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भूलने के दौर में इन्दिरा गांधी की यादें

इकतीस अक्टूबर को देश ने आयरन मैन सरदार वल्लभ भाई पटेल की जयंती मनाई। परंतु 31 अक्टूबर का एक और महत्व है। उस दिन देश की तीसरी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या की गई थी। उसके पूर्व पूरा देश उन्हें आयरन वूमेन के रूप में स्वीकार कर चुका था। इकतीस अक्टूबर को भारत सरकार ने […]

इकतीस अक्टूबर को देश ने आयरन मैन सरदार वल्लभ भाई पटेल की जयंती मनाई। परंतु 31 अक्टूबर का एक और महत्व है। उस दिन देश की तीसरी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या की गई थी। उसके पूर्व पूरा देश उन्हें आयरन वूमेन के रूप में स्वीकार कर चुका था। इकतीस अक्टूबर को भारत सरकार ने सरदार पटेल को याद करते हुए विज्ञापन निकाले। परंतु इंदिरा गांधी को पूरी तरह भुला दिया गया।

न सिर्फ इंदिराजी को भुलाया जा रहा है परंतु उनके महान पिता स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी नेता जवाहरलाल नेहरू को भी पूरी तरह से भुला दिया गया है। चौदह नवंबर को उनका जन्म दिन मनाया जाता था। उस दिन सारे देश के बच्चे उन्हें चाचा नेहरू के रूप में याद करते थे। चौदह नवंबर सारे देश में बाल दिवस के रूप में मनाया जाता था। अब सरकार के स्तर पर यह सब कुछ बंद है। अधिकांश समाचार पत्र अब 14 नवंबर को नेहरूजी को याद नहीं करते हैं। लगता है इन समाचार पत्रों के कर्ता-धर्ताओं का यह सोच होगा कि कहीं हमने नेहरूजी की फोटो छापी तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी नाराज न हो जाएं। यही स्थिति इंदिराजी के संबंध में है। उन्हें भी केन्द्र सरकार और भाजपा शासित राज्य सरकारें याद नहीं करती हैं।

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परंतु इंदिराजी ने अपने प्रधानमंत्रित्व के दौरान कुछ ऐसे करिश्माई काम किए जो शायद एक साधारण राजनीतिज्ञ नहीं कर सकता। प्रधानमंत्री बनने के तीन वर्ष बाद उन्होंने बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया और राजा-महाराजाओं को मिलने वाला प्रीवी पर्स बंद कर दिया। प्रीवि पर्स के रूप में राजा-महाराजाओं को एक प्रकार की मासिक पेंशन मिलती थी। इस तरह उन्होंने देश के औद्योगिक घरानों और सामंती ताकतों को नाराज कर दिया।

इसके कुछ समय बाद देश को पूर्वी पाकिस्तान की समस्या का सामना करना पड़ा। इस समस्या के दो प्रमुख कारण थे। पहला, पाकिस्तान की केन्द्रीय सरकार पूर्वी पाकिस्तान पर उर्दू लादना चाहती थी और दूसरा यह कि पाकिस्तान में हुए चुनाव में अवामी लीग की जीत हुई थी, जिसे स्वीकार करने को पश्चिमी पाकिस्तान के नेता तैयार नहीं थे। अवामी लीग की जीत के चलते पूर्वी पाकिस्तान के सर्वमान्य नेता शेख मुजीबुर रहमान को प्रधानमंत्री बनाया जाना था परंतु ऐसा नहीं होने दिया गया। इसके विरूद्ध पूर्वी पाकिस्तान की जनता ने विद्रोह कर दिया। मुक्ति वाहिनी का गठन कर वहां के निवासियों ने पश्चिमी पाकिस्तान के विरूद्ध विद्रोह का झंडा उठा लिया।

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इस विद्रोह को दबाने के लिए पश्चिमी पाकिस्तान के शासकों ने देश की सेना का उपयोग किया। सेना ने पूर्वी पाकिस्तान में तरह-तरह की ज्यादतियां कीं, जिससे जनता का आक्रोश और बढ़ गया। जुल्मों की इंतिहां इतनी हो गई कि पूर्वी पाकिस्तान के नागरिक भारत में शरण लेने लगे। स्वाभाविक था कि ऐसी स्थिति में इंदिराजी मूकदर्शक नहीं बनी रह सकतीं थीं। उन्होंने पाकिस्तान की फौज के विरूद्ध पूर्वी पाकिस्तान की सहायता करना प्रारंभ कर दिया।

परिस्थितियों ने ऐसा मोड़ लिया कि अंततः पूर्वी पाकिस्तान अलग हो गया और बांग्लादेश के नाम से दुनिया के नक्शे पर एक नए देश का उदय हुआ। उस समय अमेरिका ने पाकिस्तान की मदद करने की कोशिश की। परंतु इसके बावजूद इंदिराजी ने जिस निर्भीकता से परिस्थितियों का मुकाबला किया, उससे प्रभावित होकर अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हें दुर्गा माता कहकर संबोधित किया। बांग्लादेश की समस्या का सफल निवारण करने के कारण इंदिराजी की लोकप्रियता आसमान छूने लगी। इसके बाद हुए चुनाव में उन्हें अभूतपूर्व सफलता मिली।

शायद उनकी लोकप्रियता प्रतिपक्ष के नेताओं को अच्छी नहीं लगी। इसलिए उनके विरूद्ध वातावरण बनाना प्रारंभ कर दिया। इस बीच एक ऐसी घटना घटी जिसकी इंदिराजी को उम्मीद नहीं थी। समाजवादी नेता राजनारायण ने उनके चुनाव को चुनौती देते हुए इलाहाबाद उच्च न्यायालय में याचिका दाखिल कर दी। याचिका को मंजूर करते हुए इलाहबाद हाईकोर्ट के जज जगमोहन सिन्हा ने उनके चुनाव को अवैध घोषित कर दिया। जिसके चलते उन्हें प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे देना था। परंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया, जिससे सारे देश में उनके इस्तीफे की मांग उठने लगी और अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो गई।

जयप्रकाश नारायण ने इस असंतोष का नेतृत्व संभाल लिया। उन्होंने देश की सेना और पुलिस से अपील की कि वह इंदिराजी के आदेशों को न मानें। ऐसा आदेश अत्यधिक खतरों से भरपूर था। ऐसी स्थिति में यदि सेना इंदिराजी को अपदस्थ कर देश की सत्ता पर कब्जा कर लेतीं तो हमारे देश की हालत पाकिस्तान जैसी हो जाती। शायद ऐसी स्थिति का मुकाबला करने के लिए इंदिराजी ने देश में आंतरिक आपातकाल लागू कर दिया। आंतरिक आपातकाल का प्रावधान हमारे देश के संविधान में है।

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आपातकाल के दौरान कुछ अच्छी बातें हुईं। पर प्रेस सेंसरशिप और मूलभूत अधिकारों के निलंबन का काफी विरोध हुआ। इसी दरम्यान संजय गांधी के मोर्चा संभालने से आपातकाल अलोकप्रिय हो गया। इसी बीच इंदिराजी ने पुनर्चिंतन प्रारंभ कर दिया और चुनाव की घोषणा कर दी जिसका सर्वत्र स्वागत हुआ। जिस समय इंदिराजी ने चुनाव की घोषणा की उस समय मैं मास्को में था। वह एक राजनयिक ने यह दावा किया कि इंदिराजी ने यह जानते हुए चुनाव की घोषणा की है कि वे चुनाव हार जाएंगीं। मैंने उनसे पूछा कि इंदिराजी ने ऐसा खतरा क्यों मोल लिया है तो उन्होंने अंग्रेजी में कहा Because democrat blood flows in her veins (उनके खून में प्रजातंत्र है)।

जैसा कि अनुमान था, चुनाव में उनकी हार हुई। परंतु उसके बाद प्रतिपक्ष ने जो शासन दिया वह अत्यधिक घटिया था। प्रतिपक्ष की सरकार ढाई साल से ज्यादा नहीं चल सकी और सन् 1980 में मध्यावधि चुनाव हुए और देश ने पुनः इंदिराजी के हाथ में सत्ता सौंप दी।

इस बीच इंदिराजी को एक और मुसीबत का सामना करना पड़ा। वह थी सिक्खों का आतंकवाद। सिक्खों का आतंकवाद सिर्फ आंतरिक समस्या नहीं थी उसकी जड़ें विदेशों तक में फैली थीं। पंजाब की स्थिति की चर्चा करते हुए इंदिराजी ने देश को सचेता करते हुए कहा था- ‘‘मैं आज यह कहने की स्थिति में हूं कि पंजाब की स्थिति अत्यधिक गंभीर है। इसके पहले देश की एकता के लिए इतना बड़ा खतरा पैदा नहीं हुआ और यह खतरा पंजाब की आंतरिक ताकतों से है परंतु इसकी जड़ें देश के बाहर भी हैं।’’

इस दौरान खालिस्तान की चर्चा जोर-शोर से होने लगी। पूरे पंजाब से हिन्दुओं को खदेड़ने की तैयारी की जाने लगी। आए दिन हिन्दुओं पर हिंसक हमले होने लगे। इस कठिन परिस्थितियों में इंदिराजी ने आपरेशन ब्लू स्टार का फैसला लिया। इस आपरेशन में सेना ने आश्चर्यजनक कार्य किया परंतु इंदिराजी को इसकी कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी। राष्ट्र की एकता के लिए ऐसे बलिदान के उदाहरण इतिहास में कम ही मिलते हैं।

इंदिरा गाँधी

आपरेशन ब्लू स्टार के कुछ दिनों बाद जब इंदिराजी ने देखा कि उनकी सुरक्षा में जो लोग रहते हैं उनमें से सिक्खों को हटा दिया गया है तो उन्होंने उन्हें वापिस बुलवाया और अंततः उनके इन्हीं दो सिक्ख सुरक्षाकर्मियों ने ही उनकी निर्मम हत्या कर दी।

प्रसिद्ध अमरीकी कूटनीतिज्ञ हैनरी किसिंजर ने इंदिराजी के अद्भुत नेतृत्व की चर्चा करते हुए कहा “Balancing the superpowers against one another required extraordinary skill and Indira Gandhi accomplished it with great skill. She did have a clear view of how to hold India together. She did what was necessary” (महाशक्तियों के बीच संतुलन रखने के लिए असाधारण चतुराई की आवश्यकता होती है। यह गुण इंदिराजी में भरपूर मात्रा में था। उनके पास देश को एक रखने के लिए स्पष्ट दृष्टिकोण था। इसके लिए उन्होंने वह सब किया जो आवश्यक था)।

इंदिराजी की प्रशंसा करते हुए उनके कटु आलोचक मीनू मसानी ने कहा- ‘‘मैंने इंदिराजी की तारीफ करने में कभी कंजूसी नहीं की थी। विशेषकर खतरे मोल लेने की जो क्षमता उनमें थी वह कम ही नेताओं में पाई जाती है। मैंने एक दिन संसद में उनके गुणों का उल्लेख करते हुए कहा था कि वे अपनी पार्टी में एकमात्र मर्द हैं।

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प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट आरके लक्ष्मण ने 12 नवंबर, 1984 को टाईम्स ऑफ इंडिया में लिखा “I, now understand why they gave so many faces and arms to our gods and goddesses… Indira had many faces, many arms. One face was tender, compassionate and kindly. Another was thoughtful brooding. A third was grim, even forbidding on occasions. A fourth was radiant, imperious. Indira means Lakshmi, but she had aspects of Durga, Chandi and Parvati. She was awesome benign and auspicious. She wielded both the lotus and the sword. Beauty in such a woman would be a commonplace possession. Hers was a presence that could not be contained by her physique.”

हमारे देश को इंदिराजी को याद रखना चाहिए क्योंकि सरदार पटेल ने यदि देश को बनाया तो इंदिराजी ने उसे बचाया।

एलएस हरदेनिया भोपाल स्थित वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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