प्रति जजमेन्टल होकर उसे कलंकित करना या दुर्व्यवहार करना गलत है। तुर्की मूल के जो लोग जर्मनी में पैदा हुए और बड़े हुए हैं उन्हें जर्मनी को ही अपना घर/ देश मानना होगा। नास्टेलजिया में जीने से दुख के सिवा कुछ हासिल नहीं हो सकता। कुछ तुर्क लोग खुद को जर्मनी में दोयम दर्जे का नागरिक मानते हैं और ज्यादा टर्किश होकर जीने की इच्छा रखते हैं जबकि उन्हें भ्रम से दूर होकर यह यह स्वीकार करना होगा कि तुर्की भी लगातार बदल रहा है और उनका भविष्य जर्मनी में ही सुरक्षित है। अकीन की फिल्म Head-on इस मुद्दे को ही चित्रित करती है।
क्या घर वापसी संभव है…
बालीवुड की हिन्दी फिल्मों को देखें तो दिलवाले दुल्हनियां ले जायेंगे… से लेकर परदेश और स्वदेश तक सभी में वतन वापसी केन्द्रीय मुद्दा है। राष्ट्रनिर्माण के प्रोजेक्ट के तहत भारतीय प्रवासी नायक अपने देश और सांस्कृतिक मूल्यों के प्रेम में अपना सुनहरा करियर छोड़कर भारत वापस आते दिखते हैं। यह सच है कि डायस्पोरा समुदाय का व्यक्ति अपने मन के कोने में घर वापसी की भावना लिए नास्टेलजिया में जीता है लेकिन यह भावना दूसरी और तीसरी पीढ़ी के प्रवासियों में उतनी तीव्रता से नहीं पायी जाती है। हालांकि वे अपने मूल देश के सांस्कृतिक तत्वों को अपनाकर अपनी पहचान भारतीय के रूप में निर्मित भी करते हैं लेकिन वापस भारत नहीं लौटना चाहते हैं। फातिह अकीन भी अपनी फिल्मों और डाक्यूमेंट्री के माध्यम से सांस्कृतिक संघर्ष और स्वदेश वापसी के प्रश्नों को गंभीरता से चित्रित करते हैं।
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अपने देश की अपूर्ण तलाश
दोनों देशों के बीच प्रवास का लम्बा इतिहास रहा है। सन 1961 में तुर्की और जर्मनी के बीच औपचारिक समझौते के बाद तुर्की से जर्मनी पहुंचे श्रमिकों (गेस्ट वर्कर्स) की पहली बड़ी खेप ने प्रवास किया और उसके बाद यह संख्या साल दर साल बढ़ती रही। इस माइग्रेशन को लेकर जर्मनी का मीडिया और राजनीतिक दलों में काफी विरोधाभासी विचार रहे हैं। अब जर्मनी से जो कुशल कामगार वापस अपने देश तुर्की जा रहे हैं उनके ‘ब्रेन ड्रेन’ की समस्या को लेकर भी जर्मनी में चिंता व्यक्त की जा रही। इस प्रकार इन दोनों देशों के बचे प्रवासियों के आवागमन का मुद्दा तमाम अन्तर्विरोधों के बावजूद एक महत्वपूर्ण मसला है। यासर आदीन (2016) अपने शोध पत्र में बताते हैं कि तुर्की और जर्मनी के बीच प्रवास से आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक कारकों पर दूरगामी प्रभाव पड़ें हैं। कौन कहाँ से किधर और क्यों जा रहा है और इससे दोनों देशों से लेकर मार्केट के साथ-साथ नीति निर्धारण पर भी असर पड़ता है। अपनी फिल्म Solino के बारे में फातिह अकीन बताते हैं कि उनकी फिल्मों के चरित्र किसी तलाश में जीते हैं लेकिन सफल नहीं हो पाते। वे अपने मूल देश तुर्की में जाकर मुक्ति पाना चाहते हैं जो संभव नहीं हो पाता। दुनिया भर में फैले विभिन्न राष्ट्रों के डायस्पोरा समुदाय के लिए यह बात सच है। अकीन का निष्कर्ष सार्वभौमिकता से पूर्ण हैं :-
“All of my characters are searching something. They are searching for a better life. However, with the exception of (Gigi in solino) all of them fail or it is left open whether the characters actually find a better life or not. They are looking for salvation in the country of their origin. But they cannot find salvation. (Daniela Berghahn) 2006:150”
सन्दर्भ :-
Aydin, yasar (2011) the germany turkey migration corridor: refitting policies for a transnational age, in migrationpolicy.org
Gueneli, Berna (2011) remixing film histories : Fatih Akin and the Creation of a Transnational film Histories,
Gueneli, Berlin (2019) Fatih Akin’s cinema and the new sound of Europe, Indiana University Press, USA.
Naficy, Hamid (2001) An Accented Cinema: Exilic and Diasporic filmmaking, Princeton University Press, , Princeton University Press, USA.
Weber, Donald (2015) Fatih Akin’s cinema of hospitality , in The Massachusetts Review, Vol.56, No.3, pp.421-439.
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विस्थापितों की असहनीय पीड़ा जो को कोई व्यक्ति नागरिक के रूप में जीना नही चाहता, ये दर्द सियासतदानों के अति महत्वाकांक्षी अमानवीय व्यवहारों के कारण कोई न कोई नागरिक कही न कही प्रभावित होता रहता है।
इसी दर्द की दास्तान को बताता लेख जिसे पढ़ के कुछ लोगो की आंखे जरूर भर जाएंगी फिर वह ऐसी स्थिति कभी न हो यही चाहेगा।
बहोत बहोत धन्यवाद इस लेख के जरिए मानवीय संवेदनाओं को उभारने के लिए।?
बड़ी ही गहन विवेचना। आपकी लेखनी में रोचकता भी है और प्रवाह भी।
बहुत ही अच्छी,भावपूर्ण,यथार्थ को दर्शाती हुई लेख है। जिसमे वास्तविकता को शब्दो के जाल में पिरो करके लेख को लिखा गया है। बहुत बहुत धन्यवाद । इस प्रकार की लेखों में सामाजिक चेतना होना स्वाभाविक है।??????
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