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भागलपुर से बहराइच तक : दंगों की राजनीति में आरएसएस पिछड़ी जाति के लोगों को कमान सौंपता है

वर्ष 1947  में भारत-पाक विभाजन के बाद से देश में मुसलमानों को लेकर हिंदूवादी संगठनों ने लगातार कट्टरता दिखाई। जब-जब मौक़ा मिला, तब-तब निशाना बनाया। इन दंगों को कराने में साम्प्रदायिक नेताओं, प्रशासन और सोशल मीडिया की अहम् भूमिका  होती है। ध्रुवीकरण की राजनीति को साधने के लिए धार्मिक दंगे कराये जाते रहे हैं और आगे कब तक जारी रहेंगे कह नहीं सकते। खैरलांजी से लेकर भागलपुर, गुजरात तक के दंगों में, प्रत्यक्ष भागीदारी ज्यादातर पिछड़ी जातियों के लोगों की रही है। जब तक जाति उन्मूलन के लिए काम करने वाले लोग इस पर संज्ञान नहीं लेंगे, दंगों की परंपरा जारी रहेगी।

24 अक्टूबर 1989 को भागलपुर में हुए दंगे को आज 35 साल पूरे हो गए। इसके तेरह साल बाद गुजरात में दंगे हुए। हाल ही में उत्तर प्रदेश के बहराइच में दुर्गा पूजा विसर्जन के अवसर पर दंगा किया गया।

 इन 35 सालों में दंगे करने और करवाने के तरीके में बहुत फर्क आ गया है, पहले दंगे चंद लोगों द्वारा चंद गलियों और मोहल्लों में किए जाते थे। अब हजारों लोग दंगे में शामिल होते हैं।  पारंपरिक हथियारों से अल्पसंख्यक समुदायों पर हमला कर, लूटपाट और हत्या कर रहे हैं।

भागलपुर दंगों से पहले भी दंगे हुए हैं। लेकिन ज़्यादातर दंगे चंद गलियों और मोहल्लों तक ही सीमित रहे। भागलपुर दंगों में लगभग पूरा भागलपुर कमिश्नरी क्षेत्र शामिल था। पड़ोसी मुंगेर, गोड्डा, बांका, साहेबगंज, दुमका भी शामिल थे। उसके बाद लगातार बाबरी मस्जिद-रामजन्मभूमि विवाद को बढ़ावा दिया गया। पूरे देश में सुनियोजित तरीके से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण पैदा करना। दिल्ली की गद्दी तक पहुँचने में भाजपा के सफल होने का कारण सिर्फ़ और सिर्फ़ सांप्रदायिक ध्रुवीकरण ही है।

 केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह द्वारा तथाकथित हिन्दू जागरण यात्रा मातृभूमि की रक्षा के नाम पर भागलपुर से शुरू की गई, यह यात्रा भी उसी सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का प्रयास था। क्या मौजूदा सत्ताधारी पार्टी के शीर्ष नेतृत्व और भारत के संविधान की शपथ लेकर मंत्री बने गिरिराज सिंह को नहीं पता कि संवैधानिक पद पर रहते हुए वे ऐसी यात्रा कैसे निकाल सकते हैं?अभी कोई भारत जोड़ो तो कोई नफरत छोड़ो अभियान में व्यस्त है। लेकिन इन तीस-पैंतीस सालों में सांप्रदायिकता का ज़हर पूरे देश में फैल चुका है। सिर्फ़ सांकेतिक अभियान चलाने से रगों में फैला ज़हर कम नहीं होगा। काश! यही पहल तीस साल पहले की गई होती तो शायद आज ये नौबत नहीं आती।

यूपीए के दस साल के कार्यकाल में पार्टी के सत्ता में आने के बावजूद  गुजरात दंगों के बाद नरेंद्र मोदी के खिलाफ़ कार्रवाई करना तो दूर, उल्टे उन्हें सर्वश्रेष्ठ मुख्यमंत्री के लिए राजीव गांधी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।  हम भी कम नहीं कि राहुल गांधी की दौड़ में जनेऊ पहनकर मंदिर-मंदिर घूमने की निरर्थक कोशिशों ने जो कुछ बचा-खुचा समर्थन था, उसे भी खोने की गलती कर दी है।  1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद, राजधानी दिल्ली में सिखों के खिलाफ दंगे करवाने का अपराध भी कांग्रेस के नाम दर्ज है।

इससे पहले 1985-86 में  शाहबानो के फ़ेवर में सर्वोच्च न्यायालय ने दिए हुए फैसले को राजीव गांधी ने संसद में बदलने की गलती करने के बाद ही  लालकृष्ण आडवाणी ने बाबरी मस्जिद की जगह राममंदिर के आंदोलन की शुरुआत करते हुए रथयात्राएं शुरू की और सवाल आस्था का है कानून का नहीं, इस नारे के इर्द-गिर्द अपने प्रचार करने की शुरुआत की।

लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी रथ यात्रा की राजनीति की शुरुआत 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद के विध्वंस से की थी और उससे तीन साल पहले 24 अक्टूबर 1989 को भागलपुर में शिला पूजा जुलूस के दौरान शुरू दंगे हुए, यह सिर्फ भागलपुर शहर तक सीमित नहीं रहा, यह लगभग सभी पड़ोसी जिलों बांका, मुंगेर, गोड्डा, साहेबगंज, दुमका यानी लगभग पूरे भागलपुर कमिश्नरी तक फैल गया। जिसका एकमात्र कारण संघ द्वारा फैलाई गई अफवाहें थीं। पहली अफ़वाह भागलपुर महिला कॉलेज की 400 छात्राओं के साथ बलात्कार। दूसरी अफ़वाह भागलपुर विश्वविद्यालय की 400 छात्राओं की हत्या की खबर थी जो विभिन्न निजी छात्रावासों में रह रही थीं (ज्यादातर मुसलमानों के घरों में क्योंकि विश्वविद्यालय क्षेत्र मुस्लिम बस्ती में आता है!)। मोटरसाइकिल पर हीरो होंडा सवारों को आस-पास के गाँवों में भेजकर, अफ़वाह फैलानेका काम सौंपा गया। लेकिन एक भी अफ़वाह सच नहीं पाई गई क्योंकि जिन लोगों के बच्चे भागलपुर में पढ़ रहे थे, उन्हें कोई और खबर नहीं मिल रही थी। इसलिए सुनी-सुनाई बातों पर यकीन करके हज़ारों लोगों ने पारंपरिक हथियार उठा लिए और मुसलमानों के खिलाफ़ कार्रवाई करने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई। 300 से ज़्यादा गाँवों में रहने वाले मुसलमानों के घर और उनकी रेशमी कपड़ा बुनने वाली मशीनें जलाकर राख कर दिया। इस दंगे में 3000 से ज़्यादा लोग मारे गए।

आजादी के बाद से अब तक के पचहत्तर सालों में हुए लगभग सभी दंगों में ज़्यादातर दंगे ढोल बजाकर, मुस्लिम बहुल इलाकों में जबरन जुलूस निकालकर, मस्जिद में सूअर फेंककर, मंदिर में गाय का मांस फेंककर या मूर्ति को खंडित करके किए गए हैं। ज़्यादातर दंगे घटिया हथकंडे अपनाने के बाद ही हुए हैं।

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 सत्तर के दशक में महाराष्ट्र के जलगांव और भिवंडी दंगों की जांच के लिए गठित जस्टिस मदन आयोग ने अपनी रिपोर्ट में साफ लिखा है कि ‘आरएसएस के लोग दंगों में सीधे तौर पर शामिल थे या नहीं, यह अलग बात है। लेकिन आरएसएस लगातार लोगों की मानसिकता को दंगों के लिए तैयार करता है। इसी वजह से बड़ी संख्या में लोग दंगों में शामिल होते हैं और अल्पसंख्यक समुदायों पर हमला करने के लिए प्रेरित होते हैं।‘ भागलपुर दंगे इसका जीता जागता उदाहरण हैं।

भागलपुर महाभारत काल का शहर है। इसके बगल में चंपानगर पुराना भागलपुर है, और अंग प्रदेश।  यानी महान योद्धा और अपना सब कुछ दान करने वाले कर्ण के अंग प्रदेश (चंपानगर भागलपुर का उपनगर है) की राजधानी।  इसीलिए भागलपुर की स्थानीय बोली अंगिका है।

गंगा नदी के तट पर बसे इस शहर की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यहाँ से गंगा 90 डिग्री के कोण पर बंगाल की ओर मुड़ती है। यह बहुत बड़ा बेसिन है।  यहाँ डॉल्फ़िन की भरमार है। रात में डॉल्फ़िन को उछलते-कूदते देखना मंत्रमुग्ध कर देता है।

1989 में भागलपुर की आबादी लगभग ढाई से तीन लाख रही होगी। जिसमें मुसलमानों का अनुपात 29% और हिंदुओं की जनसंख्या 71% थी, जो हमारे देश का अनुपात है। तातारपुर, चंपानगर आदि मुस्लिम बहुल क्षेत्र हैं। इनका मुख्य व्यवसाय भागलपुर का प्रसिद्ध रेशम बुनना है, जो भारत से ज्यादा विदेशों में बिकता है। मशीनरी के अधिकांश मालिक हिंदू मारवाड़ी हैं। मेहनत और हुनर ​​के चलते कुछ मुसलमानों के पास भी मशीनरी होने लगी। जिन्हें दंगों में चुन-चुन कर जला दिया गया। इस कृत्य के लिए मशीनरी के हिंदुत्व मालिकों ने पर्दे के पीछे से पैसे देकर मुसलमानों पर हमला किया। उनमें से लगभग सभी संघ के समर्थक हैं। आज उसी संघ की राजनीतिक इकाई भाजपा की समर्थक है।

 गंगा नदी के किनारे बसे इस शहर के आसपास हजारों सालों से गंगा की मिट्टी से तैयार की गई जमीन पर खेती भी होती है फलों में आम, केला और कुछ हद तक लीची भी है। एक तरह से यह समृद्ध इलाका है। यहां साल भर हरियाली दिखती है। बुनकरों के धंधे में ज्यादातर मुसलमान शामिल हैं। इससे जुड़े दूसरे धंधे जैसे सूत, मशीन और मशीनरी का सामान, मरम्मत, बुने हुए कपड़े की खरीद-फरोख्त होती है। हालांकि इसमें सबसे ज्यादा भागीदारी मारवाड़ी लोगों की है, वजह है पूंजी। उनके पास निवेश के लिए काफी पैसा है। इसलिए इस धंधे में उनका दबदबा होने से ज्यादातर मालिक मारवाड़ी हैं। कुछ मुसलमान भी हैं। लगभग सभी मारवाड़ी शुरू से ही संघ परिवार के सदस्य रहे हैं। उन्हीं की वजह से संघ भागलपुर में है। कमोबेश पूरे भारत में यही चलन है। तमाम संपन्न और ऊंची जाति के लोग संघ के स्वतःस्फूर्त समर्थक हैं। क्योंकि संघ का उद्देश्य समाज को मजबूत बनाना है।

आरएसएस पिछड़ी और निचली जातियों के कंधे से बन्दूक चलाता है 

मेरे हिसाब से पिछले पचास सालों से भी ज़्यादा समय से निचली जातियों को हताशा की हवा दी जा रही है। बहुत ही चतुराई से, पिछड़ी जातियों के लोगों को शामिल करके एक मोहरा के रूप में बहुत ही योजना के साथ, संघ ने तथाकथित, दंगों, मॉबलिंचिंग और गौहत्या के नाम पर अल्पसंख्यकों पर हमला करवा रही रही है

खैरलांजी से लेकर भागलपुर, गुजरात तक, प्रत्यक्ष भागीदारी ज्यादातर पिछड़ी जातियों के लोगों की है। जब तक जाति उन्मूलन के लिए काम करने वाले लोग इस पर संज्ञान नहीं लेंगे, दंगों की परंपरा जारी रहेगी। ‘हू किल्ड करकरे’ (करकरे को किसने मारा) जैसी किताब लिखने वाले मेरे मित्र एस.एम. मुश्रीफ ने ‘मिली गजट’ नामक एक अंग्रेजी पत्रिका में लिखा था कि ‘आज भारत में केवल एक ही राजनेता है जो ब्राह्मण-उन्मुख आईबी और सीबीआई को संभालेगा।’  कमाल की बात यह है कि उस समय नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे। आज प्रधानमंत्री बनने के बाद सभी एजेन्सियाँ, सभी संवैधानिक संस्थाएँ और मीडिया किस तरह की व्यवस्था कर रहे हैं? यह आज पूरी दुनिया के सामने है। नरेन्द्र मोदी तो सिर्फ़ गैर-ब्राह्मण हैं, इतनी छोटी सी बात पर फुले, अम्बेडकर और शाहूजी महाराज का नाम लेने वालों का क्या हुआ? क्योंकि बहुजन बुद्धिजीवियों को 77 साल की उम्र में संघ की शाखा में जाने वाले व्यक्ति में उम्मीद दिख रही है। पचास साल से सार्वजनिक जीवन में रहे मेरे जैसे कार्यकर्ता के लिए यह बहुत ही आश्चर्यजनक है। और हमारे मित्रों की ऐसी भूमिका देखना बहुत ही आश्चर्यजनक है।

इसी तरह कुछ सत्यशोधक मित्रों के मुँह से नरेन्द्र मोदी और अन्य दलित और पिछड़ी जाति के नेता जो संघ के पक्ष में चले गए, उनके प्रति सम्मान, और संघ को बदलने की उनकी गलतफहमी का शिकार होते देख लगा कि सही मायनों में महात्मा ज्योतिबा फुले की विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं और ज्योतिबा के मन में भी पेशवाई के अत्याचारों को देखकर अंग्रेजों के प्रति नरमी थी इसीलिए 1857 के युद्ध में उनकी सहानुभूति ब्रिटिश सल्तनत के साथ थी। सर सैयद अहमद ने भी यही गलती की है।

आज दस साल से ज्यादा हो गए हैं अगर नरेंद्र मोदी के कार्यकाल का जायजा लें तो मेरे प्रिय मित्र मुश्रीफ की मनचाही बात सच में हमारे सामने है, जब नरेंद्र मोदी का रथ सत्ता की ओर बढ़ चुका है। ज्योतिबा फुले और डॉ. बाबा साहेब अंबेडकर को मानने वाले बहुत से लोग पिछड़ी जाति से हैं, अगर आज संघ परिवार को कोई संभाल सकता है, तो वो नरेंद्र मोदी ही हैं।  इससे यह बात स्पष्ट है कि हमारे ये मित्र खुद जातिविहीन नहीं हैं। ये लोग उन्हें सिर्फ़ इसलिए प्रगतिशील मानने लगते हैं क्योंकि वे  ब्राह्मण नहीं हैं।

आज महात्मा ज्योतिबा फुले के जाति उन्मूलन अभियान को दो सौ साल से ज्यादा हो गए हैं, तब भी उन्होंने अंग्रेजों को लेकर वही ऐतिहासिक गलती की थी। आज भी उनके अनुयायियों में वही ऐतिहासिक गलती करने की परंपरा जारी है। 35 साल से ज्यादा हो गए हैं, अपने इन सभी मित्रों से चर्चा करते हुए। उन्हें यह समझाने की कोशिश कर रहा हूँ कि गाँव की सत्ता ज्यादातर OBC समुदाय के पास है और दलितों, आदिवासियों, महिलाओं पर अत्याचार और अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ दंगों के खिलाफ सीधी कार्रवाई करने वाले ज्यादातर लोग पिछड़ी जातियों से हैं। बहराइच, खैरलांजी, झज्जर, हाथरस, वुलगढ़ी, खरदा, भीमा-कोरेगांव के तमाम दलितों पर अत्याचार करने वाले लोग कौन हैं? ब्राह्मणों की साजिश के नाम पर मध्य जातियों के जातिवाद को कब तक छिपाने की कोशिश करोगे? शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर गाड़ने से काम नहीं चलेगा। जब तक मध्य जातियों का जातिवाद जारी रहेगा, जाति उन्मूलन कभी नहीं हो सकता। मैं पिछले 35 सालों से यह चेतावनी लिख और बोल रहा हूँ। अगर सही मायनों में जाति-धर्मनिरपेक्षता और लैंगिक भेदभाव के खिलाफ लड़ाई करके ही नया समाज बनाया जा सकता है तो फिर इस जैसे सत्ता के नशे में चूर लोगों पर हम क्यों निर्भर रहें।

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बंटवारे के बाद के 75 सालों में भारत के अलग-अलग शहरों में कई दंगे हुए हैं और उसके बाद भी हो रहे हैं। लेकिन भागलपुर में हुए दंगों की तीव्रता को देखकर मुझे लगता है कि ‘इससे पहले जितने भी दंगे हुए, वे कुछ गली-मोहल्लों के दंगे थे। लेकिन भागलपुर का दंगा पहला दंगा है, जिसमें बहुत बड़ा इलाका और बहुत बड़ी संख्या में लोग मारे गए। राजनीतिक तौर पर उस समय कोई मोदी-शाह पैदा नहीं हुआ।’ उस दंगे की तीव्रता को देखते हुए मैंने पूरे देश को लिखा था कि ‘आजादी के बाद के दिनों में भागलपुर दंगों की प्रकृति को देखते हुए मुझे लगता है कि अगले 50 वर्षों तक सांप्रदायिकता भारतीय राजनीति का केंद्रबिंदु रहेगी।

हमारे रोजमर्रा के मुद्दे, जिनमें किसान, मजदूर, स्वास्थ्य, शिक्षा, आजीविका, आवास, भ्रष्टाचार, अत्याचार और अन्य सभी मुद्दे शामिल हैं, जिनमें आदिवासी, महिला, दलित और कई अन्य मुद्दे, शोषण, असमानता, महंगाई, विस्थापन, पर्यावरण, जल, जंगल और जमीन के मुद्दे शामिल हैं, को दरकिनार कर दिया जाएगा और केवल भावनात्मक मुद्दे ही हावी रहेंगे।

पूरी राजनीति मंदिर और मस्जिद के इर्द-गिर्द घूमेगी। इसलिए, अब हमारे सभी साथियों को सतर्क रहने और सांप्रदायिकता के खिलाफ मोर्चा खोलने की जरूरत है। मैंने 1990 से लगातार पूरे देश में बोलते हुए यह सब कहने की कोशिश की है। जब मैंने एनएपीएम जैसे जनांदोलनों का समन्वय करने वाले मंच पर इस मुद्दे को उठाया, तो सुरेश भागलपुरी या सांप्रदायिकता जैसे शब्दों का इस्तेमाल करके मेरे विचारों का मजाक उड़ाया गया था और आज वे नफरत छोड़ो अभियान की बात कर रहे हैं।

सबसे महत्वपूर्ण बात राष्ट्र सेवा दल की क्योंकि जहाँ मैं पचास साल से भी ज़्यादा समय से राष्ट्र सेवा दल का सिपाही रहा हूँ, मेरा मानना ​​है कि राष्ट्र सेवा दल ही भारत की एकमात्र पार्टी है जो RSS से युद्ध के मैदान में लड़ सकती है। इसीलिए मैंने (1990-91 में) प्रमिला ठाकुर की मदद से लोगों के घरों से खाना माँगकर सबौर के कृषि महाविद्यालय में 125 लड़के-लड़कियों का एक हफ़्ते का प्रशिक्षण शिविर आयोजित किया था। और इसी वजह से शंकर नामक एक पूर्णकालिक कार्यकर्ता की मदद से एक युवा कार्यकर्ता ने एक युवा कार्यकर्ता के रूप में काम किया।

​​मैं पचास साल से ज्यादा समय
से राष्ट्र सेवा दल का सिपाही रहा हूं, मेरा मानना ​​है कि राष्ट्र सेवा दल ही भारत की एकमात्र पार्टी है जो
आरएसएस से युद्ध के मैदान में लड़ सकती है। और इसीलिए मैंने (1990-91 में) लोगों के घरों से खाना मांग
कर, प्रमिला ठाकुर की मदद से सबौर के कृषि महाविद्यालय में 125 लड़के-लड़कियों का एक सप्ताह का
प्रशिक्षण शिविर लगाया था। और उसके कारण शंकर नाम के एक पूर्णकालिक कार्यकर्ता की मदद से एक दर्जन
शाखाएं शुरू हुईं। और यह पूरे दंगे की दहशत को कम करने में बहुत मददगार साबित हुआ। और बाद में 115
मोहल्ला समितियां बनाई गईं। जिसमें सभी तरह के नागरिकों को शामिल किया गया। और 6 दिसंबर 1992
को मैं खुद भागलपुर में कैंप कर रहा था। और उस समय हमारी मोहल्ला समिति का प्रयोग बहुत कारगर
साबित हुआ। और यही कारण है। भारत में कई जगहों पर दंगे हुए! लेकिन भागलपुर में एक कंकड़ भी नहीं उठा!
इसलिए राष्ट्र सेवा दल और मोहल्ला समिति का प्रयोग बहुत जरूरी है! और ये हर जगह करने की जरूरत है!

साथियों, कुछ साथी इस काम में जरूर जुटे हैं, लेकिन 140 करोड़ की आबादी वाले देश में ये बहुत अधूरा प्रयास
रहा है। इसके उलट संघ परिवार के आधिकारिक तौर पर 2 करोड़ सदस्य हैं, सवा लाख से ज्यादा शाखाएं हैं।
और उससे भी ज्यादा सरस्वती शिशु मंदिर स्कूल हैं, वनवासी सेवा आश्रम हैं। जीवन का शायद ही कोई ऐसा
क्षेत्र हो, जिसमें उनकी पकड़ न हो। इसलिए, उसकी तुलना में आज उनके खिलाफ काम करने वालों की संख्या
बहुत बिखरी हुई नजर आती है। और आज वो सत्ता में आ गए हैं। इसलिए, वक्त की नजाकत को देखते हुए मुझे
लगता है कि।

इस साल भागलपुर दंगों को 35 साल हो रहे हैं। तो मैंने ये विचार आप सबके साथ साझा किया है। और पिछले
साल दुर्गा पूजा के दौरान बांग्लादेश में कोमिला के पास, चांदपुर नाम की जगह पर 13 अक्टूबर को दंगा हुआ
था। 5 अगस्त 2024 को शेख हसीना वाजेद के तख्तापलट के बाद बांग्लादेश के हिंदुओं के साथ और इस
साल उत्तर प्रदेश के बहराइच में हुए दंगों को देखने के बाद ऐसा लगता है कि हमारे भारतीय उपमहाद्वीप में
त्योहारों के दौरान दंगे-फसाद की परंपरा जारी है। एक तरह से हमारे उपमहाद्वीप की पूरी राजनीतिक
गतिविधियां सांप्रदायिक राजनीति के इर्द-गिर्द ही घूमती नजर आती हैं।

 

डॉ. सुरेश खैरनार
डॉ. सुरेश खैरनार
लेखक चिंतक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं।

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