Saturday, July 27, 2024
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अम्बेडकरी विचारों को आत्मसात करने वाले लाहौरी राम बाली का अवसान

दिल्ली। भीम पत्रिका के संपादक और दुनिया भर में अम्बेडकरी मिशन को एक नई दिशा देने वाले व्यक्तित्व लाहौरी राम बाली का 6 जुलाई को जालंधर में निधन हो गया। बाली साहब अपने अंतिम समय तक स्वस्थ थे, लेकिन अचानक ही उनके निधन के समाचार से अम्बेडकरवादी बहुत दुखी हैं। बाली साहब जीवित होते तो […]

दिल्ली। भीम पत्रिका के संपादक और दुनिया भर में अम्बेडकरी मिशन को एक नई दिशा देने वाले व्यक्तित्व लाहौरी राम बाली का 6 जुलाई को जालंधर में निधन हो गया। बाली साहब अपने अंतिम समय तक स्वस्थ थे, लेकिन अचानक ही उनके निधन के समाचार से अम्बेडकरवादी बहुत दुखी हैं। बाली साहब जीवित होते तो करीब ढाई सप्ताह बाद वह अपना 94वां जन्मदिन मना रहे होते। बाली साहब का जन्म 20 जुलाई, 1930 को पंजाब के नवाशहर में हुआ था।

बाली साहब पूरी जिंदगी अंबेडकर मिशन के प्रति समर्पित रहे। दुनिया भर के अम्बेडकरवादियों के लिए एक आदर्श प्रस्तुत किया। 6 दिसंबर, 1956 को जब बाबा साहब अंबेडकर के नहीं रहने की सूचना मिली, उसी दिन उन्होंने अपनी सरकारी नौकरी से इस्तीफा दे दिया और जीवन के अंत तक अंबेडकर मिशन के प्रति पूर्णतः समर्पित रहे। वे आजीवन कांग्रेस विरोधी रहे। उन्होंने अम्बेडकरी सिद्धांतों से कभी मुंह नहीं मोड़ा।

पंजाब से उन्होंने सरदार स्वर्ण सिंह के विरुद्ध चुनाव लड़ा। जब दादा साहब गायकवाड कांग्रेस के साथ समझौता करना चाहते थे, तो बाली साहब और अन्य लोगों ने उनका विरोध किया और रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (अम्बेडकरी) का गठन किया। वे रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया के सदस्य बने।

उन्होंने राजनीति भी की और जेल भी गए, लेकिन उनका असल उद्देश्य बाबा साहब की विचारधारा को समाज तक पहुंचाने का ही रहा। बाबा साहब के मिशन से वह उजाला नामक उर्दू साप्ताहिक पत्रिका से जुड़े। उजाला पत्रिका का पहला अंक 14 अप्रैल 1948 को प्रकाशित हुआ था, जिसके सम्पादक उनके समकालीन केसी सुलेख थे। सुलेख साहब आज के समय में जाने-माने अम्बेडकरवादी हैं। उन्होंने शेड्यूल कास्ट फेडरेशन में काम करते हुए, बाबा साहब के ऐतिहासिक भाषण को संसद मे सुना था। उजाला पत्रिका में बाली साहब अमर नवशहरी नाम से एक कॉलम लिखा करते थे।

अपने स्टडी रूम में एलआर बाली

रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया के 1964-1965  के सर्व भारतीय आंदोलन में  70 दिनों तक जालंधर शहर की जेल में बंद थे। जेल में एक लाइब्रेरी थी और कैदियों को पढ़ने- लिखने के लिए कहा जाता था। बाली साहब उर्दू और पंजाबी के अच्छे जानकार थे। इसी भाषा में लिखते भी थे। अपने अम्बेडकरवादी मिशन के काम के लिए उन्हें देश भर में जाना पड़ता था।  इसलिए जेल में उन्होंने अंग्रेजी की मदद से हिंदी सीखी और उसके बाद हिंदू धर्म के सभी ग्रंथों का अध्ययन किया। उनके सीखने की ललक के चलते और अपने ऊपर लादे गए आपराधिक मुकदमों से निपटने के लिए उन्होंने एलएलबी की परीक्षा भी उत्तीर्ण की।

बाली साहब के साथ विस्तारपूर्वक बातचीत करने के कुछ अवसर मिले। दरअसल, जब भी मैं उनके पास जाता, उनकी बातों को रिकार्ड कर लेना चाहता था। खैर, वे हमेशा कहा करते थे कि उनके पास समय नहीं है और वह अधिक से अधिक लिख लेना चाहते हैं। उनकी हर बात सुनकर लगता, जैसे बाबा साहब ही कुछ कह रहे हों। उनके ऊपर बाबा साहब का बहुत असर था। दिल्ली में मुझे, भगवान दास के साथ अक्सर उनके पास जाने का मौका मिलता था।

[bs-quote quote=”बहुत से लोग अपने को बुद्धिस्ट तो कहते थे लेकिन आरक्षण के लाभ से वंचित न हो जाएं, इसलिए आधिकारिक तौर पर ये स्वीकार नहीं करते थे। वहीं बाली ने कहा कि वे जो करते हैं, खुल कर करते हैं। बाद में 1990 में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार ने कानून में परिवर्तन कर नव बौद्धों को आरक्षण की सुविधा का लाभ देने की घोषणा की।” style=”style-2″ align=”center” color=”#1e73be” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

बाली साहब बताते हैं कि उनकी भीम पत्रिका पहले उर्दू में आई और बाद में उसे पंजाबी में प्रकाशित किया गया। फिर उसे अंग्रेजी और अंत में हिंदी में  भी निकाला गया। आज उनके द्वारा लिखी गई दो सौ से अधिक पुस्तकों में सबसे अधिक संख्या हिंदी में लिखी गई पुस्तकों की है।

दो वर्ष पूर्व एक इंटरव्यू में उन्होंने अपने संघर्षों के विषय में मुझे बताया था। उन्होंने बताया कि जब वे बुद्धिस्ट बने, जब खुले तौर पर बौद्ध धर्म स्वीकारने का मतलब था, नौकरी और चुनाव की आरक्षण व्यवस्था से हाथ धोना। उनके किसी भी बच्चों को आरक्षण का लाभ नहीं मिला क्योंकि उन्होंने खुले तौर पर बौद्ध धर्म को स्वीकार कर लिया था। 16 जून 1963 को हजारों लोगों के साथ, लखनऊ के बौद्ध विहार रिसालदार पार्क में उन्होंने बौद्ध धर्म को अपनाया। भिक्षु प्रज्ञानंद महाथेरो ने सबको दीक्षित किया। दरअसल, 15-16 जून को उत्तर प्रदेश मे आरपीआई का सम्मेलन था और दूसरे दिन धम्म दीक्षा का कार्यक्रम था। बहुत से लोग अपने को बुद्धिस्ट तो कहते थे लेकिन आरक्षण के लाभ से वंचित न हो जाएं, इसलिए आधिकारिक तौर पर ये स्वीकार नहीं करते थे। वहीं बाली ने कहा कि वे जो करते हैं, खुल कर करते हैं। बाद में 1990 में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार ने कानून में परिवर्तन कर नव बौद्धों को आरक्षण की सुविधा का लाभ देने की घोषणा की।

लाहौरी राम बाली के साथ विद्या भूषण रावत

आज के नौजवान सोशल मीडिया के अम्बेडकरवादी भारत में अम्बेडकरवाद को बसपा के उदय से लेकर जोड़ते हैं, लेकिन दुर्भाग्यवश उन्हें अम्बेडकरी आंदोलन के महत्वपूर्ण लोगों की कोई जानकारी भी नहीं है। ये इस बात से भी पता चलता है कि हिंदी क्षेत्रों में 1990 के दौर में चर्चा में आए दलित कथाकार, अम्बेडकरवादियों के रूप में  जाने जाते हैं। चाहे उन्होंने अपने जीवन में कभी अम्बेडकरवादी दर्शन को माना हो या नहीं।

दरअसल, अंबेडकर आंदोलन के अधिकांश जीवट समर्थक महाराष्ट्र, पंजाब या उत्तर प्रदेश के आगरा और दिल्ली के इलाकों से निकले और अधिकतर की मूल भाषा उतनी शुद्ध हिंदी नहीं थी, जितनी उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश में जरूरत होती है। इसलिए आज के नौजवानों को लगता है कि 1990 में बसपा के उदय के बाद ही अम्बेडकरी आंदोलन खड़ा हुआ। इसमें उन बुद्धिजीवियों का भी कम दोष नहीं है, जिन्होंने अपने आगे किसी और को अम्बेडकरवादी समझा ही नहीं। ब्राह्मणवादी अखबारों की कतरनों के सहारे बने अम्बेडकरी कभी भी भगवान दास, एलआर बाली, के जमनादास या वीटी राजशेखर को समझ ही नहीं पाए। इन लोगों ने अपने विचारों को लेकर कभी कोई समझौता नहीं किया और जीवनपर्यंत अपने समाज के बीच अपने सीमित उपलब्ध संसाधनों के माध्यम से ही प्रवेश किया। यही वह दौर था, जब अंबेडकरवादी आंदोलन ने बहुत कम संसाधनों के साथ अनेक पत्र-पत्रिकाएं निकालीं। और यही वजह थी कि यह आंदोलन किसी भी दूसरे आंदोलन के मुकाबले अधिक बौद्धिक था।

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असल में  90 के दशक मे बसपा के उदय से अम्बेडकरवाद की धारा गांव-गांव पहुंची। उत्तर प्रदेश में  बहुजन समाज पार्टी ने लोगों में एक नई आशा का संचार किया। पार्टी को मजबूती देने से पहले मान्यवर कांशीराम साहब ने देश भर मे साइकिल यात्रा की और लोगों को एक विकल्प दिया। मान्यवर कांशीराम ने उत्तर प्रदेश को मायावती के रूप मे एक मजबूत नेतृत्व प्रदान किया। ऐसा कहा जाता है कि बसपा ने दलितों में राजनीतिक चेतना को और मजबूत किया, लेकिन हकीकत यह है कि 1950 से बाबा साहब के मिशन से जुड़ने वाले लोगों में चमार और जाटव समुदाय के लोग सबसे अधिक थे। बाबा साहब के महापरिनिर्वाण के बाद उनके आंदोलन को आगे ले जाने वालों मे भगवान दास, एलआर बाली, शंकरनन्द शास्त्री, नानक चंद रट्टू, वामन राव गोडबोले, सदानंद फुलजले मुख्य रूप से थे। इनमें से कई लोगों की मातृभाषा हिंदी नहीं थी, फिर भी उन्होंने अपना अधिकांश कार्य हिंदी में ही किया।

सामाजिक कार्यकर्ताओं और लेखकों के साथ लाहौरी राम बाली

उत्तर प्रदेश में एक समय आरपीआई बहुत ही मजबूत पार्टी हुआ करती थी, लेकिन उसके खात्मे के बाद से अम्बेडकरवादी आंदोलन में जो खालीपन था, उसे बसपा ने पूरा किया। हालांकि खांटी अम्बेडकरवादियों को बसपा के अप्रोच से समस्या थी और बाली साहब भी उसके आलोचकों में थे। बसपा ने इन आलोचनाओ को कभी अच्छे से नहीं लिया और उसके काडर को भी यही पढ़ाया गया कि अम्बेडकरी आंदोलन 1992 के बाद से उभरा, जो बिल्कुल ही झूठ था। ये सच है कि बसपा ने अम्बेडकरवाद को या बाबा साहब के नाम को गांव-गांव पहुंचा दिया लेकिन इस सत्य से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि उत्तर प्रदेश में अम्बेडकरी आंदोलन की पृष्ठभूमि बहुत पुरानी और सशक्त थी।

1990 के बाद के नए युवाओं के लिए अम्बेडकरी मिशन का मतलब बसपा हो गया और नतीजा यह हुआ कि अधिकांश कार्यकर्ताओं को बाबा साहब के आंदोलनों और अम्बेडकरी आंदोलनकारियों के विषय मे अधिक जानकारी नहीं है। वे बामसेफ को ही अम्बेडकरी आंदोलन का जनक मानते हैं, जो गलत है। सच्चाई ये है कि अम्बेडकरी आंदोलन के शुरुआती दौर मे कोई बामसेफ कहीं था ही नहीं। दुर्भाग्य ये है कि दलित पैंथर और अन्य आंदोलनों को भी समझने के प्रयास नहीं हुए, क्योंकि बसपा के लिए अन्य आंदोलनों का महत्व नहीं था और अधिकांश समय पार्टी के काडरों को ये ही समझाया गया कि महाराष्ट्र के लोगों ने और आरपीआई ने तो बाबा साहब की मूवमेंट को बेच दिया। वह इसलिए कि आरपीआई के नेता दादा साहब गायकवाड़ ने कांग्रेस के साथ राजनैतिक गठबंधन की बात की थी। उस समय भी बाली जैसे लोग मजबूत थे और उन्होंने हमेशा कांग्रेस के साथ समझौते का विरोध किया। आज के दौर में बाली साहब बहुत साफ थे कि सभी पार्टियों को हिंदुत्व का जम कर विरोध करना पड़ेगा और इसमें वह वामपंथियों के साथ जाने को तैयार थे। पिछले वर्ष जब मैं इंग्लैंड से आए हमारे मित्र देविंदर चंदेर के साथ उनके घर गया तो उस समय उन्होंने बताया कि पंजाब में दलितों की लड़ाई हिंदुओं से अधिक सिखों से है और उस लड़ाई के चलते ही अधिकांश दलित अलग-अलग ‘डेरों’ में चले गए। अम्बेडकरवादी आंदोलन पर उसका असर देखने को मिला।

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बाली साहब जीवनपर्यंत लोगों को अम्बेडकरवाद से रूबरू करवाते रहे। बढ़ती उम्र के आवजूद भी अंत तक वे बहुत सक्रिय रहे और विभिन्न कार्यक्रमों मे शिरकत करते रहे। उनसे मिलने पर बाबा साहब के विषय में सुनने की इच्छा होती थी। उनके पास बाबा साहब की लिखी पुस्तकों के पुराने संस्करण थे, जो शायद किसी दूसरे के पास नहीं मिलेंगे। बाबा साहब का साहित्य मानों उन्हें कंठस्थ याद था। बाबा साहब के साथ बिताए पलों और उनके साहित्य को वह क्रमबद्ध तरीके से सुनाते थे। असल मे उनकी जिंदगी बाबा साहब अंबेडकर की पूरी विचारधारा पर आधारित ही थी, इसलिए उन्होंने उसे इसी प्रकार से जिया और आगे बढ़े।

बाली साहब आज के दौर मे सबसे पुराने अम्बेडकरवादी थे। उन्होंने रिपब्लिकन पार्टी की राजनीति भी की, इसलिए हो सकता है कि बहुत से लोग उनके कुछ एक विचारों से सहमत न हों। लेकिन क्या अंबेडकर विचारों को समर्पित जब बाबा साहब का नाम लेकर बनने वाली पार्टियों की संख्या बढ़ रही है, हम उनकी आलोचना नहीं कर सकते। यदि कोई अम्बेडकरवादी आपका आलोचक बनता है, तो हमें उसकी निंदा करने की बजाए ये सोचना होगा कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है। आलोचना को अलग ढंग से देखना होगा। एक वो लोग हैं जो चाहते हैं कि अम्बेडकारियों का कोई स्वतंत्र अस्तित्व ही न रहे और दूसरे वो जो आलोचना इसलिए करते हैं कि स्थितियों मे सुधार हो।

पुस्तक भेंट करते हुए विदयाभूषण रावत

आज बाली साहब की मृत्यु के बाद भी देश की अम्बेडकरवादी पार्टियों एवं नेताओं ने उनके लिए कोई शोक और संवेदना प्रकट नहीं की। वे उनका नोटिस लेना तक नहीं चाहते। उनकी आलोचनाओ से वे इतना घबरा गए हैं कि महज एक शब्द के साथ भी अंबेडकर मिशन में दिए गए उनके योगदान को याद नहीं करना चाहते हैं।

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आश्चर्य की बात है कि बाबा साहब के नाम पर रोज सुबह शाम बड़े-बड़े दावे करने वाले लोगों को भी इतना जानने की फुरसत नहीं कि अम्बेडकरी आंदोलन आखिर 1956 के बाद से आगे कैसे बढ़ा और किन लोगों ने आंदोलन को मुश्किल हालातों  के बाद यहां तक पहुंचाया। यदि ये भी मान लें कि अम्बेडकरी आंदोलन को बहुजन समाज पार्टी ने सबसे अधिक मजबूत किया है या जन-जन तक पहुंचाया है, तो भी इतना तो सोचना पड़ेगा कि बसपा के उदय से पहले आंदोलन आखिर चला कैसे ? मान सकते हैं कि आरपीआई में कांग्रेस ने सेंध लगा दी थी और वो विफल हो गई। उसके बहुत से कारणों में से एक था बाबू जगजीवन राम जैसे कद्दावर नेता का कांग्रेस में होना। जिन्होंने सरकारी नीतियों और कार्यक्रमों मे दलितों की भागीदारी बढ़ाने में भरपूर योगदान दिया। बाबू जी के चलते दलितों का एक बहुत बड़ा वर्ग कांग्रेस के साथ रहा, लेकिन यह हकीकत है कि अम्बेडकरी कार्यकर्ता चाहे कम रहे हों, लेकिन पूरे दमखम से अपनी उपस्थिति दर्ज करवाते रहे। शायद यही वजह है कि उत्तर प्रदेश में बसपा इतनी मजबूती से आगे बढ़ी, क्योंकि अम्बेडकरी आंदोलन की एक मजबूत विरासत वहां मौजूद थी जिसे एक राजनैतिक नेतृत्व की आवश्यकता थी।

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बाली अब चले गए, लेकिन बहुत साल पहले मैंने उनसे एक सवाल पूछा था कि आपके बाद कौन? उन्होंने मुझे बताया कि भीम पत्रिका का एक ट्रस्ट है और ट्रस्ट ही उसे चलाएगा। आज अम्बेडकरी आंदोलन के अंत तक सक्रिय रहे संरक्षक लाहौरी राम बाली के योगदान को याद करना ही पड़ेगा।। समाज और आंदोलन के लिए उनके विचारों का अनुकरण करते हुए आगे बढ़ा जा सकता है। उन्होंने कई बार कहा कि राजनैतिक आंदोलन प्रोग्राम बेस्ड होते हैं, न कि जाति आधारित। इसलिए इन आंदोलन को सफलता प्राप्त करने के लिए अम्बेडकरवादियों को अपनी समान विचारधारा के लोगों के साथ न्यूनतम साझा कार्यक्रम तैयार करके आंदोलन करना होगा। उन्होंने पहले ही कहा था कि दलितों के लिए बाबा साहब का सांस्कृतिक मार्ग धम्म का रास्ता ही सबसे उपयुक्त होगा।

एलआर बालीजी की स्मृति को सादर जयभीम !!

विद्याभूषण रावत लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं।

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1 COMMENT

  1. बाली साहब को सैल्यूट. उनके संघर्षों को सलाम. बहुत अच्छा आलेख रावत जी.

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