अच्छे शासक लोगों से प्यार करते हैं, डरते नहीं हैं (डायरी 6 जनवरी, 2022)

नवल किशोर कुमार

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 अक्सर एक विचार आता है कि अपने गृहप्रदेश बिहार पर नाज करूं। जब यह विचार आता है तो मेरा मन खुद ही अनेकानेक सवाल सृजित करता है और जवाब तलाशने को मुझे बाध्य करता है। हालांकि हर बार मैं सफल नहीं होता तो सवालों को नजरअंदाज कर जाता हूं। वहीं दूसरी तरफ जो बात मुझे अपने गृहप्रदेश के बारे में सबसे अच्छी लगती है, वह यह कि यही वह धरती है, जहां से ईश्वर को तार्किक चुनौती दी गयी। मैं अभी इस सवाल के फेर में नहीं पड‍़ूंगा कि जब सिंधु घाटी सभ्यता चरम पर थी, तब ईश्वर के होने को लेकर लोगों के विचार क्या थे।

मैं तो अपने गृहप्रदेश के आजीवकों के बारे में सोच रहा हूं। खासकर मक्खलि गोसाल के बारे में। उन्होंने ईश्वरीय चमत्कारों को खारिज किया। उनके तर्क एकदम सुदृढ़ थे। लेकिन मुझे उनकी जो बात सबसे अच्छी लगती है वह यह कि प्रेम जीवन को आसान बना देता है। अब इस प्रेम की अनेकानेक व्याख्याएं हो सकती हैं। लेकिन प्रेम चाहे किसी भी रूप में हो, उसमें करूणा का भाव शामिल रहता ही है। मतलब यह कि आप जिसे प्रेम करते हैं, उसके प्रति आप करूणा का भाव रखेंगे ही। ऐसा नहीं हो सकता कि आप किसी से प्रेम करें और उसके प्रति आपके मन में करूणा न हो।

प्रधानमंत्री इस मौके पर तकरीबन 47 हजार करोड़ रुपए की योजनाओं की सौगात पंजाब को देंगे। यह एक चुनावी स्टंट था। वजह यह कि पंजाब में विधानसभा चुनाव होने हैं और प्रधानमंत्री ने इन दिनों अपनी भूमिका प्रचार मंत्री से बदल ली है।

लेकिन सियासती प्रेम अलहदा है। सियासती प्रेम एक तरह का दिखावा होता है। आप प्रेम का प्रदर्शन करते हैं और मन में करूणा की जगह घृणा का भाव रखते हैं। यही सार है कल की उस घटना का जिसका गवाह पूरा विश्व बना। घटना यह कि भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पंजाब से बिना कार्यक्रम किये वापस लौट जाना पड़ा।

घटना कुछ यूं हुई कि प्रधानमंत्री कल पंजाब के फिरोजपुर में एक रैली को संबोधित करनेवाले थे। यह एक चुनावी रैली थी, जिसे भारत सरकार ने भारत की जनता के पैसे से आयोजित किया था। हालांकि कहा यह गया कि प्रधानमंत्री इस मौके पर तकरीबन 47 हजार करोड़ रुपए की योजनाओं की सौगात पंजाब को देंगे। यह एक चुनावी स्टंट था। वजह यह कि पंजाब में विधानसभा चुनाव होने हैं और प्रधानमंत्री ने इन दिनों अपनी भूमिका प्रचार मंत्री से बदल ली है।

खैर, इससे मतलब नहीं कि मामला चुनावी है। प्रधानमंत्री अगर प्रचारमंत्री भी बन जाए तो उसकी अहमियत कम नहीं होती और ना ही उसकी सुरक्षा में कोई ढील होनी चाहिए। लेकिन मैं तो सुरक्षा के बारे में सोच रहा हूं। पाकिस्तान के एक शायर रहे (नाम याद नहीं)। उनका एक शे’र है– खंजर बकफ खड़े हैं गुलामिन-ए-मुंतजिर/ आका कभी तो निकलोगे अपने हिसार से। इसका अर्थ पाकिस्तान के उन दिनों के हालात को बयां करता है जब वहां फौज का शासन था। शायर ने अपने मुल्क के हुक्मरान को चुनौती दी थी कि वह अपने सुरक्षा घेरे से बाहर निकलकर देखे कि कैसे लोग अपने ही देश में गुलामों की तरह जी रहे हैं, और उनके मन में आक्रोश इतना है कि उनके हाथ में खंजर है।

पंजाब के सीएम चरणजीत सिंह चन्नी ने कल अपने प्रेस कांफ्रेंस में कहा– 'अब सत्तर हजार के बदले यदि सात सौ लोग ही जुटे, तो इसमें मैं क्या करूं यार।'

साहित्य समाज का आईना होता ही है। अब पाकिस्तान में फौज की हुकूमत थी तो वहां के शायरों ने ऐसी बातें लिखीं। अब हमारे यहां लोकतांत्रिक शासन रहा है तो हमारे साहित्यकारों का अंदाज भी अलग रहा है। एक उदाहरण देखिए राहत इंदौरी का। वह लिखते हैं– आंख में पानी रखो, होठों पे चिंगारी रखो / जिंदा रहना है तो, तरकीबें बहुत सारी रखो।

तो होता यह है कि लोगों की सोच में अंतर होता है। मैं तो बिहार को सोच रहा हूं। जब मैं छोटा था तब हमारे मुख्यमंत्री लालू प्रसाद हुआ करते थे और मैं पटना के दारोगा प्रसाद राय हाईस्कूल में सातवीं कक्षा का छात्र। हमारे स्कूल से पटना के चिड़ियाघर की दूरी बमुश्किल एक किलोमीटर की है तो होता यह था कि हम नाकाबिल छात्र स्कूल बंक करके चिड़ियाघर में मस्ती करने जा पहुंचते थे। एक दिन ऐसा ही हुआ। ठंड का महीना था और हम स्कूल पहुंच गए थे। छात्रों की उपस्थिति बहुत कम थी। तो हम तीन-चार दोस्तों ने चिड़ियाघर की सैर करने की योजना बनायी। दरअसल, हमारे लिए आकर्षण का केंद्र होते थे बाघ बहादुर। उनका नाम याद नहीं है, लेकिन वे मेरे पड़ोस के गांव रानीपुर के रहनेवाले थे और बाघों की देख-रेख करते थे। बाघ भी उनसे इतने घुले-मिले थे कि उनके साथ खेलते रहते थे। तो उन्हें ऐसा करते देखना अच्छा लगता था। बाघ बहादुर चाचा तो ऐसे थे कि बाघों के साथ खुले में भी घूमते रहते थे।

खैर, हम दोस्तों ने स्कूल बंक किया और अपनी-अपनी साइकिल लेकर निकल पड़े। ठंड अधिक थी। उन दिनों बिहार सरकार हर चौराहे पर अलाव का प्रबंध करती थी। आजकल तो पता नहीं सरकारों को क्या हो गया है कि वह अलाव का प्रबंध ही नहीं करती। तो उस दिन चितकोहरा गोलंबर पर जहां अमर शहीद जगदेव प्रसाद की आदमकद प्रतिमा है, के पास अलाव जल रहा था। हम सभी दोस्त आग तापने बैठ गए। सोचा कि पहले आग ताप लिया जाय, फिर चलेंगे।

हम आग ताप ही रहे थे कि मुख्यमंत्री का काफिले का काफिला गुजरा। तब हमारे मन में लालू प्रसाद को देखने की बड़ी इच्छा होती थी। लेकिन कहां वे मुख्यमंत्री और कहां हम अबोध बच्चे। हम आग ताप ही रहे थे कि अचानक काफिला रुका। सफेद कुरता-पजामा, नीले रंग का स्वेटर और चादर ओढ़े एक सज्जन हमारी तरफ आए। सब खड़े हो गए। वे लालू प्रसाद थे। सबने लालू प्रसाद का अभिवादन किया। अच्छा, जो लोग वहां बैठकर आग ताप रहे थे, उनमें अधिकांश दिहाड़ी मजदूर थे, जो मजदूरी की तलाश में चितकोहरा गोलंबर पर जमा हुए थे। आज भी वहां मजदूरों का बाजार लगता है।

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तो लालू प्रसाद भी हमारे साथ आग तापने के लिए बैठ गए। उनके लिए एक दुकानदार कुर्सी ले आया। वे करीब बीस मिनट तक रुके। इस दौरान उन्होंने वहां मौजूद सभी मजदूरों से उनकी परेशानियों को जाना। कुछ को तो वह व्यक्तिगत रूप से जानते थे। रह गए हम बच्चे तो हमें मीठी डांट भी लगाई कि स्कूल बंक करना गलत बात है।

मैं यह सोच रहा हूं कि कहां लालू प्रसाद और कहां नरेंद्र मोदी। कितना फर्क है। यदि कल नरेंद्र मोदी की जगह लालू प्रसाद बीस मिनट तक जाम में फंसे होते तो वह गाड़ी से निकल जाते और जो लोग उनका विरोध कर रहे थे, उनसे बात करते। किसी भी हालत में वे अपनी यात्रा स्थगित नहीं करते। हालांकि एक बात यह भी है कि उनकी सभा में सत्तर हजार के बदले सात सौ लोग नहीं होते। जैसा कि पंजाब के सीएम चरणजीत सिंह चन्नी ने कल अपने प्रेस कांफ्रेंस में कहा– ‘अब सत्तर हजार के बदले यदि सात सौ लोग ही जुटे, तो इसमें मैं क्या करूं यार।’

अगोरा प्रकाशन की किताबें अब किन्डल पर भी उपलब्ध है :

बहरहाल, कल जो भी हुआ, वह दुखद है। इससे भारत की छवि विश्व स्तर पर धूमिल हुई है। सियासत अपनी जगह और मुल्क अपनी जगह है।

कल एक कविता जेहन में आई।

बदल रहा है मुल्क का मिजाज 

और अभी तो यह आगाज है

रहो मत भुलावे में कि

तुम्हारे पास तख्त और ताज है।

हां, सुनो इस प्यारे मुल्क को

धर्म की आग में झोंकने वालों,

कोई सामान्य घटना नहीं है

मोदी का पंजाब से वापिस लौट जाना।

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।

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