Saturday, April 20, 2024
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जोतिबा फुले 19वीं सदी में ज्ञान की आंधी थे

जोतिबा फुले पर लिखते हुए अपने अंदर उल्लास और गर्व महसूस हो रहा है वो इसलिए की भारत को इस विभूति ने अपना सर्वस्व देकर गढ़ा है उनकी मनुष्यता की तरफ खड़े होने की मजबूत आकांक्षा ने उन्हें निर्भयता और करुणा से हमेशा भरा रखा। सोचिए तब भी उन्होंने वही प्रतिरोध, वही प्रताड़ना और अपमान […]

जोतिबा फुले पर लिखते हुए अपने अंदर उल्लास और गर्व महसूस हो रहा है वो इसलिए की भारत को इस विभूति ने अपना सर्वस्व देकर गढ़ा है उनकी मनुष्यता की तरफ खड़े होने की मजबूत आकांक्षा ने उन्हें निर्भयता और करुणा से हमेशा भरा रखा। सोचिए तब भी उन्होंने वही प्रतिरोध, वही प्रताड़ना और अपमान सहा होगा जो सत्ता के विरोध में खड़े होने वाले हमेशा सहते हैं, अक्सर ये सवाल मेरे मन में उठता है की ऐसी कौन सी चेतना? कौन सा मनोविज्ञान है? ऐसा कौन सा मानवीय स्वप्न है? जो ऐसी विभूतियों को रचता है उन्हें इस कदर साहस और ईमानदारी से भर देता है कि प्रतिकूलताएं और यंत्रणाएं उन्हे और दृढ़ करती जाती हैं। और पूरा जीवन सिर्फ और सिर्फ मनुष्य के हित में गुजार देते हैं। कुंवर नारायण जी की ये पंक्तियां

        कोई दुख मनुष्य के साहस से

           बड़ा नहीं

        हारा वही जो लड़ा नहीं …

संभवतः इसी तरह की मानसिकता के बीच सृजित होती हैं। जोतिबा फुले एवं सावित्री बाई फुले को प्रथम शिक्षक के रूप में, समाज सुधारक के रूप में जाना गया और उसी रूप में आज उन्हें याद किया जा रहा है। परंतु उनके समाज सुधार का रास्ता भारत के सांस्कृतिक मूल्य मान्यताओं, धार्मिक कर्मकांड और राजनीतिक पाखंड से होकर गुजरता है यानी वे समाज सेवा का कोई सुरक्षित सुविधाजनक रास्ता नहीं चुनते बल्कि चुनौतियों के सामने सावित्रीबाई के साथ निर्भीक होकर खड़े होते हैं। उन्होंने जिन जातिगत विषमताओं, अपमानो को झेला उसकी आज कल्पना की जा सकती है क्योंकि आज भी तमाम वैज्ञानिक, सामाजिक, शैक्षणिक विकास के बावजूद हम वर्णवादी व्यवस्था की क्रूरताओं से मुक्त नहीं हो पाए हैं। और आज भी उन्हीं जातिगत दंशों को समाज के एक बड़े वर्ग को झेलना पड़ रहा है। उसके विरुद्ध खड़े होने वाले लोगों को आज भी उसी सामंती बर्बरता का सामना करना पड़ता है जबकि आज हम एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में रह रहे हैं। जोतिबा फुले ने जो कुछ कहा और किया उस पर बात पूरी तभी हो सकती है जब हम उस समय को आज के संदर्भ में उतनी ही तीव्रता से समझे, देखें और महसूस करें।

[bs-quote quote=”वर्ण व्यवस्था के घोर अमानवीय पक्ष और उसके जहरीलेपन के प्रति वैसे ही किसी भी तरह की संवेदनशीलता समाज में मौजूद नहीं थी। अंग्रेजी शासन काल ने अपने शासन में जाति को किसी भी योजना का आधार नहीं बनाया और हर समुदाय के साथ एक समान आचरण किया, यही कारण था की समाज का तिरस्कृत समुदाय अंग्रेजी शासन व्यवस्था के विरुद्ध नहीं खड़ा हुआ। इस तरह अंग्रेजों ने ज्ञान और संसाधनों के जरिए समाज में पैठ बनाई।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

18वीं सदी में जब ईस्ट इंडिया कंपनी व्यापार करने भारत आई तब उसे बहुत जल्दी यह बात समझ आ गई थी कि वह एक आर्थिक, प्राकृतिक रूप से तो बेहद संपन्न देश में आए ही हैं साथ ही ज्ञान और संस्कृति से भी यह देश भरा हुआ है, इसलिए उन्होंने भाषा, ज्ञान एवं संस्कृति के रास्ते अपनी जगह बनाई। उन्होंने अपने राज्य का विस्तार सिर्फ व्यापार के लिए और व्यापार तक सीमित नहीं रखा बल्कि भारत की सांस्कृतिक थाती को अपने पक्ष में करने का प्रयास आरंभ किया। क्योंकि इसी तरह वो अपनी जड़ें जमा सकते थे। भारत में लगातार विदेशी आक्रांताओं ने साम्राज्य किया। जिसमें मुगल जब भारत आए और यहीं बस गए तो उन्होंने भारत की संस्कृति को अपना लिया। यहां की प्राकृतिक एवं आर्थिक संपन्नता को बाहर नहीं ले गए। परंतु, अंग्रेजों ने ना सिर्फ यहां शासन किया बल्कि यहां के तमाम संसाधनों का दोहन कर उनको बाहर भेजा और अपनी संस्कृति और सभ्यता को भारतीयों पर लादा। क्योंकि अंग्रेजों का खास एजेंडा देश के संसाधनों की लूटने के अलावा, अपनी संस्कृति और सभ्यता को फैलाना था। जिसमें मिशनरीज उनकी श्रेष्ठता और महानता को आम लोगों तक पहुंचाने में मदद करती थी। रॉयल एशियाटिक सोसायटी और फोर्ट विलियम कॉलेज आदि संस्थाओं ने कुछ विद्वानों की सहायता से भारत की संपन्न सांस्कृतिक साझी विरासत को विभाजित नजरिए से देखना और प्रस्तुत करना आरंभ किया। जिसमें भाषा को उन्होंने मजबूत हथियार की तरह इस्तेमाल किया। यह बात इस तरह समझी जा सकती है की, हिंदी साहित्य का इतिहास लिखने वाले सर जॉर्ज ग्रियर्सन के इतिहास में सिर्फ हिंदी का इतिहास शामिल है, जबकि फ्रेंच विद्वान गार्सा द तासी के हिंदी के इतिहास में हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं का इतिहास शामिल है। इस तरह विद्वानों की मदद से अंग्रेजों ने एक नया और विध्वंसक प्रश्न लोगों के दिमाग में डाला, वह था हिंदू-मुस्लिम के बीच घृणा और अंतर का। दोनों के बीच श्रेष्ठता के प्रश्न को आम आदमी के दिमाग में डाल हमेशा के लिए उनके बीच एक विभाजनकारी रेखा खींच दी, जबकि बरसों से समाज की सबसे खतरनाक और अमानवीय विभाजक रेखा वर्ण व्यवस्था मौजूद थी इस तरह एक और जहर लोगों के दिमागों में भर दिया गया।

वर्ण व्यवस्था के घोर अमानवीय पक्ष और उसके जहरीलेपन के प्रति वैसे ही किसी भी तरह की संवेदनशीलता समाज में मौजूद नहीं थी। अंग्रेजी शासन काल ने अपने शासन में जाति को किसी भी योजना का आधार नहीं बनाया और हर समुदाय के साथ एक समान आचरण किया, यही कारण था की समाज का तिरस्कृत समुदाय अंग्रेजी शासन व्यवस्था के विरुद्ध नहीं खड़ा हुआ। इस तरह अंग्रेजों ने ज्ञान और संसाधनों के जरिए समाज में पैठ बनाई।

जोतिबा फुले को 19वीं सदी के नवजागरण के अगुआ के रूप में देखना जरूरी है। क्योंकि जोतिबा प्रबोधन की उस परंपरा को बढ़ा रहे थे जिसे मध्यकाल में कबीर ने आरंभ किया था। कबीर जब यह कहते हैं संतो आई ज्ञान की आंधी तब वे उन्हीं पिछड़े, असमानता मूलक, अज्ञान, अंध श्रद्धा से भरे समाज को प्रश्नांकित कर रहे होते हैं। जोतिबा इसी वैचारिक क्रांति के साथ आगे बढ़ते हैं। ब्रह्मवाद के खिलाफ उस दौर में जब कुछ बोल पाना भी संभव नहीं था, 1848 में फुले, पुणे में लड़कियों के लिए पहले स्कूल की शुरुआत करते हैं। और शिक्षक के अभाव में पहले सावित्री बाई को शिक्षित करते हैं। इस तरह से सावित्री पहली शिक्षक बनती हैं। यानि दुनिया को बदलने की शुरुआत वो घर से करते हैं। यहां हमे समझना होगा की जिस समाज में स्त्रीयों का घर से बाहर निकलना संभव नहीं था उनमें ज्ञान की चेतना को जोतिबा ने जगाना चाहा। वो चेतना जो प्रश्न करना सिखाती है। हम कल्पना भी नही कर सकते की उन्होंने कितना बड़ा जोखिम लिया था, और ऐसा समाज बनाना चाहा था जहां मनुष्य-मनुष्य के बीच भेद न करें।

[bs-quote quote=”जोतिबा ने यदि शिक्षा को समाज में चेतना जगाने का और मनुष्य के आत्म सम्मान का सबसे अहम हथियार बनाया तो उसके पीछे वही पिछड़ी मानसिकता थी जो मनुष्य-मनुष्य में भेद करती थी। और स्त्रीयों के प्रति घोर असमानता भरा व्यवहार करती थी इससे निपटने में शिक्षा से बेहतर कोई रास्ता नहीं हो सकता था, क्योंकि शिक्षा सिर्फ अक्षर ज्ञान नहीं बल्कि शिक्षा, स्वचेतना जगाती है। स्वाभिमान जगाती है। आत्म सम्मान के प्रति सजग करती है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 

19वीं सदी के नवजागरण के क्रांतिकारी समाज सुधारको जिनमें केशव चंद्र सेन, राममोहन राय, रामकृष्ण परमहंस, रानाडे, विवेकानंद दयानंद सरस्वती और जोतिबा फुले शामिल थे। जो लगातार पौराणिक वैष्णव वादी भक्ति के बजाए वेद, उपनिषद, दर्शन, वेदांत आदि को प्राथमिकता दे रहे थे। मूर्तिपूजा, अवतारवाद, कर्मकांड के विरुद्ध खड़े होना अपने आप में बहुत साहस का काम था। बंगाल और महाराष्ट्र के नवजागरण से इतर उत्तर भारत में भारतेंदु जिन्हें नवजागरण का अग्रदूत कहा गया उनकी वैष्णव निष्ठा सर्वविदित ही है।1884 ई में जीवन के अंतिम दिनों में उन्होंने वैष्णवता और भारतवर्ष शीर्षक से एक लंबा लेख लिख कर सप्रमाण सिद्ध करने का प्रयास किया था कि, ‘वैष्णव मत ही भारत वर्ष का मत है और यह भारत की हड्डी, लहू में मिल गया है’। इस बात से समझा जा सकता है की प्रबोधन की आंधी हिंदी प्रदेश में क्यों अपना प्रभाव नही बना पाई। इस क्षेत्र में दयानंद सरस्वती को जिस तरह जोतिबा, केशवचंद्र को महाराष्ट्र और बंगाल में, मिली उस तरह सामाजिक स्वीकृति न मिलना भी इस भूभाग के लिए बेहद नुकसान देह साबित हुआ, ज्ञान का नवजागरन फलीभूत नही हो सका और वर्णव्यवस्था के साथ सांप्रदायिक कटुताओं ने अपनी जड़ें जमा लीं। हालांकि हिंदी पट्टी के पिछड़ेपन का कारण सिर्फ भारतेंदु की ये सोच नही और भी अनेक कारण हैं। यहां इस वक्तव्य को सिर्फ इसलिए उद्धृत करना जरूरी लगा क्योंकि भारतेंदु हिंदी पट्टी के नवजागरण के अगुवा हैं। अतः इस बात से थोड़ा अंदाज तो लगाया ही जा सकता है की पूरा परिवेश कैसा होगा? वैष्णव भक्ति कहीं न कहीं वर्णव्यवस्था की पोषक रही है। यही कारण है की अंधविश्वासों और कट्टर पिछड़ी सोच के कारण इस समय का भारतीय समाज हिंदू-मुस्लिम विभाजन की विध्वंसक सोच से ज्यादा वर्ण व्यवस्था के भयानक यंत्रणदाई रूप को झेल रहा था।

जोतिबा ने यदि शिक्षा को समाज में चेतना जगाने का और मनुष्य के आत्म सम्मान का सबसे अहम हथियार बनाया तो उसके पीछे वही पिछड़ी मानसिकता थी जो मनुष्य-मनुष्य में भेद करती थी। और स्त्रीयों के प्रति घोर असमानता भरा व्यवहार करती थी इससे निपटने में शिक्षा से बेहतर कोई रास्ता नहीं हो सकता था, क्योंकि शिक्षा सिर्फ अक्षर ज्ञान नहीं बल्कि शिक्षा, स्वचेतना जगाती है। स्वाभिमान जगाती है। आत्म सम्मान के प्रति सजग करती है। असहमत होना, प्रश्न करना सिखाती है। स्वनिर्णय की समझ विकसित करती है और सबसे बड़ी बात भय मुक्त करती है। ये मानव चेतना के आधारभूत मानवीय मूल्य हैं। जो शिक्षा का हमेशा से मूलाधार रहे हैं। आज के संदर्भ में यदि देखें तो शिक्षा का बुनियादी लक्ष्य आज भी यही है किंतु जिन जातिगत सवालों, वर्ण व्यवस्था के जिन अंधेरों का, पितृसत्ता की जकड़न का, सत्ताओं के वर्चस्व का सामना शिक्षा तब कर रही थी आज भी समाज उनसे पूरी तरह मुक्त नहीं है। और शिक्षा के मूलाधार हिले हुए हैं।इसके साथ ही वर्गीय समाज की विषमता मूलक सोच- संरचना के कारण समाज में फैल गई गहरी खाई का भी सामना शिक्षा कर रही है। हम अब भी समझौता परस्त कमजोर पौध पैदा कर रहे हैं, जबकि पैदा न्याय प्रिय पौध को होना था।

आज के समाज में दलितों के साथ हो रही हिंसक कार्रवाइयों महिलाओं के साथ किए जा रहे हिंसक अत्याचारों को देखते हुए अंदाज लगाया जा सकता है की जोतिबा और सावित्रीबाई ने किन खतरनाक प्रतिरोधों और सामंती मूल्यों का सामना किया होगा।

जोतिबा समाज के संदर्भ भर में एक समझ एक अवधारणा नहीं रखते बल्कि उन्होंने बहुत स्पष्टता और निर्भीकता के साथ राजनीतिक और धार्मिक मूल्य मान्यताओं पर भी सवाल खड़े किए। उनका मानना था की ‘व्यक्ति को सामाजिक समानता, राजनीतिक भागीदारी, धार्मिक एवं आर्थिक स्वतंत्रता, शिक्षा प्राप्ति के अधिकार से वंचित करना तथा उनका शारीरिक एवं मानसिक रूप से धर्म के आधार पर शोषण करना और शोषण को धर्म मानना क्रूरता और निर्दयता है’।

[bs-quote quote=”जोतिबा समाज के संदर्भ भर में एक समझ एक अवधारणा नहीं रखते बल्कि उन्होंने बहुत स्पष्टता और निर्भीकता के साथ राजनीतिक और धार्मिक मूल्य मान्यताओं पर भी सवाल खड़े किए। उनका मानना था की ‘व्यक्ति को सामाजिक समानता, राजनीतिक भागीदारी, धार्मिक एवं आर्थिक स्वतंत्रता, शिक्षा प्राप्ति के अधिकार से वंचित करना तथा उनका शारीरिक एवं मानसिक रूप से धर्म के आधार पर शोषण करना और शोषण को धर्म मानना क्रूरता और निर्दयता है’।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 

यह बहुत महत्वपूर्ण बात है कि जोतिबा उन धार्मिक मूल्य मान्यताओं की ओर इंगित कर रहे हैं जिनके चलते समाज के एक बहुत बड़े समुदाय के साथ अवहेलना पूर्ण तिरस्कृत एवं अपमानजनक व्यवहार बरसों से किया जाता रहा है। इन परंपराओं को धार्मिक मूल्य की तरह स्थापित किया गया और मंदिरों में नही जाने देना, अस्पृश्यता जैसे अमानवीय मूल्य स्थापित किए गए। जिस तरह से आज औरतों के साथ किया जाता है उन्हें मंदिरों में प्रवेश ना दिया जाना उन्हें मंदिर का पुजारी ना बनने दिया जाना, माहवारी जो कि एक प्राकृतिक प्रक्रिया है और जो प्रजनन का मूल आधार है उसके प्रति घृणा, यह स्त्री जाति के प्रति कठोर निर्दयता है। धार्मिक कर्मकांड और रीति-रिवाज स्त्रीयों की स्वतंत्र छवि नहीं बनने देते। सोचिए, केरल के मंदिर में महिलाओं के प्रवेश के लिए किये गये आंदोलन में कहा जाता है कि दो लाख महिलाओं ने छह किलोमीटर लंबी दीवार बनाई थी तब भी वो समाज के पोंगापंथी, प्रतिक्रियावादी लोगों से नहीं न्यायालय से जीत पाए थे। जबकि 1848 में फुले दंपती अकेले ही भारत की करोड़ों महिलाओं के लिए दीवार बनकर खड़े हो गए थे। हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि प्रतिक्रियावादी ताकतें तब भी उतनी ही खतरनाक और जहरीली थीं। वर्चस्व वादी पितृसत्ताक सामंती मूल्यों से हम आज भी मुक्त नहीं हैं। मुक्त होना तो दूर की बात है हम उन से बुरी तरह आज भी ग्रस्त हैं। अच्छा यदि कुछ है तो ये कि जोतिबा के लंबे संघर्ष को चेतना के साथ आगे बढ़ाने में समाज का एक वर्ग आज भी सतत सक्रिय है।

 मध्यकाल में जब कबीर कह रहे थे संतो आई ज्ञान की आंधी उस ज्ञान की आंधी को अपने जीवन की शर्तों पर जोतिबा ने जलाए रखा था यह 19 वीं सदी का नवजागरण था जब ज्योतिबा स्त्री शिक्षा के लिए सबसे पहले सावित्रीबाई को बाहर लेकर आते हैं और सामंती समाज की हिंसक प्रतिक्रियाओं को झेलते हैं।

 जोतिबा द्वारा स्थापित सत्यशोधक आश्रम में वैसे तो राजनीतिक चर्चा वर्जित थी परंतु जोतिबा खुलकर अपने राजनीतिक विचार रखते थे। आश्रम में मनाहीं संभवत इसलिए थी कि जिस उद्देश्य से इन आश्रमों को बनाया गया है वह राजनीति का शिकार ना हो और सिर्फ चर्चा का केंद्र बनकर न रह जाये। परंतु जोतिबा अंग्रेजो की अन्याय पूर्ण कार्यवाही का निरंतर विरोध करते हैं। उदाहरण के लिए कोल्हापुर की एक रियासत को अंग्रेज सरकार द्वारा उखाड़ने के प्रयास के विरोध में  गंगाधर तिलक लिखते हैं तब सबसे पहले जोतिबा उनके साथ खड़े होते हैं। तिलक को गिरफ्तार किया जाता है और जब तिलक की रिहाई होती है तब जेल के बाहर उनका स्वागत करने सबसे पहले जोतिबा पहुंचते हैं। इस घटना से ये जाहिर होता है कि जोतिबा न्याय के पक्षधर थे, इसके लिए फिर चाहे किसी का भी विरोध करना पड़े।

एक महत्वपूर्ण बात जो पहले जोतिबा के संदर्भ में और बाद में अंबेडकर पर एक लांछन की तरह कही जाती रही की वे अग्रेंज सरकार के हिमायती थे वो नही चाहते थे की अग्रेंज देश छोड़ कर जाएं। यहां सबसे सहज सवाल उठता है कि क्यों? ये सवाल जितना सरल है उसके अर्थ संदर्भ उतने ही जटिल हैं। देश की ब्राह्मणवादी व्यवस्था और उसकी असमानता भरी विषैली सोच ने समाज के एक बड़े तबके को अपमानि, तिरस्कृत कर जीने को बाध्य किया उन्हें उनके मूलभूत अधिकारों से वंचित किया। उनके सामने जीवन जीना भी संकट ग्रस्त था। ऐसी यंत्रणादाई, घुटनभरी स्थिति के सम्मुख था-अग्रेंज शासन में मिल रहा समानता का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, समान कानून और न्याय का अधिकार, जीविका चुनने का अधिकार .. कोई भी व्यक्ति क्या चाहेगा? अंग्रेजो के हिमायती होने का आरोप जो लोग लगाते हैं क्या उन्हें समाज की इन स्याह अंधेरे पक्ष की ओर नहीं देखना चाहिए? सवर्ण समाज उस अपमान, अवहेलना, दुत्कार को महसूस ही नही कर सकता।

मुझे लगता है कि हमे देश प्रेम को भी परिभाषित करना चाहिए, नवजागरण की जमीन पर खड़े ये सिपाही ज्ञान की कलम से समाज को लिख रहे थे। समाज के उत्पीड़ित, कुचले, दमित पक्ष के साथ खड़े थे। अपने आप से उबर चुके ये लोग अंतिम आदमी के लिए जीवन की संभावनाएं खोज रहे थे, और जिनके लिए खोज रहे थे वो सब इसी मिट्टी के वंशज थे। क्या इस से बड़ा देश प्रेम हो सकता है? और हम वह भी नहीं कर पा रहे थे जो बाहर से आए आक्रांताओं ने सहज ही कर लिया था। प्रकांड पंडितों ने उस भेदभाव से भरी व्यवस्था को खत्म करने की क्यों नही सोची जो अपने ही लोगों को दूर कर रही थी? ये एक मासूम सवाल है। इस सवाल का जवाब हम सब जानते हैं जो वर्चस्व की सनातनी परंपरा को स्थापित करता हुआ आज भी उतने ही तीखे रूप में उपस्थित है।

जोतिबा की किताब गुलामगीरि हमें पढ़ना चाहिए, इससे पता चलता है कि वो दुनिया में रंगभेद के खिलाफ चल रहे आंदोलन के साथ खड़े थे। ये किताब उन्होंने अमेरिका के अश्वेतों को समर्पित की है।

[bs-quote quote=”बाबा साहेब आंबेडकर ने अपनी किताब शूद्र कौन थे में लिखा था कि महात्मा फुले ने निचले वर्ण के हिंदुओं को उच्च वर्ण के हिंदू के प्रति की जा रही गुलामी का एहसास कराते हुए यह स्थापित किया कि भारत में सामाजिक लोकतंत्र को स्थापित करना विदेशी शासन से मुक्ति से ज्यादा जरूरी है। बिना सामाजिक लोकतंत्र स्थापित किए राजनीतिक लोकतंत्र ढह जाएगा। क्या इस उक्ति से आज इनकार किया जा सकता है?” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 

‘यदि थूकना भी होता तो अपना बर्तन होना जरूरी था, जबकि सवर्ण कहीं भी थूक सकते थे।’ ये पढ़ते हुए रोंगटे खड़े हो जाते हैं कि एकदम सुबह जब सभी चीजों की छाया बहुत लंबी होती तब शूद्रों के लिए बाहर निकलना भी मुश्किल होता था क्योंकि धोखे से उनकी छाया भी ब्राह्मण पर पड़ जाए तो उन्हें भयानक सजाएं दी जाती थीं। इसलिए सुबह काम पर जाते ये लोग बार-बार रास्तों के किनारे बैठने बाध्य होते थे। क्या सवर्ण समाज ने कभी इस तरह के अमानवीय आचरण का सामना किया है? एक जीवित स्पंदित काया जो आपका मैला साफ कर रही है हम अपना भी नही साफ कर सकते, और किसे ये तय करने का अधिकार है की कौन क्या काम करेगा? ऊंची जाति-नीची जाति ये तय करने वाला कौन है? भाषा का ये रूप मुझे बहुत हिंसक लगता है जाहिर है ये भाषा उसी हिंसक समाज से बनी है। एक अशिक्षित, असंवेदनशील दुनिया…इस से मुक्त होनी ही चाहिए।

बाबा साहेब आंबेडकर ने अपनी किताब शूद्र कौन थे में लिखा था कि महात्मा फुले ने निचले वर्ण के हिंदुओं को उच्च वर्ण के हिंदू के प्रति की जा रही गुलामी का एहसास कराते हुए यह स्थापित किया कि भारत में सामाजिक लोकतंत्र को स्थापित करना विदेशी शासन से मुक्ति से ज्यादा जरूरी है। बिना सामाजिक लोकतंत्र स्थापित किए राजनीतिक लोकतंत्र ढह जाएगा। क्या इस उक्ति से आज इनकार किया जा सकता है?

 बुद्ध, नानक, कबीर की परंपरा के महात्मा फुले बस एक समानता मूलक समाज चाहते थे कबीर लिखते हैं —

   कांकर पांथर जोड़ के मस्जिद लई बनाई

   ता चढ़ी मूल्ला बांग दे क्या बहिरा हुआ खुदाई

जोतिबा पूछते हैं यदि पत्थर में मंत्रों द्वारा देवता आ सकते हैं तो मंत्रों द्वारा मुर्दों को जिंदा क्यों नहीं किया जा सकता?

नवजागरण के प्रबोधनकर्ता एक मानवीय समाज बनाना चाहते थे  बस…..।

भारती वत्स हवा बाग जबलपुर में हिंदी की प्राध्यापिका हैं। 

गाँव के लोग
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