आखिर ये गांधी सरनेम वाले, कब तक मोदीजी के रास्ते में आते रहेंगे। पहले नेहरू सरनेम की आड़ में बेचारों को कभी इसके, तो कभी उसके पीछे दौड़ाते रहे; पीएम हो, तो ऐसा करो, वैसा मत करो। ओरिजिनल वाले सरदार पटेल की दुनिया की सबसे ऊंची मूर्ति बनाने के बाद ही बेचारों को कुछ चैन आया। फिर भी, गांधी सरनेम लेकर इंदिरा, राजीव वगैरह के नाम से, मंदिर पार्टी को लुटियन की दिल्ली से वनवास की याद दिलाते रहे। और अब जब मुश्किल से वनवास का डर खत्म हुआ है और अडानीजी का अमृतकाल चालू हुआ, तो आ गए राहुल का नाम लेकर, अमृतकाल को बेचारों का घाटा काल बनाने। और अब जब बेचारे मोदीजी जरा-सी कांट-छांटकर नये इंडिया का नया इतिहास लिखाने-पढ़ाने लगे हैं, तो पट्ठे ओरिजिनल वाले गांधी चले आए, बापू बनकर टांग अड़ाने। कहते हैं कि गोडसे ने मुझे गोली मारी तो मारी, पर इसके बाद आरएसएस पर पाबंदी लगने की बात को, बच्चों के इतिहास की किताब से तुमने क्यों कटवा दिया?
अब अपने असली नेहरू सरनेम को छुपाने के लिए, नकली गांधी बनकर आर्यावर्तियों को ठगने चलीं नेहरू की औलादें, ऐसी शिकायत करें, तो फिर भी समझ में आता है। आखिरकार, वे ही तो इस पवित्र भूमि पर ओरिजिनल परिवारवादी या वंशवादी थे। वंशवाद की उन्हीं की फैलायी गंदगी ही तो मोदीजी को आज बुहार-बुहार कर, अपनी पार्टी में जमा करनी पड़ रही है, जिससे कम-से-कम बाकी नये इंडिया को, वंशवाद की इस लानत से बचाया जा सके। अंथनी का बेटा; चल पार्टी के अंदर। राजाजी का पड़पोता; चल पार्टी के अंदर। किरण रेड्डी, चल पार्टी के अंदर। धारा-370 बनाने से लेकर, सेकुलरवाद तक, नेहरूओं की इतनी सारी गलतियां मोदीजी दुरुस्त कर रहे हैं और हजार साल पहले वाली स्वतंत्रता फिर से कायम कर रहे हैं, तो परिवारवाद से पहले वाली स्वतंत्रता लाने की यह एक्स्ट्रा मेहनत भी सही।
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आखिरकार, पहले तो हमारे यहां सब कुछ सौ टका मैरिट से चलता था। डेमोक्रेसी की मम्मी की गद्दी पर मोदीजी ने दावा ऐंवें ही थोड़े ठोक रखा है। खैर! नेहरूओं की छोड़ें, पर ओरिजिनल वाले गांधी इन नकली गांधियों के रास्ते पर क्यों चल पड़े? दावेदारी राष्ट्रपिता के पद की और चिंता सिर्फ अपनी कि बच्चों को सब बताओ कि गोडसे ने गोली मारी; कि गोडसे हिंदू अतिवादी था; कि ओरिजिनल वाले सरदार ने आरएसएस पर पाबंदी लगायी थी; वगैरह, वगैरह…! घुमा-फिराकर बात आखिर में वहीं पहुंचनी चाहिए, ओरिजिनल सरदार ने वीर सावरकर पर हत्या का मुकद्दमा चलवाया था!
ये राष्ट्रपिता वाले चलन तो किसी भी तरह नहीं हैं। इसीलिए तो, ऑरीजिनल संघ वाले कभी किसी को राष्ट्रपिता कहने के लिए राजी नहीं हुए। खैर! अब राष्ट्रपिता बन ही गए हो तो कम-से-कम राष्ट्र के बच्चों का ख्याल करो, उनके किताबों का बोझ कम कराओ। और उन्हें मर्डर, फांसी, जेल वगैरह की, बुरी यादों से बचाओ। और अगर बुरी यादों से वीरता ही जगानी हो, तो हजार साल पीछे ले जाओ, वहां हर तरह का मसाला ही मसाला है। पर इन्हें तो उसमें भी प्राब्लम है। जब इन्हें बच्चों का बोझ कम करने के लिए सिर्फ मुगलकाल को छांटकर किताबों से फाड़ने से भी प्राब्लम है, इनसे एक हजार साल की गुलामी से आज़ादी का जश्न मनवाने की क्या उम्मीद की जा सकती है? 2014 वाली असली आज़ादी के लिए, असली गांधी वाला राष्ट्रपिता भी नहीं चलेगा। नकली वाले हों या असली, गांधियों का टैम 2014 मेें खत्म हो गया। गांधियों, मोदीजी का रास्ता छोड़ो! दूसरे कार्यकाल तक तो रिक्वेस्ट ही कर रहे हैं, पर तीसरे कार्यकाल में…!
इस व्यंग्य के लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक ‘लोक लहर’ के संपादक हैं।