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ग्राउंड रिपोर्ट

वह चला गया मुझे आधे रास्ते पर उतारकर ….

मैंने गौर किया कि जैकेट पहने लगभग 20-22 साल के उस युवक ने हेलमेट नहीं पहना था और वह तेज रफ्तार से बाइक चलाने का शौकीन था। बाइक कई बार कटाव-मुड़ाव और मनमर्जी से बने स्पीडब्रेकरों पर हिचकोले खा रही थी या जम्प कर रही थी। मन में विचार आया कि उससे कहूँ, 'भइया, मुझे चौरी बाजार ही जाना है, यमपुरी नहीं जाना है।' किंतु उसके बुरा मान जाने के डर से मैं खामोश ही रहा।

मैं साल में कम से कम एक बार दीपावली के बाद 3-4 सप्ताह की छुट्टी लेकर गांव अवश्य जाता हूँ। इस छुट्टी में से एक तिहाई हिस्सा मैं अपने मूल गांव कूसा, जौनपुर में बिताता हूँ और एक तिहाई समय रामदेवपट्टी गाँव, भदोही में अपने रिश्तेदार के यहाँ रुकता हूँ। शेष एक तिहाई छुट्टी अन्य गांवों/शहरों में रहने वाले खास मित्रों से भेंट-मुलाकात में खर्च हो जाती है। इस बार की छुट्टियां बिताकर मुंबई लौटे एक सप्ताह से अधिक समय हो गया था किंतु गाँव है कि अपनी यादों, खट्टे-मीठे अनुभवों के चलते पीछा छोड़ने को राजी ही नहीं था। इस बार भी कुछ मुलाकातें-बातें ऐसी हुईं जो बहुत मामूली सी लगने के बावजूद रह-रहकर दिमाग में कुलबुला ही जा रही हैं मानो चिढ़ाकर पूछ रही हों, ‘कहो भाई कैसी रही? क्या राय है आपकी इस अनुभव के बारे में?’ आज की बात या कह लीजिए बैठे-ठाले का चिंतन ऐसे ही एक मामूली किंतु रोचक अनुभव पर आधारित है।

नवम्बर 2017 के चौथे सप्ताह का वह कोई दिन था। मैं अपने रिश्तेदार के यहां रामदेवपट्टी गाँव में डेरा डाले हुए था। इस क्षेत्र में मेरी 4-5 प्रमुख रिश्तेदारियां हैं और कई अच्छे मित्र भी हैं। अतः यहां रहने के दौरान मेरा समय बहुत अच्छे से बीत जाता है और मैं लोगों से मिलने-जुलने, अपनी पसंद का खाने-पीने और घंटों गप्पे मारने का भरपूर लुत्फ उठाता हूँ। इस दौरान हफ्ते-आठ दिन का समय कैसे बीत जाता है, पता ही नहीं चलता।

रामदेवपट्टी गाँव से चौरी बाजार लगभग 3 किमी दूरी पर है जो इस इलाके की बहुत पुरानी और बड़ी बाजार मानी जाती है। यह बाजार आसपास के गांवों यथा- चक भुइंधर, कोल्हण, समालकोट, रोटहां और मूल चौरी को अपने में समेटे हुए है। मुझे यकीन है कि आनेवाले कुछ वर्षों में चौरी बाजार भी एक कस्बे का आकार पा लेगा और इसे भी नगर पंचायत (town area) का दर्जा मिल जाएगा। वस्तुतः मोरवा नदी के इस पार (पूरब दिशा में) के मानिकपुर जैसे अन्य कुछ गाँव भी इस भावी कस्बे में शामिल हो जाएँगे। पास का भदोही (ऊनी कालीन के लिए विख्यात) शहर भी चारों दिशा में फैल रहा है। कालीन व्यापार में मंदी और निर्यातों में आ रही गिरावट की वजह से यह फैलाव अभी धीमा है। मैं साल-दर साल के अपने प्रवासों के दौरान देख रहा हूँ कि भदोही विकास प्राधिकरण (बीडा) द्वारा विकसित कालोनियों यथा- रजपुरा, जमुनीपुर आदि में तथा बाईपास के किनारे काफी संख्या में नए मकान बने हैं और बन रहे हैं। इन कालोनियों के प्लाटों पर सेवानिवृत्त अधिकारी, शिक्षक एवं प्राध्यापक, वकील, डॉक्टर, इंजीनियरों के अलावा अन्य कारोबारी/सेवाकर्मी अपने आवास बना रहे हैं।

यद्यपि रामदेवपट्टी में मेरे रिश्तेदार ने अपने घर एक मोटरसाइकिल रख छोड़ी है किंतु ड्राइविंग न जानने के कारण मुझे कहीं आने-जाने के लिए आस-पड़ोस के किसी ड्राइविंग जानने वाले व्यक्ति (अक्सर 18-25 आयु वर्ग के युवक) की सहायता लेनी पड़ती है। कई बार ऐसा भी हुआ है कि कोई भी नौजवान उपलब्ध नहीं हो सका और मुझे पैदल ही चौरी बाजार जाने के लिए निकलना पड़ा है। किंतु रास्ते में अक्सर मुझे लिफ्ट मिल जाती थी। ऐसे ही एक दिन मैं शाम को पैदल ही चौरी जा रहा था। अमवां तिराहे पर मैंने अकेले आ रहे एक नौजवान बाइक सवार को हाथ दिखाया तो उसने बाइक रोककर मुझे बिठा लिया। उससे चौरी तक ड्राप करने के लिए कहा तो उसने स्वीकृति में हामी भरी।

मैंने गौर किया कि जैकेट पहने लगभग 20-22 साल के उस युवक ने हेलमेट नहीं पहना था और वह तेज रफ्तार से बाइक चलाने का शौकीन था। बाइक कई बार कटाव-मुड़ाव और मनमर्जी से बने स्पीडब्रेकरों पर हिचकोले खा रही थी या जम्प कर रही थी। मन में विचार आया कि उससे कहूँ, ‘भइया, मुझे चौरी बाजार ही जाना है, यमपुरी नहीं जाना है।’ किंतु उसके बुरा मान जाने के डर से मैं खामोश ही रहा। हम भदोही-वाराणसी फोर लेने वाले रोड पर पाल चौराहा ही पहुँचे थे कि उसकी बाइक से घर्र-घर्र की कुछ आवाज निकली और उसने सड़क के किनारे बाइक यह कहकर रोक दी कि अंकल, मेरी बाइक में पेट्रोल खत्म हो गया है। मैं उतर गया। चौरी बाजार यहाँ से लगभग एक या सवा किलोमीटर दूर था।

चौरी वाले दीना भाई का परिवार

मैंने उस नौजवान को धन्यवाद दिया कि उसने मुझे कम से कम पाल चौराहे तक को पहुँचा ही दिया। मैंने देखा कि उसने अपनी बाइक फिर स्टार्ट की और घुरघुराते हुए धीमी गति से चौरी बाजार की ओर जाने लगा। मुझे लगा कि आगे वह किसी दुकान पर (जहाँ फुटकर पेट्रोल मिलता है) जाएगा और अपनी बाइक में थोड़ी मात्रा में पेट्रोल डलवायेगा। मैंने गौर किया कि लगभग दो-ढाई सौ मीटर तक तो वह धीमी गति से जाता रहा और उसके बाद तेजी से फर्राटा भरते हुए चौरी की ओर उड़ चला। मैं भी सोचते-विचारते पैदल ही उसी दिशा में आगे बढ़ चला।

रास्ते में मन में यह प्रश्न धूनी रमाकर बैठ गया और बेताल के गूढ़ सवाल की तरह कोंचने लगा कि उस नौजवान ने पेट्रोल खत्म हो जाने का बहाना बनाकर मुझे आधे रास्ते पर ही क्यों उतार दिया जबकि मुझे भी चौरी बाजार ही जाना था। मैंने तो उसे कुछ कहा भी नहीं था। जब उसे मुझे दो किलोमीटर तक ही लाकर उतार देना था तो उसने मुझे अपनी बाइक पर बिठाया ही क्यों? अचानक 3-4 मिनट में उसके दिमाग में ऐसा क्या विचार आया कि मुझे बीच रास्ते में ही उतार देने के लिए उसने यह ड्रामा रचा। क्या वह अंतर्यामी था जो मेरे मन में आई ‘यमपुरी’ वाली बात को भांप गया था? ये सारे सवाल मेरे मन में उमड़-घुमड़ रहे थे किंतु सही वजह जान पाने में मैं असफल रहा।

नवम्बर माह के दूसरे पखवाड़े से अपने यहाँ ठंड जोर पकड़ने लगती है। सड़क के दोनों तरफ तलखर खुले खेत थे जहाँ कटे धान के सैकड़ो बोझ करीने से रखे गए थे। अब इन खेतों की भराई कर ‘पलेवा’ दिया जाएगा और जुताई कर गेहूँ की बुवाई की जाएगी। पिछले 3-4 वर्षों की तरह इस इलाके में इस बार भी बारिश कम हुई है जिसके चलते धान की उपज बहुत कम हुई है। किसानों की आशाएं अब चैती खेती पर टिकी हैं। हवा की सर्दी अब अपना असर दिखाने लगी थी किंतु पैदल चलने से मिलनेवाली ऊष्मा से मुझपर कम प्रभाव पड़ रहा था। अब मैं बाजार में अपने मित्र दीनानाथ की दुकान पर आ गया था जहाँ अध्यापक मित्र राजाराम जी, पड़ोसी दुकानदार प्रिंस, गुलशन कुमार और सुमन जी (दीना भाई की श्रीमती जी) के साथ हमारी चर्चा-चौपाल जम जाती है। चौरी बाजार में आज की तारीख़ में पप्पू हलवाई के समोसे और मिठाइयाँ नंबर वन मानी जाती हैं। लीजिए, दीना भाई ने गरम समोसे और छेने की मिठाई की व्यवस्था भी कर दी और उनकी छोटी बिटिया रानी अदरक वाली चाय बनाने में जुट गई। बाइकवाली घटना मैं इन सबसे भी साझा करता हूँ और इस सवाल को एक पहेली की तरह उछाल देता हूँ कि, ‘बाइकवाले ने मुझे बीच रास्ते में क्यों उतार दिया?’

मित्रों ने अपने-अपने हिसाब से गुणा-भाग कर कारण बताए। गुलशन कुमार ने कहा कि अंकल वह आपके पीछे बैठने से असुविधा महसूस कर रहा होगा। प्रिंस का अनुमान था कि आपके पीछे बैठने से और आपकी उम्र को देखते हुए इलाके की सबसे अच्छी और चौड़ी रोड पर 80-90 किमी प्रति घंटे की रफ्तार से बाइक दौड़ाने की इच्छा को पूरा नहीं कर पा रहा था। दीनानाथ का कहना था कि  उसने आपको अपना कोई परिचित समझकर बैठाया होगा। बाद में उसे लगा कि आप तो अजनबी हैं तो उसने उतार दिया। श्रीमती सुमन का मानना था कि इस अर्थ प्रधान युग में उसे लगा होगा कि फोकट में वह आपको लिफ़्ट क्यों दे?

इस चर्चा में अब तक खामोश ही रहे राजाराम मास्टर जी ने अपनी बात रखते हुए कहा, ‘साहब, दरअसल उसने उस क्षण तो झटके में आपको पीछे बैठा लिया किंतु कुछ देर आगे जाने पर उसे लगा होगा कि हो न हो आप पुलिस विभाग के कोई अधिकारी हों जो किसी संदिग्ध या वांछित अपराधी की धर-पकड़ के लिए सादे कपड़ों में निकले हों। आपने बताया ही कि उसके पास हेलमेट नहीं था, हो सकता है उसके पास वैध लाइसेंस और गाड़ी के कागजात भी न रहे हों और वह डर गया हो कि आज तो फँस जाएगा। यही कारण रहा होगा कि उसने पेट्रोल ख़त्म होने का नाटक किया और मौका पाकर फुर्र हो गया।’

तो सुधीजनो, तो क्या मान लिया जाए कि गांवों में भी अब एक से बढ़कर एक ‘चंट’ और ‘चालाक’ बसते/ रहते हैं और वे हम शहरियों को भी गाहे-बगाहे अपनी कला और कौशल से ‘पोपट’ या ‘मामा’ बना देते हैं। इस समय हैदराबाद में पदापित मेरे एक परम मित्र श्री राजीव राय, जो बलिया के मूल निवासी हैं और पढ़ाई के दौरान कई वर्ष काशी नगरी में रहे हैं, मुझे चेताते हैं, ‘भइया, गाँव जाकर बहुत ज्यादा अतीतजीवी (नॉस्टैल्जिक) और छायावादी कवियों की तरह भावुक मत बना कीजिए। ये आज के गाँव हैं और यहाँ के लोग शहरियों से ज्यादा ‘चतुर सुजान’ और ‘खिलाड़ी’ बन चुके हैं।’ आपने सदियों पहले किसी पौराणिक ग्रंथ में कही गई यह बात भी प्रमाण के रूप में मेरे सामने रखी है- ‘इच्छसि मूर्खत्वम/ ग्रामे बससि दिन त्रयम।’ यानी यदि आप मूर्ख बनना चाहते हैं तो तीन दिन गाँव में रह आइए। मैं सोच में पड़ गया हूँ कि क्या गाँव जाकर मैं भी मूर्ख बन जाता हूँ या बना दिया जाता हूँ। बहुत दिमाग लगाया किंतु इस सवाल का कोई सटीक जवाब सुझाई नहीं दिया।

गुलाबचंद यादव बैंक में सेवारत हैं और फिलहाल मुंबई में रहते हैं ।

गाँव के लोग
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