Saturday, July 27, 2024
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कालाबाजारी से कालाबाजारी को खत्म करने की बाजीगरी

क्या अतीक अहमद और अशरफ अहमद का एनकाउंटर सतपाल मलिक के पुलवामा के बारे में किए गए रहस्योद्घाटन से ध्यान भटकाने  के लिए किया गया है? यह सवाल इसलिए भी उठ रहा है क्योंकि तथाकथित मुख्यधारा की मीडिया ने जम्मू-कश्मीर के पूर्व राज्यपाल सतपाल मलिक के इंटरव्यू के बारे में जिस तरह से चुप्पी साधी हुई […]

क्या अतीक अहमद और अशरफ अहमद का एनकाउंटर सतपाल मलिक के पुलवामा के बारे में किए गए रहस्योद्घाटन से ध्यान भटकाने  के लिए किया गया है?

यह सवाल इसलिए भी उठ रहा है क्योंकि तथाकथित मुख्यधारा की मीडिया ने जम्मू-कश्मीर के पूर्व राज्यपाल सतपाल मलिक के इंटरव्यू के बारे में जिस तरह से चुप्पी साधी हुई है वह इस बात का प्रमाण है कि मुख्यधारा की मीडिया संस्थाओं ने वर्तमान मोदी सरकार के कृत्यों के बारे में कोई भी सवाल उठाने से पूरी तरह परहेज कर लिया है। भले ही वह कृत्य देश के खिलाफ क्यों न हो? हिंडनबर्ग रिपोर्ट से लेकर पुलवामा तक के बारे में अलग-अलग लोगों के बयानों के कारण शक की सुई तेजी से घूम रही थी, लेकिन जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन राज्यपाल सतपाल मलिक के द वायर में करन थापर जैसे अंतर्राष्ट्रीय पत्रकार को दिए गए इंटरव्यू के बाद मीडिया संस्थाओं ने जो मौन धारण किया, वह कई तरह के सवाल पैदा करता है।

इसके समानान्तर वे दृश्य याद कीजिये जब पुलिस का काफिला अतीक अहमद को अहमदाबाद के साबरमती जेल से लेकर इलाहाबाद आ रहा था। 40 डिग्री की झुलसाती गर्मी में भी कुछ ब्रेकिंग न्यूज़ पाने की उम्मीद में पत्रकारों का हुजूम पुलिस के काफिले के साथ ही चल रहा था। इतना ही नहीं, वह जगह-जगह पर अतीक अहमद अंसारी के इंटरव्यू भी करता आ रहा था। साबरमती जेल से इलाहाबाद के सड़क मार्ग से  यह मीडिया साबरमती से ही पीछा कर रहा था। ऐसे में सवाल पैदा होता है कि इतने बड़े अपराधी को जब आप एक जगह से दूसरी जगह लेकर जा रहे हैं तो यह बात मीडिया को कैसे पता चली? क्या यह सब कुछ मैनेज शो था कि साबरमती से इलाहाबाद तक मीडिया अतीक की शूटिंग करता रहे? और जब इलाहाबाद के अस्पताल में रात को जांच के लिए ले जाया गया उसको भी मीडिया कवर कर रहा था। जैसे किसी फिल्म की शूटिंग हो रही हो।

लेकिन जो मीडिया अतीक अहमद को लेकर चौबीसों घण्टे बहस चला रहा है वही मीडिया पुलवामा जैसे संवेदनशील मुद्दे पर चुप्पी साधे हुये हैं। जबकि यह देश की सुरक्षा से जुड़ा हुआ मामला है, जिसे तत्कालीन राज्यपाल खुद उजागर कर रहे हैं। भले ही कुछ लोग यह कहते फिर रहे हैं कि उन्होंने इस्तीफा देकर देश को तुरंत ही इस तथ्य से अवगत कराया होता तो 2019 में बीजेपी की सत्ता में वापसी नहीं की होती। लेकिन इतिहास के क्रम में बहुत से लोगों को यह तर्क लगाना पड़ेगा, जिसमें सत्ताधारी पार्टी से लेकर विरोधी दलों के सुधींद्र कुलकर्णी से लेकर यशवंत सिन्हा एवं अरुण शौरी तथा आपातकाल के बाद बनी जनता सरकार में अंतिम समय में शामिल जगजीवन राम से लेकर हेमवती नंदन बहुगुणा और आजकल बीजेपी में शामिल केरल के राज्यपाल मोहम्मद आरिफ खान तक तो हैं ही, मुख्यधारा की मीडिया के तमाम बड़बोले और चाटुकार पत्रकारों से लेकर एक क्षण में बीजेपी से कांग्रेस या किसी भी अन्य विरोधी दल से सत्ताधारी पार्टी में शामिल होने वाले सभी लोगों को आड़े हाथ लेना चाहिए। पुलवामा के इंटरव्यू के बाद सतपाल मलिक को सीबीआई ने नोटिस जारी किया।

पुलवामा में आतंकवादियों ने भारतीय जवानों के काफिले के ऊपर जब हमला किया तो इस घटना को लोकसभा चुनाव (2019) के समय इसी तथाकथित मीडिया ने बीजेपी के लिए चुनाव जीतने का अहम मुद्दा बना दिया। इसी तरह गोधरा कांड में तत्कालीन कलेक्टर जयंती रवि के विरोध के बावजूद तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने  खुद 27 फरवरी की दोपहर विश्व हिंदू परिषद के अध्यक्ष जयेश पटेल को साथ लेकर 59 अधजले शवों को अपने कब्जे में ले लिया था? इसके बाद विश्व हिंदू परिषद द्वारा उन शवों को खुले ट्रक में लादकर अहमदाबाद की सड़कों पर जुलूस निकाला। ऐसा करना क्या साबित करता है? इस कृत्य से गुजरात की शांति-सद्भावना स्थापित होती या यह कार्यक्रम विशेष रूप से लोगों को उकसाने के लिए प्रायोजित किया गया था। सत्ता पर बैठे लोगों का ऐसा करना किस कानून के अंतर्गत आता है।

बीजेपी ने सत्ता हासिल करने के लिए गोधरा से लेकर पुलवामा तक की हर घटना का उपयोग अपने चुनावी प्रचार-प्रसार के लिए किया और उन्हें इसमें कामयाबी भी हासिल हुई। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि इन हादसों के लिए क्या सचमुच आतंकवादी ही जिम्मेदार हैं? क्योंकि मुख्यमंत्री से प्रधानमंत्री पद तक पहुंचने के लिए ये हादसे मददगार साबित भी हुए।

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कश्मीर के तत्कालीन राज्यपाल सतपाल मलिक ने करन थापर के साथ द वायर को दिए इंटरव्यू में जो तथ्य उजागर किए हैं, वह हमारे देश की सेना के जवानों की ज़िंदगी के साथ खिलवाड़ लगता है। इसके बाद किसी ने सवाल उठाया तो उन्हें देश की सेना के मनोबल को तोड़ने से लेकर सेना का अपमान करने वाले बोलकर चुप करा दिया!

लेकिन उस समय जम्मू-कश्मीर के सबसे बड़े संवैधानिक पद राज्यपाल के पद पर बैठे सतपाल मलिक कह रहे थे कि ‘सेना को हेलीकॉप्टर के द्वारा ले जाने की व्यवस्था करनी चाहिए।’ तब देश के प्रधानमंत्री ने ‘तुम्हारे समझ में नहीं आयेगा यह सब क्यों हो रहा है। कहकर उन्हें चुप रहने के लिए कहा। गोधरा कांड से लेकर पुलवामा तथा मालेगांव, नांदेड़, मुंबई 26/11, अक्षरधाम, पार्लियामेंट पर हमला, बाटला हाउस, सूरत-वडोदरा से लेकर अहमदाबाद में किए गए बम विस्फोट जैसी न जाने कितनी घटनाएँ हैं जिन पर उस समय के जिम्मेदार लोगों ने चुप्पी साध ली।  इशरत जहाँ से लेकर सोहराबुद्दीन जैसे दर्जनों लोग तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या करने के लिए आ रहे थे, इस नाम पर मौत के घाट उतार दिए गए!

वहीं, हैदराबाद के मक्का मस्जिद से लेकर समझौता एक्सप्रेस, अजमेर विस्फोट की घटना को देखते हुए लगता है कि फिदायीन या इस्लामी आतंकवाद जैसे सभी कांडों का सबसे अधिक राजनीतिक लाभ सिर्फ और सिर्फ बीजेपी को ही हुआ है। हालांकि इस तरह की आतंकवादी घटनाओं में आम जनता को ही अपनी जान गंवानी पड़ती है। ध्रुवीकरण की इस सांप्रदायिक राजनीति में महंगाई, बेरोजगारी, दलित, आदिवासी, किसानों, मजदूरों की समस्याएं दोयम दर्जे पर चली जाती हैं। तो क्या तथाकथित इस्लामी आतंकवाद और वर्तमान सत्ताधारी दल के मातृ संगठन आरएसएस के बीच कोई संबंध है? क्योंकि यह आरोप इंद्रेश कुमार से लेकर मोहन भागवत के ऊपर बहुत पहले से ही लगाए जाते रहे हैं। (शायद मालेगांव ब्लास्ट के बाद अभिनव भारत की कारगुजारियों के वीडियो क्लिपिंग हेमंत करकरे के कोर्ट में पेश आरोप पत्र में भी मौजूद थे!) अब प्रज्ञा सिंह ठाकुर को लोकसभा में लाने के लिए शायद मालेगांव विस्फोट केस को कमजोर करने के लिए हो सकता कि बहुत कुछ बदल दिया गया होगा। नरोदा पाटिया नरसंहार में जलाये गए लोगों ने खुद ही अपने आपको जला लिया होगा तभी तो खुद को  कमेरा बोलने वाले बाबू बजरंगी से लेकर डॉ. माया कोडनानी बरी कर दिए जाते हैं।

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और बिल्किस बानो के गुनाहगारों के रेमिसन इसके अहम प्रमाण हैं। उन्हें सम्मानित भी किया जा रहा है। उन्हें किस आधार पर रेमिसन दिया गया है। सर्वोच्च न्यायालय को ये फाइलें दिखाने में गुजरात सरकार तथा केंद्र सरकार आनाकानी कर रही हैं।

सबसे अहम बात नरेंद्र मोदी को गुजरात दंगों के आरोप से क्लिनचिट और अमित शाह को सोहराबुद्दीन एनकाउंटर जैसे संगीन अपराध के मामले में बरी कर दिया गया है। वहीं, ‘अपराधियों को मिट्टी में मिला दूंगा…’ की घोषणा भरी विधानसभा में करने वाले मुख्यमंत्री, जिन पर यह पद मिलने से पहले के एक दर्जन मामले (आधे हत्या से संबंधित) दर्ज थे, यूपी का सीएम बनने के बाद उन्हें रफा-दफा कर दिया गया।

अब यह बात लोगों के भी समझ में आ रही है। वर्तमान सत्ताधारी दल आखें बंद करके दूध पीने वाली बिल्ली जैसी है। उसे लगता है कि उसे  और कोई देख नहीं रहा है। हालांकि किसी भी बात की एक मर्यादा होती है। शायद बीजेपी या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को लगता होगा कि उग्र हिन्दुत्ववादी एजेंडे को आगे बढ़ाने में वे कामयाब हो गए हैं । अगर ऐसा है तो मुझे यह कहने के लिए माफ कीजियेगा कि वे मूर्खों के नंदनवन में रह रहे हैं।

मैं खुद कल ही उत्तर प्रदेश के गोरखपुर से लेकर कुशीनगर और अंतिम पड़ाव बनारस में रहकर आया हूँ। गोरखपुर, कुशीनगर, देवरिया तथा बनारस के आम लोगों से बातचीत में पता चला है, कि ‘अब लोग भी यह चालाकी थोड़ी-बहुत समझने लगे हैं।’ इसलिये अतीक हत्याकांड में जो तथ्य सामने आ रहे हैं, उनसे लगता है कि यह शत-प्रतिशत राज्य-प्रायोजित कांड है। पुलिस ने अपने हाथ में अत्याधुनिक उपकरण वाली ऑटोमैटिक गन से लेकर कमर पर लगी पिस्तौल तक को हाथ लगाने का भी कष्ट नहीं किया। अतीक के पास जाकर हत्यारों द्वारा उसकी कनपटी पर पिस्तौल रखकर गोलियां चलाने के कृत्य को क्या कहेंगे? कितनी आसानी से उन्होंने अतीक और उसके भाई अशरफ की हत्या को अंजाम दिया है।

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साबरमती जेल से इलाहाबाद तक के सफर में तथाकथित मीडिया के लोगों को जगह-जगह पर बोलने देना। हर बार अतीक द्वारा यह बताना कि मुझे मारने के लिए ले जा रहे हैं। इलाहाबाद के अस्पताल में लोगों को हटाकर सिर्फ तीन तथाकथित पत्रकारों को नजदीक आने देना और उनके द्वारा आराम से अपने पिस्तौल निकाल कर करीब से गोलियां चलाने की घटना को देखते हुए मुझे पचहत्तर साल पहले की घटना याद आती है जब दिल्ली के बिड़ला हाऊस की प्रार्थना सभा में नाथूराम गोडसे और उसके साथियों ने गोली चलाई और वहीं पर खड़े रहकर खुद को पुलिस के हवाले किया। अतीक -अशरफ को गोली मार्कर जय श्रीराम के नारे लगाने  का मतलब यही निकलता है कि हत्यारों ने बहुत बड़ा धार्मिक कार्य किया है।

एनकाउंटर की यह राजनीति भारतीय राजनीति में कोई नई बात नहीं है। अगर आप गौर से देखेंगे तो कम-अधिक परिमाण में सभी राजनीतिक दलों ने अपनी सुविधानुसार तथाकथित डॉन और माफिया पैदा किए हैं। ‘नाक से मोती भारी पड़ रही‘ कहावत के मुताबिक उसे जब चाहे तब रास्ते से हटा दिया है।

चर्चित सोहराबुद्दीन एनकाउंटर इसकी सबसे बड़ी मिसाल है। सोहराबुद्दीन का परिवार बीजेपी के पुराने अवतार भारतीय जनसंघ से संबंधित रहा है। यह परिवार भले ही उज्जैन (मध्य प्रदेश) के एक गांव का रहने वाला है लेकिन गुजरात, मध्य प्रदेश और राजस्थान तीनों प्रदेशों के सीमावर्ती इलाकों में मार्बल से लेकर अन्य धंधा करने वाले लोगों से हफ्ता-वसूली के लिए सोहराबुद्दीन का इस्तेमाल किया गया और कभी-कभी हत्या के लिए भी। इसी कारण उसे हैदराबाद से सांगली के प्रवास के दौरान बीच रास्ते में कर्नाटक के बीदर के आसपास रात के अंधेरे में बस से उतारा गया। चूंकि उसकी पत्नी कौसर भी साथ में थी। इसलिए वह भी सोहराबुद्दीन के साथ जबरदस्ती गुजरात एटीएस की गाड़ी में चढ़ी। बाद में उन्हें अहमदाबाद के पास एक फार्म हाउस में लाकर मारा गया। यह बात गीता जौहरी की जांच में सामने आई। इस बात को तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को स्वीकार करते हुए कार्रवाई करनी पड़ी।

इसी तरह महाराष्ट्र के नागपुर में 2004 के दौरान गैंगस्टर भरत कालीचरण उर्फ अक्कू यादव डकैती, अपहरण, सीरियल किलिंग तथा बलात्कार की कई घटनाओं में नामित था। 19 साल की उम्र से वह जरायम की दुनिया में अपना नाम बना रहा था। पुलिस को समय-समय पर रिश्वत देते रहने के कारण बचा रहा। वह 32 साल की उम्र में मारा गया। मतलब महाराष्ट्र की उपराजधानी नागपुर में वह 13 साल से आपराधिक घटनाओं को अंजाम दिए जा रहा था लेकिन पुलिस ने कभी भी कार्रवाई नही की। न ही तथाकथित सभ्य समाज ने कुछ कहा।

अंत में 13 अगस्त, 2004 को दो सौ से अधिक महिलाओं ने भरी अदालत घुसकर उसे पत्थरों से मारा। उसके गुप्तांग को काट दिया। उसके शरीर पर नुकीले हथियारों से दर्जनों जख्म किए गए थे, जिससे वह नागपुर के कोर्ट रूम में ही मर गया। उसके बाद नागपुर में एक गोष्ठी हुई जिसमें जिले के वरिष्ठ पत्रकार से लेकर सामाजिक-राजनीतिक दलों के लोग भी शामिल थे। मैं भी एक वक्ता के रूप में मौजूद था। मैंने कहा कि नागपुर जैसे शहर में एक 18-19 साल का युवक घरों में घुसकर लूट, बलात्कार जैसे अपराधों को 13 साल तक अंजाम देता रहा। लोगों का गुस्सा ऐसा था कि कोर्ट रूम में ही उसे मार डाला गया। इस समय तत्कालीन मुख्य मीडिया के सभी प्रतिनिधि भी दिल्ली, मुंबई सहित अन्य राज्यों से आकर नागपुर में डेरा डाल बैठे गए। कुछ मीडिया वालों ने तो उस घटना का वर्णन क्रांति की शुरुआत… के रूप में किया। मैंने आगे कहा कि ‘इतने दिनों तक लोग यह अन्याय, अत्याचार कैसे सहते रहे? पुलिस द्वारा गिरफ्तारी के बाद सुरक्षा बलों की उपस्थिति रहते हुए सार्वजनिक क्षेत्र में अक्कू यादव की हत्या अगर किसी को क्रांतिकारी कदम लगता है तो यह उनके बौद्धिक दिवालिएपन का लक्षण है।’ इस भाषण के बाद तथाकथित क्रांतिकारी लोगों ने मुझे नपुंसक से लेकर क्रांतिविरोधी आदि शब्दों से मेरा सम्मान किया।

अतीक अहमद हो या सोहराबुद्दीन या अक्कू यादव या दाऊद इब्राहिम या अरुण गवळी या छोटा राजन या इसके पहले के करीम लाला, हाजी मस्तान, सुकुर नारायण बखिया, छोटन शुक्ला, महादेव सिंह, कोल माफिया सूरजदेव सिंह, ठाकूर बंधू, पप्पू कलानी (अगर मैं नाम गिनने लगूंगा तो यह पोस्ट भर जाएगी।) ये सब के सब राजनीतिक संरक्षण में पले-बढ़े लोग थे।

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भारत के हर क्षेत्र में इस तरह के लोग हमेशा से ही मौजूद हैं और आगे भी रहने वाले हैं, क्योंकि देश की संसदीय राजनीति के लिए गत 70 साल में यह आवश्यक मुद्दा बन गया है। मैंने बंगाल में 1982-1997 तक यानी 15 साल तक कोलकाता प्रवास के दौरान देखा है कि ज्योति बसु हों या बुद्धदेव भट्टाचार्य, दोनों के रहते हुए तथाकथित लेफ्ट फ्रंट की सरकार के दौरान कम्युनिस्ट भाषा में लुंपेन बंगाल की राजनीति में हावी थे। उधर, मेरे गृहराज्य महाराष्ट्र में बाळासाहेब ठाकरे छाती ठोककर भरी सभा में कहा करते थे कि ‘अगर दाऊद इब्राहिम है तो हमारे पास अरुण गवळी है।’ दुबई में बैठा हुआ दाऊद इब्राहिम कहता था कि ‘बालासाहब गलत बोल रहे हैं। मेरी गैंग में सबसे ज्यादा हिंदू शामिल हैं। उदाहरण के लिए छोटा राजन वगैरह।”

1993 में तत्कालीन गृहसचिव एनएन वोरा की रिपोर्ट का टाइटल ही था “The criminalization of politics and of the nexus among criminals, politicians and bureaucrats in India.’ आज तीस साल हो रहे हैं इस रिपोर्ट को आए हुये। लेकिन इस दरम्यान गुजराल, चंद्रशेखर, देवगौड़ा, नरसिंह राव, अटलबिहारी वाजपेयी, मनमोहन सिंह और उनके बाद गत नौ सालों से पार्टी विथ डिफरंस वाली बीजेपी सभी ने अपराधियों को अधिक से अधिक संरक्षित किया। उन्हें टिकट दिया और विधानसभाओं तथा संसद में पहुंचाया। राजनीतिक दलों में शामिल होने वाले अपराधियों का झुकाव और पार्टियों की अपेक्षा हमेशा ही सत्ताधारी में अधिक होता है। क्योंकि अपराधियों को सुरक्षित रखने के लिए सत्ताधारी दल का होना जरूरी है। उन राजनीतिक दलों को अपनी राजनीति के लिए विशेष रूप से अपराधियों की मदद आवश्यक है। वर्तमान सत्ताधारी दल की संसदीय राजनीति का जायजा लेने से पता चलता है कि बहुत बड़ी संख्या में पार्टी विथ डिफरंस के अंदर भी आपराधिक पृष्ठभूमि के विधायक, सांसद और मंत्री शामिल हैं।

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इतिहास के क्रम में अपराधियों ने समय-समय पर सत्ताधारी दल का दामन थामा है। वर्तमान सत्ताधारी दल के मुख्यमंत्री पदों पर बैठे हुए लोगों से लेकर केंद्रीय मंत्रियों के अपराधियों के रिकॉर्ड रहे हैं। फिर कौन-किसके ऊपर कारवाई करेगा? उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री किस-किस को मिट्टी में मिला देंगे? फिर तो उन्हें अपने आप से ही शुरुआत करनी होगी। इसमें लखीमपुर खीरी के विवादास्पद भारत के गृह राज्यमंत्री अजय मिश्रा टेनी, और शायद गृहमंत्री भी शामिल हो जाएंगे। योगी आदित्यनाथ जैसे दहाड़ते हुए बोल रहे हैं कि ‘मैं भ्रष्टाचार और कालाबाजारी करने वाले लोगों को फांसी पर लटका दूंगा…’ तो हंसी आती है और यह सोचना पड़ता है कि ‘वह दौर भी आपको कालाबाजार से ही लाना पड़ेगा!’

 

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