Saturday, July 27, 2024
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जीडीपी ग्रोथ रेट का खेला (डायरी 8 जून, 2022)  

जो राज करते हैं, सामान्य तौर पर वे तर्कहीन नहीं होते। हालांकि वे हमेशा ऐसे नहीं भी रहते हैं। कई बार वे तर्क के बजाय भ्रांतियां फैलाते हैं। वे ऐसा क्यों करते हैं, इसके पीछे सिर्फ एक ही कारण होता है और यह कि वे अपनी साख को कम नहीं होने देना चाहते हैं। साख […]

जो राज करते हैं, सामान्य तौर पर वे तर्कहीन नहीं होते। हालांकि वे हमेशा ऐसे नहीं भी रहते हैं। कई बार वे तर्क के बजाय भ्रांतियां फैलाते हैं। वे ऐसा क्यों करते हैं, इसके पीछे सिर्फ एक ही कारण होता है और यह कि वे अपनी साख को कम नहीं होने देना चाहते हैं। साख के लिए उर्दू में एक बढ़िया शब्द है– इकबाल। दरअसल, हर हुकूमत यही चाहती है कि उसका इकबाल बुलंद रहे। इसके लिए उसे अपने प्रचार तंत्र को मजबूत रखना पड़ता है। ऐसे तर्क और कुतर्क गढ़ने होते हैं, जिनके उपर रियाया यानी जनता यकीन करे। हालांकि हुकूमत के लिए ऐसा करना केवल इसलिए जरूरी नहीं है कि उसकी प्रजा उसके उपर विश्वास करे, यह इसलिए भी आवश्यक है कि विश्व स्तर पर उसकी साख बनी रहे। फिर इसका एक अलग ही अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र है।
एकदम ठेठ भाषा में कहना चाहूं तो नवउदारवादी युग में अधिकांश हुकूमतों का हाल गांव के उसे सवर्ण सामंत के जैसी हो गई है, जिसके पूर्वज खानदानी रईस थे। सैकड़ों बीघे की जोत थी और बड़ी सी हवेली थी, जिसकी अटारी पर चढ़कर वे अन्यों को ऐसे देखते थे, मानो उनकी तुलना में कोई दूसरा हो ही नहीं। मगह यानी मगध, जहां का मैं मूलनिवासी हूं, वहां कई कहानियां सुनने को मिल जाती हैं कि जमींदार ने अपनी हवेली के समान दूसरे को घर नहीं बनाने दिया। यहां तक कि अपनी हवेली के नजदीक भी किसी को घर बनाने की इजाजत नहीं देते थे। और यदि कोई दम दिखाता तो फिर हिंसा होती। हमारे यहां इसे जर और जमीन का झगड़ा भी कहते हैं।

[bs-quote quote=”दरअसल, विश्व बैंक ने भारत सरकार की साख को कम कर दिया है। हालांकि, भारतीय मीडिया में इसे महत्व नहीं के बराबर दिया गया है। जाहिर तौर पर भारतीय मीडिया, जिसके उपर हुक्मरान का इकबाल बुलंद रखने की अहम जिम्मेदारी है, उससे यही उम्मीद रहनी चाहिए। यह बात मैं व्यंग्य के रूप में नहीं कह रहा। वजह यह कि भारतीय मीडिया पर द्विजों और बनियों का कब्जा है। और ये दो वर्ग ऐसे हैं, जो शासक भी हैं और शोषक भी।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

खैर, बात हुकूमतों की ही करते हैं। दरअसल, विश्व बैंक ने भारत सरकार की साख को कम कर दिया है। हालांकि, भारतीय मीडिया में इसे महत्व नहीं के बराबर दिया गया है। जाहिर तौर पर भारतीय मीडिया, जिसके उपर हुक्मरान का इकबाल बुलंद रखने की अहम जिम्मेदारी है, उससे यही उम्मीद रहनी चाहिए। यह बात मैं व्यंग्य के रूप में नहीं कह रहा। वजह यह कि भारतीय मीडिया पर द्विजों और बनियों का कब्जा है। और ये दो वर्ग ऐसे हैं, जो शासक भी हैं और शोषक भी। ऐसे में उनसे ईमानदारी की अपेक्षा बेमानी है कि हुकूमत की शान में बट्टा लगानेवाली खबरें लोगों तक पहुंचाएं।
दरअसल, विश्व बैंक ने वर्तमान वित्तीय वर्ष यानी 2022-23 के लिए भारत सरकार द्वारा अनुमानित आर्थिक वृद्धि दर को 8.7 फीसद से घटाकर 7.5 फीसद कर दिया है। इसी साल के बजट में भारत सरकार ने यह अनुमान लगाया था कि इस साल सकल घरेलू उत्पाद दर (जीडीपी ग्रोथ रेट) 8.7 फीसद रहेगी। अब इसको ऐसे समझिए कि भारत सरकार ने यह आंकड़ा इसलिए जारी किया था ताकि देश के लोगों को यह विश्वास बना रहे कि कोरोना महामारी की विषमताओं के बावजूद सरकार ने इतना शानदार काम किया है कि देश की अर्थव्यवस्था में कमी आने की बजाय करीब डेढ़ फीसदी का इजाफा होगा। वहीं इस आंकड़े से भारत सरकार ने विश्व समुदाय को भी इसी तरह का संदेश देने की कोशिश की ताकि ‘झोली में घेला नहीं, सराय में डेरा’ वाली लाेकोक्ति उसके उपर लागू ना हो। एक समय श्रीलंका की हुकूमत ने भी ऐसे ही कारनामे किये थे। इसका एक फायदा यह भी होता है कि विश्व स्तर पर कर्ज लेना आसान हो जाता है।
अब मान लें कि भारत सरकार यह स्वयं कहे कि इस वित्तीय वर्ष में जीडीपी ग्रोथ रेट 2 फीसदी घट जाएगी तो क्या होगा। जाहिर तौर पर यह सरकार द्वारा सच की स्वीकारोक्ति कही जाएगी। लेकिन सरकार को तो अपना इकबाल बुलंद रखना है तो वह तो ऐसा करने से रही। हर सरकार ऐसा ही करती है। फिर चाहे वह केंद्र की सरकार हो या फिर प्रांतीय सरकारें। एक खेला है राजकोषीय घाटे के अनुमान का। हर सरकार अपनी बजट में यही कहती है कि उसका राजकोषीय घाटा तीन फीसदी से कम है। मैं तो इसे जादुई  आंकड़ा कहता हूं। वर्ष 2009 से आर्थिक मामलों के बारे में रपटें और खबरें दोनों लिखता रहा हूं, कभी नहीं देखा कि किसी भी सरकार ने इसे अधिकतम से अधिक बताया हो। यहां तक कि बिहार जैसे बीमार राज्य का राजकोषीय घाटा भी जादुई आंकड़े से कम ही रहता है। सब ऐसा ही है जैसे पहले से तय हो। गोया एक सारणी हो और हुक्मरान को अपने हिसाब से आंकड़े उसमें डाल देने हैं।

[bs-quote quote=”अब इस मामले में भारतीय हुक्मरान की चाल को देखिए। हुक्मरान अपनी  साख को बनाए रखने के लिए कैसे तर्क गढ़ रही है। वित्त मंत्रालय की ओर से जारी एक विज्ञप्ति में कहा गया है कि विश्व बैंक ने जीडीपी ग्रोथ रेट में कमी इसलिए की है क्योंकि रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध चल रहा है और इसका असर कच्चे तेल की कीमतों पर पड़ा है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

दरअसल, आर्थिक मामलों को लेकर देश में जागरूकता नहीं है। लोग नहीं समझते हैं कि मुद्रास्फीति क्या है, रेपो रेट क्या है, रिवर्स रेपो रेट क्या है, सीडी रेशियो यानी साख-जमा अनुपात क्या है और वे यह भी नहीं समझते हैं कि सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी क्या है। जो लोग समझते हैं, उनके लिए ओपेन स्पेस है। ऐसे लोग बाजार के लोग हैं। वे शेयर मार्केट में हर समय डॉलर के मुकाबले रुपए की ताकत पर नजर रखते हैं और सकारात्मक संभावना देख कुछ ही पलों में लाखों-करोड़ों अर्जन कर लेते हैं। हालांकि कल फिर अंतरराष्ट्रीय बाजार में डॉलर के मुकाबले भारतीय रुपया सात पैसा कमजोर हुआ। लेकिन अब मेरे समझने से क्या होता है, लोग समझने लगें तो कोई बात बने।
मैं विश्व बैंक के बारे में सोच रहा हूं, जिसने इसी साल पहले अप्रैल में भारत सरकार द्वारा अनुमानित आर्थिक विकास दर को 8.7 फीसदी से घटाकर 8 फीसद किया और अब उसने इसे और घटाकर साढ़े सात फीसद कर दिया है। पिछले एक दशक में संभवत: यह पहली घटना है जब विश्व बैंक ने ऐसा किया है। हालांकि पहले भी उसने साल में एकाध बार अनुमानित ग्रोथ रेट को कम किया है, लेकिन महज दो महीने के अंतराल पर दुबारा कम करने का यह पहला एलान ही है।
अब इस मामले में भारतीय हुक्मरान की चाल को देखिए। हुक्मरान अपनी  साख को बनाए रखने के लिए कैसे तर्क गढ़ रही है। वित्त मंत्रालय की ओर से जारी एक विज्ञप्ति में कहा गया है कि विश्व बैंक ने जीडीपी ग्रोथ रेट में कमी इसलिए की है क्योंकि रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध चल रहा है और इसका असर कच्चे तेल की कीमतों पर पड़ा है।
तो ऐसी होती हैं हुकूमतें और साख बचाए रखने के लिए उनके तर्क व कुतर्क।

नवल किशोर कुमार फ़ॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।

ध्रुवीकरण का ज़हर घोलती ‘धर्म संसद’

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