पचास साल से पान की खेती कर रहे मिथलेश चौरसिया अब पान की खेती छोड़ना चाहते हैं। मार्च-अप्रैल 2020 में जब लॉकडाउन लगा तब उनकी करीब चार-पांच लाख रुपए की पान की फसल खेत में रखी-रखी नष्ट हो गई। उस वक्त से पान की खपत में आई गिरावट आज तक पटरी पर नहीं आई है। बिक्री में मंदी से वह पान की खेती का रकबा एक से घटाकर आधा एकड़ करने पर मजबूर हो गए हैं।
देश के विभिन्न पान उत्पादक हिस्सों में मध्यप्रदेश का एक अहम स्थान है। प्रदेश के कई जिलों नरसिंहपुर, कटनी, सागर, टीकमगढ़, छतरपुर, पन्ना, सतना, रीवा नर्मदापुरम, नीमच, मंदसौर आदि जिलों में पान की खेती होती है लेकिन अब यह खेती बुरे वक्त से गुजर रही है। वैसे यह बुरा वक्त लॉकडाउन मार्च-अप्रैल 2020 से जो शुरू हुआ तो अब भी कायम है।
तब से पान की बिक्री में आई मंदी से पान किसान अब भी नहीं उबर पाए हैं। इसी कारण से पिछले चार-पांच वर्षों में पान की खेती का रकबा 50-55 हजार हेक्टेयर से घटकर एक चौथाई ही बचा है। यही हाल रहा तो आने वाले दो-चार वर्ष में ही बचा-खुचा रकबा भी काफी सिमट जाएगा।
हमने माध्यमिक कक्षाओं की भूगोल, सामाजिक विज्ञान की किताब में यह पढ़ा है कि कृषि को मानसून का जुआ कहते हैं। अधिकतर परीक्षा में आते इस तरह के सवाल का जवाब भी बखूबी दिया। खेत-बाड़ी को लेकर हमारे बूढ़े बुजुर्ग भी कहते आए हैं कि देश की खेती-किसानी उस अपंग की तरह है जो दो बैसाखियों पर टिकी है। इसकी एक बैसाखी है, मौसम तो दूसरी बाजार। कोई एक बैसाखी भी थोड़ी भी गड़बड़ हुई तो किसान साल भर लड़खड़ाता है। पान की खेती का भी यही हाल है।
इसकी दोनों बैसाखी पिछले कुछ वर्षों में गड़बड़ हो गई है जिससे लड़खड़ाते किसान अब इस खेती-बाड़ी को छोड़ने को मजबूर हो रहे हैं।
युवा किसान सचिन चौरसिया बताते हैं, ‘पान की बिक्री कोरोना से इतनी कमजोर हो गई है कि 2-3 साल में ही इसकी खेती छोड़ने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है। पान उत्पादक किसानों के लिए बिगड़े मौसम और ठप हुए बाजार ने उनके व्यवसाय की कमर तोड़ दी है। पहले इस खेती से अच्छी आमदनी होती थी पच्चीसों मजदूर इसमें लगे रहते थे उनका जीवन यापन भी होता था लेकिन कोरोना के बाद से यह सब बंद हो गया। कोरोना के वक्त तो कई परिवारों के चूल्हे नहीं जले।’
जलवायु परिवर्तन से पिछले दो-तीन सालों में तो मौसम किसानों का बिल्कुल भी साथ नहीं दे रहा है। साल भर हर महीने किसी न किसी तारीख में मौसम विभाग या हर जिले के भू-अभिलेख कार्यालय ने बारिश दर्ज की है। बेमौसम बारिश, आंधी-तूफान और ओलावृष्टि किसानों के लिए फजीहत का कारण हैं।
हाल ही में 8 अप्रैल 2024 को नरसिंहपुर जिले में तेज बारिश और कई स्थानों पर हुई ओलावृष्टि, तेज हवाओं ने किसानों को तंग कर दिया। कट कर रखी हुई फसल पानी में भीग गई। इसी आंधी तूफान में ग्राम निवारी पान के एक किसान शिवनारायण (65) का पान बरेजा गिर कर चौपट हो गया।
शिवनारायण की मजबूरी है कि अब उनके पास पैसे नहीं हैं कि वह बांस-बल्ली, रस्सी, ग्रीन नेट आदि फिर खरीदें और बरेजे को खड़ा कर सकें। बरेजा गिरने से उसमें दब कर पान की फसल भी नष्ट हो गई।
8 अप्रैल से 15 तारीख गुजर गई उनका टूटा बरेजा जस का तस पड़ा रहा। दोपहर बाद वह खेत पर आते और टूटी, गिरी हुई लकड़ियों को निकाल कर उन्हें जमाने का काम करते। लगभग एक सप्ताह गुजर जाने के बाद भी आंधी से गिरे बरेजे को वह उठा नहीं सके।
शिवनारायण कहते हैं कि उनके दोनों बच्चे मजदूरी करने नरसिंहपुर जाते हैं इसलिए उन्हें समय नहीं मिलता। अगर वह इसमें लगेंगे तो मजदूरी नहीं मिलेगी तो घर परिवार कैसे चलेगा?
नरसिंहपुर जिले में पान की खेती से गांवो की पहचान
नरसिंहपुर जिले में पान की खेती ग्राम निवारी, पीपरपानी, बारहाबड़ा आदि गांवो में होती है। यह गांव पान की खेती के लिए ही जाने जाते हैं। शायद इसलिए ग्राम निवारी का पूरा नाम निवारी पान है। नरसिंहपुर जिले के ग्राम निवारी की आबादी करीब 40,00 है। इसमें 100 परिवार ऐसे हैं जिनके जीवन यापन का साधन पान की खेती पर परंपरागत रूप से निर्भर है। सामान्य रूप से यह परिवार छोटे रकबे वाले यानी लघु सीमांत किसान हैं।
जिनके पास औसतन ढाई, तीन से चार एकड़ खेती ही है। इसमें से कई किसान अब कहीं एक एकड़ (0.50 हेक्टेयर से कम) तो कहीं पौन या आधे एकड़ में ही पान की खेती कर रहे हैं। यही हाल ग्राम पीपरपानी और बारहाबड़ा के किसानों का है। इन गांवों में भी शिवनारायण, सचिन या मिथलेश जैसे किसान मुश्किल झेल रहे हैं।
ग्राम बारहाबड़ा के एक किसान सरल सोनी कहते हैं कि अप्रैल के पहले मार्च में बारिश और तेज हवाओं, ओलों से उनकी फसल तबाह हो गई। इसके पहले जनवरी के दूसरे पखवाड़े में जबरदस्त ठंड से उनके पान के पत्ते तुषार, पाले से ग्रस्त हो गए, झुलस गए। उनके खेत के एक हिस्से में लगी मसूर भी शत प्रतिशत नष्ट हो गई। लेकिन सर्वेक्षण के लिए कोई नहीं आया।
ग्राम निवारी के किसान मिथिलेश चौरसिया कहते हैं, ‘मौसम के साथ-साथ बाजार भी उनके अनुकूल नहीं रहा। कोरोना के वक्त लॉकडाउन में प्रतिबंध के कारण पान की बिक्री बंद तो हो गई लेकिन चोरी-छुपे गुटके पाउच बिकते रहे। 20-20 रुपए के गुटके 50 और 100 रु तक में बिके। धीरे-धीरे लोग गुटके पाउच की लत के शिकार हो गए। तब से पान खाने के शौकीनों की संख्या कम होती गई जिससे कई पान के ठेले बंद हो गए। पान की खपत कम होने से व्यवसाय पूरी तरह प्रभावित हो गया।’
मिथिलेश बताते हैं कि कोरोना के पहले से उनके खेत के पान नरसिंहपुर जिले के स्थानीय बाजार की पूर्ति तो करते ही थे सागर, इटारसी, पिपरिया जबलपुर भी जाते थे। पान की खूब मांग रहती थी। यहां देसी किस्म का बंगला पान अच्छा होता है। लेकिन कोरोना के बाद से गुटका पाउच का व्यवसाय करोड़ों का और पान का व्यवसाय चंद हजार रूपये का रह गया।
किसान मिथिलेश के अनुसार कटनी, सतना, पन्ना आदि क्षेत्र के पान उत्तर प्रदेश की तरफ और नीमच, मंदसौर जिले के पान महाराष्ट्र के बाजार में जाते थे लेकिन अब कोरोना के बाद से यह खपत घटकर 15 से 20 फीसदी ही रह गई है इसलिए अब बहुत से किसान पान की खेती को राम-राम करना चाहते हैं।
ग्राम निवारी के एक अन्य किसान मोतीलाल चौरसिया कहते हैं कि पान की खेती बाजार और मौसम पर टिकी है पान सुकुमार, नाजुक फसल है जिसे बच्चे की तरह सहेजने की जरूरत पड़ती है। यह फसल ना तो ज्यादा गर्मी बर्दाश्त कर पाती और ना ही ठंड। बेमौसम बारिश और आंधी तो इसके दुश्मन ही हैं परंतु मौसम में आ रहे बदलाव का असर उनकी खेती-बाड़ी पर है।
पान की खेती में लागत बढ़ने, बिक्री कम होने और कई मुश्किल आने से नई पीढ़ी का रुझान इस खेती पर नहीं है। पान की खेती के लिए एक नियंत्रित तापमान की जरूरत होती है। जिसके लिए किसान बरेजे बनाते हैं।
कृषि विज्ञान केंद्र नरसिंहपुर के वैज्ञानिक डॉ. एसआर शर्मा (पादप संरक्षण विशेषज्ञ) कहते हैं, ‘पान की खेती के लिए जो बरेजे बनते हैं, उससे तापक्रम माइक्रो क्लाइमेट कर 25 से 30 डिग्री सेल्सियस रखना पड़ता है। ठंड में तापमान 20 डिग्री सेल्सियस से कम होने लगता है तो पत्तियां झुलसने लगती हैं। पत्तियों में सिकुड़न और कालापन आने लगता है। नमी भी निश्चित रखना पड़ता है अन्यथा पान की बेल की जड़ें सड़ने लगती हैं। डॉ. शर्मा के अनुसार पान ज्यादा कीटनाशक भी बर्दाश्त नहीं कर पाता।
बरेजे के लिए बांस-बल्ली, रस्सी, ग्रीन नेट, घास फूस की जरूरत पड़ती है। पान की बेल को संभालने के लिए लंबी-लंबी लकड़ियों का सहारा देना पड़ता है। इसका बंदोबस्त करना भी अब ऐसे किसानों के लिए टेढ़ी खीर ही है। वन विभाग के डिपो में अक्सर बांस मिलते नहीं। विशेष तौर पर मार्च, अप्रैल और जुलाई के वक्त जब फसल लगाई जाती है तब डिपो में वह नदारत रहते हैं। ऐसे में किसानों को आसपास के जंगलों या दूरदराज के डिपो से या फिर कभी-कभार सूपा, टोकनी बनाने वाले वंशकारों या अन्य किसानों से ज्यादा दाम देकर खरीदने पड़ते हैं। स्पष्ट है जब ज्यादा दाम देना पड़ेंगे एवम ज्यादा खर्च ढुलाई का होगा तो किसानों की लागत बढ़ेगी।
एक और किसान ताराचंद चौरसिया कहते हैं, ‘बांस-बल्ली का जुगाड़ करना कठिन हो जाता है। डिपो में उस वक्त मिलते हैं जब उनकी जरूरत खत्म हो जाती है। ताराचंद बताते हैं कि ग्रीन नेट और रस्सी के दाम भी पिछले दो सालों में 30 से 35 फ़ीसदी बढ़े हैं। इसलिए लागत बढ़ रही है खपत कम होने से अब खेती में कोई फायदा नहीं है।’
निवारी, पीपरवानी और बारहाबड़ा गांव में पान की खेती प्रायः किसान परंपरागत तौर पर कर रहे हैं। उन्हें विरासत में मिली है। जैसा कि पीपरपानी के गोविंद पसारी कहते हैं कि इस फसल से अब कोई फायदा नहीं है लेकिन बाप-दादा करते आ रहे हैं इसलिए आगे बढ़ा रहे हैं लेकिन यह कब तक? आने वाली पीढ़ी तो देर सबेर इससे किनारा करेगी ही।
विरासत में मिली पान की खेती को 20 साल से संभाल रहे माखन चौरसिया (58) कहते हैं कि पान बिक्री बची नहीं , इसलिए कोरोना के बाद से एक एकड़ में होने वाली खेती को आधा एकड़ में कर दिया है। अब बच्चे कहते हैं कि इसे बंद कर दो, दूसरी फसल लगाओ। जिसमें फायदा हो।’
यहां के किसान पान के बरेजों में परबल और कुंदरू की बेल भी लगाते हैं ताकि पूरक तौर पर वह आमदनी का कुछ जरिया बने। दोनों सब्जी फलों के दाम बाजार में अच्छे मिलते जरूर हैं लेकिन यह बेल भी पान की तरह ही नाजुक होती है जिससे उपज कम होती है।
बीमा योजना में शामिल नहीं पान की खेती
पान की खेती को प्रधानमंत्री बीमा योजना का लाभ नहीं मिल पाता। चूंकि यह फसल हॉर्टिकल्चर यानी उद्यानिकी के तहत है इसलिए इसे आरबीसी 6-4 के तहत ही लाभ मिल पाता है लेकिन अधिकांश किसान इसके प्रावधानों के कई मानकों की वजह से राहत से वंचित हो जाते हैं। जैसा कि मिथलेश आपबीती बताते हैं कि तुषार पाले से क्षतिग्रस्त हुई फसल के आकलन के लिए पटवारी मैडम आईं लेकिन वह मौके पर नहीं मिल पाए तो उन्होंने कागज में ज्यादा नुकसान नहीं बताया, 50-60 फीसदी नुकसान लिखा और चली गईं जबकि फसल पूरी तरह प्रभावित हुई। इससे क्षतिग्रस्त प्रभावित फसल का एक पैसा भी नहीं मिल पाया।
मध्य प्रदेश पान उत्पादक संघ के प्रदेश अध्यक्ष बसंत चौरसिया कहते हैं, ‘उद्यानिकी की फसल को आरबीसी 6-4 के तहत ही राहत मिलने की प्रावधान है। मौसम की मार और पान की बिक्री में आई कमी की वजह से अब इसकी खेती प्रदेश भर में घट गई है। पहले 50-55 हजार किसान यह खेती करते थे जिनकी संख्या अब घटकर सिर्फ 12 से 15 हज़ार रह गई है। अगर हाल यही रहा तो आने वाले समय में यह खेती भी बंद हो जाएगी।’
प्रदेश अध्यक्ष बसंत चौरसिया आगे कहते हैं, ‘पान की खेती को संरक्षण की जरूरत है। राज्य सरकार कुछ इस तरह की ठोस नीति बनाए कि किसान प्रोत्साहित होकर इस तरह की खेती-बाड़ी से जुड़े रहें अन्यथा वह दिन अब दूर नहीं कि दो-चार साल में पान की खेती पूरी तरह बंद करने की नौबत आ जाए। कोरोना के बाद से पान किसान गंभीर आर्थिक संकट में हैं। वह टूटे हुए हैं। प्रदेश भर में पान किसानों की स्थिति गंभीर है। इसलिए सरकार को पान की खेती और उसकी कई किस्म को बचाने के लिए जल्दी निर्णय लेना होगा।’
भारतीय परंपरा में पान का महत्व
भारतीय परम्पराएं बहुत गहरी हैं। इन परंपराओं में श्रृंगार का काफी महत्व है, हर तरह के श्रृंगार में एक श्रृंगार होठों का भी है जिसे अधर श्रृंगार कहते हैं। यह श्रृंगार पान से होता है।
पान खाने के अपने फायदे हैं, कहते हैं कि इसके सेवन से शरीर में कैल्शियम की कमी पूरी हो जाती है। धार्मिक कार्यों, पूजा-पाठ में भी पान का उपयोग होता है। इसे कहीं पान तो कहीं बीड़ा, तो कहीं तांबूल कहते हैं।
पान की दुकान जो कभी हर गली मोहल्ले में हुआ करती थीं और शहर की कुछ दुकानें जो अपने पान के लिए मशहूर हुआ करतीं थी, अब इनमें से ज्यादातर नहीं बची हैं। लिहाज़ा पान की मांग कम हुई और इसके साथ खेती भी सिकुड़ती जा रही है। वहीं बची-खुची उम्मीद को बेमौसम बारिश और जलवायु परिवर्तन ख़त्म करता ज रहा है।
जिस पान की खेती को सरकार की ओर से विशेष प्रोत्साहन मिलना चाहिए उसे लेकर सरकार की ओर से न कोई ठोस कदम उठाया जा रह है और न ही उस दिशा में कोई चिन्तन ही हो रहा है। ऐसे में पान का उत्पादन करने वाले किसान दो तरफ़ा मार झेलते हुए खेती करने को मजबूर हैं। अहम सवाल यह है कि आखिर कबतक मजबूर किसान पान की खेती करते रह सकते हैं?