Thursday, March 28, 2024
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महिलाओं के लिए प्रेरणादायक है कस्तूरबा का संघर्ष

कस्तूरबा गांधी ‘बा’ की जयंती पर दख़ल के सदस्यों ने किया स्त्री विमर्श वाराणसी। कस्तूरबा गांधी ‘बा’ के जयंती पर गाँधी घाट (सुबह-ए बनारस-मंच अस्सी घाट के दक्षिण ओर) पर दख़ल संगठन ने उनको श्रद्धांजलि अर्पित कर उनके जीवन-संघर्ष पर विस्तृत चर्चा की। ज्ञातव्य है लैंगिक मसलों और नारीवादी चेतना के साथ काम करने वाले […]

कस्तूरबा गांधी ‘बा’ की जयंती पर दख़ल के सदस्यों ने किया स्त्री विमर्श

वाराणसी। कस्तूरबा गांधी ‘बा’ के जयंती पर गाँधी घाट (सुबह-ए बनारस-मंच अस्सी घाट के दक्षिण ओर) पर दख़ल संगठन ने उनको श्रद्धांजलि अर्पित कर उनके जीवन-संघर्ष पर विस्तृत चर्चा की।

ज्ञातव्य है लैंगिक मसलों और नारीवादी चेतना के साथ काम करने वाले संगठन दख़ल की ओर से सार्वजनिक स्थानों पर महिला जागरूकता एवं अधिकारों के बारे में प्रत्येक सप्ताह आयोजन के साथ-साथ सदस्यता अभियान चलाया जाता है। इसी कड़ी में आज महान स्वतंत्रता सेनानी शहीद कस्तूरबा गांधी को याद करते हुए चर्चा आयोजित की गयी।

वक्ताओं ने कहा कि कस्तूरबा गांधी ‘बा’ को लोग महात्मा गांधी से ही जोड़कर देखते हैं जबकि उनका अपना अस्तित्व और संघर्ष था। जीवन के जिस उतार-चढ़ाव को उन्होंने देखा और दृढ़ता से खड़ी रहीं वो आज हर महिला के लिए प्रेरणादायक है। गांधी के वैचारिक आंधी पर जिसने काबू पाया, वह कस्तूरबा हैं। गांधी के बनने की साक्षी, उनके अंतर्द्वन्द को देखने की साक्षी, उनकी गलतियों को बर्दाश्त करने वाली तथा अच्छाइयों पर रीझ जाने वाली काया का नाम है, कस्तूरबा। उन्हीं कस्तूरबा का आज जन्मदिन है। 11 अप्रैल, 1869 में उनका जन्म हुआ था।

कस्तूरबा गांधी का राजनीतिक जीवन 1904 में शुरू हुआ, जब उन्होंने अपने पति महात्मा गांधी के साथ दक्षिण अफ्रीका में डरबन के पास फीनिक्स बस्ती स्थापित करने में मदद को पहुँचीं। बच्चों को पालना, उन्हें स्वास्थ्य लाभ पहुँचाना, बच्चों की पढ़ाई और उन्नति की फिक्र के साथ ही गांधी की अनिश्चित ज़िन्दगी से तालमेल बैठाना, आज़ादी की लड़ाई लड़ना, जेल जाना और साथियों की फिक्र करना बा की पहचान थी। जैसे महात्मा गांधी बनना असम्भव है, ठीक वैसे ही कस्तूरबा बन पाना भी असम्भव है।

कस्तूरबा गांधी के चित्र पर दीपांजलि करते दख़ल के सदस्य

अनपढ़ होने के बावजूद बा दो छोटे बच्चों के साथ निडर होकर साउथ अफ्रीका चल दीं। जिसने घर की दहलीज़ भी न लांघी हो, वह पानी के जहाज़ से एक अलग मुल्क रवाना हो गईं। महात्मा गांधी के बुलावे पर बच्चों के साथ इतना लंबा सफ़र मायने रखता है। जब जहाज़ रुका तो गाँधी उन्हें लेने नहीं आ सके। उनसे मिले पते को ढूंढकर बा बच्चों के साथ महात्मा गांधी के पास पहुँची। उसके बाद महात्मा गांधी का ऐसा सहारा बनीं कि दुनिया ने पहला गांधी आश्रम देखा। महात्मा गाँधी के हर आश्रम की वह जान थीं फिर चाहे फीनिक्स आश्रम हो, चाहे साबरमती, चाहे चंपारण, चाहे सेवाग्राम। सबकी रूह, सबका आध्यात्म कस्तूरबा ही थीं। गांधी के आश्रम में औरतों, बच्चों और बुज़ुर्गों के बेधड़क रुकने की सबसे बड़ी वजह थीं कस्तूरबा। पोरबंदर और राजकोट से गाँधी के साथ चलीं कस्तूरबा ज़िन्दगी के हर उतार-चढ़ाव देखती आगा खां पैलेस में महात्म गांधी के सामने ही आखरी सांस लेकर संसार से विदा हो गईं।

आज होना तो यह चाहिए कि बा के सामने श्रद्धा और कृतज्ञता से लोगों का सिर झुक जाए। आने वाली पीढ़ी को भी कस्तूरबा के कार्यों और संघर्षों के बारे में जानना चाहिए ताकि वे भी बा नमन कर सके।

ब्रिटिश सरकार के खिलाफ आजादी की लड़ाई लड़कर बैरिस्टर मोहनदास करमचंद गांधी महात्मा गांधी बने। देश के लिए इन्होंने इतना त्याग और संघर्ष किया कि देशवासियों ने इन्हें राष्ट्रपिता का दर्जा दे दिया। ये सब महात्मा गांधी अकेले कभी नहीं कर पाते, इस काम में उनकी पत्नी कस्तूरबा ने तन-मन से साथ दिया था। कस्तूरबा ढाल बनकर महात्मा गांधी के लिए खड़ी रहीं। कस्तूरबा भी गांधीजी की तरह स्वतंत्रता सेनानी थीं। उन्होंने बापू के साथ सारे दुख-सुख बांटे। ऐसा कहा जाता हैं कि कस्तूरबा को पहले निमोनिया हुआ उससे वो ठीक हो गई थीं लेकिन फिर उन्हें दो बार दिल का दौरा पड़ा, जिसके बाद 22 फरवरी, 1944 को उनका देहांत हो गया। कस्तूरबा गांधी की जब मृत्यु हुई तब वह 74 साल की थीं।

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कस्तूरबा ने खुद को पल-पल तराशा, ऐसे ही हर इंसान खुद को तराश सकता है। बशर्ते वह अच्छा इंसान बनना चाहे। दूसरे धर्म, दूसरी जाति, दूसरी भाषा, दूसरे भोजन, दूसरे देश को लेकर कस्तूरबा के मन में भी प्रश्न और संकोच थे। संकीर्णता और सीमाएं थीं मगर कस्तूरबा ने एक-एक कर सबसे पहले स्वयं को स्वतंत्र किया। अपनी बेड़ियां काटी और इतनी ऊंची शख्सियत गढ़ी कि ब्रिटेन की महारानी भी उनके सामने लरज़ गईं। कस्तूरबा ने गांधी में ममतत्त्व डाला तो गांधी ने कस्तूरबा के दिल की गिरह खोली। इस तरह दुनिया को एक ऐसी जोड़ी मिली, जिसने आदम हव्वा, एडम ईव, मनु सतरूपा की परम्परा को आगे बढ़ाया। दोनों ने सबको अपने बच्चों की तरह चाहा और उन्हें प्यार दिया।

बापू और उनके आसपास के वातावरण को दलित राजनीति के कई झंडाबरदार तीखी आलोचना का शिकार बनाते रहे। महान अपरिग्रही बापू और उनकी सहचरी कस्तूरबा के अंत समय के बाबत दख़ल के सदस्यों ने एक बेहद मार्मिक प्रसंग बताया- मनु से बा ने कहा कि मेरी पेटी ले आना। टीन की कनस्तर वाली पेटी में कस्तूरबा का खजाना था, बापू के हाथों से बनी खादी की दो साड़ियां। बा ने कहा कि एक साड़ी मेरे मरने के बाद मुझपर डाल देना और साड़ी सहलाने लगीं। मनु उत्सुकता से सोचने लगी कि ये दूसरी साड़ी किसे देंगी? ये अनमोल खजाना जो कि बापू के हाथों से बुना हुआ है और कस्तूरबा के पास सेलेक्टेड ही हैं। वो अनमोल तोहफा किसके हिस्से आएगा? कस्तूरबा ने तभी कहा कि इस साड़ी को लक्ष्मी को दे देना। बा अपने जीवन व्रत का उद्यापन कर रही थीं। लक्ष्मी साबरमती आश्रम के हरिजन परिवार की वह लड़की थी जिसके आश्रम में आने के बाद बड़े-बड़े दानदाता बापू को चंदा देना बंद कर दिए थे। इसको लेकर आश्रम के अंदर और बाहर बहुत खींचतान मची थी। आज उस आश्रम की मुख्य संचालिका अपने महाप्रयाण के पहले अपनी निजी संपत्ति का हिस्सेदार बना रही थी।

आज बा का जन्मदिन है, मां का जन्मदिन, सुभाष चंद्र बोस ने उन्हें राष्ट्र माता कहकर संबोधित किया है, नमन है मां को…!

कार्य्रकम के दौरान मुख्य रूप से नीति, शालिनी, रैनी, नन्दिनी, धनंजय, राजेश, शिवम, नवीन और इन्दु शामिल रहे।

इन्दु दख़ल संगठन से जुड़ी हैं।

गाँव के लोग
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