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भौकाल बनाना आज के लिए महत्वपूर्ण (डायरी 20 फरवरी, 2022) 

हिंदी में अनेक शब्द ऐसे हैं, जिनके कई अर्थ होते हैं। ऐसा क्यों होता है, यह एक बड़ा सवाल है। हालांकि कई बार ऐसा भी होता है कि कोई एक शब्द अलग-अलग संदर्भों में इस्तेमाल भले ही किए जाते हैं, लेकिन उनका मतलब एक ही होता है। ऐसा ही एक शब्द है– भूमिका। यह अत्यंत ही दिलचस्प शब्द है। इसका एक उपयोग देखें कि भारत को समतामूलक राष्ट्र बनाने की दिशा में आगे बढ़ाने में डॉ. आंबेडकर की भूमिका अत्यंत ही अहम रही है। अब इस वाक्य में भूमिका शब्द पर विचार करें। फिर यह कि शोले फिल्म में संजीव कुमार ने ठाकुर की भूमिका निभायी थी। अब इन दोनों वाक्यों में भूमिका शब्द का उपयोग किया गया है। दोनों का मतलब भी लगभग एक ही है, लेकिन भाव एकदम से अलग। वैसे ही यदि किसी पत्रकार की खबर के संदर्भ में हम बात करें तो कह सकते हैं कि अमुक पत्रकार की खबर की भूमिका बहुत अच्छी रहती है।

आजकल हिंदी में कुछ नये शब्द जुड़ गए हैं। या कहिए कि जोड़ दिए गए हैं। एक शब्द है– भौकाल। अब इस शब्द का शाब्दिक अर्थ चाहे कुछ भी हो (या फिर ना हो) भौकाल शब्द के लिए स्पेस बनता जा रहा है। आजकल जिसे देखिए, वह भौकाल बना रहा है। यहां इस वाक्य में भौकाल शब्द भूमिका के अर्थ में आया है।

दरअसल, आज का समय भौकाल बनाने का समय है। 1990 के बाद ग्लोबलाइजेशन ने इसे हवा दी है। हर छोटा-बड़ा भौकाल बनाने की जिद ठाने हुए है। फिर चाहे वह कोई परचून बेचनेवाला हो या फिर देश बेचनेवाला। भौकाल बनाए बगैर किसी का काम नहीं चलनेवाला। अब तो अकादमिक जगत में भी भौकाल बनाने की रस्म चल पड़ी है। अभी हाल ही में एक विश्वविद्यालय में ब्राह्मण प्रोफेसर गोईठा के रूप में भौकाल बना रहे थे। वहीं दिल्ली विश्वविद्यालय के विभिन्न कॉलेजों में गाय के नाम पर भौकाल बनाया जा रहा है। इसके पहले राम मनोहर लोहिया अस्पताल के एक डाक्टर ने भौकाल बनाया था। तब वह इस बात पर रिसर्च कर रहा था कि गाय में औषधीय तत्व कौन-कौन हैं?

अब यह सब एक भूमिका है, जो मौजूदा केंद्रीय हुकूमत के द्वारा बनायी जा रही है। हुकूमत इस देश में 80 और 20 का फार्मूला इस्तेमाल में लाना चाहती है। यह एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के लिए कलंक सरीखा है कि सियासती लाभ के लिए एक पूरी आबादी को दरकिनार किया जा रहा है। भारत में अल्पसंख्यक समाज की हिस्सेदारी करीब 20-22 फीसदी है। इनमें बौद्ध, जैन और पारसी के अलावा ईसाईयत अैर इस्लाम माननेवाले लोग हैं।

भौकाल का आलम देखिए कि दैनिक जनसत्ता, जिसे मैं आजकल ‘आरएसएस सत्ता’ कहता हूं, उसने कल की तारीख यानी 19 फरवरी को अपने पहले पन्ने पर योगी आदित्यनाथ का साक्षात्कार का अंश पहली लीड खबर के रूप में प्रकाशित किया। साक्षात्कार में शामिल पत्रकार आदित्यनाथ से वही गिने-चुने सवाल करता है, जिससे आदित्यनािथ कोई परेशानी नहीं है। वे हिंदू-मुस्लिम की राजनीति करना चाहते हैं और साक्षात्कार में अलपसंख्यक रहित भारत की बात कहते हैं। वे ऐलानिया तौर पर कहते हैं कि उन्हें 20 फीसदी का वोट नहीं चाहिए।

अब एक भौकाल इनक भी देखें, जाे खुद को भारत का प्रधानमंत्री कहते फिरते हैं। आज पंजाब और यूपी में चुनाव हो रहे हैं। चूंकि पंजाब में भाजपा की हालत पतली है, तो नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद की गरिमा का उल्लंघन करते हुए कल ही अफगानिस्तान से आए सिखें से मुलाकात करते हैं। वे उन्हें भरोसा देते हैं कि चूंकि वे हिंदू हैं, इसलिए उन्हें भारतीय होने की नागरिकता अवश्य दी जा सकती है।

दरअसल, भौकाल बनाने के तरीके अनेकानेक हैं। कोई कपड़े बदल-बदलकर भौकाल बनाता है तो कोई अकादमिक प्रयासों के जरिए। दोनों मकसद लगभग एक है– भौकाल बनाए रखना। अभी हाल ही में एक फिल्म का ट्रेलर दिखा। फिल्म रिलीज नहीं हुई है। फिल्म का नाम भी जातिसूचक है– बच्चन पांडे। यह जातिगत भौकल है। नायक के रूप में अक्षय कुमार हिंसा करता है, कॉमेडी करता है तथा हत्याएं करता है और मजे लेकर ठहाके लगाता है। इसके पहले दबंग नामक फिल्म में चुलबुल पांडे नामक पात्र है जो कि असल में नायक की भूमिका निभाता है।

अब जरा सोचिए कि यदि बच्चन पांडे और चुलबुल पांडे की जगह कोई बच्चन वाल्मीकि या फिर चुलबुल रैदास होत तो क्या होता?

जवाब बहुत आसान है– फिल्मकार पर जातिवाद करने काआरोप लगाया जाता। फिर यह मुमकिन था कि हिंदुओं की तमाम तथाकथित सेनाएं लाठी-पैना भंजकर भौकाल बनातीं। मैं ने तो केवल एक फिल्म देखी है– सुरैया और देवानंद की फिल्म विद्या। वर्ष 1949 में बनी इस फिल्म का नायक चमार था और जूते गांठ रहे, पॉलिश कर रहे अपने पिता की मदद करता था। इस फिल्म में दिलीप कुमार नायक थे और सुरैया नायिका। दिलीप कुमार की ही एक और फिल्म थी– सगीना महतो। यह फिल्म पहले बांग्ला में बनायी गयी और बाद में हिंदी में। हिंदी के लोगों ने निर्माता के प्रयास को खारिज किया। जबकि उस फिल्म में सभी कलाकारों ने अपनी-अपनी भूमिका का निर्वहन अच्छे से किया था। कहानी अच्छी थी।

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तो कुल मामला भौकाल का है। सोशल मीडिया ने भौकाल बनाने की प्रवृत्ति को हवा दी है। हालांकि मुझे लगता है कि भौकाल बनाने का श्रेय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जाता है। उनके देखा-देखी भौकाल बनाने की ख्वाहिश आज लाखों आम लोग करने लगे हैं। जबकि भौकाल बनाना और इसे बनाए रखना बेहद कठिन काम है। साथ ही, यह विकास के क्रम को बाधित भी करता है।

बहरहाल, भौकाल बनाने के लिए गद्य ही नहीं, पद्य का भी सहारा लिया जा सकता है। मसलन, मैंने ही कल खुद के लिए भौकाल बनाया–

बाजदफा मैं भी निकल पड़ता हूं

जिधर होती है रोशनी 

और कई बार 

सामने होता है घुप्प अंधेरा

गोया शहर नहीं

कोई बंकर हो।

बाजदफा याद आते हैं

पहाड़ और तुम्हारे लगाए गुलबूटे

और हो जाता है यकीन कि

अंधेरा समय का समानुपाती होता है

और मेरा समय है कि

तुम्हारे आसपास मंडराता रहता है

गोया मैं और तुम 

अब भी एक-दूसरे के पर्याय हों।

कई बार ख्वाहिश होती है 

हार जाने की

और मैं हथियार डाल

अपने हाथ उपर कर लेता हूं

फिर तुम्हारी खुश्बू लिए

आती है एक हवा

और मैं अपनी रीढ़ सीधी कर लेता हूं

गोया तुम मेरा लक्ष्य हो अब भी

जिसके लिए मैं लड़ सकता हूं

अपनी अंतिम सांस तक।

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।

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