Tuesday, April 16, 2024
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कब तक रुके रहेंगे ये फैसले उर्फ सिनेमा में न्याय व्यवस्था का चित्रण

भारतीय संविधान में देश की राजव्यवस्था को संचालित करने के लिए व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की व्यवस्था की गई थी और इन तीनों पर नज़र रखने एवं सतर्क करने के लिए मीडिया को चौथा स्तम्भ माना गया। देश संविधान में दी गई व्यवस्थाओं के अनुसार चले। रूल ऑफ ला पूरी तरह लागू हो और लागू […]

भारतीय संविधान में देश की राजव्यवस्था को संचालित करने के लिए व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की व्यवस्था की गई थी और इन तीनों पर नज़र रखने एवं सतर्क करने के लिए मीडिया को चौथा स्तम्भ माना गया। देश संविधान में दी गई व्यवस्थाओं के अनुसार चले। रूल ऑफ ला पूरी तरह लागू हो और लागू करने वाली मशीनरी में प्रोफेशनल लोग हों तो हमारा लोकतंत्र सशक्त बना रहेगा। इसी सोच के तहत संविधान निर्माताओं ने विविध प्रकार के प्राविधान किये। आज़ादी के 75 साल पूरे होने पर अमृत महोत्सव पूरे देश में मनाया जा रहा है। देश की उपलब्धियों पर गर्व करने के साथ साथ स्वतंत्रता संग्राम में अपना सब कुछ न्योछावर करने वाले नायकों को भी याद किया जा रहा है। स्वतंत्रता सेनानियों के सपनों का भारत बनाने की व्यवस्था संविधान में दी गयी। इसमें कोई मतभेद नहीं कि भारतीय संविधान के अनुसार चलते हुए भारत ने अपने लोकतंत्र को मजबूत किया है लेकिन राजनीतिक लोकतंत्र से अलग जब हम डॉ. अंबेडकर के सोशल डेमोक्रेसी की बात करते हैं तो वहाँ की तस्वीर निराशाजनक दिखाई पड़ती है। जातीय और धार्मिक विभेद अभी कम नहीं हुए हैं, उल्टे कुछ मामलों में भेद गहरे हुए हैं। समुदायों के बीच शक, संवादहीनता और दूरियाँ बढ़ी हैं। इस आलेख में हम कुछ फिल्मों की विषय-वस्तु के माध्यम से भारतीय न्याय व्यवस्था और आम आदमी तक उसकी पहुँच और सही मायने में उन्हें सुगम और त्वरित न्याय मिलने की राह में जो मुश्किलें हैं उनके बारे में विचार करेंगे।

[bs-quote quote=”भारतवर्ष के नए माननीय मुख्य न्यायाधीश ने अपना पदभार ग्रहण करने के बाद जो विचार न्यायपालिका को समावेशी बनाने और कई सुधारों के बारे में व्यक्त किये हैं वे अत्यंत सामयिक एवं महत्वपूर्ण हैं। स्वतंत्र, निष्पक्ष और देश की विविधता का प्रतिनिधित्व करती हुई न्याय व्यवस्था नागरिकों को त्वरित गति से सस्ता और आसानी से सुलभ न्याय देने में ज्यादा सक्षम होगी।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

भारतीय न्याय व्यवस्था और सिनेमा

तमाम गवाहों के बयानों और दलीलों को सुनने के बाद यह कोर्ट इस नतीजे पर पहुंची है कि मुलजिम विजय ही असली कातिल है और इसलिए यह अदालत उसे 14 साल की कैद-ए-बामशक्कत की सजा सुनाती है। भारतीय सिनेमा के दर्शकों ने कई बार इस वाक्य को सुना होगा। सिनेमा हॉल में तो कई बार हमने दर्शकों को भी इस वाक्य को दुहराते सुना है। कोर्ट में ऑर्डर-ऑर्डर कहते हुए लकड़ी का हथौड़ा मेज पर पीटते हुए जज साहब की आवाज बैकग्राउन्ड से आती रहती है और मुलजिम कोर्ट से जेल की सलाखों के पीछे जाने तक की दूरी तय कर लेता है। इमाइल दुर्खीम ने मानव समाज के बारे में कहा था कि अपराधशून्य समाज एक मृत समाज होगा अर्थात मानव समाज में अपराध न हो ऐसा हो नहीं सकता। मिशेल फुको जैसे दार्शनिक ने न्याय और जेल की व्यवस्थाओं के बारे में अपनी किताब डिसिप्लिन एंड पनिश : द बर्थ ऑफ द प्रिज़न में बताया कि औद्योगिक क्रांति के बाद यूरोप में अपराधियों को समाज से अलग कर जेल में रखने की व्यवस्था की गई। ऐसा माना गया कि ऐसे लोगों को समाज में रहने से नुकसान हैं। अपराधियों को दंड देने के लिए न्यायालयों की व्यवस्था की गई। ज्ञान, व्यक्ति और शक्ति का त्रिकोण बनाकर उन्होंने सत्ता-संबंधों को व्याख्यायित करने का काम किया।

आवारा (1951), अब दिल्ली दूर नहीं (1957), कानून (1960), बात एक रात की (1962), आक्रोश (1980), अंधा कानून (1983), अभिलाषा (1983), मोहन जोशी हाजिर हों (1984), मेरी जंग (1985), एक रुका हुआ फैसला (1986), दामिनी (1993), दाग: द फायर (1999), क्योंकि मैं झूठ नही बोलता (2001), एतराज (2004), शौर्य (2008), नो वन किल्ड जेसिका (2011), शाहिद (2012), ओह माय गॉड (2012), कोर्ट (2014 मराठी फिल्म), बिसरनई (2015), जज्बा (2015), तलवार (2015), रुस्तम (2016), जॉली एलएलबी (2013 & 2017), पिंक (2016), भूमि (2017), मोम (2017), बत्ती गुल मीटर चालू (2018), मुल्क (2018), सेक्शन 375 (2019), क्रिमिनल जस्टिस (वेब सीरीज 2019), इलीगल-जस्टिस :आउट ऑफ ऑर्डर (2020), योर ऑनर (वेब सीरीज 2020), जय भीम (2021), कागज (2021), मातृ (2022), गिल्टी माइन्डस (वेब सीरीज 2022) आदि न्याय व्यवस्था पर बनी फिल्में हैं।

हिन्दी भाषा और अन्य भाषाओं के साहित्य में भी समय-समय पर कोर्ट-कचहरियों की कार्य संस्कृति पर टिप्पणियाँ मिलती हैं। जनमानस में भी मुकदमों को लेकर अपनी समझ और कहावतें हैं। जैसे उत्तर प्रदेश के भोजपुरी भाषी क्षेत्रों में कहावत है कि ‘मुकदमा कहता है बस हमें छू भर दो’ उसके बाद बोतल से निकले जिन्न की तरह जिंदा हुआ मुकदमा आपके नियंत्रण से बाहर चलता रहता है और खत्म होने का नाम नहीं लेता। बस तारीख पर कचहरी जाते रहो। कुछ लोगों को इसमें मजा आने लगता है तो पूरे गाँव को धमकी ही देते रहते हैं कि मुकदमा लड़ावत- लड़ावत मारि डारब और ऐसे मुकदमेबाज लोगों से आम इंसान डरता है। डाकखाना के डाकिए द्वारा सम्मन देने आने पर अपने गाँव में दो परिवारों के बीच स्थायी दुश्मनी को स्थापित होते देखा है। सम्मन को बहुत ही अनपेक्षित घटनाक्रम माना जाता रहा है। न्यायिक व्यवस्था पर साहित्यकारों ने अपनी कलम चलाई है, जैसे सेना के न्यायालयों पर स्वदेश दीपक का नाटक कोर्ट मार्शल, भारतीय जनपदों की कचहरियों पर हृदयेश का उपन्यास सफेद घोड़ा काला सवार, फणीश्वरनाथ रेणु के उपन्यास मैला आँचल में भी कचहरी पर कमेन्ट दर्ज हैं। श्रीलाल शुक्ल के रागदरबारी का चरित्र लँगड़ किसे याद नहीं जो नकल मांगते-मांगते मार जाता है लेकिन नकल मिलने की प्रक्रिया का अंतहीन सिलसिला चलता रहता है। कचहरियों की बाबू संस्कृति ने आजाद देश में आम आदमी के भरोसे को बार-बार तोड़ने का काम किया है। रागदरबारी में ही इस आशय की टिप्पणी दर्ज है कि ‘कचहरी की दीवारों के अंदर कीट पतंगे भी घूस मांगते हैं’।

एक रुका हुआ फैसला (1986) ने न्यायिक चरित्र का एक अलग पहलू उजागर किया 

फिल्म एक रुका हुआ फैसला

फिल्म एक रुका हुआ फैसला की शुरुआत राजकपूर की फिल्म आवारा की तरह होती है जिसमें एक नौजवान लड़का कोर्ट के कटघरे में खड़ा है और उस पर इल्जाम है कि उसने एक व्यक्ति की हत्या की है। एक रुका हुआ फैसला बासु चटर्जी निर्देशित फिल्म है जो रिगनाल्ड रोज़ द्वारा लिखित अमेरिकन टेलीविजन सीरियल 12 एंग्री मेन (1957) का भारतीय संस्करण है। यह फिल्म एक कोर्ट रूम में आरंभ होती है जहां गंदी बस्ती के एक लड़के पर उसके अपने पिता की हत्या के आरोप में मुकदमा चल रहा है। कोर्ट की बहस पूरी होने के बाद जज साहब जूरी को निर्देश देते हैं कि वे तय करे कि लड़का हत्या का दोषी है या नहीं। यदि यह सिद्ध हो जाता है कि लड़के ने अपने बाप की हत्या की है तो उसे फांसी की सजा होनी तय है। एक बंद कमरे में सेंटर टेबल के चारों तरफ लगी कुर्सियों पर जूरी के 12 सदस्य (दीपक काजीर केजरीवाल, अमिताभ श्रीवास्तव, पंकज कपूर, एसएम जहीर, सुभाष उद्गते, हेमंत मिश्र, एमके रैना, केके रैना, अन्नू कपूर, सुब्बीराज, शैलेन्द्र गोयल एवं अज़ीज़ कुरैशी) एकत्र हैं। इसमें सदस्य नंबर 8 (केके रैना) को छोड़कर सभी ने पहले से मान लिया है कि लड़का दोषी है और वे सभी जल्दी से इस मामले को बहस में समय बर्बाद किये बिना कोर्ट को वापस करना चाहते हैं। अलग मत रखने के कारण बाकी सदस्य केके रैना से नाराज हो जाते हैं।

बात की शुरुआत होती है। तर्क-वितर्क होते हैं। सभी सदस्यों के अपने-अपने पूर्वाग्रह और तर्क हैं। बहस धीरे-धीरे आगे बढ़ती है, खूब तर्क-वितर्क होते हैं। असहमति से विवाद और मारपीट की भी नौबत आती है लेकिन क्लाइमैक्स पर सभी सदस्य एकमत से अपनी संस्तुति कोर्ट को भेजते हैं कि लड़का दोषी नहीं है और उसने अपने बाप की हत्या नहीं की है। इस फिल्म में जो जूरी के सदस्य हैं सबके अपने अलग-अलग अनुभव और पूर्वाग्रह हैं और वे उसी के दायरे मे सोचते हैं। किसी को गंदी बस्ती में रहने वाले सभी गरीब अपराधी नजर आते हैं और वह उनकी जनसंख्या बढ़ते जाने से बहुत ही चिंतित है और उन्हें बार-बार गालियां देता है। एक सदस्य को शाम को दिलीप कुमार की मशाल फिल्म देखने जाना है जिसका टिकट बड़ी मुश्किल से मिला है। वह जल्दी से बिना किसी बहस और विचार के लड़के को हत्यारा घोषित कर वहाँ से जाना चाहता है। पंकज कपूर के चरित्र के बेटे ने उसे धोखा दिया है इसलिए नयी पीढ़ी के प्रति उसके मन में घोर नफरत भरी हुई है और सबसे अंतिम सदस्य होता है जो अपने विचार और पूर्वाग्रह से बाहर आकर तटस्थ भाव से सोच पाता है। कुछ सदस्य समाज के उसी कमजोर तबके से आते हैं जिस स्लम के माहौल से आरोपी लड़का आता है। वे पहले चुप रहते हैं लेकिन जब वे बोलते हैं तो उस भारत का पता चलता है जहां बच्चे पैदा होते ही अभाव, गरीबी और अपराध के वातावरण में सांस लेते हैं। चाकू चलाना, जेब काटना या अन्य तरह के अपराध उन्हें सामान्य सी बात लगती है और उन्हें उस दायरे से बाहर लाकर एक सभ्य नागरिक बनाने के लिए बने संस्थानों तक उनकी पहुँच सुनिश्चित करने वाली कड़ियाँ मिसिंग हैं। इस फिल्म में अपराध-अपराधी, अमीरी-गरीबी, पूर्वाग्रह-तटस्थता, बातचीत, तर्क-वितर्क से समाधान जैसे तमाम मुद्दों से दर्शक रूबरू होते हैं। एक छोटे से कमरे में फिल्माई गई यह फिल्म जिसमें कोई मसाला, नाच-गाना नहीं घुसेड़ा गया है बहुत ही वैज्ञानिक तरीके से अपने विषय पर केंद्रित रहती है। यह भारतीय सिनेमा की एक अनुपम उपलब्धि है, जिसे सभी को एक बार देखना चाहिए।

मोहन जोशी हाजिर हो (1984) न्यायिक प्रणाली पर व्यंग्य 

मोहन जोशी हाजिर हो फिल्म के एक दृश्य में कलाकार

प्रख्यात फिल्मकार सईद अख्तर मिर्जा ने समानांतर सिनेमा की इस फिल्म का निर्माण किया था जिसमें भारतीय न्यायिक प्रणाली पर कटाक्ष किया गया था जहां वर्षों तक मुकदमे लंबित रहते हैं। एक ही मुकदमें कई सालों तक और कभी दो-तीन पीढ़ियों तक लड़े जाते हैं। एक व्यक्ति के मरने पर उसके वारिसों को कायम मुकाम (substitute) के तौर पर लाल कलम से मुकदमों के वादी या प्रतिवादी की जगह दर्ज या तरमीम किया जाता है। एक पक्ष मुकदमे को लटकाने (linger on) के लिए कोर्ट में हाजिर न हो तो उसके खिलाफ एक पक्षीय (ex party) कार्यवाही आगे बढ़ते ही वह कोर्ट मे हाजिर होकर आगे बढ़ी कार्यवाही को वापस कराने के लिए पुनर्स्थापन प्रार्थना पत्र (restoration application) देता है और पीठासीन अधिकारी को कोर्ट मैनुअल और सभी पक्षों को सुनने की प्रक्रियागत बाध्यता के कारण आगे बढ़ी कार्यवाही को पीछे ले जाना पड़ता है। इस तरह न्यायिक प्रक्रिया में बाधा डालकर कुछ लोग प्रभावित लोगों को न्याय पाने से रोकते हैं। लोग न्याय न मिलने पर न्यायिक व्यवस्था में भरोसा खोने लगते हैं। इस फिल्म में मिस्टर मलकानी (नसरुद्दीन शाह), रोहिणी हट्टङ्गड़ी जैसे कलाकारों ने वकीलों की भूमिका निभाई है, जो दुनिया के लिए दो विपक्षी पार्टियों/ मुवक्किलों के वकील हैं लेकिन वे न केवल अच्छे दोस्त हैं बल्कि एक बिस्तर में रात बिताते हुए एक आम इंसान और मुकदमे के वादी मोहन जोशी (भीष्म साहनी) और उनकी पत्नी (दीना पाठक) को छलने का षड्यन्त्र रचते हुए दिखते हैं। उनके लिए अपनी फीस के पैसे ही सब कुछ हैं।

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मुंबई की एक पुरानी जर्जर चाल में कई परिवार रहते हैं लेकिन उनका मकान मालिक (अमजद खान) उस बिल्डिंग की मरम्मत नहीं करवाता है। वह चाहता है कि लोग उस चाल को छोड़कर चले जाएँ तो पुराने भवन को गिराकर कई मंजिलों की ऊंची मॉडर्न इमारत बनाई जाए। मालिक के लिए वह चाल एक ईंट-पत्थर की बिल्डिंग मात्र है लेकिन मोहन जोशी का जुड़ाव भावनात्मक है, क्योंकि वे इस चाल में दो पीढ़ियों से रह रहे हैं। उनके बच्चे उस घर में पैदा हुए और बड़े हुए हैं। उनकी शादी हुई और उनकी अगली पीढ़ी के नाती-पोते भी उनके साथ अब रह रहे  हैं। वे एक रिटायर आदमी हैं जिनकी इतनी आमदनी नहीं है कि मुंबई जैसे महानगर में अपना घर बना लें या नया घर किराये पर ले सकें। जर्जर चाल में लोग लकड़ी की बल्लियाँ लगाकर गिरने से रोके हुए हैं और किसी तरह गुजर-बसर कर रहे हैं। मोहन जोशी और उनकी पत्नी अपने मकान मालिक के खिलाफ कोर्ट में मुकदमा दायर करते हैं तो चाल के अन्य रहवासी उनका मजाक उड़ाते हैं, नीचा दिखाते हैं। लेकिन न्यायपालिका में भरोसा करते हुए मोहन जोशी मिस्टर मलकानी और उसके साथी सतीश शाह को अपना वकील करते हैं। चाल के मालिक  अमजद खान की वकील रोहिणी हट्टन्गणी होती हैं। कई सुनवाइयों के बाद जज साहब मकान का मौका-मुआइना करने के लिए आते हैं लेकिन तत्काल की गयी बाहरी साफ-सफाई से जब प्रभावित होने लगते हैं तो मोहन जोशी जर्जर बिल्डिंग का सच दिखाने के लिए अपने कमरे में लगी लकड़ी की बल्ली हिलाकर गिरा देते हैं और उनकी छत जोर की आवाज के साथ गिर पड़ती है और जज साहब को सब कुछ दिख जाता है। परंतु सच सामने लाने के लिए मोहन जोशी को अपनी जान गंवानी पड़ती है। इस फिल्म को सन 1984 में परिवार कल्याण के विषय पर राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला था।

फिल्म दामिनी का एक दृश्य

न्याय व्यवस्था पर बनी अन्य फिल्मों का जिक्र करें तो बीआर चोपड़ा ने अपनी फिल्म कानून (1960) में अदालत को पूरी गरिमा और निष्ठा के साथ दिखाने का प्रयास किया था। यह फिल्म फांसी की सजा पर एक गंभीर विमर्श प्रस्तुत करती है। दामिनी (1993) फिल्म ने महिलाओं के यौन शोषण और हिंसा के खिलाफ कोर्ट रूम कार्यवाही के माध्यम से एक मजबूत विमर्श खड़ा किया और इस फिल्म को इस विषय के एक बेहतरीन उदाहरण के तौर पर माना जाता है। मीनाक्षी शेषाद्रि ने दामिनी नाम की एक अमीर परिवार की बहू की भूमिका में शानदार अभिनय किया है जो अपने देवर और उसके दोस्तों द्वारा अपनी नौकरानी को जबरन बलात्कार करते हुए देख लेती है और उसे न्याय दिलाने के लिए अपने ही परिवार के लोगों से लड़ती है। इस फिल्म में अमरीश पुरी और युवा वकील गोविंद की भूमिका में सन्नी देओल ने काम किया जिनका संवाद तारीख पर तारीख बहुत ही प्रसिद्ध हुआ जो न्यायलयों के कामकाज और प्रक्रियाओं को लेकर एक गंभीर सवाल खड़ा करता है कि आम आदमी को न्याय के बदले इंतजार और तारीख मिलती है। अलग-अलग कानूनी विषयों और अपराधों पर केंद्रित फिल्में कोर्ट रूम डिबेट और अन्य पहलुओं को सामने लाती हैं। इन फिल्मों में कसूर (2001) में  लीजा रे ने सिमरन नाम के एक क्रिमिनल लायर की भूमिका निभाई थी। सन 2004 मे आई फिल्म एतराज भी कोर्ट रूम और न्यायिक प्रक्रियाओं का वास्तविक चित्रण करती है। इस फिल्म में महिला बॉस (प्रियंका चोपड़ा) और पूर्व प्रेमिका अपनी कंपनी के कर्मचारी पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाती है। एक युवा महिला क्रिमिनल वकील की भूमिका मे करीना कपूर (प्रिया सक्सेना) अपने पति (अक्षय कुमार) को झूठे रेप केस से बचाने की कोशिश करती हैं। फिल्म में प्रियंका चोपड़ा और करीना दोनों के अभिनय को प्रशंसा मिली थी। फिल्म जज्बा में ऐश्वर्या राय ने क्रिमिनल लायर अनुराधा की भूमिका की थी जो अपनी बेटी के अपहरण के बाद उसे बचाने के लिए अपहरणकर्ता (शबाना आजमी) के कहने पर न चाहते हुए भी एक बलात्कारी मियाज शेख के पक्ष में केस लड़ने को तैयार हो जाती हैं। उसे बचाकर अपहरणकर्ता को सौंप देती है जिसे अपनी बेटी के रेप का बदला अपने हाथों से दंड देकर लेना है। किस तरह एक सक्षम वकील कोर्ट रूम में दलीलें, सबूत और गवाह पेश करके मुकदमे जीतकर गुनाहगारों को भी बचा लेता है यह एक गंभीर विचारणीय मुद्दा है। दाग : द फायर और अन्य कई फिल्मों में हम लोगों ने ऐसे दृश्य देखे हैं।

सेक्शन 375 फिल्म का एक दृश्य

कुछ कानूनों या कानूनी प्रावधानों का भारत देश में बहुत ज्यादा दुरुपयोग होता है जैसे कि आईपीसी की धारा 354, 375 और 376 आदि। सन 2019 में आई फिल्म सेक्शन 375 दुष्कर्म के झूठे मुकदमों के राष्ट्रीय महामारी में बदलने की समस्या को गंभीरता से उठाती है। फिल्मों में कुछ बातें नाटकीय तौर पर पेश की जाती हैं। सन 1969 में ओथ एक्ट बनने के बाद धार्मिक पुस्तकों पर हाथ रखकर कसम खाने की परंपरा समाप्त हो गई। अब केवल एक सर्व शक्तिमान ईश्वर की कसम दिलाई जाती है। नास्तिक व्यक्तियों और 12 साल से कम उम्र के बच्चों को कोई कसम नहीं लेनी होती है। फिल्म एक रुका हुआ फैसला (1986) और रुस्तम (2016) में अदालतों में जज के साथ जूरी भी दिखाई गई थी जो किसी केस में अंतिम निर्णय तक पहुँचने में जज की मदद करती थीं। अब भारतीय न्यायपालिका में जूरी की व्यवस्था समाप्त कर दी गई है।

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न्याय व्यवस्था से जुड़े डिसकोर्स 

वर्तमान केन्द्रीय कानून मंत्री किरण रिजिजू ने कालेजियम सिस्टम पर टिप्पणी कर इसे और खुला और लोकतान्त्रिक बनाए जाने की मांग की है। अपना दल की सांसद और मंत्री अनुप्रिया पटेल और अन्य सदस्यों ने कई बार संसद में भारतीय न्यायिक सेवा आयोग का गठन कर अखिल भारतीय स्तर पर भारतीय न्यायिक सेवा आरंभ करने की मांग की है ताकि देश के प्रत्येक क्षेत्र और समुदाय से प्रतिभावान अभ्यर्थियों का चयन न्यायिक सेवाओं में पारदर्शी तरीके से किया जा सके। इस प्रक्रिया से देश के सभी समुदायों को न्यायिक सेवाओं में उच्चस्तर पर प्रतिनिधित्व सुनिश्चित हो सकेगा और जस्टिस डेलीवरी भी सरल, सुगम और सर्वसुलभ होगा।

फिल्म दाग द फायर का एक दृश्य

जनपद स्तरीय अदालतों में तो पर्याप्त विविधता है और लोअर जुडीसियरी में लोक सेवा आयोग के माध्यम से रेगुलर परीक्षाओं के द्वारा न्यायिक अधिकारियों की भर्ती होते रहने के कारण वहाँ समाज के सभी वर्ग के लोगों को प्रतिनिधित्व मिलता है लेकिन वकील वर्ग के कम्पोजिशन में अभी-भी परंपरागत रूप से प्रभुत्वशाली और शहरी मध्यम वर्ग का ही दबदबा है। नए लोगों का वहाँ प्रवेश आसान नहीं है। नए वकीलों के तख्ते और कुर्सी मेज फेंक या जला देने की भी घटनाएं सामने आती हैं। इस विषय पर ध्यान देने और सबको समान अवसर देने की आवश्यकता है। अपराधियों के राजनीति में प्रवेश पर रोक, गवाहों की सुरक्षा का मुद्दा, पुलिस द्वारा समय पर गंभीर आपराधिक केसों में चार्जशीट लगाने और विवेचना करने, निर्दोष लोगों पर मुकदमे न लगाने जैसे बहुत सारे मुद्दे हैं जिन पर अभी बहुत काम किया जाना बाकी है। कुछ महत्वपूर्ण बिन्दु निम्न प्रकार हैं:

  1. पात्रता परीक्षा पास करने के बाद ही वकालत के पेशे में लोग आएँ।
  2. लॉ ग्रैजुएट अपनी पसंद के अनुसार सिविल, क्रिमिनल, भूमि व राजस्व, इनकम टैक्स, परिवहन मे किसी एक क्षेत्र मे प्रैक्टिस करें। एक ही वकील के कई तरह के मामलों मे पैरवी करने से काम की गुणवत्ता प्रभावित होती है। एक कोर्ट में व्यस्त अधिवक्ता अन्य अदालतों मे समय मांगते रहते हैं जिससे फरियादियों और कोर्ट का समय खराब होता है।
  3. डिस्ट्रिक्ट कोर्ट, जिलाधिकारी आफिस और कोर्ट के परिसरों में पर्याप्त दूरी हो क्योंकि अधिवक्ता और उनके स्टाफ की ज्यादा संख्या एक स्थान पर जुटने से काम में असुविधा होती है और आए दिन विवाद, गुटबाजी से न्यायिक कार्य नकारात्मक रूप से प्रभावित होता है। ऐसा व्यावहारिक अनुभव के आधार पर कहा जा रहा है।
  4. पब्लिक प्रासिक्यूटर की भांति ही शासकीय अधिवक्ताओं का भी स्थायी कैडर होना चाहिए। उन्हें पार्टी और सरकार के बदलने के साथ न बदला जाए ताकि निष्पक्ष और त्वरित न्याय सुनिश्चित किया जा सके।
  5. शांति व्यवस्था प्रभावित करने वाले विवादों के त्वरित निस्तारण के लिए कार्यकारी मजिस्ट्रेट और अधिकारियों को और अधिकार देने की जरूरत है। न्यायिक प्रक्रिया में लोग जान-बूझकर समय खराब करने के तरीके न ढूँढें इसके लिए सहज उपाय किये जाने चाहिए।
  6. न्यायपालिका के फैसले सभी भारतीय भाषाओं में उपलब्ध कराने की व्यवस्था केंद्र और राज्य सरकारें करें। न्यायपालिका के फैसलों की आलोचना मेरिट के आधार पर संसदीय भाषा में एकेडेमिक, अधिवक्ता, पत्रकार और जनता को करने की छूट होनी चाहिए। जनता को कानून की जानकारी के लिए प्रशिक्षित किया जाना। महत्वपूर्ण फैसलों पर मीडिया में व्यापक चर्चा औए बहस होनी चाहिए ताकि जनता को स्वस्थ कानूनी शिक्षण मिल सके।

फिल्म कसूर का एक दृश्य

हम समाजशास्त्री के विद्यार्थी हैं। एथनोमेथडोलॉजी नामक समाज विज्ञान की शाखा का उद्भव कचहरी से हुआ। एथनोमेथडोलॉजी एक अन्तःक्रियात्मक समाज विज्ञान है जिसका प्रतिपादन हेराल्ड गारफिंकल ने सन 1954 में किया था। उन्होंने कचहरी परिसर में जूरी सदस्यों के आचरण, शब्दों के प्रयोग, व्यवहार, आपसी बातचीत का अध्ययन कर इस विज्ञान की रूपरेखा प्रस्तुत किया था। न्यायिक कार्य में तथ्यों को खोजने व स्थापित करने, साक्ष्यों को जुटाने, उनकी कड़ियों को जोड़ने, गवाहों की विश्वसनीयता को प्रमाणित करने, दोषी या निर्दोष घोषित करने के निर्णय तक पहुंचना इत्यादि कई दायित्व जूरी सदस्य निभाते हैं और एक प्रणाली की तरह काम करते हैं। यह सारा कार्य शोध की दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण होता है जैसा कि हम फिल्म एक रुका हुआ फैसला में देखते हैं।

न्याय-व्यवस्था को विविधतापूर्ण और सर्वसमावेशी बनाने की जरूरत 

भारतवर्ष के नए माननीय मुख्य न्यायाधीश ने अपना पदभार ग्रहण करने के बाद जो विचार न्यायपालिका को समावेशी बनाने और कई सुधारों के बारे में व्यक्त किये हैं वे अत्यंत सामयिक एवं महत्वपूर्ण हैं। स्वतंत्र, निष्पक्ष और देश की विविधता का प्रतिनिधित्व करती हुई न्याय व्यवस्था नागरिकों को त्वरित गति से सस्ता और आसानी से सुलभ न्याय देने में ज्यादा सक्षम होगी। आर्थिक रूप से कमजोर सवर्णों को दिए जाने वाले दस प्रतिशत आरक्षण पर हुई लंबी बहस और उस पर आए पाँच जजों की बेंच के फैसले पर जो प्रतिक्रियाएं आई हैं, बड़े बेंच में अपील की जो तैयारी हो रही है उसने देश के प्रबुद्ध वर्ग को बहुत आंदोलित किया है। संविधान के आर्टिकल 15 और आर्टिकल 375 पर फिल्में बनी हैं। नई वेब सीरीज भी न्यायपालिका को केंद्र में रखकर बन रही हैं जो दर्शकों-नागरिकों को विभिन्न मुद्दों पर कानूनी शिक्षण देने का काम भी कर रही हैं। समय-समय पर न्यायिक सुधार आयोगों की दी गई सिफारिशों को लागू कर सुधार करने के साथ-साथ गुणवतापूर्ण फिल्में बनाकर भारतीय न्याय प्रणाली के बारे में नागरिकों को जागरूक व उनको अपने अधिकारों के बारे में प्रशिक्षित किया जा सकता है।

संदर्भ

अनुपम, विनोद (2022) अधकचरी है फिल्मी कचहरी, झंकार दैनिक जागरण, 6 नवंबर 2022, लखनऊ।

फुको, मिशेल (1977) डिसिप्लिन एण्ड पनिश: द बर्थ ऑफ द प्रिज़न, विन्टिज बुक्स ।

गारफिंकल, एच. (1984) स्टडीज इन एथनोमेथडोलॉजी, पालिटी प्रेस, कैम्ब्रिज।

राकेश कबीर प्रसिद्ध कवि-कथाकार और सिनेमा के समाजशास्त्रीय अध्येता हैं। 

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6 COMMENTS

  1. सिनेमा के माध्यम से न्यायिक व्यवस्था पर सारगर्भित लेख, अत्यन्त ज्ञानवर्धक है, भारतीय नागरिकों को न्यायिक प्रक्रिया के प्रति जागरूक करता लेख।

  2. हिंदी में फ़िल्म अध्ययन को गंभीरता से नहीं लिया जाता यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है। राकेश कबीर की फ़िल्म दृष्टि क़ाबिले तारीफ़ है। न्याय व्यवस्था पर बनी फिल्मों का इतना गहन अध्ययन। इसे कानून के विद्यार्थियों को पढ़ना चाहिए। बहुत बहुत बधाई।

  3. न्याय व्यवस्था पर लिखा गया यह लेख ज्ञानवर्धक, विश्लेषणातंमक, विवेचनात्मक ,आलोचनात्मक एवम रोचकता से परिपूर्ण है।
    इस आलेख में विभिन्न बिंदुओं पे प्रकाश डाला गया है।
    1- न्याय व्यवस्था पे बनी अब तक हिन्दी जगत (बॉलीवुड) की फिल्मे।
    2-न्याय व्यवस्था और आम आदमी तक उसकी पहुंच एवं उन्हें सुगम और त्वरित न्याय मिलने की राह में आने वाली मुश्किलें ।
    3- कानून अंधा होता है ( वकील के द्वारा एक गुनहगार को झूठी सबूतों एवम झूठी गवाही के द्वारा बचा लेना)
    4-न्यायिक प्रक्रिया में जूरी के सदस्यों जो अपने अनुभव और पूर्वाग्रह के दायरे में रहकर सोचना एक विचारणीय।
    5-न्यायिक व्यवस्था में सुधार लाने के लिए अभी भी किन किन विषयों पे काम करना आवश्यक है।
    इसके अलावा आपने इस लेख को रोचकदार बनाने के लिए देहाती शब्दो जैसे की मुकदमा लड़ावत लडावत मार डालेब का प्रयोग किए है।
    बहुत सराहनीय लेख आदरणीय बहुत बहुत बधाई एवम शुभकामनाएं🌻🌻🌻🌻🙏🙏🙏🙏🙏

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