राजा महेंद्र प्रताप के नाम से अलीगढ़ में एक नए ‘विश्वविद्यालय’ की घोषणा हो गयी है। प्रधानमंत्री जी ने कहा कि पहले के लोगों ने राजा महेंद्र प्रताप का देश के विकास में योगदान को भुला दिया है, इसलिए उनकी पार्टी पुरानी गलतियों को सुधार रही हैं। भाजपा के नेताओं ने जैसे सुभाष चन्द्रबोस, बाबा साहेब आंबेडकर और शहीद भगत सिंह को अपने राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल किया वैसे ही वह राजा महेंद्र प्रताप के जरिए जानबूझकर मुसलमानों को टारगेट करना चाहते हैं, ताकि उत्तर प्रदेश के चुनावों में महेंद्र प्रताप के जरिए हिंदू मुस्लिम ध्रुवीकरण की राजनीति की जा सके, जो उनके लिए हमेशा लाभकारी रही है। इसलिए इस प्रश्न को हलके में लेना गलत होगा और उसके तथ्यों को जनता के समक्ष रखना होगा। महत्वपूर्ण बात ये भी है कि राजा महेंद्र प्रताप ने अपनी जिंदगी में कभी भी हिंदुत्व या संघ के साथ कोई रिश्ता नहीं रखा और उनकी अपनी जिंदगी भारत की महान सांप्रदायिक एकता को मजबूत करने में लगी रही, जिसके तहत उन्होंने क्रांतिकारियों के साथ सम्बंध रखे और दुनिया के दूसरे देशों में जाकर भारत की आज़ादी के लिए लगातार प्रयास किए।
1 दिसंबर 1886 को मुरसान, हाथरस के पास राज परिवार में पैदा हुए, महेंद्र प्रताप सिंह ने अलीगढ़ के मेयो कॉलेज से शिक्षा प्राप्त की। यही मेयो कॉलेज बाद में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के रूप में बदल गया। उनके पिता और दादा के सर सैय्यद अहमद खान के साथ बहुत अच्छे सम्बन्ध थे और इसी के चलते 1929 में उन्होंने 3.04 एकड़ जमीन विश्वविद्यालय को 2 रुपये प्रतिवर्ष की लीज़ पर सौंप दी। भाजपा और संघ के लोग बहुत हंगामा कर रहे थे कि उनकी जमीन लेकर विश्वविद्यालय राजा महेंद्र प्रताप के नाम पर क्यों नहीं हुआ तो इससे अधिक बेहूदी बात कोई हो ही नहीं सकती। मेयो कॉलेज 1875 में बना था और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की स्थापना 1920 में हुई। ये बात जग जाहिर है कि मुसलमानों में आधुनिक शिक्षा लाने के लिए इसकी स्थापना हुई। जिसका यथास्थितिवादी लोगों ने विरोध भी किया। क्योंकि उन्हें लगा कि अंग्रेजी शिक्षा के चलते मुसलमानों को नुकसान होगा, इस्लाम खतरे में होगा लेकिन आज इतने वर्षों बाद सबने समझ लिया कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय ने मुस्लिम समाज में बौद्धिक चिंतन और आधुनिक शिक्षा का प्रसार किया।
[bs-quote quote=”एक बात समझ नहीं आती आखिर भाजपा के नेताओं के पास कोई और एजेंडा क्यों नहीं है। क्योंकि उनका जाट होने को ही भाजपा इस्तेमाल करना चाहती है, बाकी विचारधारा और कर्म में तो वह ब्राह्मणवादी, पुरातनपंथी, सांप्रदायिक, कर्मकांडी लोगों से कोसों दूर थे। ये बात भी किसी से छिपी नहीं होनी चाहिए कि आज़ादी के बाद 1957 में दूसरी लोकसभा के लिए राजा महेंद्र प्रताप ने जब मथुरा लोकसभा सीट से चुनाव लड़ा तो भारतीय जनसंघ के टिकट पर अटल बिहारी वाजपेयी अपना पहला चुनाव उनके खिलाफ लड़ रहे थे।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
एक बात समझ नहीं आती आखिर भाजपा के नेताओं के पास कोई और एजेंडा क्यों नहीं है। क्योंकि उनका जाट होने को ही भाजपा इस्तेमाल करना चाहती है, बाकी विचारधारा और कर्म में तो वह ब्राह्मणवादी, पुरातनपंथी, सांप्रदायिक, कर्मकांडी लोगों से कोसों दूर थे। ये बात भी किसी से छिपी नहीं होनी चाहिए कि आज़ादी के बाद 1957 में दूसरी लोकसभा के लिए राजा महेंद्र प्रताप ने जब मथुरा लोकसभा सीट से चुनाव लड़ा तो भारतीय जनसंघ के टिकट पर अटल बिहारी बाजपेयी अपना पहला चुनाव उनके खिलाफ लड़ रहे थे। इस चुनाव में राजा साहेब ने कांग्रेस के चौधरी दिगंबर सिंह को हराया। अटल जी की अपनी पहली चुनाव में बेहद शर्मनाक पराजय हुई और उनकी जमानत तक जब्त हो गयी थी।
सवाल ये है कि अगर राजा महेंद्र प्रताप से हिंदुत्व की शक्तियां इतना प्यार करती थीं तो मथुरा के चुनाव में अटल जी को खड़ा क्यों किया गया? क्योंकि ये लोग नैरेटिव बदलने में माहिर हैं, तो कहते हैं कि अटल जी ने स्वयं ही ‘महेंद्र प्रताप के जीतने के लिए वोट मांगे’। ये काम तो संघी ही कर सकते हैं कि स्वयं चुनाव लड़ते हुए ‘अपने विरोधी’ की जीत के लिए वोट मांगे। आखिर पार्टी सीधे-सीधे उन्हें समर्थन भी दे सकती थी, उन्हें अटल जी को खड़ा करने की क्या जरुरत थी ?
हकीकत ये है कि राजा महेंद्र प्रताप तो भारत की गंगा-जमुनी तहजीब के नायक थे। उन्हें भारत की विविधता का ज्ञान था। राजा महेंद्र प्रताप 1906 में कांग्रेस के अधिवेशन में भाग लेने के लिए कलकत्ता गए। भारत की आज़ादी के साथ समाज में व्याप्त छुआछूत के विरुद्ध अपनी आवाज़ उठाई, और उन्होंने न केवल दलित समाज से अपनी नज़दीकी बनाकर रखी अपितु उस दौर में खान-पान में भी भेदभाव नहीं किया और उनके घरो में जाकर खाना खाया। जब कांग्रेस के सवर्ण नेता अछूतोधार की बात तो करते थे लेकिन खाना खाने के नाम पर कोई बहाना कर देते थे और परम्पराओं को छोड़ने के लिए भी तैयार नहीं थे।
20 दिसंबर 1914 को वह भारत को आज़ाद कराने के विचार से यूरोप के लिए निकल पड़े ताकि वहां रहकर अन्य क्रांतिकारियों से मिलकर भारत की आज़ादी के विषय में योजनाएं बना सकें। राजा महेंद्र प्रताप ने प्रथम विश्वयुद्ध के बाद, 1 दिसंबर 1915 को अफगानिस्तान में रह कर भारत की एक निर्वासित सरकार बनायी, वह उसके राष्ट्रपति बने,जिसके प्रधानमंत्री उनके क्रांतिकारी साथी भोपाल के मौलाना बरकतुल्लाह थे, और उनके गृह मंत्री मौलाना उम्बेदुल्लाह सिन्धी बने। जिन सवालों को हिंदुत्व की साम्प्रदायिकता अब्बा जान कहके लोगों के अन्दर डालना चाहती है, वो इतिहास के सही आकलन से झूठे दिखाई देते हैं। हर एक इस्लामिक व्यक्तित्व और संस्थान को देशद्रोही बताकर स्वयं को अंपायर की भूमिका में देखना हिंदुत्व की नई रणनीति है, ताकि स्वाधीनता आन्दोलन या किसी भी प्रकार के सुधार आन्दोलनों में उनकी नगण्य भूमिका के विषय में कोई कुछ न कहे। अलीगढ़ से देवबंद तक उनके निशाने पर हैं। क्योंकि वह मुसलमानों को शिक्षा दे रहे हैं। जहां तक राजा महेंद्र प्रताप का प्रश्न है, देवबंद के साथ उनके सम्बंध थे और यहां के पहले छात्र मौलाना महमूद अल हसन 1915 में बनी निर्वासित सरकार के सदस्य थे। भारत की आज़ादी के लिए वह दुनिया भर में प्रमुख लोगों से मिल कर अपना नेटवर्क बना रहे थे। 1925 में उन्होंने तिब्बत जाकर दलाई लामा से मुलाक़ात की। राजा महेंद्र प्रताप ने रूस जाकर लेनिन से भी बात की और 1 अगस्त 1946 को भारत वापसी पर वर्धा में गाँधी जी से भी भेंट की। 1932 में उनका नाम नोबेल शांति पुरूस्कार के लिए प्रस्तावित किया गया। निर्वासन न रहते हुए भी अफगानिस्तान के राजा अमानुल्लाह ने उन्हें अपना राजदूत बनाया और चीन, जापान, तिब्बत, जर्मनी, टर्की आदि देशों में भेजा। राजा महेंद्र प्रताप जानते थे कि देश की आज़ादी के लिए उन्हें विभिन्न देशों और समाजों के बौद्धिक लोगों की जरूरत पड़ेगी। इसलिए वह हर उस व्यक्ति से बात करना चाहते थे जो भारत की आज़ादी के लिए अपना योगदान दे सकता था।
राजा महेंद्र प्रताप का व्यक्तित्व बहुत बड़ा है और उनके विचारों और कार्यों पर शोध होना चाहिए। लेकिन उनके नाम का इस्तेमाल करके अलीगढ़ में विश्वविद्यालय बनाकर क्या होगा? जहां पहले ही इतना बड़ा विश्वविद्यालय है, जिसमें हजारों छात्र एडमिशन लेते हैं और वो केवल मुसलमान ही नहीं होते अपितु हर मज़हब से आते हैं। उनके गांव के लोग कह रहे हैं कि अगर भाजपा वाकई में उनको याद कर रही है, तो उनके गांव में उनका मेमोरियल बनाती, विश्वविद्यालय अलीगढ़ न बनाकर उनके गांव में बनाती। और यदि गांव से भी समस्या है तो हाथरस में बनाती, जिसके अंतर्गत वो गांव आता है।
[bs-quote quote=”आज पश्चिम उत्तर प्रदेश के किसानों ने भारत के किसान आन्दोलन को बेहद मज़बूत स्थिति में लाया है। लेकिन 9 महीनों के संघर्ष के बाद भी सरकार का रवैया किसानों के प्रति घोर नकारात्मक है। एक श्रोत के अनुसार 10 जुलाई 2021 तक 537 किसान अपनी जान गंवा चुके थे। लेकिन सरकार और उसकी मीडिया लगातार इन किसानों को देशद्रोही और विरोधी कहती रही। उत्तर प्रदेश के चुनाव में पश्चिम उत्तर प्रदेश की जाट बेल्ट बड़ी निर्णायक भूमिका में रहेगी।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
आज पश्चिम उत्तर प्रदेश के किसानों ने भारत के किसान आन्दोलन को बेहद मज़बूत स्थिति में लाया है। लेकिन 9 महीनों के संघर्ष के बाद भी सरकार का रवैया किसानों के प्रति घोर नकारात्मक है। एक स्रोत के अनुसार 10 जुलाई 2021 तक 537 किसान अपनी जान गंवा चुके थे। लेकिन सरकार और उसकी मीडिया लगातार इन किसानों को देशद्रोही और विरोधी कहती रही। उत्तर प्रदेश के चुनाव में पश्चिम उत्तर प्रदेश की जाट बेल्ट बड़ी निर्णायक भूमिका में रहेगी। क्योंकि मुजफ्फरनगर के दंगों के बाद भाजपा इस क्षेत्र में बेहद सशक्त तौर पर उभरी थी, लेकिन किसान आन्दोलन में किसानों ने अपनी पुरानी गलती को समझा और पुनः सांप्रदायिक सौहार्द को बनाया जिसके कारण से विभाजनकारी शक्तियां अभी यहां कुछ ‘ख़ास’ नहीं कर पायी हैं। राजा महेंद्र प्रताप हो या सर छोटू राम या फिर चौधरी चरण सिंह, इस क्षेत्र में इनके कार्यों का बेहद असर भी है और सम्मान भी। इन तीनों को सांप्रदायिक शक्तियां केवल जाति का नाम देकर अपने पाले में नहीं कर सकतीं। क्योंकि तीनों का दृष्टिकोण पुरातनपंथी और जातिवादी परम्पराओं से हट कर था और तीनों ने किसानों के प्रश्नों को सर्वोपरि माना। एक ऐसी सरकार जो पुरोहितवाद का सहारा लेकर पूंजीवाद को मज़बूत कर रही है, किसानों की महान विरासत को नहीं समझ पाएगी। पूरे क्षेत्र का किसान आज राजनैतिक तौर पर समझ चुका है कि आज राजा महेंद्र प्रताप की याद क्यों आ रही है, जबकि उनके किसान वंशजो से सरकार बात करने को तैयार नहीं।
अंत में एक बात और, भाजपा नेताओं ने प्रचार किया था कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का नाम राजा महेंद्र प्रताप के नाम पर होना चाहिए था, क्योंकि उन्होंने इसके लिए जमीन दी थी। अब तो बात साफ़ हो चुकी है, कितनी ज़मीन थी और कहां पर थी। अपने जीते जी राजा महेंद्र प्रताप सिंह ने कभी ये प्रश्न नहीं उठाए और ना ही उनके लोगों ने ऐसी कोई बात कही। भाजपा आज कह रही है कि वह नेहरू परिवार को छोड़ कर बाकी देशभक्तों को इतिहास में जगह दिलाना चाहती है। ऐसे बहुत से नाम है जिन्हें वह भारतरत्न दे सकती है, और राजा महेंद्र प्रताप उसमें प्रमुख हैं। जहां तक विश्वविद्यालयों की बात है, अलीगढ़ से पहले जिस विश्वविद्यालय की स्थापना हुई उसे बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय कहते हैं। जिसकी स्थापना 1916 में मदन मोहन मालवीय, दरभंगा के महाराजा रामाश्रय सिंह और काशी नरेश प्रभु नारायण सिंह ने की थी। काशी नरेश ने इसमें 1300 एकड़ जमीन दान की थी। राज परिवार के ही महाराजा आदित्य नारायण सिंह ने 2700 एकड़ जमीन दान की। प्रश्न ये उठता है कि क्या बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय का नाम काशी नरेश के नाम पर नहीं होना चाहिए ? आखिर इतनी बड़ी भूमि का आवंटन यदि वह नहीं करते तो क्या विश्वविद्यालय बनता ? क्या किसी बड़े ‘हिन्दू’ नेता ने ऐसी बात कही ?
मतलब साफ़ है के आज के दौर में संघ की नजरो में आपको महान बनने के लिए ये जरूरी है कि आपकी पहचान से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण कितना हो सकता है। यदि नहीं तो आपका कोई मतलब नहीं। वैसे भाजपा राजा महेंद्र प्रताप को केवल मूर्तियों में सिमटा कर रखना चाहेगी क्योंकि वैचारिक तौर पर उन्हें आगे बढ़ाने का मतलब देश के विकास में मुसलमानों की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका को स्वीकार करना और उन्हें साथ लेकर ही देश के विकास का मतलब समझना होगा। जिसके लिए आज की भाजपा किसी भी कीमत पर तैयार नहीं है लेकिन देश के लोग समझ रहे हैं और वे अपनी ऐतिहासिक विरासत को सांप्रदायिक होने से जरूर बचाऐंगे। राजा महेंद्र प्रताप के जरिए जाट समुदाय में अपनी दोबारा एंट्री का भाजपा का प्रयास कितना सफल होगा ये तो उत्तर प्रदेश के चुनाव ही बता पाएंगे। लेकिन फिर भी लम्बे समय में राजा महेंद्र प्रताप की विचारधारा देश में गंगा जमुनी तहज़ीब और किसानों के शक्ति को ही मजबूती प्रदान करेगी और उनके साम्प्रदायीकरण का प्रोजेक्ट ज्यादा चल नहीं पायेगा।
विद्याभूषण रावत प्रखर सामाजिक चिंतक और कार्यकर्ता हैं। उन्होंने भारत के सबसे वंचित और बहिष्कृत सामाजिक समूहों के मानवीय और संवैधानिक अधिकारों पर अनवरत काम किया है।
महत्त्वपूर्ण सवाल उठाए गये हैं इस लेख में। विचारणीय।