जहर फैलाते हिंदी अखबार (डायरी 7 जून, 2022) 

नवल किशोर कुमार

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भारत के इतिहास में कई तरह की समस्याएं हैं। एक बड़ी समस्या तो यह है कि दलित-बहुजन नायक-नायिकाओं और उनसे जुड़ी घटनाओं को समुचित जगह ही नहीं दी गयी है। एक उदाहरण है बिरसा मुंडा का। भारतीय इतिहास के मुताबिक बिरसा स्वतंत्रता सेनानी थे। अब यह शब्द भ्रम में डालने वाला है। मतलब यह कि बिरसा ने सामंती व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह किया था। उस व्यवस्था के खिलाफ जो जल, जंगल और जमीन का दोहन करना चाहता था और आदिवासियों का अंतहीन शोषण करता था। अब ऐसे व्यक्ति को, जिसने इस शोषणकारी व्यवस्था में शामिल स्थानीय सामंतों, महाजनों और उन्हें संरक्षण देनेवाले अंग्रेजों के खिलाफ बिगुल फूंका था, उस व्यक्ति को स्वतंत्रता सेनानी बताना ऐतिहासिक बेईमानी ही है।
आज से ठीक दो दिन बाद यानी 9 जून को बिरसा के शहादत की बरसी है। उनका जन्म 15 नवंबर, 1875 को हुआ था और रांची के होटवार जेल में उनकी मौत 9 जून, 1900 को हो गई। हालांकि यह इतिहास में नहीं बताया गया है कि बिरसा की मौत कैसे हुई। महाश्वेता देवी ने अपने उपन्यास जंगल के दावेदार में बिरसा के बारे में लिखा है। लेकिन उन्होंने जो लिखा है, वह इतिहास नहीं है। महाश्वेता देवी के साहित्य के मुताबिक, बिरसा की मौत मीठा जहर देने के कारण हुई।
अभी दो दिन पहले ही यह विचार मेरी जेहन में आया कि बिरसा से जुड़ा इतिहास का वह पन्ना सामने लाया जाय, जिसे लाया ही नहीं गया। यह पन्ना है– बिरसा के उपर चलाए गए मुकदमे का। लेकिन मेरी भी सीमा है। मैं इतिहासकार नहीं हूं। हालांकि इतिहासकार बनने के लिए इतिहास में कोई विशेष डिग्री की आवश्यकता नहीं है। लेकिन मेरी अपनी व्यस्तता मुझे अनेक काम नहीं करने देती। लेकिन इस बार सोच रहा हूं कि पटना में अल्पप्रवास के दौरान अभिलेखागार जाकर कुछ खोजूंगा कि आखिर मुकदमे में हुआ क्या था? पटना स्थित अभिलेखागार में इससे संबंधित दस्तावेज होने की संभावना मैं इसलिए सोच रहा हूं क्योंकि झारखंड पूर्व में बिहार का हिस्सा ही था। हालांकि मैं गलत भी हो सकता हूं। वजह यह कि बिरसा के समय बिहार का पृथक अस्तित्व नहीं था। तब यह बंगाल प्रेसीडेंसी का हिस्सा था। तब यह संभव है कि दस्तावेज पटना स्थित अभिलेखागार में ना होकर, कोलकाता में हो या फिर रांची में कहीं उपलब्ध हो। वैसे संभावना तो कुछ भी हो सकती है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि मैं प्रयास भी ना करूं।
खैर, मैं आज जहर के बारे में सोच रहा हूं और यह देख रहा हूं कि भारत के हिंदी अखबार पूरे समाज में जहर फैला रहे हैं। यदि मैं इसे साहित्यिक तरीके से कहना चाहूं तो ‘मीठा जहर’ की संज्ञा देना चाहूंगा और ऐसा करने में जनसत्ता भी अग्रणी है। यह देखकर दुख होता है कि हिंदी पत्रकारिता में ऐसा किया जा रहा है, जिसका मैं भी हिस्सा हूं। उदाहरण के लिए आज इस अखबार ने आपरेशन ब्लू स्टार के संदर्भ में एक खबर अपने पहले पन्ने पर प्रकाशित किया है। खबर में शिराेमणि अकाली दल के नेताओं और कार्यकर्ताओं द्वारा अमृतसर स्थित स्वर्ण मंदिर परिसर में खालिस्तान के समर्थन में नारे लगाए गए। वहीं अकाल तख्त के जत्थेदार ज्ञानी हरप्रीत सिंह ने खालिस्तान के बारे में अपनी राय रखी। वह धर्म के आधार पर पंजाब को अलग राष्ट्र की बात कह रहे हैं।

जाहिर तौर पर आरएसएस के लिए खालिस्तान का मुद्दा अप्रिय मुद्दा नहीं है। इसलिए भी आरएसएस खालिस्तान के एजेंडे को समर्थन देता रहा है। आगे भी वह इसे अपना समर्थन देता रहेगा। स्वयं आरएसएस भी भारत को धर्म निरपेक्ष के बजाय एक हिंदू राष्ट्र बना देना चाहता है। इसलिए दोनों के विचारों में समानताएं हैं। वैसे भी अब्राह्मणी धर्म 'सिक्ख धर्म' का ब्राह्मणीकरण लगभग किया जा चुका है।

 जब मैं यह दर्ज कर रहा हूं तो मुझे तीन साल पहले की एक तस्वीर का स्मरण हो रहा है। तब शिरोमणि अकाली दल के प्रमुख सुखबीर सिंह बादल ने अमित शाह से नार्थ ब्लॉक में उनके दफ्तर में जाकर मुलाकात की थी और तलवार तोहफे में दी थी। इस मौके पर उन्होंने अमित शाह से मांग की थी कि 1984 में तत्कालीन भारत सरकार द्वारा की गई सैन्य कार्रवाई की जांच कराएं।
शिराेमणि अकाली दल के नेताओं और कार्यकर्ताओं द्वारा अमृतसर स्थित स्वर्ण मंदिर परिसर में खालिस्तान के समर्थन में नारे लगाते और अकाली तख्त के जत्थेदार ज्ञानी हरप्रीत सिंह संबोधित करते
जाहिर तौर पर आरएसएस के लिए खालिस्तान का मुद्दा अप्रिय मुद्दा नहीं है। इसलिए भी आरएसएस खालिस्तान के एजेंडे को समर्थन देता रहा है। आगे भी वह इसे अपना समर्थन देता रहेगा। स्वयं आरएसएस भी भारत को धर्म निरपेक्ष के बजाय एक हिंदू राष्ट्र बना देना चाहता है। इसलिए दोनों के विचारों में समानताएं हैं। वैसे भी अब्राह्मणी धर्म ‘सिक्ख धर्म’ का ब्राह्मणीकरण लगभग किया जा चुका है। लेकिन मैं तो यह सोच रहा हूं कि इस देश में जहर कैसे फैलाया जा रहा है और इसमें हिंदी के अखबारों की क्या भूमिका है।
मसलन, अकाल तख्त के जत्थेदार ज्ञानी हरप्रीत सिंह के इस बयान को जनसत्ता ने प्रमुखता से प्रकाशित किया है कि पंजाब के गांवों में गिरजाघर बनाए जा रहे हैं। अब यह एक नया पैंतरा है। इस पैंतरे को ऐसे समझें कि कल ही विश्व के 57 मुस्लिम देशों ने मिलकर संयुक्त राष्ट्र संघ के मानवाधिकार आयोग से की है कि भारत में मुसलमानों के मौलिक अधिकारों का हनन किया जा रहा है। अब यह बात तो जनसत्ता के संपादक भी जरूर समझते हैं और ज्ञानी हरप्रीत सिंह भी कि ‘मस्जिद’ का नाम लेने से भारत की छवि और खराब होगी तथा इसके लिए केंद्र की नरेंद्र मोदी हुकूमत तैयार नहीं है। वैसे आज यह पहली बार देख रहा हूं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह बयान कि दुनिया को भारत से समस्याओं के समाधान की उम्मीद पहले पन्ने के बजाय आठवें पन्ने पर है।
यह निश्चित तौर पर इसलिए कि यदि इस खबर को भी पहले पन्ने पर जगह दिया जाता तो सऊदी अरब समेत कई मुस्लिम देशों ने की निंदा शीर्षक खबर के साथ हास्यास्पद ही लगता। लेकिन मैं जहर के बारे में सोच रहा हूं। वही जहर जिसने बिरसा को मारा और अब इस देश के संविधान को मारने पर उतारू है।
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