कभी गाँव को सहज, सरल और स्वाभाविक मानते हुए यह किवदंती प्रचलित हो गई थी कि भारत की आत्मा गांवों में निवास करती है। दुनिया के सबसे प्यारे, सबसे अच्छे लोग गाँव में रहते हैं। शहर तो हमेशा की तरह लुटेरा था, इस बात की पुष्टि इस बात से भी होती है कि जो कुछ ‘गंवार’ लोग बड़े नगरों में जाकर बस गए थे उनके लिए गाँव आज भी एक यूटोपिया की तरह रहा। शहर में वे शोषित थे। रेलिया बैरन पिया को लिए जाय रे….टाइप। पर पता नहीं क्या करने चले जाते थे शहर? बुरे शहर को छोड़ नहीं पाते थे। पता नहीं वे कैसे खाये-पिए अघाये लोग थे। संभ्रांत परिवेश से आने वाले। वे कभी शहर के नहीं हो पाये। क्या सचमुच वे गरीब लोग थे? शहर में ऐसे लोगों की आबादी आज भी भी बहुत है। लगता है कितने नादान लोग थे वे। सच में गँवार। कैसा गाँव, कौन सा गाँव, दलित, वंचित, पिछड़ों, अगड़ों, पण्डितों, कुर्मियों और राजपूतों के गाँव? या वह गाँव जो दक्षिण में होने को लेकर अभिशप्त रहा।
[bs-quote quote=”भात से वंचित रहकर मरने वालों की दुःख गाथा कोई शहरी कैसे समझ सकता है? किसान तो मरता है, कर्ज से मरता है, उसे इच्छायें मारती हैं पर वही किसान मर रहा है जिसके पास मरने लायक खेती है। जाने कितने खेतिहर किसान मजदूरी के लिए मर रहे हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
कितने उपन्यास, कितनी कहानियां, कितनी कवितायें लिखी जा चुकी हैं पर गाँव की मासूमियत का ठीक से देखना हो तो हमें जूठन पढ़ना चाहिए या मुर्दहिया–मणिकर्णिका। उन गांवों का सच अगर बर्दाश्त न हो तो फिर हमें प्रेमचंद की तरफ आना चाहिये जहाँ शोषक वर्ग का एक भी सदस्य नायक के रूप में नहीं आता (प्रेमचंद ने तथाकथित किसी सवर्ण ब्राह्मण, राजपूत, बनिया को नायक नहीं बनाया, लगभग खलनायक बनाये गए हैं)। अदम गोंडवी, महेश कटारे सुगम, कालीचरण स्नेही, मलखान सिंह, आशाराम जागरथ, अष्टभुजा शुक्ल, सीबी भारती, अरविन्द, विपिन बिहारी के गीतों, ग़ज़लों, दोहों का पढ़कर गाँव की जो एक तस्वीर उभरती है वह किसी रसिक से छुपी हुई नहीं है। भोजपुरी गीतों में गाँव का आस्वाद बिलकुल अलग है.शैवाल की दामुल भी गाँव की कहानी है. लक्ष्मणपुर बाथे, खैरंलाजी, गोहाना, मिर्चपुर, सब्बीरपुर भी तो गाँव ही हैं। पर ये गाँव गंवारों के गाँव नहीं हैं।
[bs-quote quote=”गाँव हमेशा से राग-द्वेष, हिंसा, नफरत के केंद्र रहे। पितृसत्ता, सामंतवाद, जातिवाद का खुला संस्करण ही गाँव कहलाता था। कितना धूर्त, पर दिखाई तो कोमल देता था। जमींदारों का नंगा नाच आज भी हो रहा है, शेष जनता आज भी सामंती शोषण का शिकार हो रही है। नए आर्थिक ढाँचे ने नए संबंधों को जन्म दिया है पर सबके मूल में नफरत और अहंकार के सिवा कुछ भी तो नहीं है। गाँव के अच्छे होने की तस्वीरें केवल यूटोपिया है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
बखेड़ापुर में हरेप्रकाश उपाध्याय ने जो तस्वीर उभारी है उस गाँव से कौन नहीं परिचित। मैला आँचल, परती परिकथा, बिल्लेसुर बकरिहा कितने नाम तो है. शानी, राही मासूम रजा, शिव प्रसाद सिंह अपनी कथाओं में कौन सी कहानियां छुपाते हैं? गाँव हमेशा से राग-द्वेष, हिंसा, नफरत के केंद्र रहे। पितृसत्ता, सामंतवाद, जातिवाद का खुला संस्करण ही गाँव कहलाता था। कितना धूर्त, पर दिखाई तो कोमल देता था। जमींदारों का नंगा नाच आज भी हो रहा है, शेष जनता आज भी सामंती शोषण का शिकार हो रही है। नए आर्थिक ढाँचे ने नए संबंधों को जन्म दिया है पर सबके मूल में नफरत और अहंकार के सिवा कुछ भी तो नहीं है। गाँव के अच्छे होने की तस्वीरें केवल यूटोपिया है। शोषकों का गाँव आज भी आदर्श गाँव है, नंगई और भुखमरी आज भी वहां नंगा नाच रही है।
दानामांझी, बुधिया का सम्बन्ध किसी गाँव से ही रहा है। भात से वंचित रहकर मरने वालों की दुःख गाथा कोई शहरी कैसे समझ सकता है? किसान तो मरता है, कर्ज से मरता है, उसे इच्छायें मारती हैं पर वही किसान मर रहा है जिसके पास मरने लायक खेती है। जाने कितने खेतिहर किसान मजदूरी के लिए मर रहे हैं। प्रेमचंद ने गोदान में जिस होरी किसान का जिक्र किया था वस्तुतः वह किसान नहीं था। वह था ही मजदूर, उसे तो विनोबाभावियों, सहजानंदियों ने किसान बनाया। किसान तो कोई बड़ी खेती वाला महेंद्रसिंह टिकैत या अजीत सिंह टाइप ही हो सकता है. हमारे गाँव के जमींदार ने भी कितने लोगों का रास्ता रोका हुआ है पर लोग कहते हैं सरकार उसकी है, पुलिस उसकी है, प्रशासन उसका है.कितना झूठ है गाँव का मंजर, कभी मेरे गाँव चलिये फुलिया न्याय के लिए छटपटा रही है।
यथार्थ स्थिति का सटीक विश्लेषण। गांव अब बहुत बदल गए हैं और तमाम बुराइयों से बुरी तरह ग्रसित हैं। सच तो यह भी है कि अब गांव बहुत कम लोग लौटना चाहते हैं। शहरों में तमाम तरह की दिक्कतें, परेशानियां और दुश्वारियां हैं फिर भी कोई शहर नहीं छोड़ना चाहता क्योंकि वह गांवों की वैमनस्यता, जातिगत दुर्भावनाओं, दलगत राजनीति और पंचायती राज के जर्रे जर्रे में व्याप्त भ्रष्टाचार आदि से भलीभांति वाकिफ हो चुका है। शहरों – महानगरों में ये बीमारियां कम हैं और अच्छी शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं और रोजगार के बेहतर और ज्यादा अवसर उपलब्ध होते हैं। यहां आदमी बस अपने काम से ज्यादा मतलब रखता है और उस टुच्चेपने से दूर रहता है जो गांव में अनिवार्य रूप से और बहुतायत में पाया जाता है।