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‘लागा चुनरी में दाग’ और ‘लागल जोबनवा में चोट ‘डायरी (13 सितंबर, 2021)

स्त्रियों के विषय में स्पष्टवादी लेखिकाओं में नीलिमा चौहान बेहद खास हैं। वह ऑफिशियली पतनशील की लेखिका भी हैं। उनके विचार और शब्दों का चयन उन्हें बेहद खास बना देता है। वे अपने विचारों में खास यह करती हैं कि स्त्री विमर्श को योनि की शुचिता तक सीमित नहीं रखतीं। स्त्री-पुरुष के बीच संबंधों में […]

स्त्रियों के विषय में स्पष्टवादी लेखिकाओं में नीलिमा चौहान बेहद खास हैं। वह फिशियली पतनशील की लेखिका भी हैं। उनके विचार और शब्दों का चयन उन्हें बेहद खास बना देता है। वे अपने विचारों में खास यह करती हैं कि स्त्री विमर्श को योनि की शुचिता तक सीमित नहीं रखतीं। स्त्री-पुरुष के बीच संबंधों में हो रहे बदलावों पर भी निगाह रखती हैं। हाल ही में फेसबुक पर उनकी टिप्पणी आयी। टिप्पणी में सवाल था – हमेशा चुनरी में ही दाग लगने की बात कही जाती है। कभी धोती, पैंट, कच्छा आदि में दाग लगने की बात क्यों नहीं कही जाती है?

सवाल बेहद दिलचस्प था। दिलचस्प इसलिए कि इस एक सवाल ने भारतीय पितृसत्ता को उघाड़कर रख दिया। हालांकि इस सवाल को लेकर बहस को जिस गंभीरता से आगे बढ़ाया जा सकता था, वह नहीं किया गया। मुझे यकीन है कि इस सवाल को आगे नहीं बढ़ाने में महिला बुद्धिजीवियों की ही दिलचस्पी नहीं रही। पुरुष तो खैर इससे दूर ही रहे। और मैं इस इंतजार में रहा कि यह बहस अब आगे कौन-सा मोड़ लेती है।

[bs-quote quote=”यदि मैं रामायण की ही बात करूं तो पूरे रामायण में एक भी महिला किरदार नहीं है जिसके बारे में ठोस तरीके से कुछ कहा जा सके। दशरथ की तीनों रानियां, उसकी पतोहूओं, रावण की पत्नी मंदोदरी के अलावा शूर्पनखा और अहल्या आदि पात्रों में वह दम नहीं कि कोई उनकी उपमा दे। सीता का तो महिमामंडन कर दिया गया है। आज तो सवर्ण अपनी बेटियों का नाम सीता नहीं रखना चाहते। संभवत: सीता के चरित्र में उन्हें भी दाग नजर आता हो। उनके मन में यह सवाल उठता ही होगा कि उनके मर्यादा पुरूषोत्तम राम ने सीता को तलाक क्यों दिया था।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

उपरोक्त टिप्पणी को अब पंद्रह दिनों से अधिक हो चुका है और मैं साहित्य के बारे में सोच रहा हूं।
मेरी मान्यता है कि साहित्य का समाज पर तात्कालिक प्रभाव भले ही नहीं दिखता हो, लेकिन समय के साथ उसका प्रभाव बढ़ता ही जाता है। शर्त बस इतनी है कि साहित्य उम्दा हो और लोगों की समझ का हो। फिर तो लेखकों को इस बात से निश्चिंत रहना चाहिए कि उनके लिखे का प्रभाव हो रहा है या नहीं। आप अच्छा लिखेंगे तो लोग आपके मरने के बाद सैकड़ों  वर्ष बाद भी खोजकर पढ़ेंगे। नहीं तो लोग आपको वैसे ही भूला देंगे जैसे कि आजकल के हिन्दी फिल्मी गीतों को लोग भूला देते हैं। फिल्मी गीतों में भी साहित्य ही होता है। हालांकि साहित्य के नाम पर नाथ-पगहा तोड़ने वाले ऐसा नहीं मानते हैं।

खैर, नहीं मानने वालों का क्या है, वे तो कुछ भी नहीं मानते। लेकिन इससे साहित्य को क्या? अच्छा साहित्य तो हमेशा से प्रासंगिक रहा है। वैसे अच्छा साहित्य का मतलब यह नहीं है कि वह लोककल्याणकारी साहित्य ही हो। आततायियों को देवतुल्य बताने वाले साहित्य को भी तकनीकी रूप से अच्छा साहित्य कहा जाता है और मेरा प्रस्ताव है कि माना जाना भी चाहिए। अब तुलसीदास का रामायण ही देख लें। एक दम स्पेशल वाइन बन गई है। जितनी पुरानी होती जा रही है, उसका नशा बढ़ता ही जा रहा है। शायद ही कोई ऐसा दिन होगा जब रामायण के पात्रों का उपयोग भारत के सियासी गलियारे में नहीं होता हो।

रामायण के पात्रों से एक बात जेहन में आयी है। जितनी चर्चा राम की होती है, उससे अधिक चर्चा रावण की होती है। और यह भी नहीं कि रावण केवल नकारात्मक कारणों से याद किया जाता है। रावण की चर्चा सकारात्मक अर्थों में ही होती है। दक्षिण के राज्यों में तो जनता का राजा कहा जाता है। हमारे गाय प्रदेशों में भी रावण को ब्राह्मण कहा गया है। वह भी उच्च कुल का ब्राह्मण। शिव का ऐसा भक्त जिससे शिव भी खौफ खाते रहे। एक पात्र और है जिसकी मिसाल आज भी कायम है। यह पात्र है विभीषण।

[bs-quote quote=”अच्छा साहित्य तो हमेशा से प्रासंगिक रहा है। वैसे अच्छा साहित्य का मतलब यह नहीं है कि वह लोककल्याणकारी साहित्य ही हो। आततायियों को देवतुल्य बताने वाले साहित्य को भी तकनीकी रूप से अच्छा साहित्य कहा जाता है और मेरा प्रस्ताव है कि माना जाना भी चाहिए। अब तुलसीदास का रामायण ही देख लें। एक दम स्पेशल वाइन बन गई है। जितनी पुरानी होती जा रही है, उसका नशा बढ़ता ही जा रहा है। शायद ही कोई ऐसा दिन होगा जब रामायण के पात्रों का उपयोग भारत के सियासी गलियारे में नहीं होता हो।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

अक्सर जब मैं इस पात्र के बारे में सोचता हूं तो लगता है कि इसके साथ सबने गद्दारी की। पहले तो रावण ने इसे प्रताड़ित किया और हो सकता है कि राजा बनने के लोभ में उसने राम का साथ दिया। राम ने भी विभीषण के साथ अच्छा सुलूक नहीं किया। लंका का राजा तो जरूर बना दिया लेकिन उसे इस कलंक से मुक्ति नहीं दिला सका कि उसने सबकुछ सत्ता पाने के लोभ में किया। कहीं सत्य-असत्य, पाप-पुण्य, सही-गलत की लड़ाई नहीं थी। राम लंका को उपनिवेश बनाना चाहता था, उसने बना लिया।

अभी बहुत अधिक दिन नहीं हुए। 2015 में जब बिहार में विधानसभा का चुनाव हो रहा था तब जीतनराम मांझी को नीतीश कुमार ने विभीषण कहा था। तब हालात यह था कि नीतीश कुमार एनडीए से अलग होकर राजद महागठबंधन का हिस्सा हो गए थे और जीतनराम मांझी भाजपा के साथ चले गए थे। तब यह बयान आया था नीतीश कुमार का – मांझी विश्वासघाती, विभीषण को माफ नहीं करती जनता : नीतीश।

तो भारत के सियासी गलियारे में कब कौन राम बन जाएगा, कब कौन रावण और कब कौन विभीषण, कहना मुश्किल है। कल रामविलास पासवान की पहली पुण्यतिथि थी। जानकारी मिली कि उनके पुत्र चिराग पासवान ने पटना में शानदार भोज का आयोजन किया। आयोजन में खाने-पीने का विशेष प्रबंध था। बिहिंया की पूड़ी से लेकर बुंदिया और कई प्रकार की तरकारी व रतोआ (रायता) के साथ मिठाइयां भी थीं। एक पत्रकार साथी ने इस संबंध में चटखारे लेकर जानकारियां साझा की। उन्होंने यह भी बताया कि बरसी के भोज में तमाम नेतागण आए। एक नीतीश कुमार और रामविलास पासवान के भाई और अब उनकी जगह अनुकंपा के आधार पर केंद्रीय मंत्री पशुपति कुमार पारस नहीं आए। दोनों क्यों नहीं आए? कोई खास वजह? जवाब मिला कि दोनों विभीषण हैं। विभीषणों के आने और नहीं आने का कोई खास मतलब नहीं रह जाता।

ओह, कहां मैं सियासत के गलियारे में फंस गया। वहां तो ऐसे आयोजन होते ही रहते हैं। भोज की राजनीति बिहार में बेहद लोकप्रिय रही है। मैं तो नीलिमा चौहान की टिप्पणी के बारे में सोच रहा था कि हमेशा चुनरी में ही दाग लगने की बात क्यों कही जाती है?

मुझे लगता है कि वर्तमान का काल (नरेंद्र मोदी का काल नहीं, मेरा आशय 1990 के बाद से है) भारतीय महिलाओं के लिए सबसे खूबसूरत काल है। यह कबतक खूबसूरत रहेगा, इसकी भविष्यवाणी नहीं कर सकता। वजह यह कि जिस तरह से भारत में हिंदुत्व का प्रभाव बढ़ रहा है, उसके हिसाब से इस बात की संभावना अधिक है कि इस देश में पुरुष राम के जैसे होंगे और महिलाएं सीता के जैसे योनि की पवित्रता साबित करने के लिए अग्निपरीक्षाएं बार-बार देंगी। या फिर यह भी संभव है कि आरएसएस उन्हें घर में नजरबंद कर देगा ताकि उनकी चुनरी में दाग न लगे, फिर बेशक उसकी अपनी धोती या अन्य वस्त्रों पर दाग लगता रहे।

कई बार मुझे लगता है कि आरएसएस का साहित्य से कोई लेना-देना ही नहीं है। यदि मैं रामायण की ही बात करूं तो पूरे रामायण में एक भी महिला किरदार नहीं है जिसके बारे में ठोस तरीके से कुछ कहा जा सके। दशरथ की तीनों रानियां, उसकी पतोहूओं, रावण की पत्नी मंदोदरी के अलावा शूर्पनखा और अहल्या आदि पात्रों में वह दम नहीं कि कोई उनकी उपमा दे। सीता का तो महिमामंडन कर दिया गया है। आज तो सवर्ण अपनी बेटियों का नाम सीता नहीं रखना चाहते। संभवत: सीता के चरित्र में उन्हें भी दाग नजर आता हो। उनके मन में यह सवाल उठता ही होगा कि उनके मर्यादा पुरूषोत्तम राम ने सीता को तलाक क्यों दिया था। कोई न कोई वजह तो होगी ही।

खैर, कहां मैं आज बकवास साहित्य रामायण के फेर में फंस गया। यह भी कोई साहित्य है।

लागा चुनरी में दाग के तर्ज पर फणीश्वरनाथ रेणु का मैला आंचल है। 1954 में प्रकाशित यह रचना कालजयी रचना है। इसके पात्र तो रामायण के सभी पात्रों पर भारी पड़ते हैं और समय के हिसाब से महत्वपूर्ण होते जाते हैं। राधा कोठारिन और कमली का किरदार आपको सोचने के लिए बाध्य कर देगा। लेकिन मैं शीर्षक के बारे में ही सोच रहा हूं। आंचल ही मैला क्यों हो? यदि मैला आंचल के बजाय कुछ और होता तो क्या होता?

बहरहाल, कल देर रात क्लासिकल ठुमरी सुनता रहा और कुछ काम की किताबें पढ़ता रहा। पढ़ते वक्त संगीत सुनने की बीमारी किशोरावस्था से है। अब लगता है कि यह यूं ही रहे। कल एक ठुमरी के बोल थे – लागल करेजवा में चोट। अचानक मेरा ध्यान टूट गया। लागल करेजवा में चोट! इसके पहले एक ठुमरी के बोल थे – लागल जोबनवा में चोट। बाकी सारे शब्द कॉमन। जोबनवा और करेजवा में आखिर अंतर क्या है?

मुझे लगता है कि इसी अंतर में निहित है महिलाओं की आजादी के सीमित होने का इतिहास। औरतें जब आजाद थीं तब कहती होंगी – लागल जोबनवा में चोट। जोबनवा मतलब योनि भी हो सकता है। बाद में जब मर्दों ने देखा कि महिलाएं अधिक आजाद हो रही हैं तो उसने कहा कि जोबनवा को करेजवा से रि-प्लेस कर दो। यह सुनने में जरा अच्छा लगता है।

सचमुच कितना अजीब है मर्दवादी नजरिए से महिलाओं के शब्दों को देखना। माहवारी को भारत के मर्दों ने मासिकधर्म बना दिया। मतलब यह कि हर महीने रजस्वला होने वाली महिलाओं के लिए यह धर्म है कि वह चार-पांच दिनों तक खुद को अपवित्र मानें। अब यह भी कोई बात हुई। माहवारी एक सामान्य शारीरिक प्रक्रिया है। इसका धर्म से क्या लेना-देना?

धन्य है भारत के द्विजवादियों की सोच। जिस योनि से जन्म लेते हैं, उसे ही अपवित्र भी कहते हैं।

 

नवल किशोर कुमार फारवर्ड प्रेस में संपादक हैं

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2 COMMENTS
  1. साहित्य भी कम दिलचस्प कहाँ है.लोग व्याख्या अपने पक्ष में करते हैं.यह पक्ष ही वर्ग की पहचान है.सीता वाकई बेजोड़ चरित्र है;राधा की तरह नहीं है वह.न राम कृष्ण की तरह लंपट हैं.खैर,यह डायरी भी चोली के पीछे की वार है!

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