Friday, April 19, 2024
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 प्रेस विज्ञप्तियों के सहारे भी दिखाया जा सकता है कि राजा नंगा है (डायरी 31 अक्टूबर, 2021) 

आज पटना प्रवास का दूसरा दिन है। मन में कई सारे विचार हैं। परंतु सबसे महत्वपूर्ण है– प्रेस विज्ञप्ति। दरअसल, पत्रकारिता में प्रेस विज्ञप्तियों का महत्व होता है। सामान्य तौर पर संगठनों व राजनीतिक दलों द्वारा प्रेस विज्ञप्तियों द्वारा जारी बयानों में किसी आयोजन की जानकारी, किसी घटना के संदर्भ में संबंधित संगठन व दल […]

आज पटना प्रवास का दूसरा दिन है। मन में कई सारे विचार हैं। परंतु सबसे महत्वपूर्ण है– प्रेस विज्ञप्ति। दरअसल, पत्रकारिता में प्रेस विज्ञप्तियों का महत्व होता है। सामान्य तौर पर संगठनों व राजनीतिक दलों द्वारा प्रेस विज्ञप्तियों द्वारा जारी बयानों में किसी आयोजन की जानकारी, किसी घटना के संदर्भ में संबंधित संगठन व दल की टिप्पणी आदि अखबारों को उपलब्ध कराया जाता है। प्रेस विज्ञप्तियों के आधार पर जो खबर लिखी जाती हैं, उनमें प्रेस विज्ञप्ति का जिक्र अवश्य होता है। ऐसा होने से पाठक को इस बात की जानकारी मिल जाती है कि यह खबर किसी प्रेस विज्ञप्ति के आधार पर लिखी गई है।

मैं अपनी बात कहूं तो अपने प्रारंभिक दौर से ही मैंने प्रेस विज्ञप्तियों का उपयोग नहीं करने को बेहतर माना है। मेरी अपनी मान्यता है कि एक पत्रकार को प्रेस विज्ञप्तियों के आधार पर खबर नहीं लिखना चाहिए। वजह यह कि विज्ञप्तियों के आधार पर खबर लिखने का मतलब क्लर्कगीरी है और मेरे हिसाब से एक पत्रकार क्लर्क नहीं होता। पत्रकार का काम तो खबर लिखना है और खबर का मतलब प्रेस विज्ञप्तियां नहीं हैं।

करीब पांच साल पहले जब मैं पटना में एक हिंदी दैनिक का स्थानीय संपादक था, तब मैंने एक शुरुआत की थी। दूसरे पेज जो कि राजनीतिक खबरों के लिए पूर्व से आरक्षित था, को मैंने ‘प्रेस विज्ञप्तियां’ शीर्षक दिया था। इस पेज पर मैं उन प्रेस विज्ञप्तियों को जगह देता था, जो राजनीति से संबंध रखते थे। इस कड़ी में मैंने सूचना एवं जनसंपर्क विभाग द्वारा मुख्यमंत्री से जुड़ी प्रेस विज्ञप्तियों को भी शामिल किया। हालांकि अपने इस प्रयोग के लिए मेरी आलोचना भी हुई। सबसे अधिक तो बिहार सरकार के सूचना एवं जनसंपर्क विभाग की ओर से आपत्ति व्यक्त की गई थी। एक तो उनका कहना यह था कि मुख्यमंत्री का बयान पहले पन्ने पर आप क्यों नहीं लेते और दूसरा यह कि उनके हिसाब से ‘प्रेस विज्ञप्ति’ पृष्ठ मुख्यमंत्री के मर्यादानुकूल नहीं है।

[bs-quote quote=”जनसत्ता का साहस ही है कि उसने पहले पन्ने पर ही आरएसएस के महासचिव दत्तात्रेय होसबाले का बयान खबर के रूप में प्रकाशित किया है– ‘धर्म परिवर्तन की सूचना दें लोग : होसबाले।’ यह खबर नरेंद्र मोदी के रोम वाली उपरोक्त खबर के बिल्कुल नीचे है। पहले वाली खबर में नरेंद्र मोदी और पोप फ्रांसिस की तस्वीर है। अखबार ने अपना काम इन दोनों खबरों को एक ही पन्ने और आसपास जगह देकर कर दिया है। अब पाठक अपने विवेक के आधार पर यह तय करें कि आरएसएस का प्यादा रोम के पोप से गले मिल रहा है और दूसरा प्यादा धर्म परिवर्तन के बहाने ईसाईयों पर सवाल उठा रहा है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

खैर, यह तो सरकार की बात है। सरकारों की बात यदि हम पत्रकार मानने लगें तो हम पत्रकारों और सरकार के कर्मियों के बीच का अंतर खत्म हो जाएगा। हालांकि कई बार मैंने पहले पन्ने पर मुख्यमंत्री की खबरें प्रकाशित की। लेकिन यह तभी किया जब मुख्यमंत्री के कार्यक्रम की रिपोर्टिंग हमारे किसी पत्रकार ने खुद की।

दरअसल, प्रेस विज्ञप्तियां किसी खबर का हिस्सा हो सकती हैं, लेकिन खबर नहीं हो सकतीं। लेकिन मैं यह भी मानता हूं कि हर मीडिया संस्थान के अपने कायदे-कानून होते हैं। मैं तो आज दिल्ली से प्रकाशित जनसत्ता को देख रहा हूं। अखबार ने पहले पन्ने पर एक खबर प्रकाशित किया है, जिसका एक उपशीर्षक है– ‘पोप फ्रांसिस से मिले मोदी, भारत आने का दिया न्योता।’ वहीं मुख्य शीर्षक है– ‘जलवायु संकट, गरीबी और महामारी पर चर्चा।’ इस खबर में जनसत्ता ने न्याय किया है। हालांकि इसमें लेखक पत्रकार का अपना निजी विचार भी सामने आता है। लेकिन जो भी है, वह एक खबर है और अखबार ने खबर के तीसरे पैरा में जाकर इस बात का खुलासा किया है कि– ‘विदेश मंत्रालय ने एक प्रेस विज्ञप्ति में कहा कि पोप फ्रांसिस ने वेटिकन में एपोस्टालिक पैलेस में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का स्वागत किया।’

जैसा कि मैंने कहा कि हर संपादक या फिर कहिए कि मीडिया संस्थान के कायदे-कानून होते हैं, यदि मैं होता तो खबर का शीर्षक होता– ‘रोम में पीएम को आयी गरीबी की याद, जलवायु संकट और महामारी पर भी की चर्चा।’ और दूसरी बात यह कि खबर के पहले पैरा में इसका उल्लेख होता कि इन सूचनाओं का स्रोत विदेश मंत्रालय द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ति है।

[bs-quote quote=”होसबाले ने कहा है कि महात्मा गांधी ने भी धर्म परिवर्तन का विरोध किया था। यह वही आरएसएस है, जिसने (आरएसएस समर्थक नाथूराम गोडसे ने) 30 जनवरी, 1948 को गांधी को गोली मारकर  हत्या कर दी थी। सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि अपनी इस कारिस्तानी के लिए आजाद भारत के सबसे पहले इस आतंकी संगठन ने आजतक अपना अपराध नहीं स्वीकार किया है। यह वही संगठन है जिसे सरदार पटेल ने बतौर गृह मंत्री आतंकी संगठन करार देते हुए प्रतिबंधित किया था।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

जनसत्ता को पसंद करने के पीछे जो मुख्य कारण है, वह यह कि यह एकमात्र हिंदी अखबार है, जो पत्रकारिता के अधिक से अधिक सिद्धांतों को पालन करता है। अब यह जनसत्ता का साहस ही है कि उसने पहले पन्ने पर ही आरएसएस के महासचिव दत्तात्रेय होसबाले का बयान खबर के रूप में प्रकाशित किया है– ‘धर्म परिवर्तन की सूचना दें लोग : होसबाले।’ यह खबर नरेंद्र मोदी के रोम वाली उपरोक्त खबर के बिल्कुल नीचे है। पहले वाली खबर में नरेंद्र मोदी और पोप फ्रांसिस की तस्वीर है। अखबार ने अपना काम इन दोनों खबरों को एक ही पन्ने और आसपास जगह देकर कर दिया है। अब पाठक अपने विवेक के आधार पर यह तय करें कि आरएसएस का प्यादा रोम के पोप से गले मिल रहा है और दूसरा प्यादा धर्म परिवर्तन के बहाने ईसाईयों पर सवाल उठा रहा है।

यह भी पढ़ें :

सुप्रीम कोर्ट का साहस, नरेंद्र मोदी की नैतिकता (डायरी 28 अक्टूबर, 2021)  

दरअसल, मेरी जेहन में एक सवाल है कि इक्कीसवीं सदी के पहले दो दशकों में भारत में यदि लोगों ने धर्म परिवर्तन किया है तो वह कौन सा धर्म है, जिसे सबसे अधिक लोगों ने स्वीकारा है? चूंकि मेरे पास इस सवाल का कोई आधिकारिक जवाब नहीं है, इसलिए मैं ठोस रूप से तो कुछ नहीं कह सकता। परंतु, मुझे लगता है कि ईसाई धर्म पहले नंबर पर है, दूसरे नंबर पर बौद्ध धर्म और तीसरे नंबर पर इस्लाम।

 

लौह पुरुष सरदार पटेल

दत्तात्रेय ने अपने उपरोक्त खबर के समर्थन में महात्मा गांधी का सहारा लिया है। वैसे यह वाकई दिलचस्प है कि आरएसएस आज के दौर में गांधी का उपयोग कर रहा है। होसबाले ने कहा है कि महात्मा गांधी ने भी धर्म परिवर्तन का विरोध किया था। यह वही आरएसएस है, जिसने (आरएसएस समर्थक नाथूराम गोडसे ने) 30 जनवरी, 1948 को गांधी को गोली मारकर  हत्या कर दी थी। सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि अपनी इस कारिस्तानी के लिए आजाद भारत के सबसे पहले इस आतंकी संगठन ने आजतक अपना अपराध नहीं स्वीकार किया है। यह वही संगठन है जिसे सरदार पटेल ने बतौर गृह मंत्री आतंकी संगठन करार देते हुए प्रतिबंधित किया था। आज पटेल को याद करने का दिन भी है।

बहरहाल, पत्रकारिता के अपने मजे और अपनी चुनौतियां हैं। जनसत्ता को बधाई कि उसने अपनी रीढ़ को अधिकतम सीमा तक सीधा रखा है। कल देर शाम एक कविता जेहन में आयी, लेकिन जब लैपटॉप के स्क्रीन पर देखा तो वह ग़ज़ल  बन चुकी थी।

हुक्मरान जबसे साहब कहलाने लगे हैं,

मुल्क का हाल आंकड़ों में बताने लगे हैं।

अखबारों में छपते हैं रोज बयान उनके,

खबरों की कीमत भी खूब लगाने लगे हैं।

महंगाई, बेरोजगारी का मत पूछिए हाल,

पूछने पर वह जानवर-सा गुर्राने लगे हैं।

हैरान हैं हम तो उनकी अदा देखकर,

दाढ़ी बढ़ा खुद को इंसान कहलाने लगे हैं।

सुना है बनवा रहे हैं कोई संसद नया,

कमाल कि सांसदों का मुख दबाने लगे हैं।

हर आपदा में करते हैं कमाल की बातें,

बस खुद को धन्यवाद दिलवाने लगे हैं।

ईडी, सीबीआई हुए सब तोते पुराने,

विदेशी कंपनी से जासूसी करवाने लगे हैं।

बहुत हुआ मुल्क में अमन और चैन नवल,

हुक्मरान अब बंदूक का डर दिखाने लगे हैं।

नवल किशोर कुमार फारवर्ड प्रेस में संपादक हैं ।

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